शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कहानी

मीकू का संकल्प
मीकू खरगोश, गोलू, हिरन, भोलू भालू, कछुआ सिंह सारे दोस्त चंपक वन में रहते थे। चारों एक ही विद्यालय में और एक ही कक्षा में पढ़ते थे। सब वार्षिक परीक्षा की तैयारी बहुत पहले से ही कर लेते थे। वे खेलना कम कर देते और इधर-उधर व्यर्थ घूमना भी बंद कर देते। मीकू खरगोश को अपने मित्रों की हर समय पढ़ने की आदत जरा भी अच्‍छी न लगती। हमेशा यही कहता अभी तो बहुत समय पड़ा है। कुछ दिन तो उसके दोस्त उसकी बातों में आ जाते पर परीक्षा के कुछ महीने पहले सभी गंभीरता से पढ़ने लगते। मीकू सदा अपने मित्रों की आलोचना करता। यह उसका स्वभाव था। उसमें अहंकार बहुत था। वह सदा दूसरों के दोष देखने में ही तत्पर रहता। दूसरों के दोष निकालने से उसका अहंकार पुष्ट होता। अपना सारा समय और सारी शक्ति को दूसरों की गलतियाँ ढूँढने और उनका मजाक बनाने में लगाता। वह जब भी मित्रों के साथ होता दूसरों की आलोचना में ही समय गँवाता। सब उसकी इस आदत से अप्रसन्न थे। सभी की कोशिश रहती कि वे मीकू से कम से कम ही बातचीत करें। खासकर परीक्षा के दिनों में तो उससे कभी नहीं मिलते थे। यहाँ तक कि उसके दोस्त भी उससे कन्नी काटते थे।
मीकू की माँ उसे समझाती परंतु उस पर किसी का असर न पड़ता। हर बार एक ही बात कहता - इतनी जल्दी क्या है माँ! यह काम तो एक सप्ताह में ही हो जाएगा। आप तो जानती हो न माँ, मुझे एक ही बार में याद हो जाता है। आखिर सप्ताह भी आ जाता, पर मीकू फिर भी तैयारी न करता। उसी रात आधा-अधूरा पढ़ता और परीक्षा के लिए चला जाता। हर बार वह बहुत कम अंकों से उत्तीर्ण होता।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी विद्यालय में वार्षिकोत्सव मनाया गया। मुख्‍य अतिथि विनायक हाथी थे। सभी पहला, दूसरा और तीसरा स्थान पाने वालों को पुरस्कार बाँटे गए। सभी पहला, दूसरा और तीसरा स्थान पाने वालों को पुरस्कार बाँटे गए। पुरस्कार पाने वालों में उसका मित्र गोलू हिरन, भोलू भालू भी थे। कछुआ सिंह तो कक्षा में प्रथम स्थान पर था। जब मुख्‍य अतिथि ने कछुआ सिंह को मंच पर बुलाया तो पूरे सभागृह में तालियाँ गूँज उठीं। प्रधानाचार्य शेरसिंह ने उसके लिए विशेष पुरस्कार के रूप में 'स्वर्ण पदक' बनवाया था।
उसके गले में पहनाते हुए विनायक जी ने कहा - 'तुम जैसे छात्रों पर न केवल विद्यालय को वरन पूरे चंपक वन को गर्व है। ईश्वर की ओर से प्रतिभा चाहे सबको बराबर नहीं मिलती। तेज बुद्धि भी सबको नहीं मिलती पर सब आगे बढ़ सकते हैं। यह आज कछुआ सिंह ने सिद्ध कर दिया है।'
पूरा सभागृह एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से भर उठा। मीकू खरगोश ने बड़े ध्यान से विनायक जी की बातों को सुना। उसे रह-रहकर अपने पर अफसोस हो रहा था कि ईश्वर ने उसे जो तेज बुद्धि दी है उसे वह व्यर्थ की बातों में लगाकर नष्ट कर देता है। कभी भी समय पर कोई काम नहीं करता था। भले ही तेज भाग लेता था पर था बड़ा आलसी।
अपने हर काम को कल पर टाल देता और कल किसी के जीवन में कभी आता ही नहीं। माँ भी मेरी इस आदत से कितनी दुखी रहती हैं। न विद्यालय की मासिक परीक्षा ठीक ढंग से देता हूँ और न ही अर्द्धवार्षिक। हर बार सोचता हूँ अगली बार अच्‍छी तैयारी करूँगा। हर विषय का जब सारा पाठ्‍यक्रम एक साथ करना पड़ता है तो मैं घबरा जाता हूँ। आधी-अधूरी तैयारी के साथ हर वर्ष किसी तरह पास हो जाता हूँ। गोलू हिरन भी कितना मेहनती है दूसरा स्थान उसने भी प्राप्त कर लिया। भोलू भालू भी तीसरे स्थान पर आ गया। मित्रों में एक मैं ही पीछे छूट गया हूँ।
मीकू बार-बार अपने आलस्य को कोसता। अपने टालने की आदत से दुखी होता। काश! मैंने अपना समय अपनी कमियों को देख उन्हें दूर करने में लगाया होता तो मेरी उन्नति का मार्ग खुल गया होता। उसे अपनी मूर्खता पर पछतावा हो रहा था।
पुरस्कार पाने वालों की एक लंबी सूची थी। कुछ पुरस्कार पढ़ाई के अलावा भी थे। चीतासिंह को उस वर्ष तेज धावक का पदक मिला था। सोन चिरैया को और साँवली कोयल को संगीत में पदक मिला था।
इन्हें पदक पहनाते हुए विनायक जी ने कहा - 'सारे पशु-पक्षी ईश्वर की ओर से कोई न कोई गुण लेकर आए हैं। कोई भी गुणहीन नहीं है। अपनी-अपनी प्रतिभा और शक्ति को पहचानिए। अपनी योग्यता और रुचि को स्वयं खोजिए और अपने को उसी क्षेत्र में आगे बढ़ाइए। जो आलस और प्रमादवश समय को व्यर्थ खो देते हैं वे कभी जीवन में आगे नहीं बढ़ पाते। अब सब में अनंत शक्ति का भंडार है किंतु मन अनुशासित नहीं। वह व्यर्थ के कार्यों में लगा रहता है। मुझे पूरा विश्वास है कि अगले वर्ष आपमें से दूसरे जानवर भी इस तरह विशेष योग्यता प्राप्त करके अनपा और अपने माता-पिता का नाम रोशन करेंगे, साथ ही अपने राष्ट्र का भी।'
मीकू खरगोश को लगा जैसे विनायक जी यह बात उसी को सुनाने के लिए कह रहे हों। और उसने मन ही मन संकल्प किया कि वह अगले वर्ष जरूर प्रथम आएगा। पढ़ाई में भी और दौड़ में भी। अब बाकी के समय को व्यर्थ की गपशप, निद्रा और आलस्य में नष्ट नहीं करेगा। परिश्रम करेगा और पदक जीतेगा।
मीकू अब वह मीकू नहीं रहा था। उस वार्षिकोत्सव ने उसकी दिशा ही बदल दी थी। वह अब किसी की आलोचना नहीं करता और सारा ध्यान अपनी ही कमियाँ ढूँढने में लगाता। उसे यह बात अब अच्‍छी तरह से समझ आ चुकी थी कि भगवान ने उसे तेज बुद्धि तो दी है पर उसका उपयोग उसने सही दिशा में नहीं किया। अब उसने अपना सारा ध्यान पढ़ाई पर लगाना शुरू कर दिया। मासिक परीक्षा में अच्‍छे अंक पाकर उसका उत्साह और बढ़ गया। अर्द्धवार्षिक परीक्षा में वह दूसरे स्थान पर रहा। उसे लगा अब मंजिल ज्यादा दूर नहीं है। वह मित्रों के साथ खेलता चंपक वन 'स्पोर्ट्‍स क्लब' में भी जाता। जब भी बातें करता, पढ़ाई की बातें करता। आपस में हर विषय पर खुली चर्चा करता।
कोई भी मुश्किल किसी भी विषय में आती तो वह शिक्षक से पूछकर उसका हल निकालता। अपनी तेज बुद्धि का उपयोग करके उसे महसूस हुआ कि सच्ची खुशी मेहनत में है। इस तरह समय पंख लगाकर उड़ गया। वार्षिक परीक्षा आ गई। मीकू को अब कोई घबराहट नहीं थी क्योंकि उसने सारी तैयारी पहले से ही कर ली थी। हर विषय को कई-कई बार पढ़ चुका था। तैयारी के अनुसार ही उसके सारे प्रश्न-पत्र बहुत अच्छे हुए। वह बहुत खुश था।
परीक्षाफल निकला। कक्षाध्यापक ने सबको प्रगति पुस्तिकाएँ बाँटी। मीकू खरगोश का दिल धक-धक कर रहा था। अचानक अपना नाम सुनकर वह चौकन्ना हो गया। प्राचार्य महोदय ने कहा - 'इस बार का सबसे बड़ा आश्चर्य है मीकू खरगोश का सारे कीर्तिमान तोड़ना! यह न केवल अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर है वरन आठवीं कक्षा की चारों कक्षाओं में सबसे आगे है।'
तालियों से सारी कक्षा ही नहीं पूरा विद्यालय गूँज गया। प्राचार्य जी ने मीकू खरगोश को आगे बुलाया। उसकी आँखों में खुशी के आँसू छलक रहे थे। उसके मुख से एक भी शब्द नहीं निकला।' बोलो मीकू! अपनी सफलता को अपने मित्रों के साथ नहीं बाँटोगे क्या? बताओ यह परिवर्तन तुममें कैसे आया? अपने साथियों को भी बताओ।' प्राचार्य महोदय ने मीकू की पीठ ठोंकते हुए कहा।
मीकू खरगोश ने प्राचार्य के पैर छुए और भर्राई आवाज में कहा - इस सबके पीछे थी विनायक जी की प्रेरणा और मेरा संकल्प। वार्षिकोत्सव पर जब मुख्‍य अतिथि विनायक जी ने कहा कि ईश्वर सबको बुद्धि देता है परंतु मेहनत सब नहीं करते। जो मेहनत करते हैं वही आगे निकल जाते हैं और बाकी सब पीछे छूट जाते हैं और यह छूटे हुए छात्र जीवन भर फिर पीछे ही रह जाते हैं। ऐसे छात्र न अपना हित कर पाते हैं और न समाज का। बस तभी मैंने सोच लिया था कि मैं आलस को छोड़कर नियमित पढ़ाई करूँगा और अपने चंपक वन का नाम रोशन करूँगा। विनायक जी का एक-एक शब्द रोज मेरे कानों में गूँजता और मुझमें नया उत्साह भरता। उनके भाषण ने मुझमें आशा का संचार किया कि हर छात्र आगे बढ़ सकता है अगर वह चाहे तो हर असंभव को संभव बना सकता है। बस काम करने की लगन और इच्छाशक्ति दृढ़ होनी चाहिए।'
प्राचार्य महोदय ने मीकू की पीठ थपथपाते हुए उसे शाबाशी दी और कहा - 'आज से यह मुहावरा बदल दो ‍कि धीरे-धीरे करते हुए विजय मिल जाती है।'
मीकू की सफलता से उसके मित्र भी बहुत प्रसन्न थे। सबने उसे बधाई दी और चंपक वन में एक बड़े समारोह की तैयारियाँ शुरू कर दी।

ऐसे आई समझ
एक था बूढ़ा पाला - बड़ा समझदार और अनुभवी! उसका नौजवान बेटा जाड़ा एकदम नासमझ और बड़बोला था, एक दिन उसने पिता से डींग मारी - 'मैं जिसे चाहूँ, मिनटों में ठंड से अकड़ा सकता हूँ।'
'ऐसा समझना कोरा भ्रम है बेटा''
बूढ़े पाला ने समझाया। मैं अभी प्रमाण देता हूँ। नौजवान जाड़ा ने उत्तेजित होकर कहा और चारों तरफ निगाह दौड़ाई... सामने एक मोटा-ताजा सेठ दिखा गरम कपड़ों और कीमती शाल से लदा-फदा! जाड़े ने उसे जा घेरा। सेठ देखते-देखते ठंड से काँपने लगा। देख लीजिए पिताजी! जाड़े ने शेखी बघारी 'पहलवान जैसे सेठ पर मैंने कैसी बुरी गुजार दी। अब तो मान गए न मेरी बात?'
नहीं, बूढ़ा पाला हँसा, फिर बैलगाड़ी लेकर जंगल की तरफ जाते एक फटेहाल किसान को दिखाकर बोला - 'बेटा, तेरी बात मैं तब मान सकता हूँ, जब तू उसे छका दे।'
जाड़े ने बाप की तरफ देखा और बड़े घमंड से कहा - 'अभी चित करता हूँ। वह तुरंत उड़कर किसान के पास पहुँच गया और उसे दबोचना शुरू किया। उसने कमजोर बैल के जूए से कंधा भिड़ाया और बैलगाड़ी खींचने में मदद देने लगा।
जाड़ा उसकी कन‍पटियाँ, हाथ-पैर, और गर्दन पर चुटकियाँ काटता रहा, लेकिन किसान पर असर नहीं पड़ रहा था। क्योंकि गाड़ी में जोर लगाने से उसके शरीर से गरमी छिटक रही थी। जाड़ा हैरान था - कितना मजबूत है यह पिद्दी भर का आदमी! मगर उसने हिम्मत न हारी, किसान के पीछे पड़ा रहा। मन में सोच रहा था, यहाँ न सही, जंगल में तो अकड़ा ही दूँगा। कितनी देर झेल पाएगा मुझे? जंगल पहुँच कर किसान ने बैलगाड़ी रोक दी।
अब वह कुल्हाड़ी उठाकर सूखी लकड़ियाँ काटने लगा। जाड़ा जैसे-जैसे उस पर हमला करता, उसकी कुल्हाड़ी चलाने की गति बढ़ती गई। देखते-देखते उसने गाडी भर लकडी काट डाली। देह में ऐसी गर्मी आई कि पसीना चूने लगा। उसने सिर की पगड़ी उतारकर जमीन पर रख दी।
जाड़े का कोई वश न चला, तो पगड़ी में जा बैठा। लकड़ी लाद चुकने के बाद किसान ने पगड़ी उठाई। उसे बरफ सा ठंडा पाकर वह गरम हथेलियों से मसल-मसल कर पगड़ी को गरमाने लगा। जाड़ा ज्यादा समय तक किसान के हाथों की रगड़ न झेल पाया। वह पिटा सा मुँह लेकर पिता के पास लौट आया। बूढ़ा पाला उसकी दशा देखकर हँस पड़ा। बोला 'बेटा! आरामतलब लोगों को तुम छका सकते हो। मगर मेहनती लोगों के आगे तुम्हारी तो क्या, किसी भी मुसीबत की नहीं चल पाती।'
सौजन्य से - देवपुत्र

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