सिपाही की चतुराई
सीमा पांडे
एक था सिपाही जो भूल गया था रास्ता, भूख से उसका बुरा हाल था। जंगल में दिखी उसे एक झोंपड़ी, उसने दरवाजे पर जाकर खटखटाई कुंडी। एक बुढ़िया बाहर निकली लाठी टेक, सिपाही ने कहा उसको लगी है भूख। बुढ़िया ने कहा उसके पास नहीं है कुछ भी सामान, कुछ भी बनाना होगा नहीं उसके लिए आसान। सिपाही ने कहा कोई बात नहीं मैं कुल्हाड़ी का हलवा बनाऊँगा, उसका स्वाद आपको भी चखाऊँगा।
सिपाही ने निकाली कुल्हाड़ी झोले में से, और जलते चूल्हे में लकड़ियाँ कर दी आगे। उसने माँगी एक पतीली, जो बुढ़िया ने बहुत बुरा मुँह बनाकर दी। सिपाही ने गुनगुनाते हुए पतीली को आग पर चढ़ाया, फिर कुल्हाड़ी डालकर थोड़ा सा हिलाया। पास में पड़े लोटे से पानी पतीली में उँडेला, फिर हिलाकर मुँह में ऊँगली डाली और फिर बुदबुदाया- 'वाह!'। सुनकर बुढ़िया चौंकी और चूल्हे के पास आकर बैठी। सिपाही ने कहा-'पर...अगर होता कुछ आटा तो बात बन जाती'
बुढ़िया उठी और आटा लाकर सिपाही को दिया, उसने फौरन आटा पतीली में डाल लिया। फिर एक बार कुल्हाड़ी को पतीली में हिलाया और बड़बड़ाया-'वाह-वाह! क्या बात है! पर..।' 'पर क्या? बुढ़िया बोली हिलाकर सिर। 'अगर इसमें पड़ जाती कुछ चीनी तो बात बन जाती नानी।' नानी संबोधन सुनकर बुढ़िया और पिघली, वह कोठरी से दो कटोरी चीनी लेकर निकली।
सिपाही ने डाल दी चीनी पतीली में और फिर हिलाई कुल्हाड़ी। 'हूँ..' उसने हुँकारा भरा, अब बना है कुल्हाड़ी का हलवा शानदार, लाओ कटोरी आपको भी परोसूँ चम्मच चार। बुढ़िया बहुत खुश थी हलवा खाकर, सिपाही की भूख भी मिटी पेट भरकर। बुढ़िया जान ही नहीं पाई, सिपाही ने हलवा खाने की क्या तरकीब थी अपनाई!
अक्ल की कमाई
एक राजा के दरबार में दो थे चित्रकार, राजा ने एक दिन बुला भेजा दोनों को दरबार। राजा ने दिया आदेश दोनों उनका चित्र बनाएँ, हूबहू चित्र बनाने पर मुँह माँगा इनाम पाएँ। पर दोनों चित्रकारों के सामने मुसीबत थी खड़ी, राजा की एक आँख थी बचपन से बंद पड़ी। राजा थे एक आँख से काने, पर यह बात कोई कह दे तब उसे जानें।
दोनों चित्रकार में से एक था बहुत चतुर सुजान, उसे क्या करना है उसने मन में लिया ठान। दूसरा चित्रकार था हैरान, क्या करना चाहिए इसी सोच में डूबा था वह परेशान। उसने राजा का चित्र बनाना शुरु कर दिया, दो दिन में बनाकर भी दे दिया। चित्र देखकर राजा का गुस्सा भड़का, अपने आप को काना देखकर उसका दिमाग खड़का।
राजा ने कहा उड़ाया गया है उनका उपहास, इसलिए चित्रकार को दे दिया जाए कारावास।
अब आई दूसरे चित्रकार की बारी, उसने तो कर रखी थी पूरी तैयारी। वह चित्र को रेशमी कपड़े से ढँककर दरबार में लाया, सभी दरबारियों का दिल डर के मारे थर्राया। सभी ने सोचा, अब इस चित्रकार को भी मिलेगी सजा। ज्यों ही चित्रकार ने कपड़ा हटाया, अद्भुत चित्रकारी का नमूना नजर आया।
राजा के चेहरे के साथ थी दुनाली, एक आँख थी बंद तो दूसरी थी खुली। चित्र में राजा कर रहा था शिकार, चित्रकार की चतुराई का नहीं था कोई जवाब। चित्र देखकर राजा खुशी से गद्गद् हो उठा, उसने अपने गले का कीमती हार चित्रकार के हाथ में धरा। चित्रकार की चतुराई काम आई, इसे कहते हैं अक्ल की कमाई।
तोत्तोचान की चोटियाँ
- सोनाली
प्यारे दोस्तों, नया साल और गणतंत्र दिवस आप सब को मुबारक हो। अब तक तो आप ने कई सारे उत्सव मना लिए होंगे, जैसे नववर्ष, मकर संक्रांति और गणतंत्र दिवस भी तो आने वाला है। कैसे रहे उत्सव, खूब मजा आया ना? तोत्तोचान के लिए भी वह दिन उत्सव के बराबर था, जब वह चोटियाँ बनाकर स्कूल गई थी। पर उसके इस उत्सव का मजा स्कूल के एक शरारती लड़के ने बिगाड़ दिया। कैसे? चलो देखें।
तोत्तोचान की सबसे बड़ी इच्छा यही थी कि वह चोटियाँ बनाकर स्कूल जाए और सब उसे देखकर तारीफ करें। स्कूल में बड़ी लड़कियाँ चोटी बनाकर आती थीं, जिन्हें देखकर उसकी यह इच्छा और बढ़ जाती थी। उसके बाल थोड़े लंबे थे पर माँ उसकी चोटी नहीं बनाती थी। आखिर एक दिन उसने माँ से जिद करके अपनी दो नन्ही-नन्ही चोटियाँ बनवा ही लीं। आइने में अपने आप को देखने के बाद तोत्तोचान को लगा कि ये चोटियाँ तो बेहद पतली हैं, बिल्कुल पूँछ की तरह। फिर भी वह रॉकी को चोटियाँ दिखाने दौड़कर गई।
स्कूल जाते समय तोत्तोचान अपनी गर्दन को सीधा ताने हुए थी कि कहीं चोटियाँ खुल न जाएँ। वह स्कूल पहुँची तो सब लड़कियाँ उसके पास चोटियाँ देखने जमा हो गई। उसने भी लड़कियों को अपनी चोटी छूकर देखने दी। पर लड़कों पर उसकी चोटी का कोई असर ही नहीं पड़ा और किसी ने भी उसकी तारीफ नहीं की। इससे तोत्तोचान थोड़ा उदास हो गई।
खाने की छुट्टी में तोत्तोचान की क्लास का एक लड़का ओए अचानक चिल्लाया, 'वाह! तोत्तोचान ने आज अपने बाल अलग तरह से बनाए हैं।' तोत्तोचान खुशी से झूम उठी कि किसी ने तो मेरी चोटियों को देखा। तभी ओए उसके पास आया और उसकी चोटियों को पकड़कर खींचता हुआ बोला, 'वाह, ये चोटियाँ तो रेल में लटकने वाले चमड़े के हत्थों से भी अच्छी हैं। मैं थोड़ी देर इनको ही पकड़कर खड़ा रहता हूँ।' ओए ने तोत्तोचान की चोटियों को 'जोर लगा के हैय्या' कहकर खींचना शुरू कर दिया। तोत्तोचान धम्म से जमीन पर गिर पड़ी और जोर से रोने लगी। उसे अपनी चोटियों को हत्था कहा जाना बेहद बुरा लगा।
तोत्तोचान रोती हुई हेडमास्टरजी के कमरे की ओर भागी। जब वह अंदर घुसी तो सुबक रही थी। हेडमास्टरजी ने प्यार से उससे पूछा कि क्या हुआ? उसने रोते हुए बताया कि ओए ने उसकी चोटियाँ खींची और इन्हें हत्था कहा। हेडमास्टरजी ने उसकी चोटियाँ देखीं और कहा, 'अरे! तुम्हारी चोटियाँ तो बड़ी सुंदर लग रही हैं। रोओ मत, मैं ओए को डाँटूँगा।' तोत्तोचान रोना भूलकर चोटियों की तारीफ से खुश हो उठी। उसने हेडमास्टरजी से पूछा, 'आपको मेरी चोटियाँ पसंद आईं?' बहुत, हेडमास्टरजी ने कहा और मुस्कराए। तोत्तोचान भी मुस्कराने लगी और बोली कि अब मैं नहीं रोऊँगी। ओए जोर लगा के हैय्या कहेगा तो भी नहीं।
अब तोत्तोचान फिर से अपने साथियों के पास खेलने के लिए भागी। तभी ओए उसके पास आया और बोला 'मुझे माफ कर दो, अब मैं कभी तुम्हारी चोटियाँ नहीं खींचूँगा। हेडमास्टरजी ने मुझे बताया है कि लड़कियों से हमेशा अच्छा बर्ताव करना चाहिए, उनका ख्याल रखना चाहिए।' तोत्तोचान को यह सुनकर आश्चर्य हुआ।
इससे पहले उसने किसी को भी यह कहते नहीं सुना था कि लड़कियों से अच्छा बर्ताव करना चाहिए। हर जगह लड़कों की ही पूछ होती थी। उसके परिचित कई परिवारों में भी लड़कों को ही खाना, नाश्ता सब पहले दिया जाता था और लड़कियों को हल्ला मचाने पर डाँटकर चुप कर दिया जाता था। और हेडमास्टरजी कहते हैं कि लड़कियों का ख्याल रखना चाहिए, उनसे अच्छी तरह व्यवहार करना चाहिए।
सचमुच, हेडमास्टरजी कितने अच्छे हैं। तो बच्चों, आप के साथ भी लड़कियाँ पढ़ती होंगी। आप भी उनका ख्याल रखेंगे ना! उनसे अच्छी तरह बात करेंगे तो लड़कियों को भी अच्छा लगेगा और वो आपकी तारीफ करेंगी। है ना! आप बड़े हो जाएँ तब भी इस बात को याद रखना। तो मैं चलूँ, फिर मिलूँगी।
सौ चेहरे
एक राजा, चला था लेने जायजा। अपनी प्रजा के बारे में हमेशा वह सोचता था, उन्हें कोई दुःख न हो यह देखता था। रास्ते में वह मिला एक किसान से, जो चल रहा था धीरे-धीरे मारे थकान के।
राजा ने उससे पूछा 'तुम कितना कमाते हो, रोज कितना बचा पाते हो?'
किसान ने दिया उत्तर, 'हुजूर रोज चार आने भर!'
'इन सिक्कों में चल जाता है खर्च?' राजा हैरान थे इतनी कम कमाई पर।
'एक मेरे लिए, एक आभार के लिए, एक मैं लौटाता हूँ और एक उधार पर लगाता हूँ।'
राजा चकराया, पूरी बात ठीक तरह समझाने को सुझाया।
'एक भाग मैं अपने ऊपर लगाता हूँ, एक भाग आभार के लिए यानी पत्नी को देता हूँ घर का सारा काम उसी के दम पर ही तो चलता है। एक मैं लौटाता हूँ इसका मतलब अपने बुजुर्ग माता-पिता के पैरों में चढ़ाता हूँ जिन्होंने मुझे इस काबिल बनाया, रोजी-रोटी कमाना सिखाया। एक उधार पर लगाता हूँ यानी अपने बच्चों पर खर्च कर डालता हूँ जिनमें मेरा मेरा भविष्य नजर आता है।'
'तुमने कितनी अच्छी पहेली बुझाई, मान गए भाई! पर इस उत्तर को रखना राज, जब तक कि मेरा चेहरा देख न लो सौ बार!'
'हाँ मैं बिल्कुल इसे राज रखूँगा, आपका कहा करूँगा।'
उसी दिन शाम को राजा ने पहेली दरबारियों के सामने रखी, सुनकर उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हुई। राजा ने कहा यह एक किसान का जवाब है, तुम तो दरबारी हो तुम सबकी तो बुद्धि नायाब है। कोई जवाब नहीं दे सका, पर एक दरबारी ने हिम्मत जुटाकर कहा। 'महाराज अगर मुझे समय मिले 24 घंटे का, तो मैं जवाब ढूँढकर ला दूँगा आपकी पहेली का।'
दरबारी किसान को ढँूढने निकल पड़ा, आखिर किसान उसे मिल ही गया खेत में खड़ा। पहले तो किसान ने किया इंकार, फिर मान गया देखकर थैली भर सिक्कों की चमकार। दरबारी लौट आया और दे दिया राजा को सही जवाब, राजा समझ गए कि तोड़ा है किसान ने उसका विश्वास।
उसने किसान को बुलवाया और भरोसा तोड़ने का कारण उगलवाया।
'याद करो मैंने क्या कहा था? मेरा चेहरा सौ बार देखे बिना नहीं देना जवाब, क्या तुम भूल गए जनाब?'
'नहीं-नहीं महाराज मैंने अपना वादा पूरी तरह से निभाया है, सौ सिक्कों पर आपका अंकित चेहरा देखकर ही जवाब बताया है।'
राजा को उसकी बात एक बार फिर से भाई, थैली भर मुहरें किसान ने फिर से पाई।
आज्ञाकारी सेनापति
पुराने समय में नंदनपुर में राजा कौआ अपनी रानी के साथ एक घने पेड़ पर रहता था। वह अपनी रानी से बहुत प्यार करता था।
एक दिन दोनों घूमने के लिए निकले तो महल की ओर उड़ चले। वहाँ स्वादिष्ट मछली देखकर रानी के मुँह में पानी आ गया, किंतु सख्त पहरा होने के कारण वे उसे उठा न सके। दोनों वापस अपने घोंसले में आ गए।
अगले दिन राजा कौए ने रानी से कहा, 'चलो प्रिये, बहुत भूख लगी है, चलो भोजन की खोज में चलते हैं।' 'मुझे तो उसी महल का स्वादिष्ट भोजन चाहिए अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूँगी।' राजा कौआ सोच में पड़ गया।
तभी वहाँ सेनापति कौआ आ गया। 'क्या बात है महाराज? आप काफी चिंतित नजर आ रहे हैं?' सेनापति कौए ने पूछा। राजा ने उसे अपनी चिंता का कारण बताया।
सेनापति ने कहा, 'महाराज आप चिंता न करें, मैं रानी को मनपसंद भोजन ला दूँगा।' आठ होशियार कौओं को लेकर सेनापति कौआ महल में रसोई की छत पर जा बैठा। उसने निर्देश दिया, 'ध्यान से सुनो। जब राजा का खाना जा रहा होगा, तो मैं ऐसी चेष्टा करूँगा जिससे रसोइए के हाथ से थाल गिर जाए। तुममें से चार अपनी-अपनी चोंच में चावल भर लेना और चार अन्य मछली। फिर रानी के पास उड़ जाना। वह रसोइया जैसे ही आँगन में आएगा, तब मैं उस पर झपट्टा मारूँगा।'
कुछ देर बाद जब जैसे ही रसोइया खाना लेकर आँगन में पहुँचा तो सेनापति कौए ने अपनी चोंच रसोइए के सिर पर दे मारी। रसोइए के हाथ से थाल छूट गई। थाल के गिरते ही आठों कौए अपनी-अपनी चोंच भरकर उड़ गए। उधर सिपाहियों ने सेनापति कौए को पकड़ लिया। वह सोचने लगा, कोई बात नहीं मेरा चाहे कुछ भी हो, मगर रानी की इच्छा तो पूरी हो गई। फिर उसे राजा के पास ले जाया गया।
'ऐ कौए! तूने मुझे नाराज करके अपनी जान खतरे में डाली। बता ऐसा क्यों किया तूने?'
'आपके थाल का भोजन हमारी रानी को चाहिए था। मैंने उसे लाने का वचन दिया था और अब उसे पूरा किया है... बस। मैं आपकी कैद में हूँ, जो सजा आप देना चाहें मुझे मंजूर होगी।' कहकर सेनापति कौआ खामोश हो गया।
'ऐसे स्वामी भक्त को तो उपहार मिलना चाहिए... सजा नहीं। इसे आजाद कर दो... और सुनो... आज से जो भी खाना मेरे लिए बनेगा, उसमें से तुम्हारे राजा, रानी व तुम्हारे लिए हिस्से में भेजा जाएगा और तुम्हारी प्रजा के लिए भी ढेर सारा चावल रोज पका करेगा।' सेनापति कौआ राजा को प्रणाम करके वापस अपने राजा के पास पहुँच गया।
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