शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

कहानी

सपने का सच तुम्हारा सच
ठीक पचास साल पहले के कल्पनापुरम की बात है। गर्मियों के दिन थे। बैशाख-जेठ के आकाश में बादल फाड़कर गर्मी बरस रही थी। सौ-पचास घरों के धूल भरे कस्बे में मनुष्य और पशु-पक्षी भाड़ में झोंके गए चनों की तरह अनुभव कर रहे थे। कोयल-कबूतरों के मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे।
आम-जामुन की पत्तियाँ असमय सूख कर गिर रही थीं। जमीन में ये बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई थीं। नलों की टोंटियाँ सूखे के दर्द से कराह रही थीं। धूप में इतनी तेजी थी कि अगर दाल-चावल में पानी डालकर पतीला खुले में रख दो तो घड़ीभर बाद खिचड़ी तैयार मिलती।
टीले के परली तरफ, जहाँ अब्बू और सुहानी अपनी अम्मी-दादू के साथ रहते, यही हालत थी। लेकिन दोनों बच्चों की चटर-पटर के कारण उनके टीन-टापरे के नीचे खुशनुमा माहौल बना रहता। दादू कहते कि गर्मी तो प्रकृति का फेर है। आज गर्मी है तो कल वर्षा होगी, फिर सर्दी आएगी। इसलिए खुश रहो। दादू का कहा मानकर अम्मी खुश रहती।

घर में जिस दिन जो है उसे ठीक-ठीक सबको परोस देती। यानी बच्चों को थोड़ा ज्यादा, बापू को ज्यादा। उसके बाद कम-ज्यादा कहने के लिए बचता ही बहुत थोड़ा। फिर भी यह देखकर खुश रहती कि सब खुश हैं।

ऐसे ही एक दिन सुबह अब्बू और सुहानी चाय-रोटी का नाश्ता कर रहे थे। गर्मी अभी बढ़ी नहीं थी। अब्बू और सुहानी लाल फूलों से लदे सेमल के नीचे बैठे थे। छोटी-छोटी चिड़ियाँ हल्की-मीठी चहकती टहनियों पर फुदक रही थीं। अब्बू को लगा कि उसने कहीं घंटियों को बजते हुए सुना।

यह आभास नहीं था क्योंकि सुहानी को भी घंटियों की आवाज सुनाई दी और साथ में गीत की पंक्तियाँ भी- आओ मेरे साथ चलो, जहाँ मैं जाऊँ तुम भी साथ रहो। न रहो तुम यदि संग तो, जान न पाओगे कभी जगह वो॥ यह अपने आप में काफी अटपटा गीत था, खासकर जिस तरह से इसे गाया जा रहा था। शरारती और सुनने वाले को बहकाता सा हुआ।

पहले तो अब्बू और सुहानी इसे सुनते रहे फिर हकबका कर अहाते के दरवाजे की ओर भागे। बाहर सड़क पर से कोई गुजर रहा था जो घंटियाँ बजाते हुए इस गीत को गा रहा था। सदर दरवाजे से बाहर निकल कर दोनों ने देखा कि एक साइकल रिक्शा धीमे-धीमे दूर होता जा रहा है। चार साँसों में वह सड़क मोड़ पर आँखों से ओझल हो गया।

इस इलाके में साइकल रिक्शा यों भी कभी नजर नहीं आता था। रंग-बिरंगी पताकाओं से सजा यह एक अजूबा था। मानो किसी दिलखुश राजकुमारी की सवारी हो। अब्बू और सुहानी कुछ दूर उस रिक्शा के पीछे दौड़े लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि ऐसा करना बेकार है।

घर लौटने के बाद उन्होंने हाँफते हुए दादू और अम्मी को अनोखे रिक्शे के बारे में बताया। धूप तेज होने से पहले दादू को काम जाना था सो वे मुस्कुराए और घर से बाहर निकल गए। अम्मी वैसे ही खुश, मुस्कुराती रहती थी इसलिए उनके चेहरे पर खास बदलाव नहीं आया। दिन चढ़ आने के बाद रोज की तरह अब्बू और सुहानी इमली सर्कस पहुँचे।

पहाड़ी का ऊपरी हिस्सा सुनसान रहता था। वहाँ इमली का एक बहुत बड़ा पेड़ था। अभी तक किसी ने उसकी पतली से पतली टहनी तक काटी नहीं थी। इसलिए इमली का यह पेड़ इतना विशाल हो गया था मानो सर्कस का तंबू हो। हालाँकि कल्पनापुरम में कभी कोई सर्कस नहीं आया था, न ही किसी बच्चे ने देखा था। यह नाम ताऊ मास्टर का दिया हुआ था।

ताऊ-मास्टर कस्बे के सबसे बूढ़े व्यक्ति थे। कस्बे की इकलौती पाठशाला में वे पढ़ाते और गर्मी की छुट्टियों में बकरियाँ चराने के लिए इस पेड़ की छाँव में आ बैठते। कितने ही तरह के फुरसती जीव गर्मी की दोपहर काटने के लिए इस पेड़ तले इकठ्ठा होते और सर्कस-सा मजमा लग जाता।

पहले तो बच्चे इस वाकए को मजेदार सपना मानकर सुनते रहे। ऐसा सच में हुआ होगा। मानने के लिए कोई तैयार न हुआ। इस घटना को लेकर सब बच्चे ताऊ-मास्टर के पास पहुँचे। ताऊ-मास्टर ने पहले सारी बात ध्यान से सुनी और चुपचाप अपनी सफेद मुलायम दाढ़ी पर हाथ फेरते रहे।

काफी देर बाद उन्होंने अपना गला साफ किया। फिर आहिस्ता से बोले-यदि अब्बू और सुहानी ने सच में ऐसा कोई रिक्शा देखा है तो वह रिक्शा सच है। अगर बाकी बच्चे सोचते हैं कि रिक्शा एक सपना है तो वह सपना है।

ताऊ मास्टर का कहा किसी को समझ में नहीं आया और सब बच्चे यहाँ-वहाँ बिखर गए और थोड़ी ही देर में रिक्शे वाली बात आई-गई हो गई। अब्बू और सुहानी बड़े निराश हुए। चेहरों पर छाई उदासी देखकर माँ ने उन्हें समझाया- देखो, यदि वह रिक्शा सच में है तो वह तुम्हें फिर से दिखाई देगा। और ऐसा ही हुआ। एक सुबह फिर से घंटियों के स्वर गूँजने लगे।
अब्बू और सुहानी अपनी चाय-रोटी छोड़कर बाहर की ओर भागे। सड़क पर रिक्शा आगे बच्चे पीछे भाग रहे थे। देखने में तो रिक्शा धीमे-धीमे और बच्चे तेज भाग रहे थे फिर भी वे उसे पकड़ नहीं पा रहे थे। थोड़ी दूर तक भागने के बाद सुहानी थक कर रुक गई।

अब्बू दौड़ता रहा। वह नहीं चाहता था कि रिक्शा छूट जाए और सपना बनकर रह जाए।

सब कुछ भूलकर, या यों कहें कि भुलाकर अब्बू रिक्शे के पीछे दौड़ता जा रहा था। धीरे-धीरे वह कल्पनापुरम से दूर होता गया। सड़क की दोनों ओर के सूखे खेत खत्म हुए और बंजर जमीन आ गई। कहीं-कहीं चरती हुई गाय-भैंसें और गधे दिखाई दे रहे थे, वे भी गायब हो गए। निर्जन रास्ते पर वे दोनों ही थे। आते-जाते ताँगे और बैलगाड़ियाँ भी नहीं।

अब्बू को ध्यान में ही नहीं आया कि आसपास की सारी वस्तुएँ-नजारे कब अदृश्य हो गए और चारों ओर नीला-नीला छा गया। अब्बू को लगा मानो वह बादलों पर बैठा है। तभी जोर की गड़गड़ाहट होने लगी। बिजलियाँ चमकने लगीं और वर्षा होने लगी। वर्षा के साथ हवा में तैरते हुए अब्बू नीचे आने लगा। आश्चर्य की बात यह रही कि वह ठीक कल्पनापुरम में जा उतरा।

वर्षा आने की खुशी में नाच-गा रहे लोगों के ऐन बीच में। लोग उत्तेजित थे कि उनका अपना अब्बू आकाश से पानी लेकर आया है। सुहानी नाच रही थी कि उनकी बातों को अब कोई झूठ नहीं कहेगा। अब्बू के दोस्त पानी में भीगते हुए कूद रहे थे।

दूर खड़े दादू-अम्मी के चेहरों पर वैसी ही खुशी दिखाई दे रही थी। फिर भीड़ में से ताऊ-मास्टर निकले। धीरे-धीरे वे अब्बू के पास आए। अपनी दाढ़ी पर से पानी की बूँदें सोरते हुए उन्होंने कहा कि तुम अगर सपने को सच मानते हो तो वह सच होकर ही रहेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें