नोनू भटका मेले में
-सत्यनारायण भटनागर
कुछ महीनों पहले एक मेला देखने नोनू अपने माता- 1पिता के साथ गया। मेले जाने के पहले माँ ने उसे समझाया,'देखो उँगली पकड़कर चलना। मेले में बहुत भीड़ होती है।
यदि उँगली छोड़ी और भटक गए तो फिर परेशानी होगी और देखो यदि साथ छूट ही जाए तो रोना मत। तुम्हारे जेब में घर का पता, मोबाइल नंबर लिखकर रख दिया है। किसी भी पुलिसवाले भैया से कहोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा।'
नोनू को मजा आ गया। उसे तो मेले में जाने की जल्दी थी। मेले में भीड़ ही भीड़ थी। बड़े-बड़े लोगों में बच्चे तो बेचारे दिखते ही नहीं थे।
कोई बच्चा गोद में था तो कोई कंधे पर। नोनू माँ के पीछे ऐसे चल रहा था, जैसे रस्सी से बँधा हो। उसे कष्ट हो रहा था। यह भी कोई चलना है। यह भी कोई आनंद है। वह सोच ही रहा था कि खुला मैदान आ गया।
मैदान में दुकानें थीं। फुग्गेवाले थे। खिलौने की दुकानें थीं। उसने फुग्गे के लिए हठ की। पापा ने फुग्गा खरीद दिया। फिर सीटी खरीदी और चाट खाने के लिए बैठ गए।
इधर-उधर देखते, उछलते-कूदते, गुनगुनाते नोनूजी चल रहे थे कि भीड़ का रेला आया और जिसका डर था, वही हुआ।
उनकी माँ की उँगली छूट गई और उन्होंने भीड़ के बीच अपने को अकेला पाया। पहले तो नोनू रूआँसा हुआ, मगर घबराया नहीं। माँ ने उसकी जेब में घर का पता और मोबाइल नंबर जो रखा था।
वह मैदान में एकतरफ खड़ा सोच ही रहा था कि एक दीदी उसको उसकी ओर मुस्कुराते दिखी। वह भी मुस्कुराया। वह दीदी पास आई पूछा- 'क्या भटक गए हो?'
नोनू ने भोलेपन से कहा- 'मेरे माता-पिता खो गए हैं। उन्हें खोजना है।' दीदी ने पूछा- 'तुम्हारे पास पता है?' नोनू ने जेब से पता निकालकर बताया।
दीदी बोली- 'ठीक है, हम तुम्हें घर तक पहुँचा देंगे।'
नोनू ने कहा- 'क्या आपके पास मोटर गाड़ी है? मेरा घर तो बहुत दूर है।' दीदी हँसी। बोली- 'मैं परी हूँ। मैं तुम्हें गाड़ी से भी जल्दी पहुँचा दूँगी।'
नोनू ने कहा- 'आप कैसी परी हैं? परी तो सफेद वस्त्र पहनती है। आप तो यूनिफॉर्म पहने हुए हो।'
परी ने कहा- 'हम मेले की परी हैं। खोए हुए बच्चों की परी। हम भी मेला घूमने-फिरने, मजा करने आई हैं। जो बच्चे दूसरों के साथ मित्रता और प्रेम से रहते हैं, हम उनसे दोस्ती करती हैं और उनकी मदद करती हैं।'
परी ने नोनू को ऑटो रिक्शा में बिठाया और नोनू अपने माता के पास आ गया। माँ ने पूछा- 'कहाँ भटक गए थे? कौन लाया तुम्हें?' नोनू ने कहा- 'हमें परी लाई है। बड़ी प्यारी सहेली है हमारी, आप भी मिल लो।'
नोनू पलटा तो वहाँ न तो परी थी और न ऑटो रिक्शा। वे जा चुके थे। माँ ने कहा- 'देखो नोनू यदि मेले में भटक जाओ तो चाहे जिसके साथ चल देना ठीक नहीं। पुलिस या स्काउट की मदद ही लेना चाहिए। ऐसे अपरिचितों के साथ चल देने में खतरे भी हैं। इस तरह नहीं आना चाहिए था।'
नोनू के आगे उस परी का भोलाभाला चेहरा दिखाई दिया। उसके पंख नहीं थे और वह यूनिफॉर्म पहने थी और चल भी रही थी ऑटो रिक्शा में। फिर भी वह साफ दिल की परी थी।
उसने तो साफ कहा कि जो बच्चे दूसरे बच्चों से प्रेम करते हैं, वे उनसे दोस्ती करती है। वह मन ही मन मुस्कुराया। दूसरे बच्चों के साथ सच्ची मित्रता व सहयोग करने वाली दीदियाँ परियाँ ही तो होती हैं, भले ही वे स्वप्न में न आई हों। नोनू फिर से अपने खेलने में लग गया।
चल मेरे कद्दू टुनूक टुनूक
- विभा नरगुन्दे
एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी। उसकी बेटी की शादी उसने दूसरे गाँव में की थी। अपनी बेटी से मिले बुढ़िया को बहुत दिन हो गए। एक दिन उसने सोचा कि चलो बेटी से मिलने जाती हूँ।
यह बात मन में सोचकर बुढ़िया ने नए-नए कपड़े, मिठाइयाँ और थोड़ा-बहुत सामान लिया। और चल दी अपनी बेटी के गाँव की ओर।
चलते-चलते उसके रास्ते में जंगल आया। उस समय तक रात होने को आई और अँधेरा भी घिरने लगा। तभी उसे सामने से आता हुआ बब्बर शेर दिखाई दिया।
बुढ़िया को देख वह गुर्राया और बोला- बुढ़िया कहाँ जा रही हो? मैं तुम्हें खा जाऊँगा।
बुढ़िया बोली- शेर दादा, शेर दादा तुम मुझे अभी मत खाओ। मैं अपनी बेटी के घर जा रही हूँ। बेटी के घर जाऊँगी, खीर-पूड़ी खाऊँगी। मोटी-ताजी हो जाऊँगी फिर तू मुझे खाना।
शेर ने कहा- ठीक है, वापसी में मिलना।
फिर बुढ़िया आगे चल दी। आगे रास्ते में उसे चीता मिला। चीते ने बुढ़िया को रोका और वह बोला- ओ बुढ़िया कहाँ जा रही हो?
बुढ़िया बड़ी मीठी आवाज में बोली- बेटा, मैं अपनी बेटी के घर जा रही हूँ। चीते ने कहा- अब तो तुम मेरे सामने हो और मैं तुम्हें खाने वाला हूँ।
बुढ़िया गिड़गिड़ाते हुए कहने लगी- तुम अभी मुझे खाओगे तो तुम्हें मजा नहीं आएगा। मैं अपनी बेटी के यहाँ जाऊँगी वहाँ पर खीर-पूड़ी खाऊँगी, मोटी-ताजी हो जाऊँगी, फिर तू मुझे खाना।
चीते ने कहा- ठीक है, जब वापस आओगी तब मैं तुम्हें खाऊँगा।
फिर बुढ़िया आगे बढ़ी। आगे उसे मिला भालू। भालू ने बुढ़िया से वैसे ही कहा जैसे शेर और चीते ने कहा था। बुढ़िया ने उसे भी वैसा ही जवाब देकर टाल दिया।
सबेरा होने तक बुढ़िया अपनी बेटी के घर पहुँच गई। उसने रास्ते की सारी कहानी अपनी बेटी को सुनाई।बेटी ने कहा कि माँ फिक्र मत करो। मैं सब संभाल लूँगी।
बुढ़िया अपनी बेटी के यहाँ बड़े मजे में रही। चकाचका खाया-पिया, मोटी-ताजी हो गई। एक दिन बुढ़िया ने अपनी बेटी से कहा कि अब मैं अपने घर जाना चाहती हूँ।
बेटी ने कहा कि ठीक है। मैं तुम्हारे जाने का बंदोबस्त कर देती हूँ।
बेटी ने आँगन की बेल से कद्दू निकाला। उसे साफ किया। उसमें ढेर सारी लाल मिर्च का पावडर और ढेर सारा नमक भरा।
फिर अपनी माँ को समझाया कि देखो माँ तुम्हें रास्ते में कोई भी मिले तुम उनसे बातें करना और फिर उनकी आँखों में ये नमक-मिर्च डालकर आगेबढ़ जाना। घबराना नहीं।
बेटी ने भी अपनी माँ को बहुत सारा सामान देकर विदा किया। बुढ़िया वापस अपने गाँव की ओर चल दी। लौटने में फिर उसे जंगल से गुजरना पड़ा। पहले की तरह उसे भालू मिला।
उसने बुढ़िया को देखा तो वह खुश हो गया। उसने देखा तो मन ही मन सोचा अरे ये बुढ़िया तो बड़ी मुटिया गई है।
भालू ने कहा- बुढ़िया अब तो मैं तुम्हें खा सकता हूँ?
बुढ़िया ने कहा- हाँ-हाँ क्यों नहीं खा सकते। आओ मुझे खा लो।
ऐसा कहकर उसने भालू को पास बुलाया। भालू पास आया तो बुढ़िया ने अपनी गाड़ी में से नमक-मिर्च निकाली और उसकी आँखों में डाल दी।
इतना करने के बाद उसने अपने कद्दू से कहा- चल मेरे कद्दू टुनूक-टुनूक। कद्दू अनोखा था, वह उसे लेकर बढ़ चला।
बुढ़िया आगे बढ़ी फिर उसे चीता मिला। बुढ़िया को देखकर चीते की आँखों में चमक आ गई।
चीता बोला- बुढ़िया तू तो बड़ी चंगी लग रही है। अब तो मैं तुम्हें जरूर खा जाऊँगा और मुझे बड़ी जोर की भूख लग रही है।
बुढ़िया ने कहा- हाँ-हाँ चीतेजी आप मुझे खा ही लीजिए। जैसे ही चीता आगे बढ़ा बुढ़िया ने झट से अपनी गाड़ी में से नमक-मिर्च निकाली और चीते की आँखों में डाल दी।
चीता बेचारा अपनी आँखें ही मलता रह गया। बुढ़िया ने कहा- चल मेरे कद्दू टुनूक-टुनूक। आगे उसे शेर मिला।
बुढ़िया और कद्दू ने उसके साथ भी ऐसी ही हरकत की। इस तरह बुढ़िया और उसकी बेटी की चालाकी ने उसे बचा लिया। वह सुरक्षित अपने घर पहुँच गई।
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