रविवार, 21 फ़रवरी 2010

कहानी

ऑटोग्राफ बुक के हीरो

जन्मदिन पर मिले उपहारों में नीली पन्‍नी में लिपटा वह पैकेट सबसे छोटा था। सोनू को वह सबसे प्यारा लगा इसलिए उसने नीले पैकेट को बचाकर रखा और सबसे आखिरी में खोला। अंदर निकली एक सुंदर-सलोनी ऑटोग्राफ बुक। रंगीन, खुशबूदार पन्‍नों वाली वह बुक सोनू को इतनी भली लगी कि वह उसी समय उन सब बड़े लोगों के बारे में सोचने लगा जिनके हस्ताक्षर उस बुक में लेना पसंद करता।
सोनू छोटा था। सिर्फ दस वर्ष का। वह रहता भी एक छोटे शहर में था जहाँ बड़े और प्रसिद्ध लोग शायद ही कभी आते थे। पहले तो सोनू को लगा कि इस तरह उसकी ऑटोग्राफ बुक में किसी के भी हस्ताक्षर हो नहीं पाएँगे। तब उसके ध्यान में आया कि उसके छोटे शहर में भी तो सम्माननीय लोग हैं जिनकी तरह वह कभी बनना चाहता था- पोस्टमैन, स्टेशन मास्टर या सीटी बजाने वाला सिपाही।
जन्मदिन के बाद की पहली सुबह वह बस्ते में ऑटोग्राफ बुक लेकर निकल पड़ा। स्कूल के रास्ते में फायर ब्रिगेड पड़ता था। अहाते में विजया बहन खड़ी थीं। वे फायर ब्रिगेड की मुखिया थीं और अपने सिपाहियों से इंजन की सफाई करवा रही थीं। सोनू ने जब विजया बहन के सामने बुक बढ़ाई तो वे खुश हो गईं। हालाँकि उन्होंने कहा कि वे प्रसिद्ध तो नहीं हैं, फिर भी उन्होंने अपने हस्ताक्षर स्कूल के लंच टाइम में उसे अपनी पुरानी नर्सरी टीचर नंदी दीदी मिलीं। वे तीस वर्षों से स्कूल में थीं और बच्चों में बड़ी लोकप्रिय थीं। वे सितार बजातीं और बच्चों को नाटक खिलवातीं। सोनू ने उनसे भी ऑटोग्राफ लेना चाहा तो नंदी दीदी ने कहा कि बच्चे, मैं तो कभी कॉलेज में भी पढ़ी नहीं हूँ। सोनू ने उनसे पूछा कि उन्होंने कितने बच्चों को अब तक पढ़ाया है और कितने बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर और वकील बने हैं तो दीदी ने मुस्कराकर अपने सुंदर हस्ताक्षर बुक में कर दिए।
शाम के समय सोनू को उसके पड़ोसी दादू बशेशरनाथ का भी ध्यान आया। दादू को सिर्फ दादू कहकर भी काम चल सकता था, क्योंकि वे दादाजी की उम्र के थे और उनकी घनी सफेद मूँछें थीं। लेकिन यह नाम लंबा होने के बाद भी उन पर अच्छा फबता था। दादू के साथ बशेशरनाथ न जोड़ना ऐसा लगता था जैसे बिना झबरीली दुम का अल्सेशियन कुत्ता।
दादू बशेशरनाथ को वह इसलिए पसंद करता था क्योंकि वे बच्चों को उनके घर के ड्राइव-वे में क्रिकेट खेलने देते थे। उनके घर में कार नहीं थी। सोनू उन बच्चों के साथ नहीं खेलता था। फिर भी क्या, दादू बशेशरनाथ अच्छे आदमी थे तो थे। उन्होंने मुस्कराते होंठों और थरथराते हाथों से सोनू की ऑटोग्राफ बुक में इतने बड़े हस्ताक्षर किए कि वे पेज से बाहर चले गए।

उसकी ऑटोग्राफ बुक में और भी कई हस्ताक्षर हुए लेकिन अँगूठे के एक निशान के बारे में कुछ बताए बिना कहानी का पूरा मजा नहीं आएगा। उसके मोहल्‍ले में एक नीम के पेड़ के नीचे कुम्हार का वर्कशॉप है। हर सोम और मंगल को कुम्हार मिट्टी के घड़े, गमले या गुल्लक बनाता है। सप्ताह की शुरुआत में कई बार जब सोनू को स्कूल जाने की इच्छा नहीं होती तो वह नीम की छाह में बैठकर कुम्हार को काम करते हुए देखता।
हर वस्तु कुम्हार इतनी गोल बनाता और सोनू दस कोशिशों बाद भी एक ठीक-ठाक गोला कागज पर नहीं बना पाता। इसलिए कुम्हार उसके प्रिय लोगों में था। ऐसे में बड़ा होना खास मायने नहीं रखता। जब सोनू ने अपनी ऑटोग्राफ बुक कुम्हार के सामने बढ़ाई तो कुम्हार कुछ समझा ही नहीं। काफी देर बाद दूसरों की सहायता से पूरी बात कुम्हार से कही तो कुम्‍हार बहुत खुश हो गया।
लेकिन कुम्हार को पढ़ना-लिखना आता नहीं था। तब उसने तय किया कि कल वह पिताजी से इंक पैड माँगकर ले आएगा और कुम्हार से अँगूठे का निशान लगवा लेगा। इससे ऑटोग्राफ बुक की सुंदरता बढ़ जाएगी। कुम्हार यह बात खूब समझा। उसने झट गेरू का रंग किए हुए एक गमले पर अँगूठा फिराया और पन्‍नों के ठीक मध्‍य में लगा दिया। सोनू को लगा कि पूरी बुक में सबसे सुंदर ऑटोग्राफ कुम्हार के ही हैं।
सप्ताह भर में उसने कई हस्ताक्षर करवा लिए, फिर भी सौ पन्नो की ऑटोग्राफ बुक भरने के लिए वे नाकाफी थे। वह सोच नहीं पा रहा था कि बाकी पन्‍ने किस तरह भरे जाएँ और वह हाथ में लिए प्रोजेक्ट को अधूरा छोड़ना भी नहीं चाह रहा था। इसका हल उसकी छोटी बहन मिनी ने मजे-मजे में सुझा दिया। ऑटोग्राफ बुक के पन्नों को पलटते हुए मिनी ने पूछा कि तुम्हारे प्रिय लोगों के आदर्श क्या हैं? तब सोनू ने सोचा कि यदि ये सारे लोग इतना भर लिख दें कि उनके हीरो कौन हैं? जिनसे प्रेरणा पाकर वे जीवन में कुछ बन सके तो बात बन जाएगी।
वह अपनी ऑटोग्राफ बुक लेकर फिर एक बार उन सब लोगों के पास गया। सबने खुशी-खुशी, कुछ सोचकर बड़े से बड़े व्यक्ति का नाम अपने हीरो की तरह लिखा। किसी ने गाँधीजी का नाम लिखा तो किसी ने अब्राहम लिंकन का। किसी ने झाँसी की रानी का नाम लिखा तो किसी ने हेलन केलर का। सोनू ने अनपढ़ कुम्हार को इस मामले में छूट दे दी थी कि वह बेचारा किसका नाम लिखेगा। सोनू को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कुम्हार का भी कोई हीरो है, उसके नाना। वे बहुत सुंदर घड़े बनाते थे। आसपास के पचास गाँवों में उनका नाम था और उनकी दुकान के बगैर इलाके का कोई हाट पूरा नहीं होता था।
सबसे आखिरी में वह विजया बहन के पास गया। सबसे आखिरी में इसलिए कि वे कभी खाली दिखती ही नहीं थीं। वे लगातार शहर के और जिले के उन गाँव-कस्बों की ओर दौड़ती रहती थीं, जहाँ से आग लगने की सूचना मिलती। विजया बहन में उसे झाँसी की रानी, फ्लोरेंस नाइटेंगल, प्रीति जिंटा और न जाने कौन-कौन दिखाई देता।
विजया बहन ने ऑटोग्राफ बुक में अपना ही नाम लिख दिया- मेरी हीरोइन मैं खुद हूँ। मुझे अपने काम से इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती कि मैं अपने आदर्श ढूँढती फिरूँ। मैं अपना काम मुस्तैदी से करती हूँ तो मैं दूसरों की हीरो हूँ। मैं विजया हूँ। आत्मविश्वास से भरी विजया बहन की बातों से उसकी आँखें चमक उठीं और सिर ऊपर उठ गया। उसने मन ही मन तय कर लिया कि स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद वह फायर ब्रिगेड का मुखिया बनेगा।

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