शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

कहानी

सपने का सच तुम्हारा सच
ठीक पचास साल पहले के कल्पनापुरम की बात है। गर्मियों के दिन थे। बैशाख-जेठ के आकाश में बादल फाड़कर गर्मी बरस रही थी। सौ-पचास घरों के धूल भरे कस्बे में मनुष्य और पशु-पक्षी भाड़ में झोंके गए चनों की तरह अनुभव कर रहे थे। कोयल-कबूतरों के मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे।
आम-जामुन की पत्तियाँ असमय सूख कर गिर रही थीं। जमीन में ये बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई थीं। नलों की टोंटियाँ सूखे के दर्द से कराह रही थीं। धूप में इतनी तेजी थी कि अगर दाल-चावल में पानी डालकर पतीला खुले में रख दो तो घड़ीभर बाद खिचड़ी तैयार मिलती।
टीले के परली तरफ, जहाँ अब्बू और सुहानी अपनी अम्मी-दादू के साथ रहते, यही हालत थी। लेकिन दोनों बच्चों की चटर-पटर के कारण उनके टीन-टापरे के नीचे खुशनुमा माहौल बना रहता। दादू कहते कि गर्मी तो प्रकृति का फेर है। आज गर्मी है तो कल वर्षा होगी, फिर सर्दी आएगी। इसलिए खुश रहो। दादू का कहा मानकर अम्मी खुश रहती।

घर में जिस दिन जो है उसे ठीक-ठीक सबको परोस देती। यानी बच्चों को थोड़ा ज्यादा, बापू को ज्यादा। उसके बाद कम-ज्यादा कहने के लिए बचता ही बहुत थोड़ा। फिर भी यह देखकर खुश रहती कि सब खुश हैं।

ऐसे ही एक दिन सुबह अब्बू और सुहानी चाय-रोटी का नाश्ता कर रहे थे। गर्मी अभी बढ़ी नहीं थी। अब्बू और सुहानी लाल फूलों से लदे सेमल के नीचे बैठे थे। छोटी-छोटी चिड़ियाँ हल्की-मीठी चहकती टहनियों पर फुदक रही थीं। अब्बू को लगा कि उसने कहीं घंटियों को बजते हुए सुना।

यह आभास नहीं था क्योंकि सुहानी को भी घंटियों की आवाज सुनाई दी और साथ में गीत की पंक्तियाँ भी- आओ मेरे साथ चलो, जहाँ मैं जाऊँ तुम भी साथ रहो। न रहो तुम यदि संग तो, जान न पाओगे कभी जगह वो॥ यह अपने आप में काफी अटपटा गीत था, खासकर जिस तरह से इसे गाया जा रहा था। शरारती और सुनने वाले को बहकाता सा हुआ।

पहले तो अब्बू और सुहानी इसे सुनते रहे फिर हकबका कर अहाते के दरवाजे की ओर भागे। बाहर सड़क पर से कोई गुजर रहा था जो घंटियाँ बजाते हुए इस गीत को गा रहा था। सदर दरवाजे से बाहर निकल कर दोनों ने देखा कि एक साइकल रिक्शा धीमे-धीमे दूर होता जा रहा है। चार साँसों में वह सड़क मोड़ पर आँखों से ओझल हो गया।

इस इलाके में साइकल रिक्शा यों भी कभी नजर नहीं आता था। रंग-बिरंगी पताकाओं से सजा यह एक अजूबा था। मानो किसी दिलखुश राजकुमारी की सवारी हो। अब्बू और सुहानी कुछ दूर उस रिक्शा के पीछे दौड़े लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि ऐसा करना बेकार है।

घर लौटने के बाद उन्होंने हाँफते हुए दादू और अम्मी को अनोखे रिक्शे के बारे में बताया। धूप तेज होने से पहले दादू को काम जाना था सो वे मुस्कुराए और घर से बाहर निकल गए। अम्मी वैसे ही खुश, मुस्कुराती रहती थी इसलिए उनके चेहरे पर खास बदलाव नहीं आया। दिन चढ़ आने के बाद रोज की तरह अब्बू और सुहानी इमली सर्कस पहुँचे।

पहाड़ी का ऊपरी हिस्सा सुनसान रहता था। वहाँ इमली का एक बहुत बड़ा पेड़ था। अभी तक किसी ने उसकी पतली से पतली टहनी तक काटी नहीं थी। इसलिए इमली का यह पेड़ इतना विशाल हो गया था मानो सर्कस का तंबू हो। हालाँकि कल्पनापुरम में कभी कोई सर्कस नहीं आया था, न ही किसी बच्चे ने देखा था। यह नाम ताऊ मास्टर का दिया हुआ था।

ताऊ-मास्टर कस्बे के सबसे बूढ़े व्यक्ति थे। कस्बे की इकलौती पाठशाला में वे पढ़ाते और गर्मी की छुट्टियों में बकरियाँ चराने के लिए इस पेड़ की छाँव में आ बैठते। कितने ही तरह के फुरसती जीव गर्मी की दोपहर काटने के लिए इस पेड़ तले इकठ्ठा होते और सर्कस-सा मजमा लग जाता।

पहले तो बच्चे इस वाकए को मजेदार सपना मानकर सुनते रहे। ऐसा सच में हुआ होगा। मानने के लिए कोई तैयार न हुआ। इस घटना को लेकर सब बच्चे ताऊ-मास्टर के पास पहुँचे। ताऊ-मास्टर ने पहले सारी बात ध्यान से सुनी और चुपचाप अपनी सफेद मुलायम दाढ़ी पर हाथ फेरते रहे।

काफी देर बाद उन्होंने अपना गला साफ किया। फिर आहिस्ता से बोले-यदि अब्बू और सुहानी ने सच में ऐसा कोई रिक्शा देखा है तो वह रिक्शा सच है। अगर बाकी बच्चे सोचते हैं कि रिक्शा एक सपना है तो वह सपना है।

ताऊ मास्टर का कहा किसी को समझ में नहीं आया और सब बच्चे यहाँ-वहाँ बिखर गए और थोड़ी ही देर में रिक्शे वाली बात आई-गई हो गई। अब्बू और सुहानी बड़े निराश हुए। चेहरों पर छाई उदासी देखकर माँ ने उन्हें समझाया- देखो, यदि वह रिक्शा सच में है तो वह तुम्हें फिर से दिखाई देगा। और ऐसा ही हुआ। एक सुबह फिर से घंटियों के स्वर गूँजने लगे।
अब्बू और सुहानी अपनी चाय-रोटी छोड़कर बाहर की ओर भागे। सड़क पर रिक्शा आगे बच्चे पीछे भाग रहे थे। देखने में तो रिक्शा धीमे-धीमे और बच्चे तेज भाग रहे थे फिर भी वे उसे पकड़ नहीं पा रहे थे। थोड़ी दूर तक भागने के बाद सुहानी थक कर रुक गई।

अब्बू दौड़ता रहा। वह नहीं चाहता था कि रिक्शा छूट जाए और सपना बनकर रह जाए।

सब कुछ भूलकर, या यों कहें कि भुलाकर अब्बू रिक्शे के पीछे दौड़ता जा रहा था। धीरे-धीरे वह कल्पनापुरम से दूर होता गया। सड़क की दोनों ओर के सूखे खेत खत्म हुए और बंजर जमीन आ गई। कहीं-कहीं चरती हुई गाय-भैंसें और गधे दिखाई दे रहे थे, वे भी गायब हो गए। निर्जन रास्ते पर वे दोनों ही थे। आते-जाते ताँगे और बैलगाड़ियाँ भी नहीं।

अब्बू को ध्यान में ही नहीं आया कि आसपास की सारी वस्तुएँ-नजारे कब अदृश्य हो गए और चारों ओर नीला-नीला छा गया। अब्बू को लगा मानो वह बादलों पर बैठा है। तभी जोर की गड़गड़ाहट होने लगी। बिजलियाँ चमकने लगीं और वर्षा होने लगी। वर्षा के साथ हवा में तैरते हुए अब्बू नीचे आने लगा। आश्चर्य की बात यह रही कि वह ठीक कल्पनापुरम में जा उतरा।

वर्षा आने की खुशी में नाच-गा रहे लोगों के ऐन बीच में। लोग उत्तेजित थे कि उनका अपना अब्बू आकाश से पानी लेकर आया है। सुहानी नाच रही थी कि उनकी बातों को अब कोई झूठ नहीं कहेगा। अब्बू के दोस्त पानी में भीगते हुए कूद रहे थे।

दूर खड़े दादू-अम्मी के चेहरों पर वैसी ही खुशी दिखाई दे रही थी। फिर भीड़ में से ताऊ-मास्टर निकले। धीरे-धीरे वे अब्बू के पास आए। अपनी दाढ़ी पर से पानी की बूँदें सोरते हुए उन्होंने कहा कि तुम अगर सपने को सच मानते हो तो वह सच होकर ही रहेगा।

होली की मस्ती

अमिताभ बच्चन
होली रंग और मस्ती का त्योहार है और मुझे लगता है कि यह सिर्फ रंग का उत्सव ही नहीं, बल्कि इंसानों के बीच आपसी रिश्तों को जोड़ने वाला त्योहार है। फिल्मी परदे पर भी मैं होली की मस्ती को अपने किरदार में इसलिए ढालने में सफल रहा हूँ क्योंकि मुझे वास्तविक जिंदगी में यह त्योहार काफी खुशी प्रदान करता रहा है । रंगों में पुते रंगे चेहरों में एक आत्मीयता का बोध होता है। हम एक-दूसरे के चेहरे पर रंग गुलाल लगाकर, पिचकारियों से रंग छोड़कर उत्साहित ही नहीं होते, वरन अपनी आत्मीयता का प्रदर्शन भी करते हैं। क्योंकि यह एक दिन ऐसा होता है जिसमें रंग के स्पर्श, गंध और गुलाल-अबीर से आपसी रिश्तों की अनुभूति होती है। मैं होली अपने ढंग से मनाता रहा हूँ। मुझे और मेरे परिवार के सभी सदस्यों को बचपन से ही होली पसंद रही है और हम सब इसका भरपूर आनंद उठाते हैं।
सुष्मिता सेन
जब से मुंबई में हूँ, होली के दिन घर पर ही रहना ज्यादा पसंद करती हूँ। हाँ, कुछ दोस्त आ जाते हैं। एक-दूसरे को शुभकामनाएँ देने के साथ गाल पर अबीर-गुलाल लगा लेते हैं लेकिन दिल्ली में तो होली के दिन सुबह से दोपहर तक अपने दोस्तों की टोली के साथ रंगों में ही डूबी रहती थी। रंग और गुलाल की मस्ती ऐसी चढ़ती थी कि भूख-प्यास भी नहीं लगती थी। मुंबई में एकाध बार होली खेली जरूर, पर वह आनंद और मस्ती नजर नहीं आई जिसे कभी दिल्ली में रहकर मैंने उठाया था ।
प्रियंका चोपड़ा
मेरे लिए हर त्योहार का दिन खास होता है, चाहे वह होली हो या दिवाली। स्कूल और कॉलेज के दिनों में मैंने होली में खूब मस्ती की है, होली के तीन-चार दिन पहले से ही यह मस्ती शुरू हो जाती थी। पिता के आर्मी में होने के कारण जहाँ भी उनकी पोस्टिंग रही, सारे अधिकारियों के परिवार वालों के साथ खूब मस्ती की। लेकिन जबसे फिल्मी दुनिया में आई हूँ मस्ती जरूर कम हो गई है। लेकिन होली के दिन रंग-गुलाल खेलना छूटा नहीं हैं। मुझे होली का त्योहार बहुत ही पसंद है क्योंकि यह एक ऐसा त्योहार है जिसमें आप छोटे-बड़े का फर्क नहीं करते।
अक्षय कुमार
होली का त्योहार मेरे लिए अब अपने बच्चों की खुशी में तब्दील हो गया है। इसलिए होली का त्योहार मेरे लिए कुछ वर्षों से अलग महत्व रखता है। घई साहब और अमित जी के यहाँ होली के दिन अलग ही माहौल में मैंने रंग खेला और रही आरके की होली की बात तो मैंने उनकी होली देखी नहीं, उसके बारे सुना और पढ़ा जरूर हूँ। लेकिन अपने बच्चों और सोसाइटी के लोगों के साथ होली खेलता हूँ। मुझे सूखे रंगों अबीर और गुलाल से होली खेलना पसंद है।

रितिक रोशन
PRमुझे तो सबसे पहले यह कहना है कि होली के दिन जो लोग नशा करते हैं और फिर नशे की हालत में ऊल-जुलूल हरकतें करते हैं उन पर मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आता है। होली खुशी का त्योहार है, रंग खेलिए अबीर-गुलाल लगाइए। न कि नशा कीजिए। इसीलिए मैं केवल रंगों की मस्ती में शामिल होता हूँ और मुझे रंगों में डूबना अच्छा भी लगता है। अमित जी के बंगले में बचपन से ही मैं होली के दिन जाता रहा हूँ। प्रतीक्षा में अभिषेक ने हर बार मुझे रंगों के टब में डुबोया है और हमने एक-दूसरे को खूब रंग भी लगाया है। मुझे दूसरों को रंग लगाने में भी बड़ा मजा आता है।

फिल्मों में होली
अब जिस तरह की फिल्में बन रही हैं, उनमें दिलों को जोड़ने वाले पर्वों को दिखाने की गुंजाइश बहुत है लेकिन ऐसा बहुत कम हो रहा है। फिल्मों का शौक रखने वाले युवा वर्ग की रूचि भी बदल रही है। शायद यही वजह है कि फिल्मों से होली कहीं दूर जाती नजर आ रही है।
होली हो और फिल्मों की बात न हो, ऐसा संभव नहीं। होली के रंग अकसर रूपहले पर्दे पर बिखरे दिखाई देते हैं। बॉलीवुड के कई निर्देशकों ने फिल्मों में होली का रंग डाला है। कई फिल्मों में होली के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी होली के दिन वह दिनभर सुनाई देते हैं।
दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ में होली नजर आई। फिल्म के निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने 1944 में होली का दृश्य शूट करके एक इतिहास रचा। फिल्मों में होली का रंग दिखाने में फिल्मकार यश चोपड़ा ने सभी निर्देशकों को पीछे छोड़ दिया।
यश चोपड़ा ने ‘सिलसिला’ में ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ के रूप में बॉलीवुड को होली का लोकप्रिय गाना दिया। इसके बाद ‘मशाल’ में ‘होली आई, होली आई, देखो होली आई रे’, ‘डर’ में ‘अंग से अंग लगाना’ और बाद में ‘मोहब्बतें’ में ‘सोनी-सोनी अंखियों वाली, दिल दे जा या दे जा तू गाली’ से चोपड़ा ने बड़े पर्दे पर होली के भरपूर रंग बिखेरे।
फिल्मों में होली का रंग बिखेरने वाले अभिनेताओं में बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन का नाम सबसे आगे आता है। रेखा के साथ ‘सिलसिला’ में रंग बरसाने के लंबे समय बाद अमिताभ ने हेमा मालिनी के साथ ‘बागबां’ में ‘होली खेले रघुवीरा’ के जरिए एक बार फिर पर्दे को रंगीन कर दिया। अमिताभ, विपुल शाह की ‘वक्त’ में अक्षय कुमार और प्रियंका चोपड़ा के साथ ‘डू मी ए फेवर, लेट्स प्ले होली’ गाते हुए भी खासे जँचे।
बॉलीवुड की एक और जोड़ी, धर्मेंद्र और हेमा मालिनी ने होली को फिल्मों में ऐतिहासिक बनाया है। इस जोड़ी पर फिल्माया फिल्म ‘शोले’ का गीत ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं’ आज भी होली की मस्ती में चार चाँद लगा देता है। इसके बाद इस जोड़ी ने फिल्म ‘राजपूत’ में ‘भागी रे भागी रे भागी ब्रजबाला, कान्हा ने पकड़ा रंग डाला’ गाकर भरपूर होली खेली।
बॉलीवुड ने होली के साथ होली के आयोजन का कारण रहे भक्त प्रहलाद को भी फिल्मों में कई बार दिखाया है। भक्त प्रहलाद पर पहली बार 1942 में एक तेलुगु फिल्म ‘भक्त प्रहलाद’ के नाम से बनी, जिसे चित्रपू नारायण मूर्ति ने निर्देशित किया। इसके बाद भक्त प्रहलाद पर वर्ष 1967 में इसी नाम से एक हिंदी फिल्म का भी निर्माण हुआ।
बॉलीवुड में ‘होली’ नाम से अब दो, ‘होली आई रे’ नाम से एक और ‘फागुन’ नाम से दो फिल्मों का निर्माण हो चुका है।
होली से जुड़ा एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि कुछ फिल्मकारों ने इसे कहानी आगे बढ़ाने के लिए उपयोग किया, तो कुछ ने टर्निंग प्वाइंट लाने के लिए। कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने इसे सिर्फ मौज-मस्ती और गाने फिट करने के लिए फिल्म में डाला।
फिल्मकार राजकुमार संतोषी ने अपनी फिल्म ‘दामिनी’ में होली के दृश्य का उपयोग फिल्म में टर्निंग प्वाइंट लाने के लिए किया, जबकि ‘आखिर क्यों’ के गाने ‘सात रंग में खेल रही है दिल वालों की होली रे’ और ‘कामचोर’ के ‘मल दे गुलाल मोहे’ में निर्देशक ने इनके जरिए फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया।
कई फिल्मों में होली के दृश्य और गाने फिल्म की मस्ती को बढ़ाने के लिए डाले गए। ऐसी फिल्मों में पहला नाम ‘मदर इंडिया’ का आता है, जिसका गाना ‘होली आई रे कन्हाई’ आज भी याद किया जाता है। इसके अलावा ‘नवरंग’ का ‘जा रे हट नटखट’, ‘फागुन’ का ‘पिया संग होली खेलूँ रे’ और ‘लम्हे’ का ‘मोहे छेड़ो न नंद के लाला’ गाने ने भी होली का फिल्मों में प्रतिनिधित्व किया।
कई फिल्मों में नायक रंगों के त्योहार होली के माध्यम से नायिकाओं के जीवन में रंग भरने की कोशिश करते भी दिखे। फिल्म ‘धनवान’ में राजेश खन्ना ने रीना रॉय के लिए ‘मारो भर-भर पिचकारी’ गाया’, तो वहीं ‘फूल और पत्थर’ में धर्मेंद्र, मीना कुमारी के लिए ‘लाई है हजारों रंग होली’ गाते दिखे। इसी तरह फिल्म ‘कटी पतंग’ में राजेश खन्ना पर फिल्माए गाने ‘आज न छोड़ेंगे बस हमजोली’ ने आशा पारेख को अपने अतीत की याद दिला दी।
कई फिल्में ऐसी भी रहीं, जिनमें होली के सिर्फ कुछ दृश्य दिखाए गए। केतन मेहता की फिल्म ‘मंगल पांडे’ में आमिर खान होली खेलते दिखे, तो वहीं विजय आनंद ने ‘गाइड’ में ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ गाने में ‘आई होली आई’ अंतरा डाला।

नई जनरेशन और होली
देश के प्रमुख त्योहारों में होली बहुत ही विशेष है। चूँकि इसे मनाने में गाँठ में पैसे होना जरूरी नहीं है अत: इसे देश का गरीब से गरीब आदमी भी मना सकता है। यदि यह भी कहा जाए कि 'ऊँचे लोग, ऊँची पसंद, भूलते जा रहे, होली के रंग' तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।होली और हास्य-मस्ती का चोली-दामन का साथ है। आइए आपको हँसाने के लिए चंद क्षणिकाओं से रूबरू करवाता हूँ।

मुफ्त पिचकारी
मुफ्त पिचकारी का ऑफर पाकर
बच्चे और माँ-बाप दौड़े चले आए।
विक्रेता ने दी मुफ्त पिचकारी और कहा
कृपया इसमें भरे पानी की कीमत चुकाएँ।

मोबाइल
दूर से हमने समझा कि
उनके हाथ में है मोबाइल
रंगे जाने के बाद पता चला
पिचकारी की थी वह नई स्टाइल।
मंडप में खुद आओगी
लिखा है खत में तुमने कि
होली पर नहीं मिलोगी
घर पर ही रहकर
मेरे फोटो को रंगों से रंगोगी।
मुझे गिला नहीं यदि तुम
होली इस तरह मनाओगी
मगर वादा करो शादी के लिए
खुद मंडप में आओगी।
जिस तरह वेलेंटाइन डे जैसे प्यार के दिन को हम भारतवासियों ने अपनाया है उसी तरह होली जैसे त्योहार का भरपूर प्रचार विदेश में रह रहे भारत के नागरिकों को करना चाहिए। इन पंक्तियों के माध्यम से मैं अपनी बात रखना चाहूँगा कि
होली के रंग
रक्षाबंधन के धागे
संक्रांति की पतंग
दिवाली के पटाखे
साथियों खूब खुलकर
वेलेंटाइन डे मना‍ओ
मगर भारतीय त्योहारों को भी तो
जरा विदेशों में पहुँचाओ।
आजकल लड़कियों को बड़ा डर रहता है कि रंग उनकी कोमल त्वचा और बालों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
देखिए इस बारे में ये पंक्तियाँ क्या कहती हैं-
खराब न हो जाएँ
तुम्हारे गेसू
रंगों के लिए इसलिए मैं
जंगल से लाया टेसू
हमारी आधुनिक जनरेशन को टेसू के बारे में बता दें कि यह जंगल में उगने वाला एक फूल है जिसे गर्म पानी में बॉइल करके नेचरल कलर बनाया जाता है जो स्किन फ्रेंडली होता है।
तो फिर देर किस बात की। तुरंत अपने प्रियतम या अपनी प्रेयसी को चेतावनी भरे ये एसएमएस कर दें -
प्रेयसी को,
मेरे रंग तुम्हारा चेहरा
होली के दिन बिठाना पहरा।
दिल तुम्हारा पास है मेरे
अब बचाना अपना चेहरा।

प्रियतम को,
अपने आपको मेरे रंग में
चाहते थे तुम रंगना
यह डियर एसएमएस नहीं चेतावनी है
होली के दिन मुझसे बचकर रहना।

अंत में
रंग यस
भंग यस
रंग में भंग
बस-बस।
यदि आपको होली की उक्त शायरी अच्छी लगी तो अधिक के लिए विजिट करें...।

बजट भाषण में शेरो-शायरी
प्रश्न : दद्दू, लगभग हर रेल और वित्त मंत्री अपने बजट भाषण में शेरो-शायरी को क्यों सम्मिलित करते हैं?
उत्तर- क्योंकि शेरो-शायरी उन्हें विपक्ष की भी तालियाँ दिला देती है।
तीन कंजूस फ्रेंड्‍स
तीन कंजूस फ्रेंड्‍स एक रोज प्रवचन सुनने के लिए गए। प्रवचन के बाद संत ने किसी सत्कार्य के लिए सभी से चंदा देने की अपील करते हुए कहा कि हरेक व्यक्ति कुछ न कुछ जरूर दें।
जैसे-जैसे चंदे वाला थाल कंजूसों के नजदीक आता गया, वे बेचैन हो उठे। यहाँ तक कि उनमें से एक बेहोश हो गया और बाकी दो उसे उठाकर बाहर ले गए।
रमन का पॉकेट
रमन- अपनी पॉकेट में चार-पाँच पत्थर लेकर घूम रहा था।
चमन ने पूछा- तुमने अपनी पॉकेट में पत्थर क्यों रखे हुए हैं।
रमन- क्या तुम्हें नहीं पता, यहाँ जिसका पॉकेट भारी होती है उसी की चलती है।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

मध्यप्रदेश पर्यटन

महाकेदारेश्वर मंदिर
सुशीला परगनिहा
कहते हैं एक बार जिस पर शिव भक्ति का रंग चढ़ जाता है, वो व्यक्ति फिर कहीं नहीं भटकता क्योंकि शिव ऐसे भक्तों को अपनी भक्ति का आशीर्वाद देकर उन्हें अपनी शरण में ले लेते हैं। हमारे आसपास ऐसे कई शिव मंदिर है, जो कई वर्षों पुराने व चमत्कारी हैं।
अभी पुण्य कर्मादि करने का पवित्र श्रावण मास चल रहा है, ऐसे में शिव मंदिरों में भक्तों का मेला ना लगे, ऐसा कैसे हो सकता है। यदि आप भी शिवभक्ति में अपने मन को रमाना चाहते हैं तो हमारे साथ महाकेदारेश्वर चलिए।
आज हम आपको ले चलते हैं मध्यप्रदेश के ग्राम सैलाना के एक प्राचीन शिव मंदिर में, जिसका महत्व वहाँ के राजा-रजवाड़ों की इस मंदिर में चहलकदमी की बात से ही प्रतीत होता है। सैलाना का महाकेदारेश्वर मंदिर लगभग 278 वर्ष पुराना है।
समय-समय पर यहाँ के राजाओं ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया, जिसकी वजह से आज यह मंदिर अपने अस्तित्व को बचाए रखे है। महाराज जयसिंह, दुलेसिंह, जसवंत सिंह आदि राजाओं ने समय-समय पर इस मंदिर के जीर्णोद्धार में अपना सहयोग प्रदान किया।
मंदिर के पास स्थित कुंड में जब ऊँचाई से झरना गिरता है, तो इसका नजारा बहुत ही खूबसूरत होता है। कुंड के इसी जल में पादप्रक्षालन कर श्रद्धालु शिव मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचते हैं। भारी बरसात के कारण कई बार यह कुंड बरसाती जल से लबालब भर जाता है। हर तरफ है सुंदर नजारे :
चारों तरफ हरियाली से घिरी सड़कों के बीच रतलाम से महाकेदारेश्वर का 14 किलोमीटर लंबा सफर शुरू होता है। इस सफर के बीच-बीच में पड़ाव के रूप में आपको दो-तीन गाँव मिलेंगे, जो अब धीरे-धीरे शहरी सभ्यता की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। शहरी लोगों के लिए तो गाँव की छोटी-बड़ी झोपडि़यों व ग्रामीणों के जन-जीवन को करीब से देखने का यह अच्छा अनुभव होता है।

यदि आप बरसात के मौसम में यहाँ आते हैं तो आपका यह सफर वाकई में एक शानदार सफर सिद्ध होगा, क्योंकि इस मौसम में पक्की सड़कों के आसपास हरियाली के सुंदर नजारों की छटा आपकी शिव धाम महाकेदारेश्वर की इस यात्रा को यादगार यात्रा बना देगी।
चट्टानों की तलहटी में विराजे शिव
बरसात के मौसम में महाकेदारेश्वर मंदिर की खूबसूरती हरितिमा की चादर ओढ़ी चट्टानों से ओर भी अधिक बढ़ जाती है। मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल के ग्राम सैलाना से लगभग 3 से 4 किलोमीटर की दूरी पर महाकेदारेश्वर का मंदिर स्थित है। यह मंदिर चट्टानों की तलहटी में स्थित है।
जहाँ पहुँचने के लिए आपको प्रवेश द्वार से चट्टानों के बीच बनी पक्की सड़क से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी तय करना पड़ेगी। इस दौरान आपको ऊँची-ऊँची चट्टानों से फिसलते छोटे-छोटे झरनों के खूबसूरत नजारे देखने को मिलेंगे।
यह रास्ता तय करने के बाद मंदिर तक पहुँचने के लिए आपको कई सीढ़ियाँ उतरकर नीचे की ओर जाना पड़ेगा। उसके बाद के नजारे की खूबसूरती तो आपके लिए बहुत ही लाजवाब होगी। आसपास की चट्टानों से रिसता पानी जब छोटी-छोटी नालियों के रूप में एक वृहद झरने का रूप लेता है तो उसकी खूबसूरती ओर भी अधिक बढ़ जाती है।
यहाँ मंदिर के पास स्थित कुंड में जब ऊँचाई से झरना गिरता है, तो इसका नजारा बहुत ही खूबसूरत होता है। कुंड के इसी जल में पादप्रक्षालन कर श्रद्धालु शिव मंदिर में दर्शन के लिए पहुँचते हैं। लगभग प्रतिवर्ष भारी बरसात के कारण कई बार यह कुंड बरसाती जल से इस कदर लबालब भर जाता है कि जल कुंड से बाहर निकलकर बहने लगता है।
बरसात के मौसम में यहाँ जिस तरह से झरने का आकार और उसमें जल की मात्रा बढ़ती जाती है, उसी तरह से इस झरने की झर-झर का शोर भी बढ़ता जाता है। जो हमें प्रकृति के एक सुंदर दृश्य के दर्शन कराता है। यह मंदिर बहुत सालों पुराना है, जिसका अंदाजा यहाँ के शिवलिंग व अन्य मूर्तियों को देखने से प्रतीत होता है। यहाँ स्थित शिवलिंग भी प्राकृतिक है। शिव दर्शन के बाद जब आप मंदिर से बाहर निकलकर आसपास की खूबसूरत चट्टानों को देखते हैं तो नि:संदेह आपके मुख से भी यही वाक्य निकलेगा कि 'वाह क्या नजारा है।'

किस मौसम में जाएँ केदारेश्वर
वैसे तो आप हर मौसम में यहाँ जा सकते हैं परंतु बरसात का मौसम यहाँ जाने का सबसे उपयुक्त मौसम होता है।

महाकेदारेश्वर के आसपास
सैलाना के महाराज का महल, पुराना केदारेश्वर मंदिर, कैक्टस गार्डन, खरमोर पक्षी अभयारण्य, कीर्ति स्तंभ आदि। इसी के साथ ही महाकेदारेश्वर के आसपास रतलाम, जावरा आदि स्थानों पर कई प्राचीन मंदिर व दर्शनीय स्थल है।

हँसगुल्ले

अनजान नौकर!

साहब (नौकर से) - क्या मैं तुम्हें गधा या उल्लू का पट्‍ठा लग रहा हूँ।
नौकर - साहब मैं इतनी जल्दी कैसे बता सकता हूँ। मैं तो कल ही नौकरी पर आया हूँ।
थोड़ी सी हँसी हो जाए

अमित सुमित से : यार यह बताओ कि तुमने अपनी उँगलियों पर ये नंबर क्यों लिख रखे हैं।
सुमित : तुझे इतना भी नहीं पता। मास्टरजी ने कहा कि गिनती उँगलियों पर होनी चाहिए।
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रोनू दादी माँ से : दादी माँ ठंड में मुझे ठंडे पानी से मुँह धोने को मत कहो। मुझे ठंड लगती है।
दादी माँ : पर बेटा हम जब तुम्हारी उम्र के थे तो ठंड के दिनों में भी चार बार ठंडे पानी से मुँह धोते थे।
रोनू : तभी तो आपका चेहरा इतना सिकुड़ गया है।

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मास्टरजी : सोनू तुम्हारा होमवर्क तुम्हारे पिताजी की हैंडराइटिंग में क्यों है?
सोनू : मास्टरजी वो मैंने कल पिताजी की पेन से होमवर्क किया था ना इसलिए।
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अन्नू : पापा यह पंखा बिजली से क्यों घूमता है?
पापा : क्योंकि बेटा बिजली में बहुत शक्ति होती है।
अन्नू : हमसे भी ज्यादा?
पापा : नहीं बेटा, हमारा दिमाग ज्यादा ताकतवर होता है।
अन्नू : तो पापा फिर दिमाग से पंखा क्यों नहीं चलाते!
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प्रेरक व्यक्तित्व

सहृदय और दयालु लिंकन

अब्राहम ने जब अपनी वकालत शुरू की तो वह अपने साथी वकीलों से अलग था। वह अपने यहाँ आने वाले गरीब लोगों का केस बिना फीस लिए लड़ता था। बल्कि कई मौकों पर तो उसने अपनी जेब से मुवक्किलों की मदद भी की।

एक बार की बात है कि एक बुजुर्ग गरीब महिला अब्राहम के पास आई। वे युद्ध में शहीद हुए सैनिक की पत्नी थी। पेंशन एजेंट ने उस महिला की ४०० डॉलर की पेंशन दिलवाने के लिए २०० डॉलर छीन लिए। अब्राहम ने पेंशन एजेंट के खिलाफ केस लड़ा और उस महिला को पूरे पैसे दिलवाए। इतना ही नहीं अब्राहम ने इस केस में कोई फीस नहीं ली। और तो और केस के दौरान इस बुजुर्ग महिला के होटल मे रुकने का बिल और घर लौटने के लिए टिकट दिलाने का खर्च भी अब्राहम ने ही उठाया। एक वकील की इस ईमानदारी से वह महिला बहुत ज्यादा प्रभावित हुई। अब्राहम नाम का यही वकील अपनी ईमानदारी और लोगों की तकलीफों को समझने की काबिलियत के बल पर आगे चलकर अमेरिका का सोलहवाँ राष्ट्रपति बना।

दुनिया में ऐसे कुछ ही राष्ट्रपति हुए हैं जिन्हें उनके बाद भी बहुत से लोग याद करते हैं। अब्राहम लिंकन का नाम ऐसे ही भले राजनीतिज्ञ के रूप में याद किया जाता है। किसी बड़े पद पर पहुँचने के बाद भली बातें कहना एक बात है और भले काम करके किसी बड़े पद तक पहुँचना दूसरी बात। और यह दूसरी बात जिंदगी में ज्यादा महत्वपूर्ण है। 12 फरवरी को अब्राहम लिंकन का जन्मदिन अमेरिका में और दुनियाभर में उनके चाहने वाले खुशी से मनाते हैं।

क्या तुम जानते हो?

कैलेंडर की कहानी
प्राचीन यूनानी सभ्यता में 'कैंलेंड्‍स' का अर्थ था - 'चिल्लाना'। उन दिनों एक आदमी मुनादी पीटकर बताया करता था कि कल कौन सी तिथि, त्योहार, व्रत आदि होगा। नील नदी में बाढ़ आएगी या वर्षा होगी। इस 'चिल्लाने वाले' के नाम पर ही - दैट हू कैलेंड्‍स इज 'कैलेंडर' शब्द बना। वैसे लैटिन भाषा में 'कैलेंड्‍स' का अर्थ हिसाब-किताब करने का दिन माना गया। उसी आधार पर दिनों, महीनों और वर्षों का हिसाब करने को 'कैलेंडर' कहा गया है।
एक समय था जब कैलेंडर नहीं थे। लोग अनुभव के आधार पर काम करते थे। उनका यह अनुभव प्राकृतिक कार्यों के बारे में था। वर्षा, सर्दी, गर्मी, पतझड़ आदि ही अलग-अलग काम करने के संकेत होते।
धार्मिक, सा‍माजिक उत्सव और खेती के काम भी इन्हीं पर आधारित थे। समय का सही बँटवारा करना मुश्किल हो जाता। लोगों ने अनुभव किया कि दिन-रात का बँटवारा कभी गड़बड़ नहीं होता। इसी तरह रात में चंद्रमा दिखने का भी एक क्रम है।
चंद्रमा दिखने का यह क्रम, जिन्हें चंद्रमा की कलाएँ भी कहा गया, निश्चित समय के बाद अवश्य जारी रहता। इस तरह दिन-रात और चंद्रमा की कलाओं के आधार पर दिनों की गिनती की गई। फिर इस अवधि को नाम दिया गया। तारे और चंद्रमा केवल सूर्यास्त के बा‍द दिखते और सूर्यास्त होने पर अँधेरा हो जाता, इसलिए इस अवधि को 'रात' कहा गया।
सूर्योदय होने से लेकर सूर्यास्त तक की अवधि को 'दिन' का नाम दिया गया। यह भी अनुभव किया गया कि मौसम सूर्य के कारण बदलते हैं। चंद्रमा का चक्र नए चाँद से नए चाँद तक माना गया। सूर्य का चक्र एक मौसम से दूसरे मौसम तक माना गया।
चंद्रमा का चक्र साढ़े उन्तीस दिन में पूरा होता है। उसे 'महीना' कहा गया। सूर्य के चारों मौसम को मिलाकर 'वर्ष' कहा गया। फिर गणना के लिए 'कैलेंडर' या 'पंचांग' का जन्म हुआ। अलग-अलग देशों ने अपने-अपने ढंग से कैलेंडर बनाए क्योंकि एक ही समय में पृथ्‍वी के विभिन्न भागों में दिन-रात और मौसमों में भिन्नता होती है। लोगों का सामाजिक जीवन, खेती, व्यापार आदि इन बातों से विशेष प्रभावित होता था इसलिए हर देश ने अपनी सुविधा के अनुसार कैलेंडर बनाए।
वर्ष की शुरुआत कैसे करें इसके लिए किसी महत्वपूर्ण घटना को आधार माना गया। कहीं किसी राजा की गद्‍दी पर बैठने की घटना से (विक्रम संभव) गिनती शुरू तो कहीं शासकों के नाम से जैसे रोम, यूनान, शक आदि। बाद में तो ईसा के जन्म (ईस्वी सन्) या हजरत मोहम्मद साहब द्वारा मक्का छोड़कर जाने की घटनाओं से कैलेंडर बने और प्रचलित हुए।
रोम का सबसे पुराना कैलेंडर वहाँ के राजा न्यूमा पोंपिलियस के समय का माना जाता है। यह राजा ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में था। आज विश्वभर में जो कैलेंडर प्रयोग में लाया जाता है। उसका आधार रोमन सम्राट जूलियस सीजर का ईसा पूर्व पहली शताब्दी में बनाया कैलेंडर ही है। जूलियस सीजर ने कैलेंडर को सही बनाने में यूनानी ज्योतिषी सोसिजिनीस की सहायता ली थी। इस नए कैलेंडर की शुरुआत जनवरी से मानी गई है। इसे ईसा के जन्म से छियालीस वर्ष पूर्व लागू किया गया था। जूलियस सीजर के कैलेंडर को ईसाई धर्म मानने वाले सभी देशों ने स्वीकार किया। उन्होंने वर्षों की गिनती ईसा के जन्म से की।
जन्म के पूर्व के वर्ष बी.सी. (बिफोर क्राइस्ट) कहलाए और (बाद के) ए.डी. (आफ्टर डेथ) जन्म पूर्व के वर्षों की गिनती पीछे को आती है, जन्म के बाद के वर्षों की गिनती आगे को बढ़ती है। सौ वर्षों की एक शताब्दी होती है।
संसार के सभी देश अब एक समय मानते हैं और आपस में तालमेल बिठाकर घड़ियों को शुद्ध रखते हैं। आज समय की पाबंदी बड़ी महत्वपूर्ण हो गई है और लोग उसका मूल्य समझने लगे हैं।

कहानी

भालू

ओमप्रकाश बंछोर
एक बार दो दोस्त जंगल से जा रहे थे। जंगल बड़ा घना और डरावना था। दोनों को डर भी लग रहा था कि कहीं कोई जंगली जानवर न आ जाए और इतने में उनके रास्ते में एक बड़ा-सा भालू आता दिखाई दिया।
भालू को देखकर एक मित्र पेड़ पर चढ़ गया और पत्तियों से खुद को ढँक लिया। दूसरे मित्र को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था। वह बहुत घबराया। तभी उसके दिमाग में आया कि भालू मृत व्यक्ति को नहीं छूता है। वह तुरत-फुरत श्वास रोककर जमीन पर लेट गया।
भालू जमीन पर लेटे उस युवक के नजदीक आया। भालू ने उसके कान, नाक और इस तरह शरीर को सूँघा और उसे मृत समझकर अपने रास्ते चला गया। जब भालू चला गया तो पेड़ पर चढ़ा युवक नीचे उतरा और उतरते ही उसने पूछा कि भालू ने तुम्हें कुछ नहीं किया पर वो तुम्हारे कान को क्यों सूँघ रहा था।
दूसरे युवक ने उत्तर दिया कि वह मेरे कान को सूँघ नहीं रहा था बल्कि मुझे एक सलाह दे रहा था। पेड़ से उतरे युवक ने पूछा- कैसी सलाह?
इस पर पहले युवक ने जवाब दिया -भालू कह रहा था कि उस मित्र के साथ कभी मत रहो जो विपत्ति में तुम्हारा साथ छोड़ देता है। सच्चा मित्र वही है जो संकट के समय में भी साथ दे।


बंडू कहाँ है...
शेष नारायण बंछोर

शाम को घर में घुसते ही गोखले साहब ने गुस्से में भरकर पूछा। गुस्से में आने के बाद वे चिल्लाते नहीं थे। शांतनु को जब वे बंडू कहते तो सबको समझ में आ जाता कि वे नाराज हैं।
आजकल उनकी नाराजी का कारण रहता कि यह लड़का पूरे समय रसोईघर में क्यों घुसा रहता है। उसकी उम्र के बच्चों को या तो खेल के मैदान पर होना चाहिए, या फिर पढ़ाई करते हुए या कम्प्यूटर के सामने नजर आना चाहिए।
बेटा आईआईटी जाए, आईटी प्रोफेशनल बने और खेलकूद कर तंदुरुस्त रहे। सभी पिताओं की तरह गोखले साहब भी यही चाहते थे। वे खुद आर्किटेक्ट थे और कॉलेज की टीम में खो-खो के कप्तान भी रहे।
शांतनु की माँ ने उन्हें पानी का फुलपात्र देते हुए उनको शांत करने का प्रयत्न किया- बंडू खाना बनाने में मेरी मदद कर रहा है। यही बात गोखलेजी को सख्त नापसंद थी कि लड़का-लड़कियों के काम करे। फिर वे अपनी नाराजी उर्मिला पर उतारते कि घर में कोई लड़की नहीं है इसका अर्थ यह नहीं कि तुम इकलौते लड़के को भी गृहकार्य में दक्ष बनाओ।
बंडू के पिता अधिक गुस्सा होते तो पत्नी को उसके नाम से पुकारते। उनका हमेशा यही तर्क रहता कि रसोई बनाना पुरुषों का काम नहीं। सिर्फ अनपढ़ पुरुष ही बावर्चीगिरी करते हैं और वह भी पुराने जमाने में हुआ करता था। खाना केवल महिलाओं का काम है और उनकी अपनी माँ सर्वश्रेष्ठ खाना पकाने वाली थी।
यों उर्मिला काकू के हाथ में भी स्वाद था। उनकी शिकायत रहती कि गोखलेजी को खाने में कोई रुचि ही नहीं। लेकिन वे नाराज होने बाद भी पति को प्रभाकर नाम से नहीं पुकारती थी। वह सिर्फ इतना जता देती थी कि उनकी सास गणित की प्रोफेसर थीं और ससुरजी के खाने के शौक के कारण अच्छा खाना बनाने लगी थी। बहरहाल, गोखले साहब पत्नी के साथ बहस में पड़ना नहीं चाहते थे क्योंकि उर्मिला काकू अपने कॉलेज के दिनों की सर्वश्रेष्ठ वक्ता मानी जाती थी।
आए दिन घर में होने वाले इन विवादों का इतिहास दो वर्ष पुराना था। शांतनु को खाने का शौक था- चटोरेपन की हद तक। स्कूल से आने के बाद, पढ़ाई के बाद, खेलकर आने बाद, भोजन से पहले उसे कुछ न कुछ पेट में डालने के लिए चाहिए होता। उर्मिला काकू उसके लिए शकर पारे, चकली वगैरह बनाकर रखती। बंडू के आगे भरे डिब्बे चार दिन में खाली हो जाते।
जब माँ देर तक कॉलेज से न लौटती, बंडू के पेट में चूहे उछलने लगते। एक दिन बंडू ने खुद ही सैंडविच बनाकर खाए। दूसरे दिन उसने पत्ता गोभी और शिमला मिर्च का सैंडविच बनाया। यह सिलसिला चल निकला। एक के बाद एक, बंडू सलाद, सब्जियाँ, आमटी जैसे पदार्थ बनाने लगा। उर्मिला काकू को भी ताज्जुब था कि दिवाली के दिनों में जो अनारसे उनसे नहीं बनते थे, बंडू बहुत अच्छे से बना लेता था।
गोखलेजी इसी बात से दुःखी हो उठते। वे कहते मत गाड़ो खेल के मैदान पर झंडे, मत बनो वैज्ञानिक। परंतु भगवान के लिए बावर्ची मत बनो।
कुछ दिनों से शाम को खाने की टेबल पर अक्सर थॉमसन साहब की चर्चा होती। वे गोखलेजी के नए क्लाइंट थे। शहर के इलेक्ट्रॉनिक पार्क में थॉमसन कम्युनिकेशंस के कारण बड़ी सनसनी फैली थी। ये अमेरिका की बड़ी कंपनी थी। अपना दफ्तर बनाने के लिए उन्होंने गोखले एंड कंपनी को अनुबंधित किया था। हमउम्र, पढ़ाकू और संगीत के शौकीन होने के कारण थामसन और गोखले अच्छे मित्र बन गए थे।
थॉमसन साहब चाहते थे कि उनके कार्यालय का सारा कामकाज सोलर और विंड एनर्जी से चले। हरा-भरा अहाता हो और फल-सब्जियों की खेती हो। उन्हें सब्जियाँ खूब भाती थीं।
एक शनिवार की दोपहर गोखले साहब का फोन आया कि शाम को थॉमसन साहब डिनर के लिए घर आ रहे हैं। उन्हें पता था कि उनका घरेलू नौकर राम्या कल शाम ही अपने गाँव गया है, क्योंकि उसके घर की गाय ने एक काली केड़ी को जन्म दिया है जिसके माथे पर सफेद तिलक है। यह बहुत शुभ लक्षण है।

गोखलेजी ने उर्मिला काकू को जताया कि वह फिक्र न करे। वे लौटते समय होटल से कुछ मंचूरियन कुछ बेक्ड वेजीटेबल पैक करवाकर ले आएँगे। और यही सब करने में उन्हें घर लौटने में देर हो गई।

थॉमसन साहब को आए काफी देर हो गई थी। उर्मिलाजी को दिया उनका गुलदस्ता गुलदान में सज चुका था। बैठक में बंडू उनसे गपिया रहा था। गोखलेजी का विश्वास था कि बंडू गपियाने से बेहतर तरीके से कोई बात नहीं कर सकता। परंतु थॉमसन साहब खूब कहकहे भी लगा रहे थे। गोखले साहब के आते ही वे बोले कि गोखले, टुमारा सन इज ए वंडरफुल फेलो। गोखलेजी ने देखा कि उर्मिला उनकी ओर निगाहें गड़ाकर देख रही थी।

खाने की मेज पर तो गजब ही हुआ। गोखलेजी की लाई पनीर, मंचूरियन को तो थॉमसन ने चखकर छोड़ दिया। वे तो मूली की आमटी और कोशिंबीर पर टूट पड़े और उन्हें खत्म करके ही माने।
उनकी राय में उन्होंने दुनियाभर में चखे सूप और सलाद में ये सर्वश्रेष्ठ थे। फिर उर्मिलाजी को बधाई देते हुए उन्होंने उन दोनों पदार्थों को बनाने के नुस्खे माँगे। तब बात जाहिर हुई कि ये दोनों चीजें बंडू की बनाई हुई थी। इन्हें बनाने में जिस हल्के हाथ का स्पर्श जरूरी है वह किसी पहुँचे हुए शेफ की ही विशेषता हो सकती है ऐसा थॉमसन साहब ने कह डाला।
अचानक गोखलेजी बोलने लगे, ...दरअसल मैं शुरू से ही जोर देता आया हूँ कि बच्चे अपने अंदर के गुणों का विकास करें। महिलाएँ कंपनियाँ संभाल सकती हैं तो पुरुष किचन क्यों नहीं? अब उर्मिला काकू और बंडू ने गोखलेजी को घूरा लेकिन वे तो उनसे नजरें मिलाने को भी तैयार नहीं थे।

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

आज का विचार

हमारे स्वभाव का प्रभाव हमारे परिवार के दूसरे सदस्यों की उन्नति या अवनति पर भी पड़ता है।
•स्वेट मार्डन

प्रेरक व्यक्तित्व

ईश्वरचंद्र विद्यासागर
पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर के मन में प्राणीमात्र के प्रति अथाह करुणा को देखकर उन्हें लोग करुणा देखकर उन्हें लोग करुणा का सागर कहकर बुलाते थे। असहाय प्राणियों के प्रति उनकी करुणा व कर्तव्यपरायणता देखते ही बनती थी। उन दिनों वे कोलकाता के एक समीपवर्ती कस्बे में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त थे।
वातावरण में भयानक ठंड बढ़ गई। एक दिन शाम से ही बूँदाबाँदी हो रही थी। रात होते-होते मूसलाधार बारिश से वातावरण में भयानक ठंड बढ़ गई। ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने स्वाध्याय में व्यस्त थे, तभी किसी ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी।
विद्यासागर ने एक अजनबी को दरवाजे पर खड़ा देखा। अपनेपन से उस अजनबी को घर के भीतर बुलाया। उसे अपने नए कपड़े देकर भीगे वस्त्र बदलने को कहा।
वह अतिथि उनके इस प्रेमभरे व्यवहार को देखकर भर्राये गले से बोला - 'मैं इस कस्बे में नया हूँ, यहाँ मैं अपने एक मित्र से मिलने के लिए आया था। जब मैं उसके घर के बाहर पहुँचा तो पूछने पर पता चला कि वह इस कस्बे से बाहर गया हुआ है। ये सुनकर निरुपाय होकर मैंने कई लोगों से रात्रिभर के लिए शरण माँगी।
लेकिन सभी ने मुझे संदेह की दृष्टि से देखकर दुत्कार दिया। आप पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने ...।'
'अरे भाई, तुम तो मेरे अतिथि हो। हमारे शास्त्रों में भी तो कहा गया है कि अतिथि देवो भव। मैंने तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है।' कहकर ईश्वरचंद्र ने उस अतिथि के सोने के लिए बिस्तर व भोजन की व्यवस्था की। फिर अपने हाथ से अँगीठी जलाकर उसके कमरे में रख दी। सुबह जब वह अतिथि पंडित ईश्वरचंद्र से विदा लेने गया तो वे हँसकर बोले - 'कहिए अतिथि देवता! रात को ठीग ढंग से नींद तो आई?'
अतिथि उनके सद्‍व्यवहार को मन ही मन नमन करते हुए बोला - 'असली देवता तो आप हैं, जिसने मुझे विपदग्रस्त देखकर मदद की।' पूरी जिंदगी उस व्यक्ति के मन में विद्यासागर की करुणामय छबि बसी रही।

क्या तुम जानते हो?

वीर सावरकर
26 फरवरी : पुण्य स्मरण
* सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य योद्धा थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए।
* वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता को दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया।
* सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।
* वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अँगरेज सरकार ने वापस ले लिया।
* वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।
* वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया।
* वीर सावरकर ने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम ‍दिया था, जिसे राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने माना।
* उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। वे ऐसे प्रथम राजनैतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुँचा।
* वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया।
* दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंदमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएँ लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा।

सौजन्य से - देवपुत्र

कहानी

एक भला आदमी

पहाड़ियों के बीच एक छोटा सा गाँव था। गाँव में बसंत के आसपास पेड़ों के पुराने पत्ते झड़ जाते और सड़कों पर कचरा जमा हो जाता। पत्ते तालाबों में भी तैरते रहते। पूरे शहर में कचरा ही कचरा नजर आता।

ऐसे में गाँव के नगर पालिका सदस्यों ने तय किया कि इस काम के लिए किसी को नियुक्त कर लेना चाहिए ताकि वह रोजाना सफाई का काम देखे।

कुछ ही दिनों में इस काम के लिए एक बूढ़े व्यक्ति को नियुक्त कर दिया गया। बूढ़ा अपने काम के प्रति ईमानदार था। वह दिनभर काम में लगा रहता।

बूढ़ा रोजाना सड़कों की सफाई करता, तालाब की सुंदरता का खयाल रखता और पेड़ों की सलीके से काँट-छाँटकर करता। देखते ही देखते उसने पूरे कस्बे की शक्ल सुधार दी। बूढ़े की देखरेख में कस्बा दिनोंदिन निखरता गया।

कुछ ही महीनों में कस्बा इतना सुंदर हो गया। कई पंछी वहाँ आने लगे। पर्यटक भी अपनी छुट्‍टियाँ बिताने के लिए कस्बे में रुकना पसंद करने लगे। कस्बे की नगर पंचायत को सुंदरता के लिए कई पुरस्कार मिले और कस्बे की आय में भी बढ़ोतरी हुई।

इसके बाद काउंसिल की एक बैठक और हुई। इसमें किसी सदस्य की नजर बूढ़े को दी जाने वाली तनख्वाह पर पड़ी। उसे यह खर्च अनुपयुक्त लगा। वह बोला कि गाँव की सफाई के लिए जो आदमी रखा है उस पर बहुत पैसा खर्च हो रहा है। बाकी सदस्यों ने इसमें हाँ मिलाई और बूढ़े को काम से हटाने का निर्णय ‍ले लिया गया।

अगले दिन से बूढ़े को काम पर से हटा दिया गया। बूढ़े ने अपने लिए कुछ और काम ढूँढ लिया।

बूढ़े ने जिस दिन से अपना काम बंद कर दिया। उसके कुछ दिनों तक तो कोई खास फर्क दिखाई नहीं दिया। पर महीने, दो महीने में कस्बे की हालत ‍फिर से पहले जैसी हो गई। लोगों ने देखा कि पेड़ों के पत्तों से सड़कें अटी पड़ी हैं। तालाबों में कचरा जमा हो गया है। पंछियों ने इस तरफ आना छोड़ दिया और पर्यटकों का आना भी बंद हो गया है। अचानक कस्बे की रौनक चली गई है।

काउंसिल ने फिर से बैठक की। सभी ने स्वीकार किया कि उस बूढ़े व्यक्ति ने ही इस कस्बे को सुंदर बनाया था। सदस्यों ने माना कि उनसे गलती हुई। उन्हें उस भले आदमी की कद्र करना चाहिए थी। कुछ दिनों बाद उस बूढ़े को फिर से उसके काम पर रख लिया गया। इस बार उसकी तनख्वाह भी पहले से बढ़ा दी गई।

सीख : ठीक ही कहा गया है अच्‍छे काम की जरूरत दुनिया में हमेशा बनी रहेगी। लोग भले शुरुआत में अच्छे काम को नहीं पहचानें, पर देर-सबेर अच्छा काम अपनी जगह खुद बना लेता है।

काव्य-संसार

इस बार होली पर
रंगों से दिल सजा ही लूँ इस बार होली पर
रूठों को अब मना ही लूँ इस बार होली पर।

इक स्नेह रंग घोलूँ आँसू की धार में
पानी ज़रा बचा लूँ इस बार होली पर।

अपनों की बेवफाई से मन है हुआ उदास
इक मस्त फाग गा लूँ इस बार होली पर।

रिश्तों में आजकल तो है आ गई खटास
मीठा तो कुछ बना ही लूँ इस बार होली पर

उम्मीद की कमी से फीकी हुई जो आँखें
उनमें उजास ला दूँ इस बार होली पर।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

मुलाक़ात लाली से

प्यार बिना सब सूना
पटना में पली-बढ़ी रतन राजपूत को दिशा मिली दिल्ली आकर, तो अवसर मिले मुंबई में। वे दिल्ली में थियेटर से जुड़ी, तो मुंबई आने के बाद उन्हें अभिनय की दुनिया मिली। वे पर्दे पर तो आई धारावाहिक राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएंगी से, लेकिन वे घर-घर की ललिया यानी लाली के रूप में पहचानी गई जी टीवी के सफल धारावाहिक अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो में लाली की भूमिका से। पिछले दिनों लाली यानी रतन राजपूत से तरंग ने किए कुछ सवाल यह जानने के लिए कि प्यार को लेकर उनका नजरिया क्या है? प्रस्तुत हैं उसके प्रमुख अंश..

आपकी नजर में प्यार के लिए कौन-सी ऋतु अच्छी होती है?
सच कहूं, तो प्यार किसी ऋतु का मोहताज नहीं होता, लेकिन हां, शरद ऋतु में मन ज्यादा रोमांटिक जरूर हो जाता है।
आप प्यार को कैसे परिभाषित करेंगी?
प्यार पूजा है। प्यार में बहुत कुछ पाने के साथ ही बहुत कुछ खोना भी पड़ता है।
सच्चा प्यार क्या है?
किसी को सच्चे मन से अपनाना ही सच्चा प्यार है। कभी-कभी मुसीबत क्यों बन जाता है प्यार? प्यार कभी मुसीबत नहीं बनता। ऐसा हमारी सोच की वजह से होता है।
एक समय में दो लोगों से प्यार करना सही है?
माता-पिता, भाई-बहन के बीच एक साथ प्यार होना स्वाभाविक है। हां, यदि बात लाइफ-पार्टनर को लेकर हो, तो यह गलत है।
जिससे प्यार हो, क्या शादी भी उसी से करनी चाहिए?
कोशिश तो यही होनी चाहिए।
प्यार में दिल की सुननी चाहिए या दिमाग की?
दोनों की सुनते हुए आगे उचित कदम बढ़ाना चाहिए।
क्या खुद से प्यार करना जरूरी है?
आप जब तक खुद से प्यार नहीं करेंगे, तो दूसरों से भी प्यार नहीं करेंगे।

प्यार से जुड़ी कोई सुहानी याद?
अभी तो कोई नहीं है। जब होगी तब जरूर बताऊंगी।
प्यार में पड़े लोगों को आप क्या सलाह देंगी?
वे एक-दूसरे को समझें। सफल जीवनसाथी बनने से पहले अच्छा दोस्त बनने की कोशिश करें। कोई दुविधा हो, तो बातचीत के जरिए उसे खत्म करें।
प्यार बिना जिंदगी क्या है?
कुछ भी नहीं। प्यार बिना जग सूना.. गीत तो आपने भी सुना ही होगा..!

लतीफ़े


संता- यार प्यार का इजहार करने के लिए सबसे अच्छी जगह क्या होगी?
बंता- मंदिर
संता- क्यों?
बंता- क्योंकि वहां लड़की चप्पल उतार के जाती है।


रामू (डॉक्टर से)- डाक्टर साहब, ये फूलों की माला किस लिए है?
डॉक्टर (रामू से)- यह मेरा पहला ऑपरेशन है सफल हुआ तो मेरे लिए नहीं तो, तुम्हारे लिए।


चमनलाल- मेरी पत्नी कल मर गयी, मैंने बहुत कोशिश की की मेरी आंख में आंसू आ जाये पर नही आये मुझे क्या करना चाहिए?
मणिराम- कोई बात नही बस कल्पना कर लेते की वो वापस आ गयी है।


आज मैंने एक जान बचायी, पूछो कैसे?
एक भिखारी से मैंने पूछा 1000 का नोट दूं तो क्या करेगा?
वो बोला खुशी से मर जाऊंगा!
तो मैंने उसे पैसे नही दिये...!


वो कौन सी बात है जो हजारों साल पहले भी विद्यार्थी कहते थे, आज भी कहते हैं और कयामत तक कहेंगे?
बस कल से पढ़ाई शुरु..

कहानी

अपनी भाषा का महत्व
सत्य घटना पर आधारित

इतिहास के प्रकांड पंडित डॉ. रघुबीर प्राय: फ्रांस जाया करते थे। वे सदा फ्रांस के राजवंश के एक परिवार के यहाँ ठहरा करते थे। उस परिवार में एक ग्यारह साल की सुंदर लड़की भी थी। वह भी डॉ. रघुबीर की खूब सेवा करती थी। अंकल-अंकल बोला करती थी।एक बार डॉ. रघुबीर को भारत से एक लिफाफा प्राप्त हुआ। बच्ची को उत्सुकता हुई। देखें तो भारत की भाषा की लिपि कैसी है। उसने कहा - अंकल लिफाफा खोलकर पत्र दिखाएँ। डॉ. रघुबीर ने टालना चाहा। पर बच्ची जिद पर अड़ गई।
डॉ. रघुबीर को पत्र दिखाना पड़ा। पत्र देखते ही बच्ची का मुँह लटक गया - अरे यह तो अँगरेजी में लिखा हुआ है। आपके देश की कोई भाषा नहीं है? डॉ. रघुबीर से कुछ कहते नहीं बना। बच्ची उदास होकर चली गई। माँ को सारी बात बताई। दोपहर में हमेशा की तरह सबने साथ-साथ खाना तो खाया, पर पहले दिनों की तरह उत्साह चहक-महक नहीं थी।

गृहस्वामिनी बोली - डॉ. रघुबीर, आगे से आप किसी और जगह रहा करें। जिसकी कोई अपनी भाषा नहीं होती, उसे हम फ्रेंच, बर्बर कहते हैं। ऐसे लोगों से कोई संबंध नहीं रखते।
गृहस्वामिनी ने उन्हें आगे बताया - मेरी माता लोरेन प्रदेश के ड्‍यूक की कन्या थी। प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व वह फ्रेंच भाषी प्रदेश जर्मनी के अधीन था। जर्मन सम्राट ने वहाँ फ्रेंच के माध्यम से शिक्षण बंद करके जर्मन भाषा थोप दी थी।
फलत: प्रदेश का सारा कामकाज एकमात्र जर्मन भाषा में होता था, फ्रेंच के लिए वहाँ कोई स्थान न था। स्वभावत: विद्यालय में भी शिक्षा का माध्यम जर्मन भाषा ही थी। मेरी माँ उस समय ग्यारह वर्ष की थी और सर्वश्रेष्ठ कान्वेंट विद्यालय में पढ़ती थी।
एक बार जर्मन साम्राज्ञी कैथराइन लोरेन का दौरा करती हुई उस विद्यालय का निरीक्षण करने आ पहुँची। मेरी माता अपूर्व सुंदरी होने के साथ-साथ अत्यंत कुशाग्र बुद्धि भी थीं। सब ‍बच्चियाँ नए कपड़ों में सजधज कर आई थीं। उन्हें पंक्तिबद्ध खड़ा किया गया था।
बच्चियों के व्यायाम, खेल आदि प्रदर्शन के बाद साम्राज्ञी ने पूछा कि क्या कोई बच्ची जर्मन राष्ट्रगान सुना सकती है? मेरी माँ को छोड़ वह किसी को याद न था। मेरी माँ ने उसे ऐसे शुद्ध जर्मन उच्चारण के साथ इतने सुंदर ढंग से सुना पाते। साम्राज्ञी ने बच्ची से कुछ इनाम माँगने को कहा। बच्ची चुप रही। बार-बार आग्रह करने पर वह बोली - 'महारानी जी, क्या जो कुछ में माँगू वह आप देंगी?'
साम्राज्ञी ने उत्तेजित होकर कहा - 'बच्ची! मैं साम्राज्ञी हूँ। मेरा वचन कभी झूठा नहीं होता। तुम जो चाहो माँगो। इस पर मेरी माता ने कहा - 'महारानी जी, यदि आप सचमुच वचन पर दृढ़ हैं तो मेरी केवल एक ही प्रार्थना है कि अब आगे से इस प्रदेश में सारा काम एकमात्र फ्रेंच में हो, जर्मन में नहीं।'
इस सर्वथा अप्रत्याशित माँग को सुनकर साम्राज्ञी पहले तो आश्चर्यकित रह गई, किंतु फिर क्रोध से लाल हो उठीं। वे बोलीं 'लड़की' नेपोलियन की सेनाओं ने भी जर्मनी पर कभी ऐसा कठोर प्रहार नहीं किया था, जैसा आज तूने शक्तिशाली जर्मनी साम्राज्य पर किया है। साम्राज्ञी होने के कारण मेरा वचन झूठा नहीं हो सकता, पर तुम जैसी छोटी सी लड़की ने इतनी बड़ी महारानी को आज पराजय दी है, वह मैं कभी नहीं भूल सकती। जर्मनी ने जो अपने बाहुबल से जीता था, उसे तूने अपनी वाणी मात्र से लौटा लिया।
मैं भलीभाँति जानती हूँ कि अब आगे लारेन प्रदेश अधिक दिनों तक जर्मनों के अधीन न रह सकेगा। यह कहकर महारानी अतीव उदास होकर वहाँ से चली गई। गृहस्वामिनी ने कहा - 'डॉ. रघुबीर, इस घटना से आप समझ सकते हैं कि मैं किस माँ की बेटी हूँ। हम फ्रेंच लोग संसार में सबसे अधिक गौरव अपनी भाषा को देते हैं। क्योंकि हमारे लिए राष्ट्र प्रेम और भाषा प्रेम में कोई अंतर नहीं...।'
हमें अपनी भाषा मिल गई। तो आगे चलकर हमें जर्मनों से स्वतंत्रता भी प्राप्त हो गई। आप समझ रहे हैं न!
सौजन्य से - देवपुत्र

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

प्रेरक व्यक्तित्व

सहृदय और दयालु लिंकन

अब्राहम ने जब अपनी वकालत शुरू की तो वह अपने साथी वकीलों से अलग था। वह अपने यहाँ आने वाले गरीब लोगों का केस बिना फीस लिए लड़ता था। बल्कि कई मौकों पर तो उसने अपनी जेब से मुवक्किलों की मदद भी की।

एक बार की बात है कि एक बुजुर्ग गरीब महिला अब्राहम के पास आई। वे युद्ध में शहीद हुए सैनिक की पत्नी थी। पेंशन एजेंट ने उस महिला की ४०० डॉलर की पेंशन दिलवाने के लिए २०० डॉलर छीन लिए। अब्राहम ने पेंशन एजेंट के खिलाफ केस लड़ा और उस महिला को पूरे पैसे दिलवाए। इतना ही नहीं अब्राहम ने इस केस में कोई फीस नहीं ली। और तो और केस के दौरान इस बुजुर्ग महिला के होटल मे रुकने का बिल और घर लौटने के लिए टिकट दिलाने का खर्च भी अब्राहम ने ही उठाया। एक वकील की इस ईमानदारी से वह महिला बहुत ज्यादा प्रभावित हुई। अब्राहम नाम का यही वकील अपनी ईमानदारी और लोगों की तकलीफों को समझने की काबिलियत के बल पर आगे चलकर अमेरिका का सोलहवाँ राष्ट्रपति बना।

दुनिया में ऐसे कुछ ही राष्ट्रपति हुए हैं जिन्हें उनके बाद भी बहुत से लोग याद करते हैं। अब्राहम लिंकन का नाम ऐसे ही भले राजनीतिज्ञ के रूप में याद किया जाता है। किसी बड़े पद पर पहुँचने के बाद भली बातें कहना एक बात है और भले काम करके किसी बड़े पद तक पहुँचना दूसरी बात। और यह दूसरी बात जिंदगी में ज्यादा महत्वपूर्ण है। 12 फरवरी को अब्राहम लिंकन का जन्मदिन अमेरिका में और दुनियाभर में उनके चाहने वाले खुशी से मनाते हैं।

हँसगुल्ले

तर्कशास्त्री!

पापा : बेटा, क्या तुम जानते हो कि कुतुब मीनार किसने बनाया?
बेटा : कुतुबुद्दीन ऐबक ने।
पापा : शाबाश और ताजमहल?
बेटा : ताज उद्‍दीन ऐबक ने।

मैचिंग

डब्‍बू: पापा इस बार फिर आप गलत कलर लेकर आ गए है।
मेरी यूनिफार्म का कलर इससे मिलता-जुलता है।

लेकिन ऐसा नहीं है, आप मुझे एकदम सही मैचिंग
लाकर दीजिए।

पापा: बेटा, यूनिफार्म तो मैचिंग ढूँढ़ते-ढूँढ़ते, मैं तो थक गया।
ऐसा करते है, इस यूनिफार्म के मैचिंग का स्‍कूल
ही ढूँढ़ लेते हैं।

कविता

कविता की सहेली कविता

कविता के घर एक सहेली
उसकी कविता आई
उसी समय कविता ने अपनी
कविता उसे सुनाई
कविता ने अपनी कविता में
बात लिखी थी प्यारी
कविता जो लड़की है, उसने
मच्छरिया है मारी
मच्छरिया कविता को हर दिन
काटा ही करती थी
उसकी भन-भन सुनकर कविता
बहुत अधिक डरती थी
अब उसका डर दूर हो गया
यह भी कविता लिखती
कागज कलम लिए रहती है
कवियों जैसी दिखती
इसकी कविता छोटी होती
मीठी मिसरी जैसी
रसगुल्ले सी, कलाकंद सी
बिल्कुल चीनी जैसी
कविता की कविता सुन करके
सभी बजाते ताली
कविता की माँ खीर खिलाती
कविता को भर थाली।

सौजन्य से - देवपुत्र

कहानी

भैयादूज
एक थी बहन। उसके सात भाई थे। सबसे छोटा भाई बहन से बहुत स्नेह करता था। भैयादूज के दिन जब तक बहन से टीका न लगा ले, खाता नहीं था। एक दिन उसकी पत्नी बोली कि यदि तुम्हारी बहन की शादी कहीं दूर हो गई तो तुम क्या करोगे? वह बोला कि मैं बहन की शादी दूर करूँगा ही नहीं।

उसने माता-पिता से कहकर बहन की शादी निकट के गाँव में करा दी। भाग्य की बात, बहनोई बड़े खराब स्वभाव का निकला। वह अपनी ससुराल वालों को देखना भी न चाहे। उसने अपनी दुल्हन से साफ-साफ कह दिया कि मेरे घर में तुम्हारे मायके वाले नहीं आ सकते। मुझे अपना घर बिगाड़ना नहीं है।

अब बेचारी ने रो-धोकर संतोष किया और मायके यह संदेश भेज दिया कि कोई यहाँ न आए। अब आया भाईदूज का त्योहार। भाई का जी नहीं माना। वह नहा-धोकर टीका कराने बहन की ससुराल पहुँचा। उसके बहनोई ने देखते ही उसे पकड़कर सात तालों के भीतर बंद कर दिया और स्वयं काम पर चला गया।

बहन का छोटा भाई वेश बदलना जानता था। वह कुत्ते का छोटा पिल्ला बनकर नाली के रास्ते-रास्ते उसके पास पहुँच गया। बहन रो-रोकर हल्दी पीस रही थी और सोच रही थी कि हल्दी तो पीस रही हूँ पर भइया को टीका कैसे कर पाऊँगी। इतने में कुत्ते का पिल्ला कूँ-कूँ करता हुआ उसके पास पहुँच गया।

बहन दुःखी तो थी ही, उसे क्रोध आ गया। उसने हल्दी सने हाथ से पिल्ले के सिर में मार दिया। पिल्ले ने मार खाते ही सोने का सिक्का अपने मुँह से उगल दिया और नाली के रास्ते फिर वापस चला गया। सोने का सिक्का देखकर बहन सोच में पड़ गई।

बहनोई लौटकर आया तो ताला खोलकर भीतर गया। वहाँ क्या देखता है कि भाई के माथे पर पाँच टीका लगा हुआ है।
उसे निकालकर बाहर लाया और दालान में बैठाकर भीतर अपनी पत्नी के पास पहुँचकर उससे पूछने लगा, 'तुमने अपने भाई को पाँच टीका कैसे लगाया?'

वह बोली, 'मैंने तो अपने भाई की सूरत ही नहीं देखी। एक टीका की कौन कहे, पाँच कैसे लगाती?

हाँ, एक आश्चर्य की बात अवश्य हुई है कि नाली के रास्ते एक कुत्ते का पिल्ला आया था। मैं हल्दी पीस रही थी। गुस्से में आकर मैंने हल्दी के हाथ से उसे मार दिया, तो वह सोने का सिक्का उगलकर फिर नाली के रास्ते वापस लौट गया।'

सोने का सिक्का देखकर और सारी बात देख-सुनकर बहनोई को अपनी भूल का भान हुआ। उसने माफी माँगते हुए कहा, 'मुझे बहुत दुःख है। मैं भाई-बहन के सच्चे प्रेम के बीच रुकावट बना। सच्चा प्यार कभी नहीं टूटता।' वह अपने साले को भीतर ले गया। जैसे उस भाई-बहन के दिन फिरे, वैसे सबके फिरें।

बंदरों का उपवास
एक बार बंदरों के एक झुंड में यह तय हुआ कि क्यों न एक दिन सभी मिलकर उपवास करें। एक बंदर ने दूसरे से बात की और दूसरे ने तीसरे से...। इस तरह सभी बंदरों में यह बात तय हो गई कि अगले शुक्रवार को उपवास करेंगे।

बंदरों के मुखिया के सामने सभी बंदर जमा हुए और अपने मन की बात बता दी। मुखिया को उपवास वाली बात बहुत पसंद आई। मुखिया ने कहा कि क्यों न हम उपवास करने से पहले अपने पास खाने-पीने की चीजें रख लें ताकि शाम को जैसे ही उपवास खत्म हो।

हमें खाने के लिए ज्यादा देर तक इंतजार नहीं करना पड़े। मुखिया ने यह बात अनुभव से कही थी इसलिए सभी ने ऐसा करने की हामी भर दी। उपवास से पहले सभी बंदर जंगल में जाकर कई दर्जन बढ़िया केले ले आए। केले साथ में लेकर सभी बंदर एक जगह उपवास करने बैठे।

जब सभी बंदर एक ही जगह जमा थे तो मुखिया ने कहा कि जब उपवासखत्म होगा तो हमें केले आपस में बाँटने पड़ेंगे और इसमें समय बेकार जाएगा। क्यों न हर कोई अपने हिस्से के केले अभी से अपने पास रख ले। ऐसा ही हुआ और सभी ने अपने हिस्से के केले अपने पास रख लिए।

थोड़ी ही देर बीती कि एक बंदर बोला- उपवास खत्म होने पर हमें केले छीलकर खाने होंगे तो क्यों अभी खाली समय में हम केले को छीलकर रख लें। मुखिया ने कहा कि हम ऐसा कर सकते हैं। सभी ने अपने-अपने केले छीलकर रख लिए।

अभी यह काम करके सभी बैठे ही थे कि एक बाल-बंदर उछलता हुआ आया और बोला-मुखियाजी, मुखियाजी क्या मैं केले को अपने मुँह में रख लूँ ताकि समय की बचत होगी। मैं उसे खाऊँगा नहीं। पक्का। मुखिया ने कहा कि हम यह भी कर सकते हैं।

... और एक बार केला मुँह में रखने के बाद बंदरों का उपवास शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया। तो दोस्तों, किसी भी काम के लिए मन में दृढ़ निश्चय होना चाहिए। सिर्फ दिखाने के लिए कोई काम मत करो। मन लगाकर काम करो।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

चिट्ठी-पत्री

परीक्षा की जंग

प्यारे बच्चों,

अभी तो तुम परीक्षाओं में जमकर लगे होगे। कुछ भी सूझ नहीं रहा होगा। है न! सही बात। तुम कहोगे कि अब परीक्षा में नहीं पढ़ेंगे तो कब पढ़ेंगे भला? हाँ सही है पर मम्मी को तंग तो नहीं कर रहे हो न?

अब पूछोगे कि यह क्या बात कह दी? परीक्षाओं का मम्मी को तंग करने से क्या लेना-देना? हाँ तुम्हारी बात सही है पर कभी-कभी यह भी होता है कि मम्मी बहुत तंग हो जाती हैं। अभी चिंटूजी तो समझदार हो गए हैं लेकिन उनके छोटे भाई को कुछ भी समझ में नहीं आया है।

अब दोनों भाइयों की परीक्षाएँ हैं और छुटकूजी तो पढ़ने में ऐसे लगे कि कुछ भी खाना-पीना ही भूल गए हैं। बेचारी मम्मी कह-कहकर परेशान हो गई कि छुटकू समय पर खाना और नाश्ता कर लिया करो, पर वो हैं कि सुनते ही नहीं।

फिर ऐनवक्त पर तबियत खराब हो गई तो नुकसान किसका होगा भला? अपना ही न! और मम्मी-पापा को भी तकलीफ होगी। तो समझ लो परीक्षाओं की तैयारी करना है तो अच्छी तरह से खाना-पीना खाकर, ताकत हासिल करके करना होगी, वरना परीक्षा की जंग कैसे जीत पाओगे। आई बात समझ में।
तुम्हारा भैय्या
शेष नारायण

कहानी

ऑटोग्राफ बुक के हीरो

जन्मदिन पर मिले उपहारों में नीली पन्‍नी में लिपटा वह पैकेट सबसे छोटा था। सोनू को वह सबसे प्यारा लगा इसलिए उसने नीले पैकेट को बचाकर रखा और सबसे आखिरी में खोला। अंदर निकली एक सुंदर-सलोनी ऑटोग्राफ बुक। रंगीन, खुशबूदार पन्‍नों वाली वह बुक सोनू को इतनी भली लगी कि वह उसी समय उन सब बड़े लोगों के बारे में सोचने लगा जिनके हस्ताक्षर उस बुक में लेना पसंद करता।
सोनू छोटा था। सिर्फ दस वर्ष का। वह रहता भी एक छोटे शहर में था जहाँ बड़े और प्रसिद्ध लोग शायद ही कभी आते थे। पहले तो सोनू को लगा कि इस तरह उसकी ऑटोग्राफ बुक में किसी के भी हस्ताक्षर हो नहीं पाएँगे। तब उसके ध्यान में आया कि उसके छोटे शहर में भी तो सम्माननीय लोग हैं जिनकी तरह वह कभी बनना चाहता था- पोस्टमैन, स्टेशन मास्टर या सीटी बजाने वाला सिपाही।
जन्मदिन के बाद की पहली सुबह वह बस्ते में ऑटोग्राफ बुक लेकर निकल पड़ा। स्कूल के रास्ते में फायर ब्रिगेड पड़ता था। अहाते में विजया बहन खड़ी थीं। वे फायर ब्रिगेड की मुखिया थीं और अपने सिपाहियों से इंजन की सफाई करवा रही थीं। सोनू ने जब विजया बहन के सामने बुक बढ़ाई तो वे खुश हो गईं। हालाँकि उन्होंने कहा कि वे प्रसिद्ध तो नहीं हैं, फिर भी उन्होंने अपने हस्ताक्षर स्कूल के लंच टाइम में उसे अपनी पुरानी नर्सरी टीचर नंदी दीदी मिलीं। वे तीस वर्षों से स्कूल में थीं और बच्चों में बड़ी लोकप्रिय थीं। वे सितार बजातीं और बच्चों को नाटक खिलवातीं। सोनू ने उनसे भी ऑटोग्राफ लेना चाहा तो नंदी दीदी ने कहा कि बच्चे, मैं तो कभी कॉलेज में भी पढ़ी नहीं हूँ। सोनू ने उनसे पूछा कि उन्होंने कितने बच्चों को अब तक पढ़ाया है और कितने बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर और वकील बने हैं तो दीदी ने मुस्कराकर अपने सुंदर हस्ताक्षर बुक में कर दिए।
शाम के समय सोनू को उसके पड़ोसी दादू बशेशरनाथ का भी ध्यान आया। दादू को सिर्फ दादू कहकर भी काम चल सकता था, क्योंकि वे दादाजी की उम्र के थे और उनकी घनी सफेद मूँछें थीं। लेकिन यह नाम लंबा होने के बाद भी उन पर अच्छा फबता था। दादू के साथ बशेशरनाथ न जोड़ना ऐसा लगता था जैसे बिना झबरीली दुम का अल्सेशियन कुत्ता।
दादू बशेशरनाथ को वह इसलिए पसंद करता था क्योंकि वे बच्चों को उनके घर के ड्राइव-वे में क्रिकेट खेलने देते थे। उनके घर में कार नहीं थी। सोनू उन बच्चों के साथ नहीं खेलता था। फिर भी क्या, दादू बशेशरनाथ अच्छे आदमी थे तो थे। उन्होंने मुस्कराते होंठों और थरथराते हाथों से सोनू की ऑटोग्राफ बुक में इतने बड़े हस्ताक्षर किए कि वे पेज से बाहर चले गए।

उसकी ऑटोग्राफ बुक में और भी कई हस्ताक्षर हुए लेकिन अँगूठे के एक निशान के बारे में कुछ बताए बिना कहानी का पूरा मजा नहीं आएगा। उसके मोहल्‍ले में एक नीम के पेड़ के नीचे कुम्हार का वर्कशॉप है। हर सोम और मंगल को कुम्हार मिट्टी के घड़े, गमले या गुल्लक बनाता है। सप्ताह की शुरुआत में कई बार जब सोनू को स्कूल जाने की इच्छा नहीं होती तो वह नीम की छाह में बैठकर कुम्हार को काम करते हुए देखता।
हर वस्तु कुम्हार इतनी गोल बनाता और सोनू दस कोशिशों बाद भी एक ठीक-ठाक गोला कागज पर नहीं बना पाता। इसलिए कुम्हार उसके प्रिय लोगों में था। ऐसे में बड़ा होना खास मायने नहीं रखता। जब सोनू ने अपनी ऑटोग्राफ बुक कुम्हार के सामने बढ़ाई तो कुम्हार कुछ समझा ही नहीं। काफी देर बाद दूसरों की सहायता से पूरी बात कुम्हार से कही तो कुम्‍हार बहुत खुश हो गया।
लेकिन कुम्हार को पढ़ना-लिखना आता नहीं था। तब उसने तय किया कि कल वह पिताजी से इंक पैड माँगकर ले आएगा और कुम्हार से अँगूठे का निशान लगवा लेगा। इससे ऑटोग्राफ बुक की सुंदरता बढ़ जाएगी। कुम्हार यह बात खूब समझा। उसने झट गेरू का रंग किए हुए एक गमले पर अँगूठा फिराया और पन्‍नों के ठीक मध्‍य में लगा दिया। सोनू को लगा कि पूरी बुक में सबसे सुंदर ऑटोग्राफ कुम्हार के ही हैं।
सप्ताह भर में उसने कई हस्ताक्षर करवा लिए, फिर भी सौ पन्नो की ऑटोग्राफ बुक भरने के लिए वे नाकाफी थे। वह सोच नहीं पा रहा था कि बाकी पन्‍ने किस तरह भरे जाएँ और वह हाथ में लिए प्रोजेक्ट को अधूरा छोड़ना भी नहीं चाह रहा था। इसका हल उसकी छोटी बहन मिनी ने मजे-मजे में सुझा दिया। ऑटोग्राफ बुक के पन्नों को पलटते हुए मिनी ने पूछा कि तुम्हारे प्रिय लोगों के आदर्श क्या हैं? तब सोनू ने सोचा कि यदि ये सारे लोग इतना भर लिख दें कि उनके हीरो कौन हैं? जिनसे प्रेरणा पाकर वे जीवन में कुछ बन सके तो बात बन जाएगी।
वह अपनी ऑटोग्राफ बुक लेकर फिर एक बार उन सब लोगों के पास गया। सबने खुशी-खुशी, कुछ सोचकर बड़े से बड़े व्यक्ति का नाम अपने हीरो की तरह लिखा। किसी ने गाँधीजी का नाम लिखा तो किसी ने अब्राहम लिंकन का। किसी ने झाँसी की रानी का नाम लिखा तो किसी ने हेलन केलर का। सोनू ने अनपढ़ कुम्हार को इस मामले में छूट दे दी थी कि वह बेचारा किसका नाम लिखेगा। सोनू को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कुम्हार का भी कोई हीरो है, उसके नाना। वे बहुत सुंदर घड़े बनाते थे। आसपास के पचास गाँवों में उनका नाम था और उनकी दुकान के बगैर इलाके का कोई हाट पूरा नहीं होता था।
सबसे आखिरी में वह विजया बहन के पास गया। सबसे आखिरी में इसलिए कि वे कभी खाली दिखती ही नहीं थीं। वे लगातार शहर के और जिले के उन गाँव-कस्बों की ओर दौड़ती रहती थीं, जहाँ से आग लगने की सूचना मिलती। विजया बहन में उसे झाँसी की रानी, फ्लोरेंस नाइटेंगल, प्रीति जिंटा और न जाने कौन-कौन दिखाई देता।
विजया बहन ने ऑटोग्राफ बुक में अपना ही नाम लिख दिया- मेरी हीरोइन मैं खुद हूँ। मुझे अपने काम से इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती कि मैं अपने आदर्श ढूँढती फिरूँ। मैं अपना काम मुस्तैदी से करती हूँ तो मैं दूसरों की हीरो हूँ। मैं विजया हूँ। आत्मविश्वास से भरी विजया बहन की बातों से उसकी आँखें चमक उठीं और सिर ऊपर उठ गया। उसने मन ही मन तय कर लिया कि स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वह फायर ब्रिगेड का मुखिया बनेगा।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कहानी

मीकू का संकल्प
मीकू खरगोश, गोलू, हिरन, भोलू भालू, कछुआ सिंह सारे दोस्त चंपक वन में रहते थे। चारों एक ही विद्यालय में और एक ही कक्षा में पढ़ते थे। सब वार्षिक परीक्षा की तैयारी बहुत पहले से ही कर लेते थे। वे खेलना कम कर देते और इधर-उधर व्यर्थ घूमना भी बंद कर देते। मीकू खरगोश को अपने मित्रों की हर समय पढ़ने की आदत जरा भी अच्‍छी न लगती। हमेशा यही कहता अभी तो बहुत समय पड़ा है। कुछ दिन तो उसके दोस्त उसकी बातों में आ जाते पर परीक्षा के कुछ महीने पहले सभी गंभीरता से पढ़ने लगते। मीकू सदा अपने मित्रों की आलोचना करता। यह उसका स्वभाव था। उसमें अहंकार बहुत था। वह सदा दूसरों के दोष देखने में ही तत्पर रहता। दूसरों के दोष निकालने से उसका अहंकार पुष्ट होता। अपना सारा समय और सारी शक्ति को दूसरों की गलतियाँ ढूँढने और उनका मजाक बनाने में लगाता। वह जब भी मित्रों के साथ होता दूसरों की आलोचना में ही समय गँवाता। सब उसकी इस आदत से अप्रसन्न थे। सभी की कोशिश रहती कि वे मीकू से कम से कम ही बातचीत करें। खासकर परीक्षा के दिनों में तो उससे कभी नहीं मिलते थे। यहाँ तक कि उसके दोस्त भी उससे कन्नी काटते थे।
मीकू की माँ उसे समझाती परंतु उस पर किसी का असर न पड़ता। हर बार एक ही बात कहता - इतनी जल्दी क्या है माँ! यह काम तो एक सप्ताह में ही हो जाएगा। आप तो जानती हो न माँ, मुझे एक ही बार में याद हो जाता है। आखिर सप्ताह भी आ जाता, पर मीकू फिर भी तैयारी न करता। उसी रात आधा-अधूरा पढ़ता और परीक्षा के लिए चला जाता। हर बार वह बहुत कम अंकों से उत्तीर्ण होता।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी विद्यालय में वार्षिकोत्सव मनाया गया। मुख्‍य अतिथि विनायक हाथी थे। सभी पहला, दूसरा और तीसरा स्थान पाने वालों को पुरस्कार बाँटे गए। सभी पहला, दूसरा और तीसरा स्थान पाने वालों को पुरस्कार बाँटे गए। पुरस्कार पाने वालों में उसका मित्र गोलू हिरन, भोलू भालू भी थे। कछुआ सिंह तो कक्षा में प्रथम स्थान पर था। जब मुख्‍य अतिथि ने कछुआ सिंह को मंच पर बुलाया तो पूरे सभागृह में तालियाँ गूँज उठीं। प्रधानाचार्य शेरसिंह ने उसके लिए विशेष पुरस्कार के रूप में 'स्वर्ण पदक' बनवाया था।
उसके गले में पहनाते हुए विनायक जी ने कहा - 'तुम जैसे छात्रों पर न केवल विद्यालय को वरन पूरे चंपक वन को गर्व है। ईश्वर की ओर से प्रतिभा चाहे सबको बराबर नहीं मिलती। तेज बुद्धि भी सबको नहीं मिलती पर सब आगे बढ़ सकते हैं। यह आज कछुआ सिंह ने सिद्ध कर दिया है।'
पूरा सभागृह एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से भर उठा। मीकू खरगोश ने बड़े ध्यान से विनायक जी की बातों को सुना। उसे रह-रहकर अपने पर अफसोस हो रहा था कि ईश्वर ने उसे जो तेज बुद्धि दी है उसे वह व्यर्थ की बातों में लगाकर नष्ट कर देता है। कभी भी समय पर कोई काम नहीं करता था। भले ही तेज भाग लेता था पर था बड़ा आलसी।
अपने हर काम को कल पर टाल देता और कल किसी के जीवन में कभी आता ही नहीं। माँ भी मेरी इस आदत से कितनी दुखी रहती हैं। न विद्यालय की मासिक परीक्षा ठीक ढंग से देता हूँ और न ही अर्द्धवार्षिक। हर बार सोचता हूँ अगली बार अच्‍छी तैयारी करूँगा। हर विषय का जब सारा पाठ्‍यक्रम एक साथ करना पड़ता है तो मैं घबरा जाता हूँ। आधी-अधूरी तैयारी के साथ हर वर्ष किसी तरह पास हो जाता हूँ। गोलू हिरन भी कितना मेहनती है दूसरा स्थान उसने भी प्राप्त कर लिया। भोलू भालू भी तीसरे स्थान पर आ गया। मित्रों में एक मैं ही पीछे छूट गया हूँ।
मीकू बार-बार अपने आलस्य को कोसता। अपने टालने की आदत से दुखी होता। काश! मैंने अपना समय अपनी कमियों को देख उन्हें दूर करने में लगाया होता तो मेरी उन्नति का मार्ग खुल गया होता। उसे अपनी मूर्खता पर पछतावा हो रहा था।
पुरस्कार पाने वालों की एक लंबी सूची थी। कुछ पुरस्कार पढ़ाई के अलावा भी थे। चीतासिंह को उस वर्ष तेज धावक का पदक मिला था। सोन चिरैया को और साँवली कोयल को संगीत में पदक मिला था।
इन्हें पदक पहनाते हुए विनायक जी ने कहा - 'सारे पशु-पक्षी ईश्वर की ओर से कोई न कोई गुण लेकर आए हैं। कोई भी गुणहीन नहीं है। अपनी-अपनी प्रतिभा और शक्ति को पहचानिए। अपनी योग्यता और रुचि को स्वयं खोजिए और अपने को उसी क्षेत्र में आगे बढ़ाइए। जो आलस और प्रमादवश समय को व्यर्थ खो देते हैं वे कभी जीवन में आगे नहीं बढ़ पाते। अब सब में अनंत शक्ति का भंडार है किंतु मन अनुशासित नहीं। वह व्यर्थ के कार्यों में लगा रहता है। मुझे पूरा विश्वास है कि अगले वर्ष आपमें से दूसरे जानवर भी इस तरह विशेष योग्यता प्राप्त करके अनपा और अपने माता-पिता का नाम रोशन करेंगे, साथ ही अपने राष्ट्र का भी।'
मीकू खरगोश को लगा जैसे विनायक जी यह बात उसी को सुनाने के लिए कह रहे हों। और उसने मन ही मन संकल्प किया कि वह अगले वर्ष जरूर प्रथम आएगा। पढ़ाई में भी और दौड़ में भी। अब बाकी के समय को व्यर्थ की गपशप, निद्रा और आलस्य में नष्ट नहीं करेगा। परिश्रम करेगा और पदक जीतेगा।
मीकू अब वह मीकू नहीं रहा था। उस वार्षिकोत्सव ने उसकी दिशा ही बदल दी थी। वह अब किसी की आलोचना नहीं करता और सारा ध्यान अपनी ही कमियाँ ढूँढने में लगाता। उसे यह बात अब अच्‍छी तरह से समझ आ चुकी थी कि भगवान ने उसे तेज बुद्धि तो दी है पर उसका उपयोग उसने सही दिशा में नहीं किया। अब उसने अपना सारा ध्यान पढ़ाई पर लगाना शुरू कर दिया। मासिक परीक्षा में अच्‍छे अंक पाकर उसका उत्साह और बढ़ गया। अर्द्धवार्षिक परीक्षा में वह दूसरे स्थान पर रहा। उसे लगा अब मंजिल ज्यादा दूर नहीं है। वह मित्रों के साथ खेलता चंपक वन 'स्पोर्ट्‍स क्लब' में भी जाता। जब भी बातें करता, पढ़ाई की बातें करता। आपस में हर विषय पर खुली चर्चा करता।
कोई भी मुश्किल किसी भी विषय में आती तो वह शिक्षक से पूछकर उसका हल निकालता। अपनी तेज बुद्धि का उपयोग करके उसे महसूस हुआ कि सच्ची खुशी मेहनत में है। इस तरह समय पंख लगाकर उड़ गया। वार्षिक परीक्षा आ गई। मीकू को अब कोई घबराहट नहीं थी क्योंकि उसने सारी तैयारी पहले से ही कर ली थी। हर विषय को कई-कई बार पढ़ चुका था। तैयारी के अनुसार ही उसके सारे प्रश्न-पत्र बहुत अच्छे हुए। वह बहुत खुश था।
परीक्षाफल निकला। कक्षाध्यापक ने सबको प्रगति पुस्तिकाएँ बाँटी। मीकू खरगोश का दिल धक-धक कर रहा था। अचानक अपना नाम सुनकर वह चौकन्ना हो गया। प्राचार्य महोदय ने कहा - 'इस बार का सबसे बड़ा आश्चर्य है मीकू खरगोश का सारे कीर्तिमान तोड़ना! यह न केवल अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर है वरन आठवीं कक्षा की चारों कक्षाओं में सबसे आगे है।'
तालियों से सारी कक्षा ही नहीं पूरा विद्यालय गूँज गया। प्राचार्य जी ने मीकू खरगोश को आगे बुलाया। उसकी आँखों में खुशी के आँसू छलक रहे थे। उसके मुख से एक भी शब्द नहीं निकला।' बोलो मीकू! अपनी सफलता को अपने मित्रों के साथ नहीं बाँटोगे क्या? बताओ यह परिवर्तन तुममें कैसे आया? अपने साथियों को भी बताओ।' प्राचार्य महोदय ने मीकू की पीठ ठोंकते हुए कहा।
मीकू खरगोश ने प्राचार्य के पैर छुए और भर्राई आवाज में कहा - इस सबके पीछे थी विनायक जी की प्रेरणा और मेरा संकल्प। वार्षिकोत्सव पर जब मुख्‍य अतिथि विनायक जी ने कहा कि ईश्वर सबको बुद्धि देता है परंतु मेहनत सब नहीं करते। जो मेहनत करते हैं वही आगे निकल जाते हैं और बाकी सब पीछे छूट जाते हैं और यह छूटे हुए छात्र जीवन भर फिर पीछे ही रह जाते हैं। ऐसे छात्र न अपना हित कर पाते हैं और न समाज का। बस तभी मैंने सोच लिया था कि मैं आलस को छोड़कर नियमित पढ़ाई करूँगा और अपने चंपक वन का नाम रोशन करूँगा। विनायक जी का एक-एक शब्द रोज मेरे कानों में गूँजता और मुझमें नया उत्साह भरता। उनके भाषण ने मुझमें आशा का संचार किया कि हर छात्र आगे बढ़ सकता है अगर वह चाहे तो हर असंभव को संभव बना सकता है। बस काम करने की लगन और इच्छाशक्ति दृढ़ होनी चाहिए।'
प्राचार्य महोदय ने मीकू की पीठ थपथपाते हुए उसे शाबाशी दी और कहा - 'आज से यह मुहावरा बदल दो ‍कि धीरे-धीरे करते हुए विजय मिल जाती है।'
मीकू की सफलता से उसके मित्र भी बहुत प्रसन्न थे। सबने उसे बधाई दी और चंपक वन में एक बड़े समारोह की तैयारियाँ शुरू कर दी।

ऐसे आई समझ
एक था बूढ़ा पाला - बड़ा समझदार और अनुभवी! उसका नौजवान बेटा जाड़ा एकदम नासमझ और बड़बोला था, एक दिन उसने पिता से डींग मारी - 'मैं जिसे चाहूँ, मिनटों में ठंड से अकड़ा सकता हूँ।'
'ऐसा समझना कोरा भ्रम है बेटा''
बूढ़े पाला ने समझाया। मैं अभी प्रमाण देता हूँ। नौजवान जाड़ा ने उत्तेजित होकर कहा और चारों तरफ निगाह दौड़ाई... सामने एक मोटा-ताजा सेठ दिखा गरम कपड़ों और कीमती शाल से लदा-फदा! जाड़े ने उसे जा घेरा। सेठ देखते-देखते ठंड से काँपने लगा। देख लीजिए पिताजी! जाड़े ने शेखी बघारी 'पहलवान जैसे सेठ पर मैंने कैसी बुरी गुजार दी। अब तो मान गए न मेरी बात?'
नहीं, बूढ़ा पाला हँसा, फिर बैलगाड़ी लेकर जंगल की तरफ जाते एक फटेहाल किसान को दिखाकर बोला - 'बेटा, तेरी बात मैं तब मान सकता हूँ, जब तू उसे छका दे।'
जाड़े ने बाप की तरफ देखा और बड़े घमंड से कहा - 'अभी चित करता हूँ। वह तुरंत उड़कर किसान के पास पहुँच गया और उसे दबोचना शुरू किया। उसने कमजोर बैल के जूए से कंधा भिड़ाया और बैलगाड़ी खींचने में मदद देने लगा।
जाड़ा उसकी कन‍पटियाँ, हाथ-पैर, और गर्दन पर चुटकियाँ काटता रहा, लेकिन किसान पर असर नहीं पड़ रहा था। क्योंकि गाड़ी में जोर लगाने से उसके शरीर से गरमी छिटक रही थी। जाड़ा हैरान था - कितना मजबूत है यह पिद्दी भर का आदमी! मगर उसने हिम्मत न हारी, किसान के पीछे पड़ा रहा। मन में सोच रहा था, यहाँ न सही, जंगल में तो अकड़ा ही दूँगा। कितनी देर झेल पाएगा मुझे? जंगल पहुँच कर किसान ने बैलगाड़ी रोक दी।
अब वह कुल्हाड़ी उठाकर सूखी लकड़ियाँ काटने लगा। जाड़ा जैसे-जैसे उस पर हमला करता, उसकी कुल्हाड़ी चलाने की गति बढ़ती गई। देखते-देखते उसने गाडी भर लकडी काट डाली। देह में ऐसी गर्मी आई कि पसीना चूने लगा। उसने सिर की पगड़ी उतारकर जमीन पर रख दी।
जाड़े का कोई वश न चला, तो पगड़ी में जा बैठा। लकड़ी लाद चुकने के बाद किसान ने पगड़ी उठाई। उसे बरफ सा ठंडा पाकर वह गरम हथेलियों से मसल-मसल कर पगड़ी को गरमाने लगा। जाड़ा ज्यादा समय तक किसान के हाथों की रगड़ न झेल पाया। वह पिटा सा मुँह लेकर पिता के पास लौट आया। बूढ़ा पाला उसकी दशा देखकर हँस पड़ा। बोला 'बेटा! आरामतलब लोगों को तुम छका सकते हो। मगर मेहनती लोगों के आगे तुम्हारी तो क्या, किसी भी मुसीबत की नहीं चल पाती।'
सौजन्य से - देवपुत्र

हँसगुल्ले

दुनिया 420 है!

टीचर (सोनू से) - बताओ, दुनिया गोल है या चपटी?
सोनू - दुनिया न तो गोल है और न ही चपटी, मेरे पापा कहते हैं कि दुनिया 420 है।

अनजान नौकर!
साहब (नौकर से) - क्या मैं तुम्हें गधा या उल्लू का पट्‍ठा लग रहा हूँ।
नौकर - साहब मैं इतनी जल्दी कैसे बता सकता हूँ। मैं तो कल ही नौकरी पर आया हूँ।
पिता-पुत्र
एक बार एक सरदारजी अपने छोटे पुत्र को लेकर बाजार जा रहे थे। बाजार में उनके पुत्र ने कहा- 'पापा, पापा! केले लीजिए ना!' तब सरदारजी ने कहा- 'अरे बेटे! ये कोई केले हैं, यह तो केली है, केली। केले तो अपने पंजाब में होते हैं, मोटे-मोटे, ताजे'
वे आगे चल दिए। आगे उनके पुत्र ने तरबूज खरीदने की जिद की। इस पर सरदारजी ने कहा- 'ये कोई तरबूज हैं, यह तो तरबूजी है, तरबूजी। तरबूज तो अपने पंजाब में होते हैं-मोटे-मोटे, ताजे'।
वे घर पहुँचे। उनके घर पहुँचते ही उनके बड़े पुत्र ने पूछा- 'पापा! आप हमारे लिए क्या लाए?' इस पर उनके छोटे पुत्र ने कहा- 'अरे! यह कोई पापा हैं, यह तो पापी है, पापा तो अपने पंजाब में हैं, मोटे-मोटे, ताजे।

हॉर्न

एक सेठजी कार में सफर कर रहे थे कि अचानक ड्रायवर ने ब्रेक लगा दिया।
सेठजी चिल्लाए- 'यह क्या कर रहे हो?'
ड्रायवर-'साहब, एक पत्थर आ गया था।'
सेठजी- 'बेवकूफ! तुमने हॉर्न क्यों नहीं बजाया?'

खरीददार
'इस भैंस की तो एक आँख खराब है, फिर सात हजार रुपए क्यों माँग रहे हो?' खरीददार ने कहा।
'आपको भैंस से दूध लेना है या कशीदाकारी करवानी है।' भैंस विक्रेता ने जवाब दिया।

डाकू व यात्री
डाकू- 'तुम्हारे पास जो कुछ भी है, मेरे हवाले कर दो।'
यात्री- 'धीरे बोलो, कहीं टी.टी. न सुन ले। मेरे पास तो टिकट भी नहीं है।'

प्रेरक व्यक्तित्व

विद्या बालन का बचपन
राधा के रोल से नई शुरुआत हुई थी

साथियो,

मैं मुंबई में पैदा हुई और यहीं बड़ी हुई हूँ। मुंबई के चेंबूर इलाके में मेरा घर है। यह बड़ा ही प्यारा इलाका है। हम दक्षिण भारतीय अय्यर हैं और ज्यादातर दक्षिण भारतीय अय्यर परिवार चेंबूर में रहते हैं। तो दोस्तो, मेरा बचपबन चेंबूर में बीता। बाकी मुंबई की तरह यहाँ जिंदगी ज्यादा तेज नहीं है। यहाँ न तो ज्यादा डिस्को है औ न ही ज्यादा बड़े शॉपिंग मॉल वगैरह। यह इलाका मुंबई में होते हुए भी मुंबई की भागदौड़ से अलग है। शांत जगह रहने का अपना मजा है और मेरे बचपन के दिन इसी सुकून भरी जगह में बीते।
दोस्तो, हमारे परिवार में संगीत, दूसरी कलाओं में और पढ़ाई को बहुत महत्व दिया जाता था। बचपन में हमारे घर के आसपास रहने वाले ज्यादातर बच्चों की रुचि शास्त्रीय संगीत सीखने में रहती थी। सालभर हमारे मोहल्ले में बहुत-सी प्रतियोगिताएँ भी होती थीं जिनमें बच्चों को भाग लेने का मौका मिलता था। इन प्रतियोगिताओं में जीतने से ज्यादा महत्व भाग लेने का होता था।
मैं भी बचपन में नाटक में भाग लेती थी। पर बहुत ज्यादा गंभीर नहीं थी। चेंबूर में मेरा बचपन बहुत सारे दोस्तों और भाई-बहनों के बीच बीता इसलिए मुझे बचपन में अकेलापन या बोरियत महसूस नहीं हुई। बल्कि हम मिलकर बहुत सारी शैतानियाँ करते थे।
दोस्तो, मेरी बड़ी बहन प्रिया और मैं बचपन में खूब मस्ती करते थे। प्रिया मुझसे चार साल बड़ी थी और वह बहुत बातूनी थी। उसकी खासियत यह थी कि वह सभी से जल्दी ही दोस्ती कर लेती थी। मैं इस मामले में थोड़ी संकोची और शर्मीली लड़की थी। मैं किसी के साथ ज्यादा घुलमिल नहीं पाती थी। यह बात बताते हुए मुझे थोड़ी हँसी भी आती है कि बचपन में खासी मोटी थी।
इसलिए जब भी दीदी से लड़ाई होती थी तो मैं उसे हरा देती थी। वैसे इन छोटी लड़ाइयों के बाद भी हम दोनों में बहुत प्यार था। प्रिया दीदी मुझे पढ़ाई से लेकर दूसरी सारी चीजों में हमेशा मदद करती थी। हम दोनों में बहनों का रिश्ता बाद में था और अच्‍छी दोस्त का पहले।मुझे याद है कि हम दोनों का स्कूल भी एक ही था। सेंट एंथोनी'ज गर्ल्स स्कूल। पापा हम दोनों को स्कूटर पर बैठाकर स्कूल छोड़ने जाते थे। आज भी मुझे उन दिनों की बहुत याद आती है। बचपन के दिनों की सारी शैतानियाँ बड़ा हो जाने पर याद आती है और हमें हँसा जाती है। आज मैं फिल्मों में अभिनय करती हूँ तो इसकी शुरुआत नर्सरी से ही हो गई थी। नर्सरी में हम्टी-डम्टी पर एक स्टेज परफार्मेंस होना थी। मम्मी बताती है कि उन्होंने मुझे चॉकलेट का लालच देकर यह रोल करने को राजी किया था। इसके बाद भी दोस्तों सातवीं कक्षा तक स्टेज पर जाने से मुझे डर लगता था। स्कूल में होने वाली प्रतियोगिताओं से मैं दूर ही रहती थी पर सातवीं कक्षा के बाद जब मैं आठवीं में थी तो शांता मिस ने मुझे एक प्ले में राधा का रोल दिया।
मैंने डरते-डरते वह रोल किया। राधा के रोल में मुझे खूब पसंद किया गया। इसके बाद अगले साल फिर से मुझे राधा का रोल मिला। तो इस तरह स्कूल के दिनों में एक्टिंग की शुरुआत हुई। दोस्तो, मैंने जब एक बार इन प्रतिय‍ोगिताओं में भाग लेना शुरू किया तो फिर मुझे इनमें पढ़ाई से ज्यादा मजा आने लगा था। स्कूल के दिनों में जो कुछ भी एक्टिंग इस तरह सीखी थी। उसी की वजह से आगे चलकर मैं अभिनेत्री बन पाई। तो आप भी स्कूल के दिनों में अपनी पसंद के काम जरूर करो। स्कूल के दिनों में सभी कामों में हिस्सा लो।
मेरा आप सभी से यही कहना है कि स्कूल में होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना ही चाहिए। इनमें आपको सीखने को बहुत कुछ मिलेगा। वैसे अब इन प्रतियोगिताओं का समय तो निकल चुका है और पढ़ाई का समय आ गया है। तो इस समय मन लगाकर पढ़ाई करो। फिर जब अगले साल स्कूल या कॉलेज का नया सत्र शुरू होगा तो सारी एक्टिविटीज में भाग लेना।

आपकी दोस्त
विद्या बालन

सेहत

नेगेटिव थिंकिंग से बचने के आसान टिप्स
होगा कोई वह दौर जब कम सैलेरी, कम फैसेलिटी में भी युवाओं में भरपूर खुशियाँ होती थी। आज भागदौड़ और कॉम्पिटिशन के इस दौर में अब लाखों-करोड़ों कमाने के बाद भी युवाओं के चेहरे पर वह खुशी नहीं होती जो पहले हुआ करती थी। युवा अपने काम से नाखुश हैं,डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं। उनकी सोच पॉजिटिव के बजाय नेगेटिव होती जा रही है। यह स्थिति हेल्थ की दृष्टि से अच्छी नहीं है। आइए जानते हैं कुछ आसान टिप्स नेगेटिव थिंकिंग से बचने के :
हमें किसी भी सिचुएशन में हार नहीं माननी चाहिए। इससे बड़ी से बड़ी प्रॉब्लम भी हमें छोटी नजर आएगी। लगातार अपने ब्रेन को पॉजिटिव मैसेज देते रहना चाहिए।
खुद को री-चार्ज करें

जीवन में आने वाली छोटी से छोटी खुशी की कल्पना करें।
मेडिटेशन, शॉपिंग और अपनी दूसरी हॉबीज् को बढ़ावा देकर भी आप खुश रह सकते हैं।
इसके अलावा आप अपनी कुछ हैबीट और स्टाइल में बदलाव लाकर भी अपने प्रॉब्लम को दूर सकते हैं।
जब भी आपको यह लगे कि एक ही समय में आपकी जरूरत दो जगह पर है तो ऐसी कंडीशन में निराश न हों बल्कि ऐसे समय में अपने किसी फ्रेंड व फैमेली पर्सन की हेल्प ले सकते हैं।
रिश्तों में ताजगी लाएँ
अक्सर युवाओं को यह लगता है कि प्यार जताने की जरूरत नहीं होती है मगर हकीकत में समय-समय पर अपने चाहने वालों को यह बताते रहना चाहिए कि आप उनसे कितना प्यार करते हैं। आपके जीवन में उनका क्या इंपॉर्टेंन्स है। इससे आपकी डगमग होती गाड़ी भी वापस पहिए पर चलने लगेगी।
प्यार आपको खुशी की फीलिंग्स देता है और जब आप अपने प्यार का इजहार करते हैं तो सामने वाला भी खुश होता है और आप भी।
अपने काम में आलस न करें
घर हो या बाहर अपने काम में कोई कोताही न करें। ऑफिस में अपने टीम के किसी से रूखा व्यवहार न करें। अपने प्रोफेशनलिज्म के साथ समझौता न करें। वाद-विवाद से दूर रहने का प्रयास करें। ऑफिस के उन लोगों से बातचीत लिमिटेड रखें जो आपके स्तर के नहीं है।
स्ट्रेस को दूर करें
फीजिकल फिटनेस के अलावा टीवी देखकर और किताबें पढ़कर भी आप दिमाग को नेगेटिव सिचुएशन से दूर रख सकते हैं।
इसके अलावा फल-फूल, सब्जी और सलाद खाकर भी खुद को हेल्दी रख सकते हैं।
सबसे आसान उपाय कि अपने आप से कहें : मेरे लिप्स नहीं जानते टेंशन क्या होता है, बस इसीलिए कैसी भी सिचुएशन हो, मुस्कराते रहते हैं।
प्रकृति का धनी गरीब बस्तर
प्रकृति ने बस्तर को छप्पर फाड़कर प्राकृतिक सौंदर्य दिया है। धार्मिक पर्यटन, बस्तर हाट, मुर्गा लड़ाई, घोटुल यहाँ के आकर्षण हैं जो अन्य किसी पर्यटन स्थल पर नहीं देखे जा सकते।
अगर आप महानगरों की तेज रफ्तार जिंदगी और चकाचौंध भरी दुनिया से ऊब चुके हो और शांति एवं सुकून के कुछ दिन प्रकृति की गोद में बिताना चाहते हों तो छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में आपका स्वागत है। कम से कम बजट में अच्छी से अच्छी सुविधा प्राप्त कर पर्यटन के लिहाज से रोमांचक अनुभव पाया जा सकता है, बशर्ते कि आपके पास प्रकृति को सहेजने का धीरज हो।
आपको बता दें कि भौगोलिक दृष्टि से केरल जैसे राज्य से बड़े बस्तर नामक इस भू-भाग को प्रकृति ने छप्पर फाड़कर प्राकृतिक सौंदर्य दिया है। इतना कि इसे निहारने-भोगने के लिए आपके महीनों की अवधि कम पड़ जाए। प्राकृतिक सौंदर्य के अलावा लोक-संस्कृति भी ऐसी कि उसमें ही रम जाएँ।
यहाँ लोक संस्कृति, परंपरा, धार्मिक पर्यटन, बस्तर हाट (बाजार), मुर्गा लड़ाई, घोटुल पर्यटन के आकर्षण हैं जो देश के अन्य किसी पर्यटन स्थल पर नहीं देखे जा सकते। बस्तर से अलहदा यदि छत्तीसगढ़ का खजुराहो आपको देखना हो तो कवर्धा जिले के भोरमदेव चले आइए। मिनी तिब्बत यदि देखना हो तो सरगुजा जिले के मैनपाट चले आइए। वन अभयारण्यों में बारनवापारा, अचानकमार और उदंति ऐसे अभयारण्य हैं, जहाँ दुर्लभ वन्यजीव आज भी देखे जा सकते हैं।
राज्य के पर्यटन और संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल की यदि मानें तो राज्य को पर्यटन के नक्शे पर अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाना उनका मुख्य उद्देश्य है। हाल ही में स्विट्जरलैंड से राज्य के पर्यटन की जमकर मार्केटिंग करके लौटे अग्रवाल ने कहा कि आने वाले समय में छत्तीसगढ़ का पर्यटन सौंदर्य विदेशी पर्यटकों को लुभाने में कामयाब होगा।
छत्तीसगढ़ का भू-भाग, पुरातात्विक, सांस्कृतिक और धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से अत्यंत संपन्न है फिर चाहे वह कांकेर घाटी हो, विश्व प्रसिद्ध चित्रकोट का जलप्रपात हो या फिर कुटुंबसर की गुफाएं ही क्यों न हों। प्राकृतिक सौंदर्य से सराबोर सदाबहार लहलहाते सुरम्य वन, जनजातियों का नृत्य-संगीत और घोटुल जैसी परंपरा यहाँ का मुख्य आकर्षण हैं।
त्रेतायुग में राम के वनगमन का रास्ता भी इसी भू-भाग से गुजरता है। जिस दंडक वन से राम गुजरे थे उसे अब दंडकारण्य कहा जाता है। वैसे भी खूबसूरती प्रायः दुर्गम स्थानों पर ही अपने सर्वाधिक नैसर्गिक रूप में पाई जाती है। कारण बड़ा साफ है, ये दुर्गम स्थान प्रकृति के आगोश में होते हैं। प्रकृति के रचयिता रंगों को मनमाफिक रंग से भर खूबसूरती की मिसाल गढ़ते हैं। यह खूबसूरती बस्तर की घाटियों में देखी जा सकती है जो हिमाचल की भांति हैं।
चित्रकोट जलप्रपात की खूबसूरती को निहारने के लिए राज्य के पर्यटन विभाग ने जबरदस्त इंतजाम किए हैं। जलप्रपात का नजारा चूँकि रात में ज्यादा आकर्षक होता है इसलिए रुकने के लिए विभाग ने 'हट' भी बनाए हैं, जिनका न्यूनतम किराया 24 घंटे का एक हजार रुपए है। इन हाटों में पर्यटकों के लिए तरह-तरह की आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
यह स्थान जगदलपुर जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर की दूरी पर है। जगदलपुर में ठहरने के लिए विश्राम गृह, होटल और गेस्ट हाउस उपलब्ध हैं। रायपुर से तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मनोरम स्थल तक पहुँचने के लिए लक्जरी बसें उपलब्ध हैं। यहाँ पर देश के सभी प्रमुख हवाई मार्गों से हवाई सेवा उपलब्ध हैं। बस्तर के आसपास के 50 किलोमीटर की दूरी तक के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए जगदलपुर जिला मुख्यालय में रुकना ही बेहतर है। चित्रकोट को छोड़ किसी भी स्थान पर रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है। वैसे तो बस्तर में जलप्रपात की लंबी श्रृंखला है। इस प्रपात की ठीक दूसरी दिशा में जगदलपुर जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तीरथगढ़ जलप्रपात में सफेद पानी की धार पर्यटकों को आकर्षित करती है। जगदलपुर से 30 किलोमीटर दूर प्राकृतिक गुफाओं की काफी लंबी श्रृंखला है।
विश्वप्रसिद्ध कोटमसर गुफा के भीतर जलकुंड तथा जलप्रवाह से बनी पत्थर की संरचनाएँ रहस्य और रोमांच से भर देती हैं। पूरा बस्तर घाटियों से घिरा हुआ है। उत्तर में केशकाल तथा चारामा घाटी तो दक्षिण में दरबा की झीरम घाटी, पूर्व में अरकू तथा पश्चिम में बंजारा घाटी पर्यटकों को अलग-अलग रंग-रूप की प्राकृतिक सुरम्यता से आकर्षित करती हैं।
देश के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में बसा छत्तीसगढ़ राज्य चकाचौंध भरी दुनिया के लोगों की नजर में भले ही सबसे पिछड़ा इलाका हो लेकिन प्रकृति, पर्यटन व सौंदर्य प्रेमियों के लिए यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है। वैसे तो पिछड़ेपन का ही परिणाम है कि यहाँ नक्सलवाद अपने चरम पर है लेकिन प्रकृति की गोद में बसे दर्शनीय स्थल नक्सल गतिविधियों से मुक्त है। राज्य के उत्तरी छोर पर सरगुजा जिले के मैनपाट में आप मिनी तिब्बत का नजारा देख सकते हैं।
पिछले चालीस साल से मैनपाट में तिब्बती शरणार्थियों ने अपना स्थायी ठिकाना बनाया हुआ है। राज्य में धार्मिक पर्यटन का भी अच्छा-खासा बाजार है। रायपुर से बस्तर तक का तीन सौ किलोमीटर का सफर दर्शनीय स्थलों से भरपूर है। 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है। यहाँ 11 वीं शताब्दी में निर्मित कुलेश्वर महादेव, राजीव लोचन मंदिर, राजेश्वर मंदिरों का एक समूह है।
राजिम में हर साल फरवरी में लगने वाला कुंभ देश का पाँचवाँ कुंभ स्थल बनने जा रहा है। इस कुंभ में देश भर से साधु-संतों के अखाड़े तो आते ही हैं, राज्य और राज्य के बाहर से लाखों लोग यहाँ आते हैं। यहाँ भी तीन नदियों का संगम है। बस्तर के ही रास्ते में पड़ने वाले धमतरी और गंगरेल और मॉडम सिल्ली डेम आकर्षण का केंद्र हैं। यहाँ भी रूकने के लिए सिचाई विभाग के रेस्ट हाउस न्यूनतम किराए पर उपलब्ध है।
धमतरी के बाद कांकेर जिला मुख्यालय को बस्तर के पर्यटन का द्वार कहा जाता हैं। कांकेर के राजमहल को हेरिटेज का दर्जा दिया गया है। यहाँ से पूरे बस्तर के पर्यटन का पैकेज टूर बनता है। विदेशी पर्यटकों को लुभाने के लिए कवर्धा, कांकेर और बस्तर के राजमहलों को हेरिटेज इमारतों में तब्दील कर दिया गया है।
यूँ तो बस्तर देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार है लेकिन एक जनजातीय संस्कृति घोटुल के बारे में जानने के लिए विदेशी पर्यटक भी उत्सुक रहते हैं। घोटुल दरअसल सामूहिक तौर पर अविवाहित युवक-युवतियों का सामूहिक मिलन संस्कार है। यहीं जोडि़याँ बनती हैं, विवाह होते हैं और गृहस्थ जीवन में उनका प्रवेश होता है। यह संस्कार इतना गोपनीय होता है कि इन स्थलों पर इन अविवाहित जोड़ों के अलावा गाँव या शहर का कोई भी अन्य व्यक्ति नहीं रह सकता।

पर्यटन

दीर्घायु हैं हिमालय के हिमनद
हिमालय के बारे में पहले भी ऊल-जलूल घोषणाएँ और भविष्यवाणियाँ होती रही हैं लेकिन जब संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर बने अंतर्देशीय पैनल (आईपीसीसी) की 2007 में प्रकाशित चौथी रिपोर्ट में यह दावा किया गया कि वर्ष 2035 तक हिमालय के हिमनद पूरी तरह पिघल जाएँगे। हिमालय की 4,300 मीटर से लेकर 5,800 मीटर की ऊँचाइयों पर 33,200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हिमनदों में जमा 1,400 घन किलोमीटर बर्फ को लेकर ऐसी खबर ने लोगों को बेहद चिंतित कर दिया।
इनके विलुप्त होने का मतलब इनसे निकलने वाली सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों और उनकी सैकड़ों सहायक नदियों का खत्म हो जाना था। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई) की 'इन्वेन्ट्री ऑफ ग्लेशियर-2009' के अनुसार हिमालय के भारतीय क्षेत्र में कुल 9,575 हिमनद हैं।
बहरहाल, हिमनदों के निकट भविष्य में सूख जाने की घोषणा करने वाली आईपीसीसी को पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्ष 2007 का नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला। इस रिपोर्ट के अनुसार, 'दुनिया के अन्य भागों में स्थित हिमनदों की तुलना में हिमालय के हिमनद तेजी से सिकुड़ रहे हैं और सिकुड़ने की गति यदि यही रही तो ये ग्लेशियर वर्ष 2035 तक समाप्त हो जाएँगे। यदि पृथ्वी इसी गति से गर्म होती रही तो ये हिमनद और भी जल्दी समाप्त हो सकते हैं।'
इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद विश्व समुदाय तथा वैज्ञानिकों में हलचल मचनी स्वाभाविक थी। दुनिया के 2,500 शीर्ष वैज्ञानिकों वाली आईपीसीसी की ख्याति तथा उसे दी गई मान्यता को देखते हुए इस रिपोर्ट को नकारना भी आसान नहीं था। रिपोर्ट के अनुसार हिमनदों के सिकुड़ने को सीधे-सीधे 'ग्लोबल वार्मिंग' से जोड़ा गया था।
बहरहाल, हिमालय के हिमनदों पर पिछले एक दशक से संवेदनशील यंत्रों की सहायता से शोध कर रहे भारतीय हिमनद वैज्ञानिकों के आँकड़े कुछ और कह रहे थे। उनका मानना था कि ये हिमनद इतनी तेजी और असामान्य गति से नहीं पिघल रहे हैं कि आईपीसीसी की घोषणा के अनुरूप कुछ ही सालों में सूख जाएँगे।
दूसरी और आईपीसीसी की रिपोर्ट में आँकड़े नहीं दिखाए गए थे और लगता था कि वह पूरी तरह अनुमान पर आधारित है। इस रिपोर्ट को वर्ष 2005 की डब्लूडब्लूएफ की रिपोर्ट, वर्ष 1996 में यूनेस्को की जल विज्ञान पर छपे पत्र तथा वर्ष 1999 में 'न्यू साइंटिस्ट' पत्रिका में छपे एक साक्षात्कार के आधार पर बनाया गया था।
इस साक्षात्कार में हिमालय के हिमनदों पर काम कर रहे अंतर्राष्ट्रीय कमीशन (आईसीएसआई) के अध्यक्ष डॉ. सैयद इकबाल हसनैन ने बयान दिया था, "हिमालय के अधिकांश हिमनद 40 सालों में समाप्त हो जाएँगे।' जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हसनैन वर्तमान में टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) में कार्यरत हैं। हसनैन को पिछले साल ग्लेशियर विज्ञान में सराहनीय योगदान के लिए भारत सरकार पद्मश्री पुरस्कार भी दे चुकी है।
वर्ष 1996 में रूसी जल विज्ञानी बी.एम. कोटलाव ने भी वर्ष 2350 तक हिमालय के हिमनदों के पिघलकर पाँचवें हिस्से तक रह जाने की घोषणा की थी। महज एक पत्रिका में छपे साक्षात्कार या वर्ष 2350 को वर्ष 2035 लिख देने की गलती को सत्य की खोज और सटीक आँकड़ों के आधार पर कार्य करने वाले वैज्ञानिक समुदाय के एक वर्ग द्वारा जगह-जगह दोहराई जाने लगी।
देहरादून के वाडिया संस्था के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक बिना झिझक स्वीकार करते हैं कि उस दौरान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वाडिया संस्थान में जाँच के लिए आने वाले शोधपत्रों में भी इस अवैज्ञानिक तथ्य को दोहराया गया था। अब लोगों की समझ में आ रहा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के हिमनदों के वर्ष 2035 तक समाप्त हो जाने की यह घोषणा भारत-चीन सहित हिमालय से सटे अन्य देशों को भी इस पारिस्थितिकीय घटना के लिए नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराना था।
इन भ्रांतियों से क्षेत्रीय राजनीतिक अस्थिरता तो आती ही, आर्थिक उठापटक भी होती। क्योटो प्रोटोकॉल को अस्वीकार करने के बाद विकसित देश दरअसल वर्ष 2007 में होने वाले 'बाली सम्मेलन' में कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी विकासशील देशों की तरफ खिसकाने की तैयारी कर चुके थे।
कोपेनहेगन में 2009 में हुए जलवायु शिखर सम्मेलन में तो विकसित देशों ने विकासशील देशों को वर्ष 2020 ‍‍तक 25 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करने की सहमति वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने का दबाव भी डाला। पर्यावरण कानून के विशेषज्ञ डॉ. ए. के. कांटू अपने शोधपत्र 'मौसम परिवर्तन के राजनीतिक तथा आर्थिक प्रभाव' में लिखते हैं, 'जीवाश्म और पेट्रोलियम आधारित ऊर्जा मॉडलों को बनाए रखने के लिए अमेरिका ने तेल की राजनीति से ध्यान भटकाने के लिए मौसम परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग का हौंवा खड़ा किया है।'

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

हँसगुल्ले

हाथी और चूहे की लड़ाई
एक बार हाथी और चूहे में लड़ाई हो गई। हाथी चूहे को मारने दौड़ा। चूहा बिल में घुस गया। थोड़ी देर में चूहा अपना पैर बाहर निकालकर खड़ा हो गया।
दूसरे चूहे ने पूछा, 'यह क्या कर रहे हो?'
पहला चूहा बोला, 'अरे, हाथी को अड़ंगी मार रहा हूँ।
थोड़ी सी हँसी हो जाए
अमित सुमित से : यार यह बताओ कि तुमने अपनी उँगलियों पर ये नंबर क्यों लिख रखे हैं।
सुमित : तुझे इतना भी नहीं पता। मास्टरजी ने कहा कि गिनती उँगलियों पर होनी चाहिए।
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रोनू दादी माँ से : दादी माँ ठंड में मुझे ठंडे पानी से मुँह धोने को मत कहो। मुझे ठंड लगती है।
दादी माँ : पर बेटा हम जब तुम्हारी उम्र के थे तो ठंड के दिनों में भी चार बार ठंडे पानी से मुँह धोते थे।
रोनू : तभी तो आपका चेहरा इतना सिकुड़ गया है।
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मास्टरजी : सोनू तुम्हारा होमवर्क तुम्हारे पिताजी की हैंडराइटिंग में क्यों है?
सोनू : मास्टरजी वो मैंने कल पिताजी की पेन से होमवर्क किया था ना इसलिए।
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अन्नू : पापा यह पंखा बिजली से क्यों घूमता है?
पापा : क्योंकि बेटा बिजली में बहुत शक्ति होती है।
अन्नू : हमसे भी ज्यादा?
पापा : नहीं बेटा, हमारा दिमाग ज्यादा ताकतवर होता है।
अन्नू : तो पापा फिर दिमाग से पंखा क्यों नहीं चलाते!

संपादक की ‍चिट्‍ठी

हार को भी जीत में बदलो
कभी-कभार किसी काम को करते हुए कुछ गड़बड़ हो जाती है। होती है ना? अनजाने में हुई गड़बड़ियों में धैर्य से काम लेने पर ऐसे में भी कोई रास्ता निकल ही आता है। मुश्किल आने पर सोच-विचारकर हार को जीत में बदला जा सकता है।
ऐसे टर्निंग प्वाइंट तभी आते हैं जब आप गलती सुधारने की कोशिश करते हैं। यह बात याद रहे कि हर हार से भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है। खेल के मैदान में दो टीमें खेलती हैं। जीतने वाली टीम का कप्तान तो आखिर में खुश रहता है पर हारने वाली टीम का कप्तान कहता है कि अगले मैच में हम अपनी कमियों को दूर करके जीतने की कोशिश करेंगे। जीतने की कोशिश ही तो जीत तक ले जाती है।
दो-चार कठिन सवाल आपसे हल नहीं होते। आपका मन पढ़ाई में नहीं लगता। 2-3 बार प्रयास करें और उनकी प्रैक्टिस करें। 5 सवालों के बाद खुद-ब-खुद आप उन्हें आसानी से हल करने लग जाएँगे। ध्यान रखिए दोस्तों कक्षा के आम सहपाठी और अव्वल आने वाले विद्यार्थियों में बस यही फर्क होता है।
परिस्थितियाँ कितनी भी विषम हों। यदि आप घबराकर और सिर पकड़कर बैठ गए तो इससे काम नहीं चलेगा। जो हो गया उसे भूलकर अब आप आगे सोचें कि अब क्या हो सकता है। निश्चित रूप से कोई न कोई हल निकल आएगा। आज हम जितने भी उद्योगपति, फिल्म स्टार या किसी भी शख्सियत के बारे में पढ़ते हैं।
इनके बारे में जानने पर हमें पता लगता है कि एक समय में इन्होंने भी काफी संघर्ष किया है। यह कोई अपने पहले प्रयास में ही सफल होकर निरंतर आगे नहीं बढ़ते रहे। इन्होंने भी नाकामियों का सामना किया। असफलता का मुँह देखा। लेकिन फिर उसी तत्परता से उठ खड़े हुए और परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। याद है न कि हारकर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं।

कहानी

भालू ने कहा कि...

एक बार दो दोस्त जंगल से जा रहे थे। जंगल बड़ा घना और डरावना था। दोनों को डर भी लग रहा था कि कहीं कोई जंगली जानवर न आ जाए और इतने में उनके रास्ते में एक बड़ा-सा भालू आता दिखाई दिया।
भालू को देखकर एक मित्र पेड़ पर चढ़ गया और पत्तियों से खुद को ढँक लिया। दूसरे मित्र को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था। वह बहुत घबराया। तभी उसके दिमाग में आया कि भालू मृत व्यक्ति को नहीं छूता है। वह तुरत-फुरत श्वास रोककर जमीन पर लेट गया।
भालू जमीन पर लेटे उस युवक के नजदीक आया। भालू ने उसके कान, नाक और इस तरह शरीर को सूँघा और उसे मृत समझकर अपने रास्ते चला गया। जब भालू चला गया तो पेड़ पर चढ़ा युवक नीचे उतरा और उतरते ही उसने पूछा कि भालू ने तुम्हें कुछ नहीं किया पर वो तुम्हारे कान को क्यों सूँघ रहा था।
दूसरे युवक ने उत्तर दिया कि वह मेरे कान को सूँघ नहीं रहा था बल्कि मुझे एक सलाह दे रहा था। पेड़ से उतरे युवक ने पूछा- कैसी सलाह?
इस पर पहले युवक ने जवाब दिया -भालू कह रहा था कि उस मित्र के साथ कभी मत रहो जो विपत्ति में तुम्हारा साथ छोड़ देता है। सच्चा मित्र वही है जो संकट के समय में भी साथ दे।
चूहों की चतुराई

नंदनवन में रहा करते थे हजारों चूहे। मोटे-मोटे मस्त। मोटे और मस्त इसलिए थे क्योंकि वे बाकी जानवरों के साथ मिलजुल कर रहते थे। वे चूहे बहुत ही अच्छे थे और तभी तो सभी उन्हें प्यार करते थे।
कुछ बिल्लियाँ भी वहाँ थीं जो उनकी जान के पीछे पड़ी रहती थीं। पर चूहे उनको हमेशा चकमा देकर तारा..तारा..तरा..करके अपनी जान बचा लेते थे।
उनमें भी टूटू चूहा भी था। उसकी मकू खरगोश से बड़ी गहरी दोस्ती थी। मकू के साथ मिलकर टूटू हमेशा चूहों को बचा लेता था।
बस इसी कारण से बिल्लियाँ मुँह लटकाए बैठी हुई थीं। तभी शहर से मीठी बिल्ली लौटकर आई। सभी बिल्लियों ने उसको अपनी परेशानी बताई।
मीठी अपने आप को बहुत स्मार्ट समझती थी। वह बोली -'परेशान होने की जरूरत नहीं। मैंने शहर में बड़ी-बड़ी करामातें की हैं। इन चूहों को पकड़ना तो बड़ा आसान है। बस तुम मुझ पर भरोसा करो।' मीठी ने बिलौटी का हौसला बढ़ाया।
'चिंता की कोई बात नहीं। मैं शहर से एक किताब लाई हूँ, 'चूहे पकड़ने के हजार उपाय', बस हमें उसमें से एक अच्छा-सा आइडिया चुनना है।' मीठी ने कहा।
अगले ही दिन वह किताब उठा कर जैसे ही वह वहाँ पहुँची, बाकी बिल्लियाँ उसे घेर कर खड़ी हो गईं।
'मीठी, जल्दी से उपाय बताओ,' बिलौटी ने उतावली होकर कहा।
'सुनो, हम राजा गब्बरसिंह के पास जाकर विनती करेंगे कि वह हमें पुलिस में भर्ती कर लें। फिर तो हमारा काम आसान हो जाएगा। चूहे को कानून तोड़ने के जुर्म में पकड़-पकड़कर अंदर करेंगे और फिर...दावत!' मीठी ने आँखें मटकाकर कहा।
मीठी की बात सुनकर बिल्लियाँ बेहद खुश हो गईं और उसे कंधे पर बैठा कर नाचने लगीं।
गब्बरसिंह मीठी की योजना को भाँप नहीं सके थे इसलिए उन्होंने सबको पुलिस में भर्ती कर लिया। मीठी तेजतर्रार थी, इसलिए उसे थानेदार बना दिया।
थाने में मीठी शान से पैर पर पैर रखकर बैठ गई। फिर उसने बिलौटी को बुलाकर योजना बनाई। उसने कहा, 'बिलौटी, तुम कहीं छिप जाओ। मैं ऐसी खबर फैलाऊँगी कि चूहों ने तुम्हें मार डाला। मैं उनको गिरफ्तार करके थाने में बंद कर दूँगी। फिर रात में वे हमारी दावत का सामान बनेंगे।'

योजना जोरदार थी। बिलौटी जल्दी से मान गई और अपने घर में जाकर छिप गई।
इधर मीठी ने खबर फैला दी कि चूहों ने बिलौटी का कत्ल कर दिया है और वह उन्हें पकड़ने के लिए निकल पड़ी।इसके बाद मकू ने एक दिन थाने से बिलौटी को निकलते देखा। उसने सोचा, 'अरे, यह तो मर गई थी। यह फिर से जिंदा कैसे हो गई। लगता है, दुष्ट मीठी ने चूहों की दावत उड़ाने के लिए यह षड़यंत्र रचा है। अब मैं इन सबको ऐसा मजा चखाऊँगा कि ये जीवन भर याद रखेंगी।'
वापस लौट कर मकू खरगोश ने एक नकली वसीयत तैयार करवाकर यह खबर फैला दी कि दूर के जंगल में रहने वाली बिलौटी की दादी बहुत सारी धन संपत्ति छोड़कर मर गई है। चूँकि बिलौटी जिंदा नहीं है, इसलिए वसीयत के अनुसार सारी संपत्ति टूटू चूहे को मिल जाएगी।
अपनी दादी के मरने की खबर सुनकर बिलौटी को बुरा लगा लेकिन वह बुरी तरह ललचा भी गई। आव देखा न ताव वह घर से बाहर निकल आई।
'किसने कहा कि मैं मरी हूँ, मैं तो जिंदा हूँ और सारी दौलत भी मेरी है।'' वह चिल्लाने लगी।
बाहर तो सारे जानवर यह सुन रहे थे। उन्होंने बिलौटी को पकड़ा और राजा गब्बर सिंह के पास ले गए।
सारी बातों का पता चलने पर मीठी बिल्ली को भी पकड़ा गया। डर के मारे उसने सच उगल दिया। 'मुझे माफ कर दो। मैंने मुफ्त में चूहों की दावत उड़ाने के लिए यह साजिश रची थी। मुझे छोड़ दो और शहर जाने दो,' मीठी बिल्ली रोते हुए बोली।
पर गब्बर सिंह ने उन्हें माफ नहीं किया और जेल भेज दिया। बाकी की सभी बिल्लियाँ भी दुम दबाकर भाग गईं।
मकू खरगोश और टूटू चूहे की दोस्ती और गहरी हो गई।

कहानी

बंडू कहाँ है...
शाम को घर में घुसते ही गोखले साहब ने गुस्से में भरकर पूछा। गुस्से में आने के बाद वे चिल्लाते नहीं थे। शांतनु को जब वे बंडू कहते तो सबको समझ में आ जाता कि वे नाराज हैं।
आजकल उनकी नाराजी का कारण रहता कि यह लड़का पूरे समय रसोईघर में क्यों घुसा रहता है। उसकी उम्र के बच्चों को या तो खेल के मैदान पर होना चाहिए, या फिर पढ़ाई करते हुए या कम्प्यूटर के सामने नजर आना चाहिए।
बेटा आईआईटी जाए, आईटी प्रोफेशनल बने और खेलकूद कर तंदुरुस्त रहे। सभी पिताओं की तरह गोखले साहब भी यही चाहते थे। वे खुद आर्किटेक्ट थे और कॉलेज की टीम में खो-खो के कप्तान भी रहे।
शांतनु की माँ ने उन्हें पानी का फुलपात्र देते हुए उनको शांत करने का प्रयत्न किया- बंडू खाना बनाने में मेरी मदद कर रहा है। यही बात गोखलेजी को सख्त नापसंद थी कि लड़का-लड़कियों के काम करे। फिर वे अपनी नाराजी उर्मिला पर उतारते कि घर में कोई लड़की नहीं है इसका अर्थ यह नहीं कि तुम इकलौते लड़के को भी गृहकार्य में दक्ष बनाओ।
बंडू के पिता अधिक गुस्सा होते तो पत्नी को उसके नाम से पुकारते। उनका हमेशा यही तर्क रहता कि रसोई बनाना पुरुषों का काम नहीं। सिर्फ अनपढ़ पुरुष ही बावर्चीगिरी करते हैं और वह भी पुराने जमाने में हुआ करता था। खाना केवल महिलाओं का काम है और उनकी अपनी माँ सर्वश्रेष्ठ खाना पकाने वाली थी।
यों उर्मिला काकू के हाथ में भी स्वाद था। उनकी शिकायत रहती कि गोखलेजी को खाने में कोई रुचि ही नहीं। लेकिन वे नाराज होने बाद भी पति को प्रभाकर नाम से नहीं पुकारती थी। वह सिर्फ इतना जता देती थी कि उनकी सास गणित की प्रोफेसर थीं और ससुरजी के खाने के शौक के कारण अच्छा खाना बनाने लगी थी। बहरहाल, गोखले साहब पत्नी के साथ बहस में पड़ना नहीं चाहते थे क्योंकि उर्मिला काकू अपने कॉलेज के दिनों की सर्वश्रेष्ठ वक्ता मानी जाती थी।
आए दिन घर में होने वाले इन विवादों का इतिहास दो वर्ष पुराना था। शांतनु को खाने का शौक था- चटोरेपन की हद तक। स्कूल से आने के बाद, पढ़ाई के बाद, खेलकर आने बाद, भोजन से पहले उसे कुछ न कुछ पेट में डालने के लिए चाहिए होता। उर्मिला काकू उसके लिए शकर पारे, चकली वगैरह बनाकर रखती। बंडू के आगे भरे डिब्बे चार दिन में खाली हो जाते।
जब माँ देर तक कॉलेज से न लौटती, बंडू के पेट में चूहे उछलने लगते। एक दिन बंडू ने खुद ही सैंडविच बनाकर खाए। दूसरे दिन उसने पत्ता गोभी और शिमला मिर्च का सैंडविच बनाया। यह सिलसिला चल निकला। एक के बाद एक, बंडू सलाद, सब्जियाँ, आमटी जैसे पदार्थ बनाने लगा। उर्मिला काकू को भी ताज्जुब था कि दिवाली के दिनों में जो अनारसे उनसे नहीं बनते थे, बंडू बहुत अच्छे से बना लेता था। कुछ दिनों से शाम को खाने की टेबल पर अक्सर थॉमसन साहब की चर्चा होती। वे गोखलेजी के नए क्लाइंट थे। शहर के इलेक्ट्रॉनिक पार्क में थॉमसन कम्युनिकेशंस के कारण बड़ी सनसनी फैली थी। ये अमेरिका की बड़ी कंपनी थी। अपना दफ्तर बनाने के लिए उन्होंने गोखले एंड कंपनी को अनुबंधित किया था। हमउम्र, पढ़ाकू और संगीत के शौकीन होने के कारण थामसन और गोखले अच्छे मित्र बन गए थे।
साहब चाहते थे कि उनके कार्यालय का सारा कामकाज सोलर और विंड एनर्जी से चले। हरा-भरा अहाता हो और फल-सब्जियों की खेती हो। उन्हें सब्जियाँ खूब भाती थीं।
एक शनिवार की दोपहर गोखले साहब का फोन आया कि शाम को थॉमसन साहब डिनर के लिए घर आ रहे हैं। उन्हें पता था कि उनका घरेलू नौकर राम्या कल शाम ही अपने गाँव गया है, क्योंकि उसके घर की गाय ने एक काली केड़ी को जन्म दिया है जिसके माथे पर सफेद तिलक है। यह बहुत शुभ लक्षण है।
गोखलेजी ने उर्मिला काकू को जताया कि वह फिक्र न करे। वे लौटते समय होटल से कुछ मंचूरियन कुछ बेक्ड वेजीटेबल पैक करवाकर ले आएँगे। और यही सब करने में उन्हें घर लौटने में देर हो गई।
थॉमसन साहब को आए काफी देर हो गई थी। उर्मिलाजी को दिया उनका गुलदस्ता गुलदान में सज चुका था। बैठक में बंडू उनसे गपिया रहा था। गोखलेजी का विश्वास था कि बंडू गपियाने से बेहतर तरीके से कोई बात नहीं कर सकता। परंतु थॉमसन साहब खूब कहकहे भी लगा रहे थे। गोखले साहब के आते ही वे बोले कि गोखले, टुमारा सन इज ए वंडरफुल फेलो। गोखलेजी ने देखा कि उर्मिला उनकी ओर निगाहें गड़ाकर देख रही थी।
खाने की मेज पर तो गजब ही हुआ। गोखलेजी की लाई पनीर, मंचूरियन को तो थॉमसन ने चखकर छोड़ दिया। वे तो मूली की आमटी और कोशिंबीर पर टूट पड़े और उन्हें खत्म करके ही माने।
उनकी राय में उन्होंने दुनियाभर में चखे सूप और सलाद में ये सर्वश्रेष्ठ थे। फिर उर्मिलाजी को बधाई देते हुए उन्होंने उन दोनों पदार्थों को बनाने के नुस्खे माँगे। तब बात जाहिर हुई कि ये दोनों चीजें बंडू की बनाई हुई थी। इन्हें बनाने में जिस हल्के हाथ का स्पर्श जरूरी है वह किसी पहुँचे हुए शेफ की ही विशेषता हो सकती है ऐसा थॉमसन साहब ने कह डाला।
अचानक गोखलेजी बोलने लगे, ...दरअसल मैं शुरू से ही जोर देता आया हूँ कि बच्चे अपने अंदर के गुणों का विकास करें। महिलाएँ कंपनियाँ संभाल सकती हैं तो पुरुष किचन क्यों नहीं? अब उर्मिला काकू और बंडू ने गोखलेजी को घूरा लेकिन वे तो उनसे नजरें मिलाने को भी तैयार नहीं थे।

कविता

माँ! तुम केवल श्रद्धा हो...
तुम दुर्गा हो,
भवानी हो तुम!
ब्रिटिश सल्तनत को धूल चटाती,
झाँसी की रानी हो तुम!
सनातन कल्याणी हो तुम!!
माता जीजाबाई हो तुम,
हिन्दूपद-पादशाही के स्वप्न-दृष्टा
वीर शिवा की जन्मदात्री हो तुम!
मुगलिया-इरादों की काल रात्रि हो तुम!!
तुम किरण देवी हो,
अधम अकबर, की छाती पर चरण धरे-
रणचंडी हो, महाकाल हो तुम!
हल्दीघाटी के महासमर में-
प्रताप की तलवार, ढाल हो तुम!!
तुम अहिल्या, दुर्गावती हो तुम!
तुम सत्य सनातन, महासती हो तुम!
तुम केवल श्रद्धा हो -
माँ! तुम केवल श्रद्धा हो !!

सौजन्य से - देवपुत्र

साहित्य

'पप्पू कांट स्टडी क्योंकि...
जीवन के रंगमंच से
पप्पू, नौ साल का एक बालक, कक्षा पाँच में पढ़ता है। उसकी माँ को हमेशा शिकायत रहती है कि पप्पू पढ़ता नहीं है। वह इतना होनहार है कि चाहे तो कुछ भी कर डाले, मगर वह मेहनत नहीं करना चाहता।
आइए अब जरा नन्हे पप्पू की दिनचर्या पर नजर डालें। पप्पू का दिन शुरू होता है सुबह साढ़े पाँच बजे, जब उसकी माँ की तेज आवाज उसे सुहाने सपनों भरी नींद से जगाती है। उठने के बाद आलस करने या माँ से लिपटने-चिपटने, लाड़-मनुहार का भी समय नहीं क्योंकि ठीक साढ़े छह बजे पप्पू की बस आ जाती है। (अच्छे स्कूल के लालच में पप्पू का दाखिला घर से पंद्रह किलोमीटर दूर के स्कूल में कराया गया है) भागमभाग में तैयार हो पप्पू स्कूल जाता है। स्कूल छूटता है तीन बजे और वही दूरी के चक्कर में पप्पू घर पहुँचता है साढ़े चार बजे।
घर में माँ तैयार है नाश्ता और अन्य साजोसामान लिए... सवा पाँच बजे पप्पू की कराटे क्लास जो होती है। एक घंटे की कराटे क्लास के बाद पप्पू टेबल टेनिस क्लास में जाता है। साढ़े सात बजे बेचारा थका-हारा वापस आता है। खाना जैसे-तैसे खाया कि आठ से नौ ट्‍यूशन टीचर आती है। स्कूल का होमवर्क अनमने मन से किया जाता है। साढ़े नौ बजे तक तो पप्पू अधमरा सा बिस्तर पर लुढ़क चुका होता है।
रविवार आमतौर पर सभी के लिए राहत भरा होता है। मगर क्या पप्पू के लिए भी?... रविवार की सुबह-सुबह पप्पू की स्वीमिंग क्लास होती है। डेढ़ घंटे की स्वीमिंग के बाद पप्पू नाश्ता करके (बाजार में ही) व्यक्तित्व विकास की कक्षा में जाता है। दो घंटे की कक्षा में उसे संस्कार, सोसायटी में उठना-बैठना, बोलने का तरीका, स्मार्टनेस सब कुछ परोस दिया जाता है। ठीक साढ़े नौ बजे पप्पू संगीत और गिटार सीखने जाता है।
ग्यारह बजे घर लौटने के बाद वह सचमुच थक चुका होता है। जैसे-तैसे लंच करके सो जाता है। शाम को चार से छह ही उसकी ट्‍यूशन टीचर आती है। फिर छह से सात स्केटिंग क्लास और पप्पू का रविवार भी समाप्त....।
पप्पू की माँ हैरान होती है कि पप्पू न तो टीवी देखता है, न कंप्यूटर चलाता है, न खेलता है। फिर भी पप्पू ध्यान से पढ़ता क्यों नहीं है? कक्षा में उसका परफार्मेंस दिन प्रतिदिन नीचे क्यों जा रहा है?
ये सब पढ़कर कहीं आपको भी अपने आसपास का कोई पप्पू तो याद नहीं आ गया? हैरानी होती है‍ कि जो बच्चा माँ-बाप के जिगर का टुकड़ा बनता है, वही बड़ा होते-होते किस तरह स्वयं को माँ-बाप के अधूरे सपनों की सूली पर लटकने को मजबूर किया हुआ पाता है। क्या ही अच्छा होता आज भी पहले की तरह हर घर में चार-पाँच बच्चे होते। एक बच्चा माँ के सपनों का भार ढोता, दूसरा पिता के, तीसरा दादा के, चौथा नाना के। बेचारी एक नन्ही जान पर दुनिया भर का बोझा लादना कहाँ का इंसाफ है?
माना कि दुनिया बहुत आगे जा रही है, माना‍ कि प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है, माना कि विकास के मायने बदल रहे हैं... मगर क्या इसके‍ लिए जीते जागते इंसान की संवेदनाएँ छीन उसे मशीनी मानव बनाना जरूरी है? क्या 'ऑल राउंडर्स' के बिना दुनिया चलती नहीं है? क्या आपका बच्चा दुनिया भर की सफलताएँ बटोरने की बजाय अपनी क्षमतानुसार किसी क्षेत्र में सफल हो, एक अच्छा इंसान बनने का प्रयास करें, यह ठीक न होगा?
बचपन, जो समय होता है रिश्तों की मजबूती का, पारिवारिक संस्कारों को दृढ़ करने का, प्रेम के धागों को परिपक्व बनाने का...। यदि वही बचपन प्रतियोगिताओं की भेंट चढ़ा दिया जाए, यदि बच्चे को परिवार में घुलने-मिलने, रूठने-मनाने, मिलने-मिलाने का समय ही न दिया जाए, उसे अपना बचपना महसूस ही न करने दिया जाए तो वह बच्चा न केवल एकाकी बन जाएगा वरन् किसी भी क्षेत्र में अच्‍छा प्रदर्शन नहीं कर पाएगा और हार का यह कटु अहसास उसे मानसिक रोगी भी बना सकता है।
हर माता-पिता मन में यह अपेक्षा रखकर ही बच्चे को पालते-पोसते हैं कि वह बड़ा होकर हमारा ध्यान रखेगा, हमारी सेवा करेगा मगर क्या प्रेम, स्नेह व आदर का बीज वे बच्चे के बाल-मन में बो पाए हैं? क्या उसकी मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति वे कर पा रहे हैं? क्या उसे परिवार का पूर्ण साहचर्य व स्नेह प्राप्त हो रहा है? क्या उसके साथ मुखर संवाद बनाया जा रहा है? क्या उसकी क्षमताओं व परेशानियों को समझा जा रहा है?
क्या उसे भी 'नहीं' कहने और गलतियाँ करने की छूट दी जा रही है? क्या उसके माता-पिता उसके समक्ष आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं।
यदि इनमें से कुछ प्रश्नों के उत्तर भी यदि 'नहीं' हैं तो यकीन मानिए आप की अपेक्षाओं का पूरा होना कठिन है क्योंकि आप रुपयों के बल पर एक बच्चे को संवेदनहीन मशीनी मानव में बदलते जा रहे हैं। मशीनी मानव सिर्फ उपलब्ध सूचनाओं पर काम करता है। उसके पास संवेदनाएँ नहीं होतीं, दुख दर्द महसूस करने वाला दिल, वो तो होता ही नहीं है, उसे चलाने वाली सूचनाएँ भी नहीं होती।
अब आप क्या चाहते हैं अपने पप्पू के लिए... ये आप पर निर्भर करता है।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

कहानी

पेटूराम का भर गया पेट
हम तब 8वीं में पढ़ते थे। दोस्तों के बीच सबके नाम रखने का चलन था। हमने एक-दूसरे की खूबियों के हिसाब से सभी का नाम रखा था। हमारे ग्रुप में एक दोस्त का नाम जितेन्द्र था। वह खूब खाता था और इसलिए हमने उसका नाम रख दिया था जितेन्द्र पेटू।

जितेन्द्र को हम यूँ खूब चिढ़ाते थे, पर जब भी कहीं जाने की बारी आती थी यह तय रहता था कि जीतू से खाने के मामले में कोई मुकाबला नहीं कर सकता है।

एक बार हम घूमने के लिए एक जगह गए। रास्ते में कहीं भी कोई खाने की अच्छी जगह नहीं मिली और भूख के मारे पेट में चूहे कूदने लगे। साथ में खाने का जो भी थोड़ा-बहुत सामान था वह खाने पर भी भूख नहीं मिटी। वैसे भी हमने ज्यादा खाने- पीने की चीजें साथ लेने काझंझट नहीं पाला था। जीतू के भी बुरे हाल थे।

हम कम खाते थे तो हमारे कम बुरे हाल थे और जीतू ज्यादा खाता था तो जीतू के ज्यादा बुरे हाल थे। हम लोग सुबह 8 बजे घर से निकले थे और शाम 5 बजे तक भूख से बेहाल हो उठे। तभी रास्ते में एक ढाबा दिखाई दिया। अन्नापूर्णा ढाबा। हमने ड्राइवर से कहकर तुरंत गाड़ी रुकवाई और खाने का ऑर्डर दिया।

खाने में ज्यादा चीजें तो नहीं थी पर भूख के समय ज्यादा या कम कौन देखता है। जो भी मिले आने दो वाली बात रहती है। सबने खूब खाना दबाया। पेटू जीतू ने तो यहांँ नया रेकॉर्ड कायम किया। पट्ठा 22 रोटी और चार प्लेट चावल निपटा गया। खाना परोसने वाला भी जीतू की खुराक देखकर हैरान था। उसने कहा भी कि भैया सुबह से भूखे हो एक साथ इतना मत खाओ, पर जीतू कहाँ मानने वाला था।

इतना खाने के बाद दो गिलास छाछ भी पी गया। हमने कहा मान गए भई जीतू। तुम्हारी खुराक का भी जवाब नहीं। आखिरकार दुकानदार तक को कहनापड़ा कि कम खाओ भाई। जीतू ने ऐसे मुस्कुराहट दिखाई जैसे कोई बड़ा काम किया हो। हम फिर से गाड़ी में सवार होकर अपने सफर पर आगे बढ़े। पर अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि जीतू के पेट में दर्द होने लगा। उसका जी मचलने लगा और उसकी हालत बिगड़ गई।हम रास्ते में एक जगह डॉक्टर के पास पहुँचे।

डॉक्टर ने बताया कि कुछ नहीं ज्यादा खा लेने से जीतू की यह हालत हुई है। डॉक्टर ने जीतू को समझाया कि लंबे समय भूखे रहने के बाद कम खाना चाहिए और वैसे भी एक साथ इतना खाने की जरूरत नहीं है। इसके बाद जीतू ने खाना कम कर दिया और हमारे जितना ही खाने लगा। अब हम उसे चिढ़ाने लगे- पेटूराम का भर गया पेट।

स्कूटर की टक्कर
मेरे पापा के पास एक स्कूटर था। पापा ने जब नई बाइक खरीद ली तो स्कूटर घर में ही पड़ा रहता था। कोने में खड़े-खड़े उस पर बहुत धूल जमा हो गई थी। मुझे उस स्कूटर को चलाने की बड़ी इच्छा होती थी। मेरे दोस्त रंजन को गाड़ी चलाना आता भी था।
एक दोपहर को जब पापा ऑफिस चले गए तो मैंने और रंजन ने स्कूटर निकाला और उसे अच्छे से साफ किया। हम लोग स्कूटर लेकर एक मैदान में गए और वहाँ मैंने स्कूटर चलाना सीखना शुरू किया। पहले दिन स्कूटर सीखने में बड़ा मजा आया। मुझे लगा कि स्कूटर चलाना बड़ा मुश्किल काम है। कितना ध्यान रखना पड़ता है। गियर, ब्रेक, हैंडल और बैलेंस सभी का खयाल करना पड़ता है।
15 दिनों तक रोज दोपहर को यही काम चलता रहा और अब मैं स्कूटर चलाना लगभग सीख गया था। एक बार मैंने रंजन से जिद की कि आज बाजार से होते हुए घर चलते हैं और स्कूटर मैं ही चलाऊँगा। रंजन पहले तो नहीं माना पर मेरे ज्यादा जिद करने पर वह तैयार हो गया। मैं बाजार में पहली बार स्कूटर चला रहा था। बाजार में भीड़ बहुत ज्यादा थी। मुझे डर लगने लगा और अचानक एक साइकल वाला सामने आ गया। मैं ब्रेक नहीं लगा पाया। टक्कर होने पर पास खड़े ट्रैफिक पुलिस ने हमें पकड़ लिया और हमसे पूछताछ करने लगा।
मुझे लगा हम लोग मुसीबत में पड़ गए हैं। मैंने तुरंत पापा को फोन करके बुलाया और उन्होंने पुलिस वाले को समझाकर मुझे, रंजन को और स्कूटर को छुड़वाया। पापा इस बात से बहुत नाराज हुए कि मैंने उन्हें बताए बिना ही स्कूटर सीखा। पर वे खुश भी हुए कि अब मैं स्कूटर चलाना सीख गया हूँ।