सोमवार, 31 मई 2010

कहानी

स्वर्ग और नरक
जापान के जैन समुदाय के एक महान आचार्य थे, रिंजेई। उनकी ख्‍याति दूर-दूर तक थी। एक दिन एक युवक उनके पास आया। उसने कहा - मुनिवर मैं स्वर्ग और नरक के रहस्य को जानना चाहता हूँ। कृपया मुझे समझाएँ। रिंजेई ने गौर से उसे देखा। फिर प्रश्न किया वह मैं समझाता हूँ। पर तुम कौन हो? करते क्या हो? युवक ने बड़े दर्प से कहा - मैं योद्धा हूँ। राजा की सेना में एक उच्च पद पर...
रिंजेई बोले - योद्धा? तुम क्या योद्धा होंगे। देखने में तो घसियारे या मोची लगते हो।
युवक ने तैश में आकर कमरबंद में खोंसी हुई तलवार निकाल ली और बोला - क्या यह तलवार आपको दिखाई नहीं दी? क्या यह मेरे योद्धा होने का प्रमाण नहीं है?
रिंजेई पुन: उपहासपूर्वक उसे देखते हुए बोले - हुंह। तलवार! इस तलवार से तो सब्जी-भाजी भी न कटती होगी। तुम इससे घास छीलते होगे।
युवक तलवार को म्यान से खींचकर बोला - बहुत हो गया। अब आपने एक भी अपशब्द कहा तो यह तलवार आपकी गर्दन धड़ से अलग करके ही म्यान में लौटेगी।
रिंजेई के चेहरे पर एक शांत मुस्कान तैरने लगी। वह बोले - युवक, अब तुम नरक में हो। अच्छी तरह देख लो। समझ लो।
अपना संयम खोने और आवेश की ज्वाला में जलने का परिणाम क्षण भर में युवक के सम्मुख स्पष्ट हो गया। उसने लज्जित होकर क्षमा माँगी और सिर झुकाकर आचार्य रिंजेई के चरणों के समीप बैठ गया। रिंजेई ने कहा - वत्स, यही स्वर्ग है।

शेख चिल्ली ‍की चिट्‍ठी
बच्चो, तुमने मियाँ ‍शेख चिल्ली का नाम सुना होगा। वही शेख चिल्ली जो अकल के पीछे लाठी लिए घूमते थे। उन्हीं का एक और कारनामा तुम्हें सुनाएँ।
मियाँ शेख चिल्ली के भाई दूर किसी शहर में बसते थे। किसी ने शेख चिल्ली को बीमार होने की खबर दी तो उनकी खैरियत जानने के लिए शेख ने उन्हें खत लिखा। उस जमाने में डाकघर तो थे नहीं, लोग चिट्‍ठियाँ गाँव के नाई के जरिये भिजवाया करते थे या कोई और नौकर चिट्‍ठी लेकर जाता था।
लेकिन उ‍न दिनों नाई उन्हें बीमार मिला। फसल कटाई का मौसम होने से कोई नौकर या मजदूर भी खाली नहीं था अत: मियाँ जी ने तय किया कि वह खुद ही चिट्‍ठी पहुँचाने जाएँगे। अगले दिन वह सुबह-सुबह चिट्‍ठी लेकर घर से निकल पड़े। दोपहर तक वह अपने भाई के घर पहुँचे और उन्हें चिट्‍ठी पकड़ाकर लौटने लगे।
उनके भाई ने हैरानी से पूछा - अरे! चिल्ली भाई! यह खत कैसा है? और तुम वापिस क्यों जा रहे हो? क्या मुझसे कोई नाराजगी है?
भाई ने यह कहते हुए चिल्ली को गले से लगाना चाहा। पीछे हटते हुए चिल्ली बोले - भाई जान, ऐसा है कि मैंने आपको चिट्‍ठी लिखी थी। चिट्‍ठी ले जाने को नाई नहीं मिला तो उसकी बजाय मुझे ही चिट्‍ठी देने आना पड़ा।
भाई ने कहा - जब तुम आ ही गए हो तो दो-चार दिन ठहरो। शेख चिल्ली ने मुँह बनाते हुए कहा - आप भी अजीब इंसान हैं। समझते नहीं। यह समझिए कि मैं तो सिर्फ नाई का फर्ज निभा रहा हूँ। मुझे आना होता तो मैं चिट्‍ठी क्यों लिखता?

काव्य-संसार

अमलतास : तीन बिंब

1 अच्छा लगता है
अमलतास
फूला-फूला इन दिनों
पके नींबू जैसे रंग के
फूलों के झूमर
कुछ इस कदर
औंधे लटकाए
मानो रोशनी के हंडे
उड़ेल रहा हो कोई
अँधेरे में खोई धरती को
उजियाले में लाने के लिए...।

2 अमलतास!
अनोखे हो तुम-अजूबे भी
तब फूलते हो जब
अँखुआना नहीं चाहती धरती
और जब पानी के बदले
आग बरस रही होती है धरती पर
फूलकर भी क्या कर लोगे
गंध तो तुममें है ही नहीं
और गुलदस्तों के लायक
तुम्हारे फूलों की उम्र होती भी नहीं।
3 तब ही अच्छा लगता है
अमलतास,
जब वह फूला-फूला हो
वरना उपयोगी होकर भी
फल उसके
डंडों की तरह औंधे मुँह
लटकते रहते हैं
मानो धरती पर तने हों
और कह रहे हों
खबरदार! जो मुझे बुरी
नजर से देखा तो!

मनपसंद करियर

सुगंध चिकित्सा में करियर
करियर के क्षेत्र में आ रहे बदलावों के चलते आज ऐसे विकल्पों का बोलबाला है, जो अपने आप में विशेषज्ञता रखते हैं। यह विकल्प पूरी तरह से प्रोफेशनल होते हैं। इन्हीं में से एक विकल्प है सुगंध चिकित्सा (स्मैल थैरेपी) का। ब्रिटेन और यूरोप में लोकप्रियता हासिल करने के बाद सुगंध चिकित्सा ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका में तेजी से लोकप्रिय हो रही है।

जहाँ तक भारत की बात की जाए तो हमारी सभ्यता में प्राचीनकाल से ही सुगंध चिकित्सा का बोलबाला रहा है। भारत इत्र, सुगंधित तेलों और इनका उत्पादन करने वाली इंडस्ट्री का अपना एक विशेष महत्व है। आयुर्वेद में सुगंधित तेलों से शरीर की मालिश करने की विधि का उपयोग होता है इसके अलावा इत्र, धूप, अगरबत्ती जैसी वस्तुएँ भी भारतीय सभ्यता से बहुत लंबे समय से जुड़ी हुई हैं।

आज सुगंध चिकित्सा न सिर्फ इलाज, बल्कि रोजगार के लिहाज से भी भारत में व्यापक संभावनाओं भरे विकल्प के तौर पर विकसित हो रही है।

नेचुरल चीजों के प्रति बढ़ते रुझान के कारण आज सेहत सुधार में भी सुगंध चिकित्सा का इस्तेमाल किया जाने लगा है। भारत में सुगंध चिकित्सा के माध्यम से प्रकृति की ओर वापसी की धारणा को फिर से प्रचलित करने का श्रेय अगर किसी को दिया जाए तो इस कतार में शहनाज हुसैन, ब्लॉसम कोचर और भारती तनेजा जैसे नाम उभकर सामने आते हैं, जिन्होंने आम आदमी को ऐसे विकल्प दिए, जिनके चलते वह एक बार फिर से प्राकृतिक उत्पादों में विश्वास करने लगा है।

प्रकृति के प्रति इसी लगाव के कारण आज भारत के प्राकृतिक उत्पादों की माँग भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी खूब देखने को मिल रही है। वर्तमान में आलम यह है कि विज्ञान के विकास के चलते आज यह क्षेत्र बेहद विस्तृत हो गया है और एक इंडस्ट्री के रूप में तब्दील हो चुका है।

आज भारी संख्या में लोग अपनी बीमारियों का इलाज प्राकृतिक सुगंध चिकित्सा में खोज रहे हैं। आम और खास आदमी की इसी बढ़ती रूचि के कारण सुगंध चिकित्सा आज एक रोजगार विकल्प का रूप ले चुकी है।
सुगंध चिकित्सा के लगातार बढ़ते प्रभाव के कारण आज देश के कई शिक्षण संस्थानों ने इस विद्या का व्यावहारिक प्रशिक्षण भी शुरू कर दिया है। आज न केवल सरकारी, बल्कि कई गैर सरकारी संस्थान भी सुगंध चिकित्सा से जुड़े डिग्री, डिप्लोमा, सर्टिफिकेट कोर्स चला रहे हैं। इन संस्थानों में दाखिले की प्रक्रिया उसी तरह की होती है, जैसे कि अन्य प्रोफेशनल या परंपरागत कोर्सों के लिए होती है।
इस थेरेपी से जुड़े सर्टिफिकेट स्तर के पाठक्रम में दाखिले के लिए शैक्षणिक योग्यता बारहवीं है। लेकिन अगर आप डिग्री या डिप्लोमा कोर्स करना चाहते हैं तो अधिकांश शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए आवेदक के पास बारहवीं कक्षा में रसायन विज्ञान विषय होना जरूरी है। सुगंध चिकित्सा के कई प्रोफेशनल पाठक्रमों में केवल कैमिस्ट्री विषय के साथ स्नातक उत्तीर्ण छात्रों को ही प्रवेश दिया जाता है।

सुगंध चिकित्सा का प्रशिक्षण प्राप्त कर आप एक सुगंध चिकित्सक के रूप में कार्य कर सकते हैं। प्रशिक्षण के उपरांत आप सुगंध चिकित्सक, सुगंधित पदार्थ विक्रेता, परामर्शदाता, सुगंधित पदार्थ के उत्पादन और व्यापार के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इस तरह अगर सही मायनों में देखें तो यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें आपको अपनी क्षमताओं और रुचि के अनुसार काम करने का मौका मिलता है।

सुगंध चिकित्सा का कोर्स करने के उपरांत वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति का इस्तेमाल कर इलाज करने वाले अस्पतालों, अनुसंधान और विकास संगठन, सुगंधित तेल का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाली कंपनियों, स्पा सेंटर, पांच सितारा होटलों, खानपान के क्षेत्र में, औषधि और पौष्टिक आहार बनाने वाली कंपनियों तथा सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में रोजगार की बहुत उजली संभावनाएं हैं।
किसी प्रतिष्ठित संस्थान से सुगंध विज्ञान में प्रशिक्षण लेने के बाद सुगंध चिकित्सक के रूप में स्वयं का क्लिनिक शुरू किया जा सकता है, जिसमें सौंदर्य की साज-संभाल के अलावा अन्य रोगों का इलाज किया जा सकता है। सुगंध चिकित्सक के अलावा आप सुगंधित पदार्थ परामर्शदाता और इसके उत्पादन और व्यापार के क्षेत्र में भी कार्य कर सकते हैं।

कहाँ से करे कोर्स-

शहनाज हुसैन वुमंस इंटरनेशनल स्कूल ऑफ ब्यूटी, ग्रेटर कैलाश, नई दिल्ली।

पिवोट पाइंट ब्यूटी स्कूल, कैलाश कॉलोनी, नई दिल्ली।

दिल्ली स्कूल ऑफ मैनेजमेंट सर्विस, आकाशदीप बिल्डिंग, नई दिल्ली।

सुगंध और स्वाद विकास केंद्र, मार्कण्ड नगर, कन्नौज, उत्तर प्रदेश ।

केलर एजुकेशन ट्रस्ट, वीजी वूसे कॉलेज, मुंबई।

मर्चेंट नेवी

साहस-जोखिम-रोमांच का संगम
अगर आप देश-विदेश में घूमने-फिरने का शौक रखते हैं और समुद्र की अठखेलियां करती लहरें आपको सहज ही आकर्षित करती हैं तो मर्चेंट नेवी का क्षेत्र आपके लिए रोमांच और साहस से भरा एक बेहतरीन करियर ऑप्शन सिद्ध हो सकता है। शौक के साथ भविष्य निर्माण का अनोखा संगम यह प्रोफेशन अपने आप में समेट हुए है।

पे-पैकेज 15 हजार रुपए प्रतिमाह से लेकर पद और अनुभव के साथ 7-8 लाख रुपए प्रतिमाह के स्तर तक पहुँच सकता है। मर्चेंट नेवी को लोग अमूमन नौसेना से जोड़ लेते हैं जबकि मर्चेंट नेवी मूलतः व्यापारिक जहाजों का बेड़ा कहा जा सकता है जिसमें समुद्री यात्री जहाज, मालवाहक जहाज, तेल टैंकर, रेफ्रिजरेटेड शिप आदि शामिल होते हैं।

इनमें कार्यरत प्रोफेशनल्स शिप के परिचालन, तकनीकी रखरखाव और यात्रियों के लिए अन्य प्रकार की सेवाएँ प्रदान कराने के कार्यकलापों से संबद्ध होते हैं। इनकी ट्रेनिंग विशिष्ट और मेहनत से भरी होती है। पारंगत होने के विश्वास पर ही ट्रेनिंग संस्थानों द्वारा इन्हें अधिकृत किया जाता है।

हालाँकि डिग्री या डिप्लोमाधारकों को भी 6 माह से लेकर एक वर्ष तक बतौर ट्रेनी या डेक कैडर ही बना कर रखा जाता है। समुद्री परिस्थिति और परिवार से दूर रहने की आदत डालनी होती है। आपातकालीन जोखिमों का साहस से झेलने का जज्बा भी उनमें भरा जाता है। आमतौर से विज्ञान विषयों सहित 10+2 पास युवा ही जेईई (आईआईटी प्रवेश परीक्षा) के माध्यम से इस प्रकार के कोर्स में प्रवेश प्राप्त करते हैं।

ट्रेनिंग कोर्स में दाखिला पाने की अधिकतम आयुसीमा 20 वर्ष सामान्य वर्ग के युवाओं के लिए और 25 वर्ष अनुजाति, जनजाति के युवाओं के लिए रखी जाती है। इसके अलावा इस क्षेत्रे में प्रवेश पाने का दूसरा रास्ता शिपिंग कंपनियों द्वारा समय-समय पर नियुक्त किए जाने वाले डेक कैडेट्स के रूप में भी है।

स्पेशियलाइजेशन के लिए एप्टीच्यूड एवं दिलचस्पी के अनुसार उन्हें अलग-अलग ट्रेड में वर्गीकृत किया जाता है। सफलतापूर्वक ट्रेनिंग की समाप्ति के बाद ही इन युवाओं को पहले प्रोवेशन और बाद में रेग्यूलर कर्मियों का दर्जा दिया जाता है। इन्हें आकर्षित पे-पैकेज (जो विदेशी शिपिंग कंपनियों के मामले में विदेशी मुद्रा में भी हो सकता है) के अलावा मुफ्त खाना-पीना, शुल्क रहित विदेशी सामान तथा वर्ष में पूरे वेतन के साथ चार माह की छुट्टियाँ भी मिलती हैं।
जहाँ तक ट्रेनिंग का सवाल है तो ट्रेनिंगशिप चाणक्य (नवी मुंबई) और मरीन इंजीनियरिंग इंस्ट्टियूट (कोलकाता) का नाम खासतौर से इस बाबत लिया जा सकता है। 'चाणक्य' पर तीन वर्षीय बीएससी नॉटिकल साइंस और कोलकाता स्थित संस्थान में चार वर्षीय मरीन इंजीनियरिंग का कोर्स संचालित किया जाता है। इसके बाद एमई (मरीन इंजीनियरिंग) का कोर्स भी किया जा सकता है। शिपिंग क्षेत्र में कार्य के अनुसार विशेषज्ञता के विकल्प होते हैं।

एक नजर इन विभागों पर -
डेक, नेवीगेशन ऑफिसरः इनका काम शिप के नेवीगेशन पर आधारित होता है। कैप्टन या मास्टर के ही आदेश के तहत समूचा शिपिंग स्टाफ काम करता है। इसके बाद चीफ मेट और फर्स्ट मेट का स्थान होता है। इनका दायित्व कार्गो प्लानिंग और डेक के कामकाज पर आधारित होता है।

सेकेंड मेट का काम शिप के उपकरणों के समुचित रखरखाव और थर्ड मेट का काम लाइफ बोट्स और फायर फाइटिंग उपकरणों की देखभाल से संबंधित होता है।

इंजीनियरिंग ऑफिसरः शिप इंजन, बॉयलर, पंप, फ्यूल सिस्टम, जेनरेटर सिस्टम, एयर कंडिशनिंग प्लांट इत्यादि का जिम्मा इसी विभाग के विभिन्न श्रेणी के इंजीनियरों और कर्मियों पर होता है। इस विभाग में चीफ इंजीनियर सेकेंड इंजीनियर, थर्ड इंजीनियर, फोर्थ इंजीनियर आदि पद होते हैं। इसमें मैकेनिकल तथा इलेक्ट्रिकल इंजीनियर भी शामिल होते हैं।

विचार-मंथन

एक विश्वयुद्ध : तंबाकू के विरुद्ध
किसी की युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए पहली आवश्यकता होती है शत्रु की साफ-साफ पहचान, उसकी ताकत एवं उसकी कमजोरियों का अंदाज, उसके मित्रों, हितैषियों एवं उससे सहानुभूति रखने वालों का लेखा-जोखा, शत्रु के प्रभाव क्षेत्र की भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं भावनात्मक परिस्थितियों का पर्याप्त ज्ञान होना भी युद्ध की रणनीतियों के निर्धारण के लिए जरूरी होता है।

तंबाकू-प्रयोग के विरुद्ध विश्वभर में युद्ध छिड़ा हुआ है। इस तंबाकू-युद्ध को सैकड़ों मोर्चों पर हजारों सैन्य टुकड़ियों द्वारा लड़ा जा रहा है, जिसकी संयुक्त कमान विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के हाथों में है। विश्व के सभी देश विशेषतः (उनके स्वास्थ्य मंत्रालय) इसके क्षेत्रीय कमांडर हैं।

तंबाकू-उपयोग के विरुद्ध छुटपुट कार्रवाइयाँ तो एक शताब्दी पूर्व से जारी हैं। 1857 में इंग्लैंड के ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने अपने सैकड़ों सदस्य चिकित्सकों की धूम्रपान से होने वाली हानियों के विषय पर राय एकत्रित की थी। इसे ब्रिटिश डॉक्टर्स स्टडी कहा जाता है।

इस अध्ययन में डॉक्टर्स से पूछा गया था कि उनकी राय में उनके क्लिनिकल ऑब्जर्वेशंस के अनुसार धूम्रपान करने से कौन-कौन-से रोग होते हैं (या हो सकते हैं)? स्मरण रहे 1857 तक धूम्रपान से होने वाले दुष्प्रभावों के संबंध में किसी वैज्ञानिक खोज या अध्ययन के अते-पते नहीं थे। अधिकांश चिकित्सकों ने धूम्रपान को विभिन्न कैंसर, दिल, मानसिक तथा व्यवहारजनित बीमारियों, नपुसंकता आदि का संभावित कारण बताया।
150 वर्षों से तंबाकूरूपी दैत्य चुपचाप धीरे-धीरे मनुष्य जाति का आराम से भक्षण करता रहा है। इस दैत्य की साफ-साफ पहचान 1964 में हुई, जब अमेरिका के सर्जन जनरल टेरीलूथर ने अपनी ऐतिहासिक रिपोर्ट में यह सिद्ध कर दिया कि धूम्रपान निश्चित रूप से कैंसर, हार्ट अटैक, लकवा सहित कई गंभीर एवं जानलेवा बीमारियों का मूल कारण है।
ब्रिटिश फिजिशियंस-स्टडी के समय से उठाई गई शंकाओं, सिगरेट कंपनियों द्वारा किए गए उनके खंडनों के दौर इन 150 वर्षों में निरंतर चलते रहे। तंबाकू कंपनियों की सोची-समझी साजिश एवं चिकित्सा संगठनों की उदासीनता से एक धुँध बनी रही कि तंबाकू के विरुद्ध विभिन्न चिकित्सकों, उनके संगठनों द्वारा उठाई गई आवाजों में सच्चाई है भी कि नहीं! यदि है तो कहाँ तक!
टेरी लूथर की रिपोर्ट ने इस अनिश्चय की धुँध को पूरी तरह छाँट दिया। विश्व ने पहली बार तंबाकू के इच्छाधारी राक्षस को अपने संपूर्ण नग्न एवं भयावह रूप में देखा-पहचाना। इस सर्जन जनरल की रिपोर्ट में दुनिया के हर कोने में धूम्रपान के संबंध में हुए अध्ययनों एवं उनके निष्कर्षों व दुष्प्रभाव को संकलित व संपादित किया गया था। तंबाकू-उपयोग के विरुद्ध औपचारिक विश्वयुद्ध की शुरुआत टेरी लूथर की रिपोर्ट से कही जा सकती है।
सर्जन जनरल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद स्वास्थ्य जगत में हलचल मच गई तथा तंबाकू के विकराल दैत्य को काबू करने के लिए सभी देशों के बीच जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों में आम सहमति बनी कि इस समस्या से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी वैश्विक संस्था को ही नेतृत्व करना होगा। इस प्रकार आपसी सहमति के अनुसार तंबाकू-नियंत्रण की दिशा में अंतरराष्ट्रीय प्रयास सुसंगठित रूप में शुरू हुए।
इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण पड़ाव रहा 1999 की "विश्व स्वास्थ्य संसद" जिसमें सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया था कि तंबाकू नियंत्रण के उद्देश्य से एक अंतरराष्ट्रीय कानून बनाया जाए, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य राष्ट्रों पर बंधनकारी हो तथा उनका पालन करना अनिवार्य हो।

किसी भी अंतरराष्ट्रीय संधि को प्रभाव में लाने के लिए निश्चित कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। इसमें सबसे पहली थी अंतरराष्ट्रीय कानून का मसौदा क्या हो, इसके क्षेत्र क्या हो। इन बिंदुओं पर आम सहमति बनाने के उद्देश्य से 192 देशों के प्रतिनिधियों एवं अशासकीय सामाजिक संगठनों (एनजीओ) की (डब्ल्यूएचओ) मुख्यालय जेनेवा में 1999 से 2004 के बीच कई बैठकें हुईं।

मसौदे के एक-एक बिंदु पर घंटों बहस के बाद जो सर्वसम्मत दस्तावेज तैयार हुआ उसे एफसीटीसी (फेडरल कन्वेशन ऑन टोबैको कंट्रोल) कहा गया। इस (एफसीटीसी) संधिपत्र पर जब 40 देशों के अधिकृत प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर कर दिए, तब इसे औपचारिक संधि का रूप देने के लिए हरी झंडी मिल गई। जिस दिन 140वें देश की निर्वाचित संसदों ने इस (एफसीटीसी) की रेटीफाई कर दी तो उसी दिन से संधि लागू मानी गई जिसका विश्व के देशों को पालन करना अनिवार्य है।

यह भारत के लिए अत्यंत गर्व का विषय है कि कोई भी प्रधानमंत्री रहा हो, किसी भी पार्टी की सरकार केंद्र में राज्य कर रही हो अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर तंबाकू नियंत्रण की नीति गत दो दशकों में स्पष्ट एवं सुदृढ़ रही है। यही कारण है कि भारत में सरकार या एनजीओ द्वारा लिए गए हर कदम को बाकी विश्व अत्यंत आशाभरी निगाहों से देखता है तथा अपने देश की तंबाकू-समस्याओं का हल उनमें खोजने की चेष्टा करता है।

तंबाकू-नियंत्रण के वैश्विक परिदृश्य में 3-4 वर्ष में नया मोड़ आ गया, जब न्यूयॉर्कClick here to see more news from this city के मेयर (महापौर) श्री ब्लूमबर्ग ने कई करोड़ डॉलर तंबाकू नियंत्रण के उद्देश्य के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन को दान किए। इस उदाहरण को आदर्श मानते हुए 2008 में मेलिंडा बिल गेट्स फाउंडेशन ने भी कई लाख डॉलर तंबाकू नियंत्रण के लिए डब्ल्यूएचओ को दान देने का संकल्प लिया।

2008 में डब्ल्यूएचओ द्वारा विश्व तंबाकू निषेध पर दी गई थीम भी चित्रमय चेतावनी के महत्व पर आधारित है। 31 मई को अनेक बाधाएँ पार करते हुए भारत में चित्रमय चेतावनी लागू हो गई।

तंबाकू-नियंत्रण प्रयासों के परिणाम दिखाई पड़ना शुरू हो गए हैं। आमतौर पर समृद्ध एवं उन्नत देशों, जहाँ शिक्षा का प्रतिशत कहीं अधिक है तथा लोग स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरूक हैं, में ये परिणाम अधिक शीघ्रता एवं स्पष्टता से दिखाई पड़े हैं।

विकासशील देशों की निचली पायदानों के देश या तंबाकू उत्पादन में अग्रणी देशों में तंबाकू नियंत्रण की राह अधिक कठिनाइयों से भरी है। फिर भी तंबाकू नियंत्रण का कारवाँ आगे बढ़ता ही जाता है।

कभी तेजी से कभी धीरे से बाधाओं को निरंतर पार करते हुए। तंबाकू उपयोग के इच्छाधारी दैत्य की मौत शुरू हो गई है। आवश्यकता इस बात की है कि किस प्रकार वह जल्दी पूर्ण मृत्यु को प्राप्त हो तथा हाथ-पैर पटकना बंद करे।

रविवार, 30 मई 2010

लतीफ़े

एक आदमी कपड़े की दुकान पर गया।
दुकानदार- सर, क्या चाहिए?
सलवार-सूट
सर पत्‍नी के लिए चाहिए या कुछ अच्छा सा दिखाऊं।


सोनू (चिंटू से)- मेरे पापा के आगे अमीर से अमीर आदमी भी कटोरी लेकर खड़े रहते हैं।
चिंटू (सोनू से)- ऐसे कितने अमीर हो तुम?
सोनू- मेरे पापा गोल-गप्पे की रेडी लगाते हैं।


रेस देखते हुए...
संता (बंता से)- इनाम किसे मिलेगा?
बंता (संता से)- सबसे आगे वाले को।
बंता- तो फिर पीछे वाले क्यों भाग रहे हैं?


पत्नी (पति से)- पूरी दुनिया में चिराग लेकर ढूंढोगे तो भी मेरी जैसी बीवी नही मिलेगी...
पति (पत्नी से)- तुम्हें किसने कहा कि दूसरी बार भी तुम्हारे जैसी ही ढूढूंगा?

डॉक्टर (मरीज से)- शराब आपके शरीर में एक धीमे जहर का काम कर रही है।
मरीज- ठीक है डॉक्टर साहब मुझे भी कोई जल्दी नही है।

खुशनुमा पलों

तसव्वुर में बसा गर्मियों का मौसम

फुरसत के पलों में जब कभी हमारा मन अतीत के फ्लैशबैक में जाता है तो वह बार-बार बचपन की ओर ही झांकता है। गर्मी की छुट्टियों का बचपन से कुछ ऐसा नाता है कि जब भी हम अपने बचपन के खुशनुमा पलों को याद करते हैं तो उसमें समर वेकेशंस के यादगार पलों का कोलाज सा दृश्य हमारी आंखों के आगे घूमने लगता है। दोस्तों के साथ की जाने वाली शरारतें, लूडो-कैरम और अंत्याक्षरी, बर्फ की ठंडी-ठंडी चुस्की..और न जाने ऐसी ही कितनी खूबसूरत यादें इस मौसम के साथ जुडी हैं।

वे भी क्या दिन थे

गर्मियों की छुट्टियों का नाम सुनते ही मन नॉस्टैल्जिक होने लगता है। ऐसे में यादों की उंगली थामे अतीत की गलियारों में बस यूं ही बेमतलब घूमना-टहलना बडा सुखद लगता है। जरा याद कीजिए अपने बचपन के दिनों को, आप पूरे साल कितनी बेसब्री से गर्मी की छुट्टियों का इंतजार करते थे। तब घरों में आज की तरह सुख-सुविधाएं नहीं थीं। फिर भी जिंदगी में एक अलग तरह का सुकून था। स्नेह और अपनत्व की ठंडी छांव चिलचिलाती धूप की तपिश को भी सुहाना बना देती थी।

गर्मियों की खुशनुमा सुबह को याद करते हुए बैंकिंग कंसल्टेंट आकाश सरावगी कहते हैं, हमें आज के बच्चों की तरह छुट्टियों में देर रात तक जागकर टीवी देखने, इंटरनेट पर चैटिंग करने और सुबह देर तक सोने की इजाजत नहीं थी। तब केवल दूरदर्शन ही होता था, जिस पर चित्रहार और रात नौ बजे वाला सीरियल (हमारे जमाने में नुक्कड आता था) देखकर हम सो जाते थे। हमें सुबह साढे पांच बजे ही उठा दिया जाता था और हम दादा जी के साथ मॉर्निग वॉक के लिए निकल पडते थे। तब पॉलीथीन बैग का जमाना नहीं था। इसलिए सैर पर जाते वक्त दादाजी अपने साथ कपडे का थैला ले जाते और लौटते वक्त ताजा-ताजा खीरा, ककडी और खरबूजे खरीदकर जरूर लाते। फिर मम्मी और दादी बडी तसल्ली से इन फलों को काटकर, हमें खिलातीं। सच वे भी क्या दिन थे!

खस की भीनी खुशबू

गर्मियों की दुपहरी को याद करते हुए 38 वर्षीया गृहिणी सुमेधा शर्मा कहती हैं, तब घरों में एसी होना तो बहुत दूर की बात थी, कूलर रखना भी सामाजिक प्रतिष्ठा की निशानी थी। लेकिन हमारे घर में तो केवल पंखे थे। दोपहर वक्त जब छत धूप से तप जाती तो पंखों से ऐसी गर्म हवाएं निकलतीं कि उन्हें बंद ही कर देने को जी चाहता। इस परेशानी से बचने के लिए हमारे पापा खिडकियों पर खस के परदे टंगवा देते और हम हर दो घंटे के बाद उन पर पानी का छिडकाव करते रहते। इससे कमरे का तापमान कम हो जाता और खस की भीनी-भीनी खुशबू पूरे माहौल को सुहाना बना देती। तेज धूप में घर से बाहर निकलने की सख्त मनाही थी। फिर भी हम दबे पांव सहेलियों के घर चले जाते या उन्हें अपने यहां बुलाकर उनके साथ कई तरह के इंडोर गेम्स खेलते। एक-दूसरे से हैंडीक्रॉफ्ट की चीजें बनाना सीखते। दोपहर के वक्त अगर बिजली जाए तो कोई गम नहीं। हमारे घर में एक ऐसा अंधेरा कमरा था जहां सूरज की रोशनी अच्छी तरह नहीं जाती थी। पूरे साल वह कमरा खाली पडा रहता लेकिन गर्मियों की दोपहर में वही जगह हमारे लिए जन्नत साबित होती। हम पोंछा डाल कर ठंडे फर्श पर लेट जाते। यह बात सुनने में थोडी लो प्रोफाइल जरूर लगती है। पर ईमानदारी से कहूं तो तब फर्श पर भी ऐसी मीठी नींद आती थी, जो अब एसी में भी नसीब नहीं होती। दोपहर को सोकर उठने के बाद शर्बत और शिकंजी का लंबा सेशन चलता। कभी बेल का शर्बत, कभी कच्चे आम का पना तो कभी नीबू की शिकंजी..मम्मी बडे जतन से बनातीं और उस दौरान हम पांच भाई-बहन उन्हें घेरे बैठे रहते। मम्मी सभी ग्लासों में एक बराबर शर्बत उडेलतीं। फिर भी उनके भगौने में थोडा शर्बत बच ही जाता, घर की सबसे छोटी बच्ची होने के कारण दो घूंट अतिरिक्त शर्बत पीने का सौभाग्य मुझे ही प्राप्त होता और अपने बडे भाई-बहनों की नजरों में उस पल के लिए मैं ईष्र्या की पात्र बन जाती।

आम होता था बहुत खास

फलों के राजा आम के बिना गर्मियों के मौसम की चर्चा अधूरी रह जाएगी। 36 वर्षीया रचना टंडन पेशे से शिक्षिका हैं। वह अपने बचपन के दिनों को याद करती हुई कहती हैं, लखनऊ में हमारा घर काफी बडा था और उसके कैंपस में आम के दो-तीन पेड लगे थे। पेडों पर बौर लगने के साथ ही कोयल कूकने लगती, जैसे उसे भी आमों के पकने का इंतजार हो, लेकिन हमें तो पहले कच्ची अमिया का ही इंतजार होता था। नमक के साथ अमिया खाने का मजा ही कुछ और होता था। दादी हमें डांटती रहतीं कि घर से बाहर मत निकलो, लू लग जाएगी। लेकिन हम कच्चे आम की तलाश में भरी दुपहरी में बाहर निकल पडते। फिर थोडे ही दिनों में डाल के पके दशहरी और सफेदा खाने का समय आ जाता। आम के बिना इस मौसम में डिनर अधूरा लगता।

इसके अलावा रस से भरे छोटे आमों का मजा ही कुछ और होता था। मुझे आज भी याद है इन आमों को ठंडे पानी से भरी बाल्टी में डुबोकर रख दिया जाता था और दोपहर की नींद पूरी करने के बाद हम सब भाई-बहन साथ बैठकर आम चूसते और अकसर हमारे बीच शर्त लगती कि कौन सबसे ज्यादा आम चूस सकता है? लीची के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला था। लेकिन आम का कोई मुकाबला नहीं था।

ननिहाल में छुट्टियां

ननिहाल का गर्मी की छुट्टियों से बडा गहरा रिश्ता है। 45 वर्षीय आर्किटेक्ट प्रतीक मिश्र अपनी यादों को ताजा करते हुए कहते हैं, हमारा ननिहाल पटना में है। वहां जानलेवा गर्मी पडती है। फिर भी हर साल गर्मी की छुट्टियों में किसी हिल स्टेशन पर जाने के बजाय हम सीधे नानी केघर ही जाते थे। वहां बडा सा संयुक्त परिवार था। मां के अलावा हमारी दो मौसियां भी अपने बच्चों समेत वहां पहुंचती थीं। नाना-नानी के अलावा वहां दो मामाओं का परिवार पहले से ही रहता था। बडा-सा दो मंजिला मकान था। फिर भी रहने को जगह कम पडती। इसलिए रात को ड्राइंग रूम में जमीन पर गद्दे बिछाए जाते और हम सब बच्चे वहीं सोते। कुल मिलाकर हम बारह कजंस हर साल इकट्ठे होते थे। लडकों और लडकियों के अलग-अलग ग्रुप बन जाते थे। उसके बाद खूब शरारतें होतीं। बिजली की दि क्कत की वजह से अकसर पानी की भी समस्या हो जाती। जिस रोज नल में पानी नहीं आता, वह दिन हमारे लिए सबसे अच्छा होता। क्योंकि घर से वाकिंग डिस्टेंस पर गंगा बहती थीं। हमारे एक मामा बडे अच्छे तैराक थे और वह हम बच्चों को साथ लेकर गंगा जी की ओर निकल पडते। जहां हम जी भर कर नहाते और तैरते। मुझे इस बात की खुशी है कि स्विमिंग सीखने के लिए आज के बच्चों की तरह मैंने अपने पेरेंट्स से पैसे नहीं खर्च करवाए। नहाने के बाद वहीं नदी किनारे बने छोटे से ढाबेनुमा होटल में हम कचौरी-जलेबी का नाश्ता करते और लस्सी पीते। हमारी एक दीदी जो उन दिनों टीनएजर थीं, वह बेचारी घर पर अकेली रोती-बिसूरती रहतीं क्योंकि उन्हें हमारे साथ जाने की इजाजत नहीं होती थी। लेकिन लौटते वक्त हम उनके लिए नाश्ता ले जाना नहीं भूलते। वहां हर साल हमारा जाना होता था, लिहाजा पास-पडोस के कुछ बच्चे भी हमारे अच्छे दोस्त बन गए थे। उनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जिनसे आज भी फेसबुक पर संपर्क बना हुआ है।

ढेर सारी बतकहियां

हर मौसम का लुत्फ उठाने के पीछे अलग तरह की सामाजिकता की भावना निहित होती है। गर्मियों में यह भावना ज्यादा अच्छी तरह दिखाई देती है। क्योंकि सर्दियों में तो शाम होते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं, लेकिन गर्मियों की शामें बहुत सुहानी होती हैं। हालांकि दुपहरी लंबी और बोरियत भरी होती है। फिर भी इसका बहुत बडा फायदा यह होता है कि लोगों के पास एक-दूसरे से बोलने-बतियाने का भरपूर वक्त होता है। 36 वर्षीय सुब्रत मुखर्जी डॉक्टर हैं और वह इस मौसम को बडी शिद्दत से याद करते हुए कहते हैं, इस मौसम में हम दोपहर के वक्त दोस्तों को अपने घर पर बुलाकर कैरम खेलते थे। छुट्टियों में हमारे मुहल्ले में बाकायदा कैरम टूर्नामेंट का आयोजन होता था। शाम को घरों के सामने ठंडे पानी का छिडकाव होता तो मिट्टी की सौंधी खुशबू बडी प्यारी लगती। छुट्टियों में हम अपने दोस्तों के साथ कहानियों की किताबों और कॉमिक्स का खूब आदान-प्रदान करते। उन दिनों अमर चित्र कथा और इंद्रजाल कॉमिक्स का बडा क्रेज था। हमारे चाचा का परिवार भी साथ रहता था। रात के वक्त छत पर एक साथ कई चारपाइयां बिछ जातीं। जहां हम सारे बच्चे एक साथ सोते और सोने से पहले एक-दूसरे को पहेलियां बुझाते, जोक्स सुनाते और ढेर सारी बातें करते। लेकिन अब जीवनशैली इतनी बदल गई है कि तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद आज के बच्चों के पास वह जीवंत माहौल नहीं है, जहां वह वे बेफिक्री से अपनी छुट्टियों का लुत्फ उठा सकें। हम माहौल नहीं बदल सकते, लेकिन दोबारा अपने बचपन को जी तो सकते ही हैं।

शबाना आजमी, अभिनेत्री

बावडी में सीखती थी स्विमिंग

बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम हैदराबाद जाते थे। मेरी पैदाइश हैदराबाद की है। वहां मेरी खालाएं रहती हैं। मेरे बहुत से फ‌र्स्ट कजंस भी वहीं रहते हैं। हालांकि वहां बहुत गर्मी होती थी। फिर भी हम पूरे दिन धूप में घूमते रहते। मुझे याद है कि मेरी खालाओं ने मुर्गियां पाल रखी थीं और हम उनके पीछे भाग कर उन्हें पकडने की कोशिश करते। हमारे घर में अमरूद का बाग था। वहां हम पेड पर चढते थे। हैदराबाद में जो गंगा-जमुनी तहजीब है, उसका मुझे शिद्दत से एहसास है। वहां हमारे बहुत सारे पडोसी हिंदू थे। हम उनके साथ होली-दिवाली मनाते और वे हमारे साथ ईद मनाते थे। हम खूब नाटक खेलते थे। भाई-बहनों के साथ मिलकर हम नाटक खुद ही लिखते। घर का ही कोई एक दृश्य लेकर हम उस पर नाटक करते। वहां शाम को आंगन में पानी का छिडकाव होता था और तख्त लगती थी। उसके ऊपर सफेद चादर बिछाई जाती, जिसे चांदनी कहते थे। फिर चादर के ऊपर मोगरे के फूल रखे जाते और उसकी खुशबू से पूरी फिजा महक उठती।

छुट्टियों में जब मुझे दिन भर अपनी अम्मी के साथ रहने का वक्त मिलता तो उनके बारे में कई दिलचस्प बातें जानने को मिलतीं। मसलन, वह अपने गीले बालों को सुखाने के लिए एक तवे पर जलते हुए कोयले रखकर, उसमें लोबान डालतीं। फिर तवे पर बडे-बडे सूराखों वाली एकबेंत की टोकरी रखी जाती। उसके बाद अम्मी दरी पर लेट कर अपने बाल उसी लोबान के धुएं से सुखातीं। इससे लोबान की खुशबू उनके बालों में आ जाती। वह खुशबू मुझे आज भी याद है। मेरे आग्रह पर मंडी में श्याम बेनेगल ने यह दृश्य स्मिता पाटिल पर फिल्माया था। हमारे अब्बू के पास बहुत ज्यादा पैसा नहीं था। लेकिन हमने कभी भी इस कमी को महसूस नहीं किया। अब्बू शायर थे, इसलिए घर में हमेशा पढने-लिखने का माहौल रहा। बचपन में मैं अकसर सफेद गरारा-कुर्ता पहनती थी। मुझे याद है जब मैं आठ साल की थी तब मेरे एक कजन ने मुझे बावडी में धक्का देकर स्विमिंग करना सिखाया था। उस वक्त पानी के अंदर जाते समय मुझे थोडा डर जरूर लगा था, लेकिन पानी के ऊपर आते समय जो खुशी हुई थी, वह मुझे आज तक याद है।

जिया खान, अभिनेत्री

छुट्टियों में जाती थी फ्रांस

अपने बचपन की सारी बातें मुझे आज भी अच्छी तरह याद हैं। मेरे पिता अली रिजवी खान अमेरिका में पले-बढे भारतीय हैं और मां रबाया अमिन मूलत: आगरे की रहने वाली हैं। गर्मी की छुट्टियों में अलग-अलग गेटअप बनाकर मैं अकेले ही एक्टिंग करती रहती। हालांकि मेरे मम्मी-पापा के तलाक की वजह से मेरा बचपन वैसा खुशहाल नहीं था जैसा कि आम बच्चों का होता है। लेकिन जब तक मेरे पेरेंट्स साथ थे। मेरा समय अच्छा ही बीता। मैंने लंदन के ली स्ट्रेसबर्ग एकेडमी से ड्रमैटिक आर्ट का कोर्स पूरा किया। लेकिन मेरी गर्मी की छुट्टियां माता-पिता के आपसी अलगाव के कारण तनहा हो गई थीं। मेरी अम्मी ने अकेले अपने बलबूते मुझे और मेरी बहन को हमेशा खुश रखने की पूरी कोशिश की। मुझे हर साल समर वेकेशंस का इंतजार रहता। स्कूल मुझे बहुत बोरिंग लगता और मैं स्कूल जाने के नाम से ही रोने लगती थी। जब तक मम्मी-पापा साथ थे, मैं उनके साथ फ्रांस घूमने जाती थी और कभी-कभी इंडिया भी आती थी। यहां के बच्चों का आजाद बचपन मुझे बहुत प्रभावित करता था। आज भी मुझे शूटिंग की वजह से बहुत घूमने को मिलता है। लेकिन अब मैं बचपन की तरह एंजॉय नहीं करती पाती। आज भी मैं गर्मी की छुट्टियों को बहुत मिस करती हूं। मुझे ऐसा लगता है कि बचपन के दिन सबसे खूबसूरत होते हैं।

सांसों में बसी मिट्टी की सौंधी खुशबू

गुलजार, गीतकार

बचपन में ही मुझे देश के विभाजन का सदमा झेलना पडा। उस वक्त मेरी उम्र तकरीबन 10-11 साल रही होगी। फिर भी मेरा बचपन काफी खुशहाल था। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि मैं मूलत: सिख हूं और मेरा असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। झेलम (अब पाकिस्तान में ) जिले के एक छोटे से गांव में मेरा ननिहाल था। मैं हर साल ननिहाल जाता था। तब मेरे पिताजी मुझसे कहते थे कि तुम छुट्टियों में नानी के घर जाते हो तो जल्दी वापस लौट आया करो। यहां तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता। जब मैं वहां जाता तो नानी मेरी शरारतों से परेशान हो जातीं। दिन के किसी भी वक्त मुझे गांव के पास बहती नदी में तैरना बहुत अच्छा लगता था। वहां जो लडके मुझसे बडे थे। वे मुझ पर बहुत रौब जमाते। जब मैं नदी में नहाने जाता तो वे मेरे कपडे तक छिपा देते थे। नानी कहतीं कि अगर इसी तरह दिनभर धूप में खेलता रहेगा तो रंगत काली पड जाएगी। तब अपने घर जाने के बाद तेरे पिता तुझे पहचानेंगे कैसे? नानी का वह प्यार-दुलार आज भी मुझे फ्लैश बैक में ले जाता है। हमारे घर के पास रावी नदी बहती थी। जब मुझे साथ खेलने-कूदने के लिए कोई साथी नहीं मिलता था तो मैं अकेले ही रावी नदी के किनारे घूमता रहता। पंछियों का कलरव और बहती नदी की मीठी लय मुझे मंत्रमुग्ध कर देती थी। आज मैं जो भी थोडा-बहुत लिख पाता हूं, वह सिर्फ इसी वजह से कि मेरा बचपन प्रकृति के साथ बीता है। मैं रावी और झेलम नदी को तैरकर पार कर लेता था। अपने गांव की संस्कृति और वहां की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू से मैं पूरी तरह वाकिफ था। उन यादों को आज भी मैंने अपने सीने से लगा रखा है। लेकिन आज के बच्चों पर तो पढाई और होमवर्क का इतना जबरदस्त दबाव है कि वे फुरसत के पलों का लुत्फ भी नहीं उठा पाते।

गोपीचंद, बैडमिंटन कोच

आजादी के वे दिन

मैं पूरे साल इन दो महीनों का इंतजार करता था। आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव में मेरी नानी का घर था, जहां मैं गर्मी की छुट्टियां मनाने जाता था। एक तो नानी का घर, उस पर से दोस्तों का साथ। छुट्टियों की मस्ती का परफेक्ट माहौल था वह। वहां बहुत सारे नारियल के पेड थे। जिन पर चढकर मैं नारियल तोडने की कोशिश करता था। क्रिकेट खेलना मुझे बहुत पसंद था। आए दिन पडोसियों की खिडकियों के शीशे हमारे खेल पर कुर्बान होते। शीशे तोड कर मजा तो बहुत आता था, पर बहुत डांट भी पडती थी। लेकिन हम अपनी शरारतों से कहां बाज आने वाले थे! दोपहर को निकल जाती थी- हम शैतानों की टोली पूरे मुहल्ले की शांति भंग करने। अलग ही मजा था आजादी के उन दिनों का। अफसोस है कि आज की जेनरेशन उस तरह का समय एंजॉय नहीं कर पाती। आज तो होमवर्क का बोझ ही इतना ज्यादा है कि छुट्टी होने के बावजूद बच्चे स्कूल से आजाद नहीं हो पाते। आज के बच्चों के बारे में सोच कर मुझे बहुत दुख होता है। अब वक्त बहुत बदल गया हे। हमारी गर्मी की छुट्टियों में बचपन का अल्हडपन, शरारतें और मस्तियां थीं लेकिन आज उनकी जगह विडियो गेम्स, सोशल नेटवर्किग और चैटिंग ने ले ली है।

अरशद वारसी, अभिनेता

आज भी नहीं भूलतीं वो शरारतें

मैं मुंबई से लगभग डेढ सौ किलोमीटर दूर देवलाली स्थित बार्नेस बोर्डिग स्कूल में पढता था। गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही हमें अपने घर मुंबई भेज दिया जाता था। मुंबई की उमस भरी गरमी इतनी भयावह होती कि बस, यही इच्छा होती थी कि हमेशा स्विमिंग पूल में पडा रहूं। मुंबई में जब गर्मी असहनीय होने लगती थी तब मैं अपने पेरेंट्स के साथ मुंबई के करीबी हिल स्टेशंस मसलन खंडाला, महाबलेश्वर, पंचगनी या पनवेल जैसी जगहों पर चला जाता था। वैसे तो यह मौसम मुझे बेहद नापसंद है, लेकिन गर्मियों में सुबह के वक्त समुद्र के किनारे टहलना बहुत अच्छा लगता है। बचपन में मैं बहुत शरारती था और अपनी शरारत से जुडा एक वाकया आपको सुनाता हूं। दरअसल जहां हमारा स्कूल है, वह जगह फलों के लिए मशहूर है। वहां आम, अंगूर, अमरूद, चीकू, शरीफा आदि के बडे-बडे बाग हैं। जब हमारा अंतिम पेपर होता था, उस रात हम योजना बना कर खूब मौज-मस्ती करते थे।

क्योंकि अगले दिन सभी बच्चों को अपने-अपने होम टाउन के लिए रवाना होना पडता था। ऐसी ही एक रात थी, जब मैं कुछ लडकों के साथ अंगूर के बाग में घुस गया। अपनी शर्ट के भीतर ढेर सारे अंगूर के गुच्छे भरकर हम ज्यों ही बाग से बाहर आने लगे, बाग का मालिक आ गया। हम सब की बोलती बंद हो गई। पहले तो उसने हमें खूब डराया कि वह स्कूल में हमारी शिकायत कर देगा। फिर बाद में उसने मुसकुराते हुए कहा कि कभी मैं भी तुम्हारी तरह बच्चा था और ऐसी ही शरारतें करता था। कल तुम लोग अपने अपने घर चले जाओगे, हमारी तरफ से अंगूर और अमरूद की दो-दो पेटियां लेते जाओ। जब स्कूल वापस आओगे तो यहां भी जरूर आना। हालांकि दोबारा उस व्यक्ति से मेरा मिलना नहीं हो पाया। लेकिन बचपन की उन शरारतों को मैं आज भी बहुत मिस करता हूं।

पद्मा सचदेव, साहित्यकार

बचपन खो रहे हैं आज के बच्चे

गर्मी की छुट्टियों में हमें बडा मजा आता था। हमारे मुहल्ले में दोपहर के वक्त एक फेरी वाला बहुत चटपटे और खट्टे कचालू आलू बेचने आता था। हमें धूप में बाहर निकलने की सख्त मनाही थी। लेकिन जैसे ही कचालू वाला आवाजें लगाता सबकी नजरें बचा कर हम बाहर निकल पडते और कचालू खरीद कर खाते। मुझे चांद-तारों को देखते हुए छत पर सोना बहुत पसंद था। मेरा भाई मुझे अकसर डराता कि जंगली भेडिया तुम्हें उठाकर ले जाएगा। लेकिन उसकी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं होता। जम्मू में हमारा बहुत बडा कुनबा था, परिवार के अन्य सदस्य नीचे आंगन में सोते और सुबह होते ही मेरी मां आवाज लगाकर मुझे जगाने लगतीं। फिर हम भाई-बहनें मिलकर अपनी गायों को चरने के लिए जंगल में छोड आते थे। लौटते वक्त हम पेडों पर चढकर आम-इमली तोडते और उनका बंटवारा करते। उसबंटवारे में जो भी घपला करता, उससे हमारा झगडा हो जाता। दोपहर के वक्त मेरी मां मुझे कढाई, सिलाई और क्रोशिए का काम सिखातीं। गर्मियों की लंबी दुपहरी में शरतचंद्र और बंकिमचंद्र की किताबें पढने का सुख कुछ और ही होता था। ऐसी ही छुट्टियों में साहित्य से मेरा नाता प्रगाढ हुआ। मुझे डोगरी लोकगीत गाना बहुत पसंद था और मैं ढोलक भी बहुत अच्छा बजाती थी। अकसर दोपहर के वक्त हमारे गाने का कार्यक्रम चलता। आज के बच्चों को जब मैं पीठ पर भारी बस्ता लादे देखती हूं तो मुझे बहुत दुख होता है। पढाई के बोझ तले वे अपना बचपन खोते जा रहे हैं।

सिद्धार्थ टाइटलर, फैशन डिजाइनर

कभी नहीं करता था होमवर्क

मेरा ननिहाल अमेरिका में है। जहां मेरे 18 ममेरे-मौसेरे भाई-बहन रहते हैं। वैसे भी मुझे गर्मियों का मौसम बिलकुल पसंद नहीं है। इसलिए मैं हर साल गर्मियों की छुट्टियों में अमेरिका जाता हूं और यह सिलसिला आज तक जारी है। वहां हम सारे कजंस मिलकर बहुत मौज-मस्ती करते थे। खास तौर से मुझे हॉरर फिल्में देखना बहुत अच्छा लगता था। बचपन में मैं बहुत शरारती और बिगडा हुआ बच्चा था। छुट्टियों की मौज-मस्ती में हमेशा होमवर्क करना भूल जाता था। स्कूल में पनिशमेंट भी मिलती, पर मुझ पर कोई असर नहीं होता था। फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि हम आज के बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा सीधे और शरीफ थे। मैंने तो अठारह साल की उम्र के बाद पार्टियों में जाना शुरू किया, लेकिन आज तो छोटी उम्र से ही बच्चों का एक्सपोजर बहुत ज्यादा है। अब उनमें बच्चों वाली मासूमियत देखने को नहीं मिलती।

साहित्यिक कृतियां

विडंबना

बैंक के एटीएम के पास तीन रिक्शेवाले सवारी की प्रतीक्षा में सडक के किनारे अपने-अपने रिक्शे पर बैठे थे। एक कार आकर रुकी उसमें से एक सम्भ्रांत सा आदमी उतरा और एटीएम की ओर बढा। रिक्शेवालों के बगल में ही नाले के किनारे पांच सौ के दो नोट गिरे पडे थे। कार वाले ने देखा उसने चुपके से उठा लिया और एटीएम की ओर बढ गया। एक रिक्शेवाले ने देखा तो उसने दूसरे रिक्शेवाले को दिखाते हुए कहा-वो देखो ऊपर वाला भी उसे ही देता है जिसके पास कुछ है।

शुक्रवार, 28 मई 2010

बुद्ध जयंती पर विशेष

यहाँ थी बुद्ध की कपिलवस्तु
राजा शुद्धोधन की राजधानी कपिलवस्तु, अपने समय की बड़ी वैभवशाली नगरी थी। इसी कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ और देवदत्त के बीच घायल हंस को लेकर उठे विवाद का निर्णय सुनाया था - "मारने वाले से, बचाने वाला बड़ा होता है।" राजकुमार सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु में रहते हुए इस संसार की नश्वरता और दुःखों को देखकर संन्यास ले लिया था। उन्होंने अपनी तप-साधना पूर्ण होने पर बोध ज्ञान प्राप्त किया और भगवान बुद्ध कहलाए। बुद्ध बनने के बाद वे एक बार वापस कपिलवस्तु लौटे। महाराज शुद्धोधन बीमार थे। बुद्ध ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। फिर अपने पुत्र राहुल को सबसे पहले दीक्षा दी।

भगवान बुद्ध की इस धरती पर अस्तित्व के ढाई हजार वर्ष से भी अधिक समय बीत गए हैं। कपिलवस्तु नगरी लुप्त हो गई और उसकी चर्चा केवल इतिहास में बंद हो गई। वर्ष १८९८ में अंग्रेज जमींदार डब्ल्यू.सी. पेप्पे ने कुछ खुदाई कराई तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही, जब पता चला कि वहां तो एक स्तूप है। स्तूप की खुदाई करने पर एक सेलखड़ी (चौक स्टोन) का बना कलश मिला, जिस पर अशोककालीन ब्राह्मी लिपी में लिखा था - "सुकिती भतिनाम भगिनीका नाम-सा-पुत- दात्नानाम इयम सलीला-निधाने-बुद्धस भगवते साक्यिानाम।" इसका इतिहासकारों ने इस तरह अनुवाद किया है - "बुद्ध भगवान के अस्थि अवशेषों का यह पात्र शाक्य सुकिती भ्रातृ, उनकी बहनों, पुत्रों और पत्नियों द्वारा दान किया गया है।" यह पात्र आज भी कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में रखा है।
भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि अवशेष आठ भागों में विभाजित किए गए थे जिनमें से एक भाग भगवान बुद्ध के शाक्य वंश को भी प्राप्त हुआ था। पेप्पे को ये अवशेष आठ फुट की गहराई पर मिले थे। उस समय कुछ विद्वानों ने इस स्थान के कपिलवस्तु होने की संभावना की ओर संकेत किया था किंतु निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन था।

वर्ष १९७१ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पुरातत्ववेत्ता एवं निदेशक के.एम. श्रीवास्तव (१९२७-२००९) ने उस स्थान पर और खोज तथा खुदाई का काम कराया। वर्ष १९७२ में उसी स्तूप में लगभग दस फुट और गहराई पर, चौकोर पत्थर के एक बक्से में दो सेलखड़ी कलश मिले, जिनमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष रखे थे। ये दोनों पात्र और अस्थियां नेशनल म्यूजियम, जनपथ, नई दिल्लीClick here to see more news from this city में रखे हैं। इतनी वस्तुएं मिलने के बाद भी यह कहना संभव न था कि यहीं कपिलवस्तु की नगरी थी।

के.एम. श्रीवास्तव द्वारा कराए जा रहे उत्खनन कार्य के फलस्वरूप १९७३ में पूर्वी बिहार से पकी मिट्टी की मुद्राएँ पहली बार मिलीं, जिन पर लिखा था -"ओम देवपुत्र विहारे, कपिलवस्तु भिक्खु संघस" एवं "महाकपिलवस्तु, भिक्सु संघस"। दो मुद्राओं पर भिक्खुओं (भिक्षुओं) के नाम भी लिखे थे। इस अभिलेख ने उत्खनन कार्य को एक निर्णायक मोड़ प्रदान किया। फिर तो आसपास के क्षेत्र में खुदाई कराते ही पूरे कपिलवस्तु का प्राचीन अवशेष उभरकर सामने आ गया। बाद में के.एम. श्रीवास्तव ने बोधगया में वह स्थान भी खोजा जहाँ सुजाता ने भगवान बुद्ध को खीर खिलाई थी। कपिलवस्तु की खोज के.एम. श्रीवास्तव की महान गौरवशाली खोज थी क्योंकि आज वह स्थान विश्वभर में बौद्ध धर्म मानने वालों के लिए पवित्र तीर्थ बन गया है।
वर्तमान कपिलवस्तु उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर जिले में, नेपाल की तराई क्षेत्र में स्थित है। यह उत्तर पूर्व रेलवे के गोरखपुर-गोंडा लूप लाइन पर स्थित नौगढ़ नामक तहसील मुख्यालय और रेलवे स्टेशन से २२ किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में है। यहां प्राप्त अस्थि अवशेषों को नेशनल म्यूजियम और इंडियन म्यूजियम में देखा जा सकता है। बुद्ध पूर्णिमा पर महाबोधि सोसाइटी इन अस्थि अवशेषों की विशेष पूजा आयोजित करती है। विश्व के अन्य देशों के पर्यटक भी कपिलवस्तु और अस्थि अवशेषों के दर्शनों के लिए आते हैं।

कहानी

शेख चिल्ली ‍की चिट्‍ठी
बच्चो, तुमने मियाँ ‍शेख चिल्ली का नाम सुना होगा। वही शेख चिल्ली जो अकल के पीछे लाठी लिए घूमते थे। उन्हीं का एक और कारनामा तुम्हें सुनाएँ।
मियाँ शेख चिल्ली के भाई दूर किसी शहर में बसते थे। किसी ने शेख चिल्ली को बीमार होने की खबर दी तो उनकी खैरियत जानने के लिए शेख ने उन्हें खत लिखा। उस जमाने में डाकघर तो थे नहीं, लोग चिट्‍ठियाँ गाँव के नाई के जरिये भिजवाया करते थे या कोई और नौकर चिट्‍ठी लेकर जाता था।
लेकिन उ‍न दिनों नाई उन्हें बीमार मिला। फसल कटाई का मौसम होने से कोई नौकर या मजदूर भी खाली नहीं था अत: मियाँ जी ने तय किया कि वह खुद ही चिट्‍ठी पहुँचाने जाएँगे। अगले दिन वह सुबह-सुबह चिट्‍ठी लेकर घर से निकल पड़े। दोपहर तक वह अपने भाई के घर पहुँचे और उन्हें चिट्‍ठी पकड़ाकर लौटने लगे।
उनके भाई ने हैरानी से पूछा - अरे! चिल्ली भाई! यह खत कैसा है? और तुम वापिस क्यों जा रहे हो? क्या मुझसे कोई नाराजगी है?
भाई ने यह कहते हुए चिल्ली को गले से लगाना चाहा। पीछे हटते हुए चिल्ली बोले - भाई जान, ऐसा है कि मैंने आपको चिट्‍ठी लिखी थी। चिट्‍ठी ले जाने को नाई नहीं मिला तो उसकी बजाय मुझे ही चिट्‍ठी देने आना पड़ा।
भाई ने कहा - जब तुम आ ही गए हो तो दो-चार दिन ठहरो। शेख चिल्ली ने मुँह बनाते हुए कहा - आप भी अजीब इंसान हैं। समझते नहीं। यह समझिए कि मैं तो सिर्फ नाई का फर्ज निभा रहा हूँ। मुझे आना होता तो मैं चिट्‍ठी क्यों लिखता?

गुरुवार, 27 मई 2010

स्वास्थ्य-सौन्दर्य

बच्‍चे को बचाएँ मोटापे से
बदलती जीवनशैली से बच्चे भी मोटापे का शिकार हो रहे हैं। अनियंत्रित खान पान, जंक फूड, वीडियो गेम्स व टेलीविजन से चिपके रहने की बच्चों की आदत इसके लिए जिम्मेदार है।
बच्चों में मोटापा (चाइल्डहुड ओबेसिटी) बाद में उच्च रक्तचाप का सबसे बड़ा कारण बनकर उभरता है। बच्‍चे में बढ़ते मोटापे को उनके खाने और खेलने की आदतों पर ध्‍यान देकर नि‍यंत्रि‍त कि‍या जा सकता है।
एसोसिएशन ऑफ फिजीशियन ऑफ इंडिया के मेडिकल अपडेट वाल्यूमः 2010 में प्रकाशित रिपोर्ट में बच्चों में बढ़ती ओबेसिटी पर गहरी चिंता जताई गई है। इसमें प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली व अन्य महानगरों के पब्लिक व कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने वाले कुल बच्चों में 22 फीसदी बच्चे मोटापे से ग्रस्त हैं।
जबकि सरकारी स्कूलों में प़ढ़ने वाले बच्चों में मोटापे का प्रतिशत करीब 5 है। पुणे में पब्लिक व कॉन्वेंट स्कूलों में मोटापे के शिकार बच्चों का प्रतिशत 24 से ज्यादा है। 'प्रिविलेंस ऑफ ओबेसिटी अमंग मेल एंड फिमेल चिल्ड्रन' अध्ययन में यह बात उजागर हुई है। इस रिपोर्ट से राजधानी के विशेषज्ञ भी चिंतित हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि राजधानी में भी दिल्ली और पुणे से कम खतरनाक हालात नहीं है।
ये हैं उपाय :
1. बच्‍चे को हरी सब्जियाँ और फल खि‍लाएँ और शाकाहारी भोजन को प्रमुखता दें।
2. बच्‍चे को पनीर व फास्ट फूड से बचाएँ। खाने में नमक की मात्रा कम करें।
3. बच्‍चे को तीन विभाजित हिस्सों में खाना खि‍लाएँ।
4. खाने में कार्बोहाइड्रेट की मात्रा कम करें।
5. बच्‍चे को खाने या ब्रेकफास्‍ट में रेडीमेड सॉस देने से बचें।
6. बच्चे को कंप्यूटर व टीवी पर ज्यादा समय न बिताने दें। इसके बजाए उसे आउटडोर गेम्‍स खेलने दें।

पर्यटन

चम्बा: गुलाबी ठंड का मजा

हुस्न पहाड़ों का क्या कहना कि बारहों महीने यहाँ मौसम जाड़ों का...। जी हाँ कुछ यही बोल होते हैं उन लोगों के मुँह पर जो इस चिलचिलाती गर्मी में उत्तराखंड के सबसे मखमली अनछुई हरियाली वाले शहर चम्बा जाते हैं।

मसूरी से 3 घंटे की दूरी पर बसा चम्बा पूरे टिहरी जिले की शान है। मन को शांति प्रदान करने वाला सीढ़ीनुमा सड़कों से बना यह शहर सैलानियों को एक ही क्षण में अपनी ओर आर्कषित कर लेता है। यहाँ पर बने छोटे छोटे घर जिनको ऊँचे-ऊँचे पेड़ अपनी छाया से ढके रहते हैं। जलवायु वर्ष भर खुशनुमा रहती है और वातावरण तो ऐसा कि एक बार कोई चला जाए तो आसानी से वापस आने का मन न हो।

राजधानी से 305 किलोमीटर की दूरी पर बसा यह पहाड़ी क्षेत्र सबसे सस्ता और अनूठा है। इसकी खास बात यह है कि यह टिहरी, मसूरी, उत्तरकाशी जाने वाले रास्तों के बीच में पड़ता है। और यहाँ पर ठहरने का खर्च अन्य शहरों की अपेक्षा बहुत कम है, जिससे पर्यटक यहाँ पर ठहरना पसंद करते हैं। इस समय जब राजधानी में बच्चों की छुट्टियाँ हो रही है तो जाहिर सी बात है कि आप सभी घूमने जाने के लिए नए नए स्थलों का चुनाव कर रहे होंगे। ऐसे में आप चम्बा जाकर अपनी छुट्टियाँ का मजा ले सकते हैं।
यह शहर कई छोटे-छोटे गाँवों से बना हुआ है। जिससे अभी भी वहाँ पर सभ्यता और संस्कृति की झलक साफ साफ दिखाई पड़ती है। अगर आप दिल्ली की भीड़-भाड़ से दूर एकांत की तलाश में गए हैं तो आप चम्बा की सबसे ऊँची पहाड़ी पर बने क्लासिक रेजीडेंसी में रुक सकते हैं।
यहाँ आपके लिए हेयर स्पा, बॅाडी मसाज, मड बाथ सभी के लिए उचित है और थकान को मिटाने के लिए भी वहां पर बना क्लासिक हिल टॉप पार्क में बैठकर पहाड़ी नजारों का आनंद ले सकते हैं और यहां बने कई छोटे छोटे मंदिरों के दर्शन कर सकते हैं। चम्बा जाकर आप ग्रामीण रहन सहन का भी आनंद ले सकते हैं।
यदि आप चम्बा जाते हैं तो आप यहाँ से 67 किलोमीटर आगे उत्तरकाशी भी जा सकते हैं। नदी के आर पार बने इस शहर में आप मशहूर मंदिर विश्वनाथ भगवान के दर्शन कर सकते हैं, और यहाँ लगे मेलों का आनंद लें सकते हैं। बीच में आप कई पर्यटन स्थलों का आनंद ले सकते हैं इसके लिए आपको अलग से कोई खर्चा भी नहीं करना पड़ेगा।
अगर रास्ते में आप कहीं आराम करना चाहते हैं तो आपके लिए गढ़वाल मंडल विकास का रेस्ट हाउस उचित रहेगा। वह आपके लिए अच्छा स्थान है।

मिर्च-मसाला

बिपाशा बसु की उर्दू
जुलाई में राहुल ढोलकिया द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लम्हा’ रिलीज होने जा रही है जो कश्मीर की वर्तमान समस्याओं के बारे में है। इसमें बिपाशा बसु ने प्रमुख भूमिका निभाई है।

अपनी इमेज से हटकर या बिना चमक-दमक वाली भूमिका निभाने की जिद ए-स्टार एक्ट्रेसेस में देखी जाती है। जैसे कैटरीना ने ‘राजनीति’ में लीक से हटकर रोल किया है कुछ इसी तरह बिपाशा ने भी ‘लम्हा’ में किया है।
ये भूमिकाएँ ग्लैमरस और हॉट कही जाने वाली एक्ट्रेस इसलिए चुनती है ता‍कि उन्हें पुरस्कार मिल जाए। उन्हें इस बात पर अटूट विश्वास है कि बिना मैकअप वाले रोल निभाने पर ही प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलते हैं।
पैसा और प्रसिद्धी बिपाशा पा चुकी हैं और उनकी नजर अब पुरस्कारों पर है। राष्ट्रीय पुरस्कार की दौड़ में कलाकार तभी शामिल हो सकता है जब उसने अपने संवादों को खुद ही डब किया हो।
‘लम्हा’ में बिपाशा कश्मीरी गर्ल बनी हैं और उर्दू का ज्यादा उपयोग किया गया है। हिंदी ठीक से नहीं बोल पाने वाली बिपाशा को उर्दू शब्दों के उच्चारण में कितनी तकलीफ होगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। लेकिन बिपाशा ने भी ठान ली है और इन दिनों वे उच्चारण पर मेहनत कर ‘लम्हा’ की डबिंग कर रही है।
गौरतलब है कि बिपाशा की मातृभाषा बंगाली है और इसके बावजूद निर्देशक रितुपर्णा सेन ने बिपाशा द्वारा अभिनीत बांग्ला फिल्म ‘सॉब चारित्रो काल्पोनिक’ की डबिंग किसी और से कराने का निर्णय लिया था। बिपाशा की नजर राष्ट्रीय पुरस्कार पर थी और उन्होंने रितुपर्णा से इस बात को लेकर गुस्सा भी जाहिर किया था।
कश्मीरी मुस्लिम गर्ल बनी बिपाशा ने कितनी सही तरह से उर्दू बोली है इसका पता तो ‘लम्हा’ देखकर ही पता चलेगा। बिपाशा से ज्यादा तनाव में तो राहुल होंगे।

60 वर्ष की प्रियंका चोपड़ा
प्रियंका चोपड़ा ने अपनी एक्टिंग के बलबूते पर वो स्थान हासिल कर लिया है ‍कि उन्हें चुनौतीपूर्ण भूमिकाएँ निर्देशक सौंपने लगे हैं। ऐसा ही एक रोल प्रियंका ‘सात खून माफ’ में निभा रही हैं और प्रियंका का कहना है कि ऐसे मौके एक एक्टर की लाइफ में य‍दाकदा ही मिलते हैं।

‘कमीने’ में प्रियंका ने विशाल भारद्वाज की आशा से बेहतर अभिनय किया और बदले में विशाल ने उन्हें ‘सात खून माफ’ में कठिन रोल दे दिया। इसमें प्रियंका अपने सात पतियों की हत्या कर देती है। इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह भी उनके पति बने हैं और उनका बेटा भी प्रियंका के पति के रूप में नजर आएगा।
फिल्म में प्रियंका 20 वर्षीय लड़की से लेकर 60 वर्ष की तक की बुढ़िया बनेंगी। उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर वे शादी कर अपने पतियों का खून करती हैं। प्रियंका के लिए सबसे कठिन चैलेंज है 60 वर्ष की महिला का पात्र निभाना।
प्रियंका का मानना है कि केवल बाल सफेद करने या झुर्रियों वाले मेकअप से ही बात नहीं बनती है। वे बॉडी लैंग्वेज, आवाज और एक्सप्रेशन के जरिये इस पात्र को प्रभावशाली बनाना चाहती हैं। प्रियंका की विशाल यथासंभव मदद कर रहे हैं।

बुधवार, 26 मई 2010

कैरियर

जर्नलिज्म बेस्ट करियर

इन दिनों ज्यादातर युवाओं के लिए मीडिया आकर्षक करियर बनता जा रहा है। यदि लिखने-पढने के शौकीन हैं और आपकी कम्युनिकेशन स्किल बढिया है, तो मीडिया आपके लिए बेस्ट करियर साबित हो सकता है। दरअसल, आज मीडिया का काफी विस्तार हो चुका है। न केवल अखबार, टीवी और रेडियो, बल्कि इंटरनेट, मैग्जींस, फिल्म भी इसके विस्तारित क्षेत्र हैं। करेंट इवेंट्स, ट्रेंड्स संबंधित इन्फॉर्मेशन कलेक्ट करना, एनालाइज करना आदि जर्नलिस्ट के मुख्य काम हैं।

इंस्टीट्यूट्स

जेआईएमएमसी

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन, नई दिल्ली (एमसीआरसी)

मास कम्यूनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली

एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म, चेन्नई

ज्यादातर इंस्टीट्यूट्स एंट्रेंस एग्जाम आयोजित करते हैं। इसमें रिटेन टेस्ट, इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन भी होता है। लिखित परीक्षा में स्टूडेंट्स के राइटिंग स्किल्स, जेनरल अवेयरनेस, एनालिटिकल एबिलिटी और एप्टीट्यूड की जांच की जाती है। एमसीआरसी के ऑफिशिएटिंग डायरेक्टर ओबेद सिद्दीकी के अनुसार, एंट्रेंस एग्जाम के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करनी होती है। टेस्ट के माध्यम से एप्लीकैंट के सोशल, कल्चरल और पॉलिटिकल इश्यू संबंधित ज्ञान को परखा जाता है। करेंट अफेयर्स की जानकारीएशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म के प्रोफेसर संपत कुमार कहते हैं कि जर्नलिज्म के लिए जरूरी तत्व है- करेंट न्यूज पर आपकी पकड। ऐसे कैंडिडेट ही अच्छे जर्नलिस्ट बनते हैं, जिन्हें न्यूज की अच्छी समझ होती है और जिनकी राइटिंग स्किल बढिया होती है। साथ ही, उनका अपने पेशे के प्रति कमिटमेंट होना भी जरूरी है। दरअसल, किसी भी खबर का विश्लेषण कर उसे सरल रूप में पेश करना ही मास कम्युनिकेशन का मुख्य उद्देश्य होता है। यदि आप इस पेशे में सफल होना चाहते हैं, तो न्यूजपेपर्स, मैग्जींस और करेंट अफेयर्स संबंधित बुक्स जरूर पढें। इंटरव्यू है असली परीक्षा दिल्ली यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म में बैचलर करने के बाद मैं पीजी करना चाहता था। मैं प्रतिदिन एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए दो लीडिंग न्यूजपेपर्स और कई मैग्जींस पढा करता था। एंट्रेंस एग्जाम राइटिंग स्किल और सामयिक घटनाओं के प्रति आपकी जागरूकता की जांच के लिए किए जाते हैं। इसमें सफल होना आसान है। असली परीक्षा इंटरव्यूज के दौरान होती है। इस दौरान आपके न्यूज सेंस, कम्युनिकेशन स्किल और पेशेंस की भी जांच-परख होती है। यदि आप दब्बू किस्म के इंसान हैं या जल्दी अपना धैर्य खो देते हैं, तो आपको इस क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकती। इसलिए आपको अपने लक्ष्य के प्रति स्पष्ट नजरिया बनाना होगा कि आपका स्वभाव इस पेशे के अनुकूल है या नहीं।


टाइम स्टा‌र्ट्स नाउ
इन दिनों विभिन्न बैंकों में नौकरियों की बहार आई हुई है। यही कारण है कि अब युवा फिर से बैंकिंग सेक्टर की तरफ मुडने लगे हैं। हाल ही में सेंट्रल बैंक ने प्रोबेशनरी आफिसर पदों के लिए आवेदन आमंत्रित किए हैं। इसके लिए ऑनलाइन आवेदन करने की अंतिम तिथि 5 जून और परीक्षा तिथि 25 जुलाई, 2010 है। कुल पदों की संख्या 500 है। यदि आप पीओ बनना चाहते हैं, तो आपके लिए बेहतर अवसर है।

योग्यता

यदि आपके पास किसी मान्यताप्राप्त संस्थान या विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन में 55 प्रतिशत अंक हैं, तो आप आवेदन करने के योग्य हैं। इसके साथ ही कम्प्यूटर एप्लिकेशन की बेसिक जानकारी जरूरी है। जहां तक उम्र सीमा की बात है, तो सामान्य अभ्यर्थियों के लिए न्यूनतम उम्र 21 वर्ष और अधिकतम 30 वर्ष निर्धारित है।

सेलेक्शन प्रॉसेस प्रोबेशनरी पदों के लिए लिखित परीक्षा होगी। इसमें उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को इंटरव्यू या ग्रुप डिस्कशन के लिए बुलाया जा सकता है। यह अभ्यर्थियों की संख्या पर निर्भर करेगा। प्रथम चरण के अंतर्गत रीजनिंग, क्वांटिटेटिव एप्टीटयूड, जेनरल अवेयरनेस और इंग्लिश लैंग्वेज से संबंधित प्रश्न होंगे। इसके बाद डिसक्रिप्टिव तरह के प्रश्न रहेंगे। इसके अंतर्गत सेसोशियो इकोनॉमिक डेवलपमेंट ऐंड कम्युनिकेशन स्किल आदि से संबंधित प्रश्न पूछे जाएंगे।

समझें प्रश्नों का पैटर्न

पैरामाउंट कोचिंग के अंजनी जायसवाल कहते हैं कि किसी भी परीक्षा के लिए बेहतर तैयारी तभी हो सकती है, जब आपको परीक्षा से संबंधित प्रश्नों के पैटर्न की जानकारी हो। क्योंकि सभी बैंक अलग-अलग क्षेत्रों से टेस्ट लेते हैं। अंजनी कहते हैं कि पहले सभी बैंकों के परीक्षा का पैटर्न लगभग एक था, लेकिन अब जरूरत के अनुसार सभी बैंक प्रश्नपत्रों को चेंज करते रहते हैं।

इस कारण आप जिस बैंक के पदों के लिए तैयारी कर रहे हैं, उसके पूर्व परीक्षाओं में किस तरह के प्रश्न पूछे गए हैं, उनका पहले अध्ययन करें और इसी पैटर्न पर तैयारी करें। 60 प्रतिशत प्रश्नों के पैटर्न पिछली परीक्षाओं से मिलते-जुलते होते हैं। इस कारण परीक्षा में पूछे जाने वाले अधिकांश प्रश्नों के पैटर्न से वाकिफ हुआ जा सकता है।

समय प्रबंधन

अंजनी कहते हैं कि ऑब्जेक्टिव परीक्षा में कम समय में अधिक से अधिक प्रश्नों का उत्तर देना होता है। इस तरह की परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए जरूरी है कि आप निर्धारित समय-सीमा के अंदर घर पर ही अधिक से अधिक प्रश्नों के उत्तर देने का अभ्यास करें। इसके लिए समय प्रबंधन भी जरूरी है। इसका महत्व न सिर्फ तैयारी में है, बल्कि परीक्षा हॉल में भी यह रणनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इस दौरान हर प्रश्न के सही तकनीक और शॉर्टकट विधि भी ईजाद कर सकते हैं।

प्रिपरेशन स्ट्रेटेजी

प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अलग-अलग रणनीति बनानी पडती है। ऐसा कोई सूत्र नहीं है, जिसके आधार पर सभी प्रश्नों को हल किया जा सके। लेकिन यदि आप कुछ बातों का ध्यान रखते हैं, तो औरों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। यह कहना है अंजनी जायसवाल का। बेहतर करने के लिए जरूरी है कि आप सबसे पहले प्रश्नों को समझने की कोशिश करें कि आखिर उसमें कहा क्या जा रहा है? उसके बाद उसे हल करने के लिए किस तरह के सूत्र कारगर हो सकते हैं, उसे दिमाग में बैठाएं। यदि इससे संबंधित कोई सूत्र या फार्मूला फिट बैठता हो, तो उसे हल करने के लिए रणनीति बनाएं तथा अंत में उसे हल करने के लिए जुट जाएं।

एक टीन की महारत

पियानो का जादूगर
जो साज से निकली है धुन, वो सबने सुनी है,
जो साज पे गुजरी है, वो किसको पता है..

जी हां, एक हाथ से पियानो जैसा साज बजाने में एक टीन की महारत की गवाही तो लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स दे देता है, लेकिन ऐसी महारत पाने के लिए उस पर क्या-क्या गुजरी है, इसे कौन बताएगा? 17 साल का यह टीन है दिल्ली का करनजीत सिंह, जो सिविल इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष का छात्र है। पियानो की औपचारिक शिक्षा के बगैर ही करन ऐसी-ऐसी धुनें ईजाद करता है कि बडे-बडे उस्तादों की बाजीगरी मात खा जाए।
इतना ही नहीं, वह घंटों एक ही हाथ से इस साज पर बेहतरीन धुनें बजा सकता है। पियानो बजाने के साथ-साथ वह दूसरे हाथ की एक उंगली से उतनी ही देर तक लगातार परात नचाता है। अपने इसी जुनून के चलते उसने एक हाथ से लगातार 2 घंटे 40 मिनट तक पियानो बजाकर लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स में अपना नाम दर्ज करा लिया है।

अब उसका अगला लक्ष्य है गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिकॉ‌र्ड्स में दर्ज होना। क्या यह सब आसानी से हो जाएगा? करन पूरे जोश और आत्मविश्वास से कहता है, इसकी तैयारी मैंने सफल होने के लिए ही शुरू की है।

करनजीत अपनी हर कामयाबी का सेहरा अपने डैडी के सिर बांधता है। उसके डैडी एक शो ऑर्गनाइजर हैं। वह कहता है, म्यूजिक, म्यूजिक और म्यूजिक-बस यही धुन है मुझे। इसके आगे मैं कुछ भी नहीं सोच पाता। जो कुछ करते हैं, वह डैडी ही करते हैं, मैं तो बस उनका साथ देता हूं। यह कहते-कहते वह चंद पल के लिए ठहर कर बोल पडता है थैंक्स डैडी।

उसके मुताबिक, जब मुझे पता चला कि गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिकॉ‌र्ड्स में दाखिल होने के लिए हमें अपने खर्चे पर लंदन जाना होगा, तो एकबारगी मुझे थोडी निराशा जरूर हुई, पर जब डैडी के जोश और हौसले को देखता हूं, तो यह चिंता बहुत छोटी लगती है।

करनजीत उस दिन को खास तौर पर याद करता है, जब पहली बार उसने पियानो देखा था। वह कहता है, उस समय मेरी उम्र तकरीबन चार साल की रही होगी। मेरे बडे भैया को किसी ने गिफ्ट में पियानो दिया था। भैया सारेगामा बजाना जानते थे, इसलिए पडोस की एक दीदी उनसे पियानो सीखने आने लगीं। भैया तो उन्हें नहीं सिखा पाए, पर मैं उनका गुरु जरूर बन गया। यह कहकर वह जोर से ठहाका लगाता है।

करनजीत ने पियानो पर यह महारत यूं ही हासिल नहीं की। उसकी लगन, कडी मेहनत और कुछ कर दिखाने के जज्बे ने उसे इस मुकाम तक पहुंचाया है। म्यूजिक मेरी लाइफ का वह हिस्सा है, जिसे मैं कभी भी अलग नहीं कर सकता। मैं पियानो का रियाज बचपन से कर रहा हूं। चूंकि प्रैक्टिस का कोई तय वक्त नहीं है, इसलिएकभी-कभी घर में थोडी कहा-सुनी भी हो जाती है, लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है। हां, जब पेपर खत्म हो जाते हैं, तो मैं पूरी तरह पियानो को समय देता हूं। जब पेपर नहीं होते, तब हर वक्त पियानो मेरे साथ होता है, वह चाहे दिन हो या रात।

आखिर करनजीत को रिकॉ‌र्ड्स बनाने का विचार कहां से आया? इस सवाल के जवाब में वह एक और रोचक वाकया सुनाता है, मैंने अपने चाचा के घर लिम्का रिकॉर्ड बुक देखी थी। उसे पढकर बेहद प्रभावित हुआ। मेरे अंदर कुछ अलग कर दिखाने की कुलबुलाहट जोर मारने लगी। डैडी के कहने पर किताब में दिए गए फोन नंबर पर फोन घुमाया और लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स वाले ने बुलाया और बन गई बात!

वह बडा होकर पियानो मास्टर नहीं, म्यूजिक डायरेक्टर बनना चाहता है। करन इंजीनियरिंग की पढाई जरूर कर रहा है, लेकिन उसकी पहली प्राथमिकता म्यूजिक है। फिर उसने क्यों सिविल इंजीनियरिंग सब्जेक्ट को चुना? इस सवाल पर वह थोडा मजाकिया होकर कहता है, क्योंकि इसमें ड्रॉइंग भी बनानी पडती है।

रिकॉर्ड होल्डर है करनजीत.., यह सोचकर कैसा लगता है? करन कहता है, कुछ खास नहीं। हां, जब टीचर्स और बडे-बुजुर्ग प्रोत्साहित करते हैं, मुझ पर भरोसा जताते हैं, तो मेरा उत्साह दोगुना हो जाता है। लेकिन क्या कॉलेज के दोस्त भी उसे खास मानते हैं? करनजीत कहता है, नहीं, उन्हें लगता है कि ऐसे रिकॉ‌र्ड्स तो सभी बना सकते हैं। मैं भी ऐसा ही मानता हूं। हां, स्ट्रांग विल पॉवर और मोटिवेशन होनी चाहिए।

उम्मीद है करनजीत का विल पॉवर यूं ही ऊंचाइयों पर रहेगा और गिनीज बुक में दर्ज होने की उसकी ख्वाहिश जल्द ही पूरी होगी। ऑल द बेस्ट!

साहित्यिक कृतियां

रजाई


सर्दी की रात, चारों ओर पसरा हुआ सन्नाटा। किंतु कुछ ऐसा भी था, जो रुका हुआ नहीं था। वो थी अनवर की चलती हुई उंगलियां। तंग गलियों के एक कोठरीनुमा कमरे में अनवर की गृहस्थी सिमटी हुई थी। शरीर बूढा हो चला था, मगर हाथ अनवरत चल रहे थे।

चालीस साल से उसकी यही दिनचर्या थी। दिन-रात की मेहनत से वो कम वजन वाली खूबसूरत रजाइयां तैयार करता था। सेठजी सुंदर कशीदाकारी से मंडे खोल उसे देते और फिर शुरू होती अनवर की कारीगरी। अनवर के हाथ की बनी रजाइयां देश-विदेश में जाती थी। इस कार्य के लिए कई सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं, उन्हें पुरस्कृत कर चुकी थीं।

अनवर का कमरा, एक भीड भरे मोहल्ले की तंग गली में स्थित था। कमरे को उसने दो भागों में बांट रखा था। एक ओर उसकी गृहस्थी, खाने-पीने का सामान था, दूसरी ओर रुई, रजाइयां, सुई-धागे आदि पडे रहते थे। उसका सारा कमरा बेतरतीब था। गंदगी और अव्यवस्था एक दूसरे से बढकर थी। खुद अनवर अव्यवस्थित कमरे का प्रतिरूप जान पडता था। पर फिर भी कमरे में कुछ थी जो अद्भुत थी, खूबसूरत थी, एक सुंदर सपने सी प्रतीत होती थी। वो थी, अनवर द्वारा तैयार एक्पोर्ट क्वालिटी रजाई। रेशम व मखमली कपडे की बनी मुलायम रजाई, जो छूते ही पंख सा अहसास देती थी। रजाई की अद्भुत कशीदाकारी उसका सौंदर्य दुगना कर देती थी। अनवर, हालांकि दिन भर ही रजाई पर काम करता था, पर पूरी होने पर उसको अनमोल धरोहर की तरह रखता था। रजाई, उसके लिए महज उत्पाद नहीं थी, अपितु साधना थी, अर्चना थी, समर्पण भाव से वह अपने काम में खोया रहता। रजाई ही उसकी आकार-निराकार प्रतिमा थी, कुरान की आयतें थीं। रजाई उसके लिए भोर का गीत थी, संध्या की राग-रागिनी थी। खुद वो कमरे के दूसरे छोर पर सोता था। एक पुरानी सी गुदडी और दो फटे कंबल। कडकडाती सर्दी में ये कंबल अपर्याप्त थे। मगर वो ये ही सोचकर तसल्ली कर लेता था कि दो महीने की तो बात है, बेकार में खर्चा क्यूं किया जाए।

उस रोज रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। हवाएं, रह-रहकर उसके रोंगटे खडे कर देती थी। पर वह हमेशा की तरह अपने काम में लगा हुआ था। रजाई, लगभग तैयार होने को ही थी। उसका इरादा था कि वो पूरा काम करके ही सोए। तभी ठंड का एक झोंका तेजी से आया उसे कंपा गया। वह सिहर उठा। पर उंगलियां बराबर चलती रहीं। अंत में, करीब एक घंटे बाद रजाई का काम पूरा हो गया।

अब अनवर का मन शांति से भर उठा था। वह धीरे से उठा और जल्दी से अपने बिस्तर में आकर लेट गया। ठंड बराबर बढती जा रही थी। दोनों कंबल ओढने के बाद भी सरदी में कोई कमी नहीं आ रही थी। चारों ओर लिपटे कंबल जैसे ठंड के मारे पानी-पानी हो रहे थे। कोई बात नहीं, एक तो बज ही गया, चार घंटे बाद सुबह हो जाएगी। मन ही मन वो अपने आपको तसल्ली देने लगा।

बल्ब की पीली रोशनी में जहां पूरा कमरा उदासी से भरा हुआ था, वहीं रजाई की उपस्थिति कमरे की शोभा में चार चांद लगा रही थी। उसकी रजाईयां बहुत ही सुंदर व गर्म रहती थी। सुंदर के बारे में तो उसे पता था, लेकिन गरम रहती थी, ऐसा सिर्फ उसने लोगों से सुना था। लोग कहते थे कि अनवर के हाथों की बनी रजाई तो बिल्कुल ऐसी थी कि हिमपात में भी ओढकर बैठ जाएं। और उसे इसका कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं था हालांकि वह उनका निर्माता था, सर्जक था और विशेषज्ञ समझा जाता था। इसका कारण संभवत: यही था कि सेठजी हमेशा-हमेशा कहते रहते थे कि रजाई बिल्कुल गंदी नहीं होनी चाहिए, न ही उन पर निशान पडने चाहिए। उन्हें ड्राइक्लीन करना संभव नहीं था और आखिर हजारों रुपए की होती थीं।

ऐसे ही ठिठुरते हुए उसने करवट बदली। रजाई अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ उसके सामने थी। गलन लगातार बढती जा रही थी। अचानक उसके दिमाग में एक ख्याल आया और वो रोमांच से भर उठा। वो सृजनकर्ता है, निर्माता है, पर अपने सृजन से कितना अनभिज्ञ है। वो चालीस सालों से बना रहा है, पर उसने कभी रजाई ओढकर नहीं देखी। पता नहीं कैसा अहसास होता होगा? लोग उसकी रजाई से कैसा सुख अनुभव करते होंगे?

वो धीरे से उठा और रजाई के पास जाकर बैठ गया। रजाई बहुत ही सुंदर लग रही थी। उसने रजाई को धीरे से सहलाया। मिला एक बहुत ही सुखद व कोमल अहसास.. वह अपना हाथ रजाई के अंदर ले गया। नर्मी मरहम सी छा गई हाथ पर। उसका दिल जोर-जोर से धडकने लगा। उसने चारों ओर देखा.. कोई नहीं था, खिडकी पर लगा परदा गिरा हुआ था।

अचानक ठंड बहुत बढ गई। वह पुन: अपने बिस्तर पर चला गया और कंबलों को पूरी तरह ओढकर पड गया। रजाई ओढने की हिम्मत वह जुटा नहीं पाया। बस पडे-पडे उसे देखता रहा। रजाई का सौंदर्य चांदनी सा छिटका हुआ था। कशीदाकारी और रंग के समावेश ने मानो उसके सौंदर्य में चार चांद लगा दिए थे।

सचमुच कितना अच्छा लगता होगा? वह सोचने लगा, लोग उसे चारों ओर से लपेट लेते होंगे। जो लोग इतनी मंहगी रजाई ओढते होंगे, वे नीचे मोटे-मोटे गद्दे भी बिछाते होंगे। फिर उस पर नर्म चादर.. और ऊपर से सुंदर.. सुकोमल रजाई। इन्हीं कल्पनाओं में खोया अनवर न जाने कब सपनों की सुहानी दुनिया में पहुंच गया।

उसे लगा कि वो एक बहुत सुंदर बिस्तर पर सोया है। बहुत सुंदर गद्दा, उस पर बिछी मखमल की चादर.. ऊपर उसने अपनी रजाई ओढ रखी है, बिल्कुल ऐसी जैसी.. किसी ने उसके चारों ओर छोटे-छोटे पंख लपेट दिए हों। तभी अचानक उसे ठंडापन सा लगा। उसकी नींद खुल गई। उसने देखा, यह सच नहीं था। वो सपना देख रहा था, उसे वास्तव में ठंड लग रही थी। उसने रजाई नहीं सिर्फ फटे कंबल ओढ रखे थे। रजाई तो वैसी ही रखी हुई थी। सुंदर, सुकोमल प्यारी..। उसका गला सूख रहा था। वो धीरे से उठा। चरी से निकाल पानी पिया। लेकिन इस बार वह लौटकर अपने बिस्तर के पास नहीं गया। वो रजाई के पास पहुंचा। वहीं बैठ गया, धीरे-धीरे उसे सहलाता रहा। उसे बहुत अच्छा लग रहा था। पहली बार उसे लगा कि वो उसका जन्मदाता है, निर्माता है, उसे भी पूरा अधिकार है, अपने सृजन के सुखद अहसास को अनुभव करने का।

उसने अब खिडकी की ओर भी नहीं देखा और रजाई में घुस गया। उसे लगा यह पल उसके जीवन का सबसे सुखद पल है, निर्वाण का पल, शांति का पल.. सचमुच वह बहुत ही खुश था.. बहुत ही खुश।

विडंबना
बैंक के एटीएम के पास तीन रिक्शेवाले सवारी की प्रतीक्षा में सडक के किनारे अपने-अपने रिक्शे पर बैठे थे। एक कार आकर रुकी उसमें से एक सम्भ्रांत सा आदमी उतरा और एटीएम की ओर बढा। रिक्शेवालों के बगल में ही नाले के किनारे पांच सौ के दो नोट गिरे पडे थे। कार वाले ने देखा उसने चुपके से उठा लिया और एटीएम की ओर बढ गया। एक रिक्शेवाले ने देखा तो उसने दूसरे रिक्शेवाले को दिखाते हुए कहा-वो देखो ऊपर वाला भी उसे ही देता है जिसके पास कुछ है।

औचक निरीक्षण

विद्यालय में ठीक से पढाई न होने और अध्यापकों द्वारा ट्यूशन-कोचिंग के लिए मजबूर किए जाने की अभिभावकों की शिकायतों से तंग आकर उच्चाधिकारियों ने औचक निरीक्षण की योजना बनायी।

उस दिन विद्यालय में सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा था। प्रधानाचार्य अपने कक्ष से विद्यालय के अनुशासन का जायजा ले रहे थे, सभी कक्षाएं सुचारुरूप से चल रही थीं, अलबत्ता छात्रों की संख्या अवश्य बहुत कम थी। विद्यालय पहुंचते ही निरीक्षक दल का पूरे उत्साह से स्वागत किया गया। भेंट-पूजा [उपहार आदि] के साथ ही अच्छी पेट पूजा भी करायी गयी। निरीक्षण आख्या में विद्यालय के अनुशासन और शिक्षण की सराहना करते हुए यहां तक लिख दिया गया कि यहां का अनुसरण करके दूसरे विद्यालय भी आदर्श स्थापित करें। अभिभावकों को अब अपनी भूल का अहसास हो रहा था, अब वे भली प्रकार जान चुके थे कि विद्यालय प्रबंधतंत्र की जडें कितनी गहरी और मजबूत हैं।

सोमवार, 24 मई 2010

कहानी

आर्किटेक्ट का प्रतिभाशाली बेटा
शाम को घर में घुसते ही गोखले साहब ने गुस्से में भरकर पूछा। गुस्से में आने के बाद वे चिल्लाते नहीं थे। शांतनु को जब वे बंडू कहते तो सबको समझ में आ जाता कि वे नाराज हैं।
आजकल उनकी नाराजी का कारण रहता कि यह लड़का पूरे समय रसोईघर में क्यों घुसा रहता है। उसकी उम्र के बच्चों को या तो खेल के मैदान पर होना चाहिए, या फिर पढ़ाई करते हुए या कम्प्यूटर के सामने नजर आना चाहिए।

बेटा आईआईटी जाए, आईटी प्रोफेशनल बने और खेलकूद कर तंदुरुस्त रहे। सभी पिताओं की तरह गोखले साहब भी यही चाहते थे। वे खुद आर्किटेक्ट थे और कॉलेज की टीम में खो-खो के कप्तान भी रहे।
शांतनु की माँ ने उन्हें पानी का फुलपात्र देते हुए उनको शांत करने का प्रयत्न किया- बंडू खाना बनाने में मेरी मदद कर रहा है। यही बात गोखलेजी को सख्त नापसंद थी कि लड़का-लड़कियों के काम करे। फिर वे अपनी नाराजी उर्मिला पर उतारते कि घर में कोई लड़की नहीं है इसका अर्थ यह नहीं कि तुम इकलौते लड़के को भी गृहकार्य में दक्ष बनाओ।
बंडू के पिता अधिक गुस्सा होते तो पत्नी को उसके नाम से पुकारते। उनका हमेशा यही तर्क रहता कि रसोई बनाना पुरुषों का काम नहीं। सिर्फ अनपढ़ पुरुष ही बावर्चीगिरी करते हैं और वह भी पुराने जमाने में हुआ करता था। खाना केवल महिलाओं का काम है और उनकी अपनी माँ सर्वश्रेष्ठ खाना पकाने वाली थी।
यों उर्मिला काकू के हाथ में भी स्वाद था। उनकी शिकायत रहती कि गोखलेजी को खाने में कोई रुचि ही नहीं। लेकिन वे नाराज होने बाद भी पति को प्रभाकर नाम से नहीं पुकारती थी। वह सिर्फ इतना जता देती थी कि उनकी सास गणित की प्रोफेसर थीं और ससुरजी के खाने के शौक के कारण अच्छा खाना बनाने लगी थी। बहरहाल, गोखले साहब पत्नी के साथ बहस में पड़ना नहीं चाहते थे क्योंकि उर्मिला काकू अपने कॉलेज के दिनों की सर्वश्रेष्ठ वक्ता मानी जाती थी।
आए दिन घर में होने वाले इन विवादों का इतिहास दो वर्ष पुराना था। शांतनु को खाने का शौक था- चटोरेपन की हद तक। स्कूल से आने के बाद, पढ़ाई के बाद, खेलकर आने बाद, भोजन से पहले उसे कुछ न कुछ पेट में डालने के लिए चाहिए होता। उर्मिला काकू उसके लिए शकर पारे, चकली वगैरह बनाकर रखती। बंडू के आगे भरे डिब्बे चार दिन में खाली हो जाते। जब माँ देर तक कॉलेज से न लौटती, बंडू के पेट में चूहे उछलने लगते। एक दिन बंडू ने खुद ही सैंडविच बनाकर खाए। दूसरे दिन उसने पत्ता गोभी और शिमला मिर्च का सैंडविच बनाया। यह सिलसिला चल निकला। एक के बाद एक, बंडू सलाद, सब्जियाँ, आमटी जैसे पदार्थ बनाने लगा। उर्मिला काकू को भी ताज्जुब था कि दिवाली के दिनों में जो अनारसे उनसे नहीं बनते थे, बंडू बहुत अच्छे से बना लेता था।
गोखलेजी इसी बात से दुःखी हो उठते। वे कहते मत गाड़ो खेल के मैदान पर झंडे, मत बनो वैज्ञानिक। परंतु भगवान के लिए बावर्ची मत बनो।
कुछ दिनों से शाम को खाने की टेबल पर अक्सर थॉमसन साहब की चर्चा होती। वे गोखलेजी के नए क्लाइंट थे। शहर के इलेक्ट्रॉनिक पार्क में थॉमसन कम्युनिकेशंस के कारण बड़ी सनसनी फैली थी। ये अमेरिका की बड़ी कंपनी थी। अपना दफ्तर बनाने के लिए उन्होंने गोखले एंड कंपनी को अनुबंधित किया था। हमउम्र, पढ़ाकू और संगीत के शौकीन होने के कारण थामसन और गोखले अच्छे मित्र बन गए थे।
थॉमसन साहब चाहते थे कि उनके कार्यालय का सारा कामकाज सोलर और विंड एनर्जी से चले। हरा-भरा अहाता हो और फल-सब्जियों की खेती हो। उन्हें सब्जियाँ खूब भाती थीं।
एक शनिवार की दोपहर गोखले साहब का फोन आया कि शाम को थॉमसन साहब डिनर के लिए घर आ रहे हैं। उन्हें पता था कि उनका घरेलू नौकर राम्या कल शाम ही अपने गाँव गया है, क्योंकि उसके घर की गाय ने एक काली केड़ी को जन्म दिया है जिसके माथे पर सफेद तिलक है। यह बहुत शुभ लक्षण है।
गोखलेजी ने उर्मिला काकू को जताया कि वह फिक्र न करे। वे लौटते समय होटल से कुछ मंचूरियन कुछ बेक्ड वेजीटेबल पैक करवाकर ले आएँगे। और यही सब करने में उन्हें घर लौटने में देर हो गई।
थॉमसन साहब को आए काफी देर हो गई थी। उर्मिलाजी को दिया उनका गुलदस्ता गुलदान में सज चुका था। बैठक में बंडू उनसे गपिया रहा था। गोखलेजी का विश्वास था कि बंडू गपियाने से बेहतर तरीके से कोई बात नहीं कर सकता। परंतु थॉमसन साहब खूब कहकहे भी लगा रहे थे। गोखले साहब के आते ही वे बोले कि गोखले, टुमारा सन इज ए वंडरफुल फेलो। गोखलेजी ने देखा कि उर्मिला उनकी ओर निगाहें गड़ाकर देख रही थी।
खाने की मेज पर तो गजब ही हुआ। गोखलेजी की लाई पनीर, मंचूरियन को तो थॉमसन ने चखकर छोड़ दिया। वे तो मूली की आमटी और कोशिंबीर पर टूट पड़े और उन्हें खत्म करके ही माने।
उनकी राय में उन्होंने दुनियाभर में चखे सूप और सलाद में ये सर्वश्रेष्ठ थे। फिर उर्मिलाजी को बधाई देते हुए उन्होंने उन दोनों पदार्थों को बनाने के नुस्खे माँगे। तब बात जाहिर हुई कि ये दोनों चीजें बंडू की बनाई हुई थी। इन्हें बनाने में जिस हल्के हाथ का स्पर्श जरूरी है वह किसी पहुँचे हुए शेफ की ही विशेषता हो सकती है ऐसा थॉमसन साहब ने कह डाला।
अचानक गोखलेजी बोलने लगे, ...दरअसल मैं शुरू से ही जोर देता आया हूँ कि बच्चे अपने अंदर के गुणों का विकास करें। महिलाएँ कंपनियाँ संभाल सकती हैं तो पुरुष किचन क्यों नहीं? अब उर्मिला काकू और बंडू ने गोखलेजी को घूरा लेकिन वे तो उनसे नजरें मिलाने को भी तैयार नहीं थे।

चूहों की चतुराई
नंदनवन में रहा करते थे हजारों चूहे। मोटे-मोटे मस्त। मोटे और मस्त इसलिए थे क्योंकि वे बाकी जानवरों के साथ मिलजुल कर रहते थे। वे चूहे बहुत ही अच्छे थे और तभी तो सभी उन्हें प्यार करते थे।
कुछ बिल्लियाँ भी वहाँ थीं जो उनकी जान के पीछे पड़ी रहती थीं। पर चूहे उनको हमेशा चकमा देकर तारा..तारा..तरा..करके अपनी जान बचा लेते थे।

उनमें भी टूटू चूहा भी था। उसकी मकू खरगोश से बड़ी गहरी दोस्ती थी। मकू के साथ मिलकर टूटू हमेशा चूहों को बचा लेता था।
बस इसी कारण से बिल्लियाँ मुँह लटकाए बैठी हुई थीं। तभी शहर से मीठी बिल्ली लौटकर आई। सभी बिल्लियों ने उसको अपनी परेशानी बताई।
असल में मीठी अपने आप को बहुत स्मार्ट समझती थी। वह बोली -'परेशान होने की जरूरत नहीं। मैंने शहर में बड़ी-बड़ी करामातें की हैं। इन चूहों को पकड़ना तो बड़ा आसान है। बस तुम मुझ पर भरोसा करो।' मीठी ने बिलौटी का हौसला बढ़ाया।
'चिंता की कोई बात नहीं। मैं शहर से एक किताब लाई हूँ, 'चूहे पकड़ने के हजार उपाय', बस हमें उसमें से एक अच्छा-सा आइडिया चुनना है।' मीठी ने कहा।
अगले ही दिन वह किताब उठा कर जैसे ही वह वहाँ पहुँची, बाकी बिल्लियाँ उसे घेर कर खड़ी हो गईं।
'मीठी, जल्दी से उपाय बताओ,' बिलौटी ने उतावली होकर कहा।

'सुनो, हम राजा गब्बरसिंह के पास जाकर विनती करेंगे कि वह हमें पुलिस में भर्ती कर लें। फिर तो हमारा काम आसान हो जाएगा। चूहे को कानून तोड़ने के जुर्म में पकड़-पकड़कर अंदर करेंगे और फिर...दावत!' मीठी ने आँखें मटकाकर कहा।
मीठी की बात सुनकर बिल्लियाँ बेहद खुश हो गईं और उसे कंधे पर बैठा कर नाचने लगीं।
गब्बरसिंह मीठी की योजना को भाँप नहीं सके थे इसलिए उन्होंने सबको पुलिस में भर्ती कर लिया। मीठी तेजतर्रार थी, इसलिए उसे थानेदार बना दिया।
थाने में मीठी शान से पैर पर पैर रखकर बैठ गई। फिर उसने बिलौटी को बुलाकर योजना बनाई। उसने कहा, 'बिलौटी, तुम कहीं छिप जाओ। मैं ऐसी खबर फैलाऊँगी कि चूहों ने तुम्हें मार डाला। मैं उनको गिरफ्तार करके थाने में बंद कर दूँगी। फिर रात में वे हमारी दावत का सामान बनेंगे।'
योजना जोरदार थी। बिलौटी जल्दी से मान गई और अपने घर में जाकर छिप गई।
इधर मीठी ने खबर फैला दी कि चूहों ने बिलौटी का कत्ल कर दिया है और वह उन्हें पकड़ने के लिए निकल पड़ी।
सारे चूहे डर गए सोचने लगे अब पता नहीं क्या होगा? जो चूहे मीठी के हाथ आ गए उन्हें वह पकड़कर ले गई। जो छिप गए थे वे बच गए।
उसके जाने के बाद टूटू चूहा घर से बाहर निकला और सभी को लेकर सुरक्षित जगह की ओर जाने लगा।
चूहों को इस भागता देखकर भालू ने पूछा, 'क्यों टूटू, क्या हुआ? तुम लोग ऐसे भागे कहाँ जा रहे हो।'
'अरे क्या बताएँ, हम पर मुसीबत टूट पड़ी है। एक बिल्ली मर गई है और पुलिस का कहना है कि हमने उसे मारा है, इसलिए हम सब छिपने जा रहे हैं,' कह कर टूटू और बाकी चूहे फिर भागने लगे।
उसकी बात सुनकर भालूको तो चक्कर ही आ गया। वह बड़बड़ाया, 'कितनी अजीब बात है। चूहों ने बिल्ली को मार दिया?''
जब यह बात मकू को पता चली तो वह टूटू को ढूँढने निकल पड़ा। मिलने पर टूटू ने उसे सारी बातें बताई।
मकू उसे सांत्वना देते हुए बोला, 'टूटू, तुम परेशान न हो, मैं ऐसी चाल चलूँगा कि बिल्लियों की छुट्टी हो जाएगी।'
इसके बाद मकू ने एक दिन थाने से बिलौटी को निकलते देखा। उसने सोचा, 'अरे, यह तो मर गई थी। यह फिर से जिंदा कैसे हो गई। लगता है, दुष्ट मीठी ने चूहों की दावत उड़ाने के लिए यह षड़यंत्र रचा है। अब मैं इन सबको ऐसा मजा चखाऊँगा कि ये जीवन भर याद रखेंगी।'
वापस लौट कर मकू खरगोश ने एक नकली वसीयत तैयार करवाकर यह खबर फैला दी कि दूर के जंगल में रहने वाली बिलौटी की दादी बहुत सारी धन संपत्ति छोड़कर मर गई है। चूँकि बिलौटी जिंदा नहीं है, इसलिए वसीयत के अनुसार सारी संपत्ति टूटू चूहे को मिल जाएगी।
अपनी दादी के मरने की खबर सुनकर बिलौटी को बुरा लगा लेकिन वह बुरी तरह ललचा भी गई। आव देखा न ताव वह घर से बाहर निकल आई।
'किसने कहा कि मैं मरी हूँ, मैं तो जिंदा हूँ और सारी दौलत भी मेरी है।'' वह चिल्लाने लगी।
बाहर तो सारे जानवर यह सुन रहे थे। उन्होंने बिलौटी को पकड़ा और राजा गब्बर सिंह के पास ले गए।
सारी बातों का पता चलने पर मीठी बिल्ली को भी पकड़ा गया। डर के मारे उसने सच उगल दिया। 'मुझे माफ कर दो। मैंने मुफ्त में चूहों की दावत उड़ाने के लिए यह साजिश रची थी। मुझे छोड़ दो और शहर जाने दो,' मीठी बिल्ली रोते हुए बोली।
पर गब्बर सिंह ने उन्हें माफ नहीं किया और जेल भेज दिया। बाकी की सभी बिल्लियाँ भी दुम दबाकर भाग गईं।
मकू खरगोश और टूटू चूहे की दोस्ती और गहरी हो गई।

ई-मेल एड्रेस
एक बेरोजगार युवक ने किसी सॉफ्टवेयर कंपनी में ऑफिस में काम करने वाले लड़के की जगह के लिए एप्लीकेशन भेजी। लड़के को बुलाया गया। मैनेजर ने उसका इंटरव्यू लिया। इसके बाद उससे फर्श की सफाई करवाकर देखी और संतुष्ट होने के बाद कहा कि अपना ई-मेल एड्रेस दे जाओ, हम तुम्हें नौकरी के लिए बुलवा लेंगे।

लड़के ने जवाब दिया- पर मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है और इसलिए मेरा कोई ई-मेल अकाउंट भी नहीं है। मैनेजर ने कहा कि जब तुम्हारा कोई ई-मेल एड्रेस ही नहीं है तो यह नौकरी तुम्हें नहीं मिल सकती है। यह सुनकर वह लड़का उस ऑफिस से लौट आया। ऑफिस से बाहर निकलने के बाद उस लड़के ने अपनी जेब में पड़े 50 के नोट से एक टोकरी सेब खरीदे और उन्हें बेचने लगा। कुछ ही देर में उसके पैसे डबल हो गए। लड़के को काम जम गया और इस तरह उसने 50 से 100, 100 से 200, 200 से 300 रु. करके धीरे-धीरे बड़ा कारोबार कर लिया। उसने कई ट्रक खरीद लिए और उनके जरिए सप्लाय करने लगा। अब वह लड़का अपने क्षेत्र का एक करोड़पति व्यापारी हो गया था। एक दिन उसने सोचा क्यों न अपना इंश्योरेंस करवा लिया जाए।
मैनेजर ने उसका इंटरव्यू लिया। इसके बाद उससे फर्श की सफाई करवाकर देखी और संतुष्ट होने के बाद कहा कि अपना ई-मेल एड्रेस दे जाओ, हम तुम्हें नौकरी के लिए बुलवा लेंगे।
यह सोचकर उसने इंश्योरेंस एजेंट को बुलाया और उसे अपनी इच्छा बताई। एजेंट ने पूछा आप मुझे अपना ई-मेल एड्रेस दे दीजिए। मैं सारी जानकारी आपको भेज दूँगा। व्यापारी युवक ने कहा कि मेरा कोई ई-मेल एड्रेस नहीं है। इस पर एजेंट ने कहा कि बिना ई-मेल एड्रेस के आपने अपना कारोबार इतना फैला लिया।
अगर आप कोई-मेल एड्रेस होता तो आप जानते हैं कि आप कहाँ होते। व्यापारी युवक ने जवाब दिया- मुझे पता है कि अगर मेरा ई-मेल एड्रेस होता तो मैं कहाँ होता। तो बच्चों, अगर आपके पास कोई चीज नहीं है तो उसका अफसोस मत करो। आप यह देखो कि आपके पास वह चीज क्या है, जो दूसरों के पास नहीं है।

रविवार, 23 मई 2010

महानतम् जीवन

दुर्लभ फल है जीवन

ईश्वर ने हर जीव की रचना उन्हीं अवयवों से की है। उनकी दृष्टि में न कोई छोटा है न बडा। उन्होंने प्रत्येक को जन्म से जहान पैदा किया है। वही इस जीव जगत में मनुष्य बन पाता है जो संपूर्ण जीव योनियों में श्रेष्ठतम् हो। किंतु भौतिक संलिप्तताके बाद इस श्रेष्ठतम् व महानतम् के संरक्षण के कर्म को गुप्त रूप से उसके उत्तरदायित्वोंमें सम्मिलित कर दिया है। इसके पश्चात ईश्वर के महानतम् व श्रेष्ठतम् रूपी कवच का आदर व संरक्षण कर अस्तित्व बनाए रखना मनुष्य के हाथ में है। सामान्य शब्दों में समझा जा सकता है कि एक समृद्ध पिता ने अपने पुत्र को बडी जागीर सौंप दी, जो किसी रजवाडे से कम नहीं है। पिता यह सब सौंप संसार से विदा कह गए। अब यह पुत्र के बुद्धि कौशल पर निर्भर करेगा कि वह उस संपदा का सदुपयोग करता है या दुरुपयोग। कुसंगति के चलते वही पुत्र कंगाली के कगार पर भी पहुंच सकता है। जबकि दूसरी ओर एक कंगाल पिता का पुत्र अपनी श्रमशीलता,निष्ठा, ईमानदारी व पौरुष से एक नए साम्राज्य का निर्माण कर सकता है। पूत सपूत सो का धन संचै,पूत कपूत सो क्या धन संचै?अत:व्यक्ति की योग्यता व अयोग्यता ही ईश्वर द्वारा प्रदत्तउस श्रेष्ठतम् को बचाए रखने अथवा मिटाने के लिए सक्षम है।

प्रभु ने मनुष्यों को जीने, रहने, खाने-पीने, सोचने-विचारने हेतु रात-दिन के रूप में 24घंटे का समय दिया है। अब उसमें जिधर तन व मन का रुझान होगा व्यक्तित्व के निर्माण का भवन आकार लेता जाएगा। इन 24घंटों में जो तप व त्याग करेगा जगत में प्रसिद्धि पाएगा। जो भोग व सांसारिकता के योग में चिंतन व देह की ऊर्जा का अपव्यय करेगा ईश कृपा के चार्ट में उसके चरित्र व व्यक्तित्व का ग्राफ नीचे होता जाएगा। ईश्वर प्रदत्त इस मानव जन्म के दुर्लभ फल का उपयोग जो जिस निष्ठा व लगन से करेगा वह उसी के अनुरूप फल पाने का हकदार होगा। यदि इसका सदुपयोग होगा तो वह आदर्श, मूल्य, मर्यादा के ऐसे हरियाले वन महकाएगा। यदि उसका कोई उपयोग नहीं होगा तो वह दुर्लभ फल सड जाएगा। उसके निकट से गुजरने वाला समूह उसके जीवन को कोसता रहेगा। अब यह निश्चित करें कि ईश की छत्रछाया में हम उस फल का उपयोग कैसे करें?

दूल्हा बाजार

बाबुल को चाहिए सरकारी जमाई
'दहेज दे के किनले बानी तोहरा के सजनवा' जैसे गीतों से अब राजधानी की गलियां गुलजार होने लगी है। वैवाहिक मौसम में यह कोई नई बात नहीं है। कुछ नया है तो यह कि मंदी के बाद विवाह बाजार में 'लेन-देन' का गणित ही बदल गया है। दुनिया भर के वित्तीय बाजारों को झकझोर देने वाली मंदी भले चली गई हो, लेकिन इसके असर से दूल्हा बाजार का चेहरा बदल गया है।

यह मंदी का ही असर है कि निजी क्षेत्र के पेशेवरों का 'भाव' घटकर आधा हो गया है। वहीं, सरकारी नौकरी करने वाले कुवांरों के कद्रदान बढ़ गए है। एक बदलाव यह भी कि 'सेम प्रोफेशन' में कार्यरत लड़की मिल जाने पर बिना दहेज भी खूब शादियां हो रही है।

मंदी का असर कई क्षेत्र पर पड़ा। इनमें से एक दूल्हा बाजार भी है। मंदी से पूर्व निजी क्षेत्र में कार्यरत पेशेवरों का भाव परवान पर था। मोटी पगार पाने वाले प्रतिष्ठित कंपनियों के पेशेवरों की कीमत 10 लाख रुपये तक पहुंच चुकी थी, लेकिन अब इस तरह के पेशेवरों की कीमत घटकर आधी या इससे भी कम हो गई है।

एक मैरिज ब्यूरो के मुताबिक मंदी से पूर्व एक ब्राह्मण फैमिली का लड़का मुंबई की एक कंपनी में 70 हजार मासिक पगार पर नौकरी करता था। डिमांड थी 15 लाख। देनेवाले दे भी रहे थे, लेकिन वे लोग कई लड़की देख छोड़ दिए थे। 'सौंदर्य' की तलाश जारी ही थी कि मंदी के कारण लड़के की छंटनी हो गई। मंदी के बाद दूसरी नौकरी मिली, लेकिन मात्र पांच लाख रुपये में ही शादी तय हुई। हालत यहां तक बदल गई है कि कन्या पक्ष शादी के लिए निजी के बजाय सरकारी नौकरी करने वालों को और अधिक तरजीह देने लगे हैं।

हालांकि, जमाई के रूप में सरकारी नौकरी करने वाले हमेशा से प्राथमिकता में रहे है, लेकिन मंदी के बाद इनके कद्रदानों की संख्या में 25 फीसदी का ग्रोथ आ गया है। पटना स्थित एक मैरिज ब्यूरो के संचालक के मुताबिक मंदी से पूर्व 50-50 का रेशियो था। 50 फीसदी लोग निजी क्षेत्र को तो इतने ही सरकारी क्षेत्र को प्राथमिकता देते थे, लेकिन अब यह आंकड़ा 25-75 में बदल गया है। 25 फीसदी लोग निजी क्षेत्र के दूल्हों को तो 75 फीसदी लोग अपनी पुत्री के लिए सरकारी वर को प्राथमिकता देने लगे है।

मैरिज ब्यूरो के साथ ही विवाह कराने वाले पंडितों की राय भी इससे अलग नहीं है। अशोक नगर स्थित पंडित ओंकार नाथ पांडेय के मुताबिक मंदी के कारण कन्या पक्ष की सोच ही बदल गई है। निजी क्षेत्र को अब वे ही लोग प्राथमिकता दे रहे है जो खुद भी प्राइवेट कंपनियों से जुड़े है। हालांकि मंदी से पूर्व निजी क्षेत्र के जिस दूल्हे का रेट 10 लाख था अब पांच लाख पर सिमट गया है।

मैरिज ब्यूरो के मुताबिक अगड़ी जातियों में दहेजप्रथा कुछ अधिक ही है। इनमें भी भूमिहार वर्ग सबसे आगे है। भूमिहार वर्ग में तृतीय श्रेणी में कार्यरत सरकारी दूल्हे का रेट पांच लाख से नीचे तो है ही नही। ब्राह्मण, राजपूत और कायस्थ परिवार में ऐसे ही दूल्हों का रेट तीन लाख रुपये चल रहा है।

मैरिज ब्यूरो के मुताबिक बिना दहेज शादियों का चलन भी बढ़ा है। बिना दहेज शादी करने वालों की संख्या में करीब 25 फीसदी की वृद्धि आई है। हालांकि उनकी एक शर्त भी होती है-लड़की सेम प्रोफेशन में होनी चाहिए। मसलन, जिनका बेटा डाक्टर है अगर उन्हे डाक्टर बहू मिल जाती है तो वे बिना दहेज शादी करने को तैयार हो जाते है।

वैसे मध्यमवर्गीय परिवार जिनके घरों में शिक्षा की ज्योति जल चुकी है, वे भी इस श्रेणी में तेजी से शामिल हो रहे है। बरूणा के सियाराम चौबे केंद्रीय विद्यालय से सेवानिवृत्त है। उनकी पत्नी भी शिक्षिका है। पटना के कंकड़बाग में अपना मकान भी है, लेकिन फिर भी वे अपने बेटे की शादी जहानाबाद के अखिलेश्वर द्विवेदी की पुत्री से बगैर दहेज तय किए है। उनका कहना है कि दुल्हन ही दहेज है। दहेज न लेकर ही इस कुरीति का विरोध किया जा सकता है।

साहित्यिक कृतियां

जो डूबे किनारे पर

लडका आज बहुत खुश था। लडकी भी। मौसम भी खुश था उन्हें खुश देखकर। वे दोनों नदी में पांव डाले बैठे थे। लडकी कंकड मारकर नदी की धार में व्यवधान डाल रही थी। मुस्कुरा रही थी। देखो वो मैं हूं। उसने शरारत से मुस्कुराकर लडके से कहा।

कहां? लडके ने पूछा।

वहां नदी के उस धार में।

देखना वहां.. ऐ.. ऐ.. [छप्पाक] वहां.. देखो, देखो! वो खिलखिला उठी।

हवाओं में संगीत घुल गया। लडका खुश था। उसने नदी की तरफ नहीं देखा। लडकी की ओर देखा। उसने कहा, मैं तो कबसे कहता था, तुम नदी हो। तुम मानती ही नहीं थी। लडके की आंखों में अभिसार घुल रहा था। लडकी नाराज हो गयी। उसने अपने हाथों से लडके का चेहरा घुमाया नदी की ओर। उंगली से इशारा किया, वहां देखो। वहां.. वहां.. उसने लडके की आंख को इस बार कंकडी में लपेटकर नदी में फेंका। छप्पाक्.. कंकडी डूब गई नदी में। नदी का प्रवाह रुका। जरा देर, फिर धीरे-धीरे सामान्य होने लगा। नदी फिर एक धार में बहने लगी। लडकी हंसने लगी- देखा, मैं नदी हो गयी। कैसी बही जा रही हूं.. है ना?, लडकी का बचपन उसकी हंसी में खिल उठा था। आओ चलें..। लडकी ने लडके से कहा। कहां? लडके ने आश्चर्य से पूछा। वहां। उसने नदी के बीचोबीच इशारा किया। अरे नहीं, भीग जायेंगे।

नहीं भीगेंगे। पागल हो क्या। नदी में उतरेंगे और भीगेंगे नहीं। कोई जादू है क्या?

है ना मेरे पास जादू। तुम चलो तो सही।

मैं तैरना नहीं जानता। डूबना तो जानते हो ना? डूबने में आना क्या होता है। तैरना न जानो तो डूबना ही है।

हा.. हा.. हा.. लडकी जोर से खिलखिला पडी। नदी के किनारे न जाने कौन से पेड थे, जिन पर नन्हें-नन्हें गुलाबी फूल लदे हुए थे। फूल धीरे-धीरे धरती पर गिर रहे थे। महक रहे थे। लडकी पर भी कुछ फूल गिरे थे। लडके पर भी। लेकिन लडकी जब जोर से खिलखिलाई तो उसकी खिलखिलाहट फूलों पर भारी पडने लगी। एक संगीत सा घुलने लगा फिजाओं में।

पगले हो तुम। लडकी ने लडके के गालों पर मीठी सी चपत लगाई। तैरना तो आसान होता है, डूबना मुश्किल होता है।

कितने प्यार से, कितनी खामोशी से, कितने स्नेह से, कितने अरमानों से कितनी मोहब्बत से डूबना है, यह जान पाना आसान नहीं। जो डूबना हो तो इतने सुकून से डूबो कि आसपास की लहरों को भी पता न चले.. लडकी गुनगुनाने लगी। उसने नदी में डूबे हुए पैरों से पानी को उछालना शुरू किया।

देखो, ये फालतू बातें किताबों में अच्छी लगती हैं। सच यही है कि अगर हम इस नदी में गये तो डूब जायेंगे.. किसी को बताने के लिए बचेंगे भी नहीं कि कितनी मोहब्बत से डूबे थे, कितने सुकून से। तुम जरा किताबें कम पढा करो। कवितायें तो बिल्कुल मत पढा करो। लडका भन्ना उठा था। वो लडकी को गंभीरता से ताकीद कर रहा था, लेकिन लडकी सुन नहीं रही थी।

अरे, सुनो। देखो नदी का पानी गुनगुना हो रहा है क्या? लडकी ने बात पलट दी। पानी.. गुनगुना? अब ये क्या नाटक है? लडके ने मन ही मन सोचा। लेकिन प्रत्यक्ष में उसने मुस्कुराकर कहा, हां कुछ हुआ तो है। क्या हुआ है? लडकी भांप गई लडके की चालाकी। पानी..! गुनगुना..। लडके ने शांति से जवाब दिया। काहे का पानी? लडकी ने बच्चों की तरह एक हाथ कमर पर रखकर दूसरे हाथ को हवा में लहराकर पूछा? अरे बॉटल का पानी। सुबह से रो-रो कर गर्म हो गया है। प्यास लगी है ना तुम्हें? लडके ने सफाई दी।

हो.. हो.. हो!!! लडकी फिर हंस पडी जोर से। मुझे प्यास लगी है?

मैं नदी हूं बुद्धू। न.. दी.. नदियां प्यास बुझाती हैं। उसकी प्यास कोई नहीं बुझाता। कोई नहीं? लडकी का स्वर मद्धिम पड गया। तो कौन सा पानी गर्म होने की बात कर रही थीं तुम? लडका उसे वर्तमान में लौटा लाया। नदी का।

गर्म नहीं, गुनगुना। लडकी वापस लौट आई। उधर देखो बुद्धू.. उधर। लडकी ने लडके को नदी के दूसरे छोर पर दूर निशाना बनाते हुए देखने को कहा। सूरज धीरे-धीरे नदी में उतर रहा था। इस समय गहरे सिंदूरी रंग के सूरज का थोडा सा हिस्सा नदी में डूबा था, बाकी बाहर था। लडका मुग्ध होकर देखने लगा। गजब! बहुत सुंदर है ये तो!

है ना? लडकी कुछ इस तरह खुश हुई मानो सूरज उसका ही हो। ये जलता हुआ सूरज जब नदी में उतर रहा है तो नदी का पानी भी तो थोडा सा गुनगुना होगा ना? क्या है.. तुम ये अपनी फालतू की कविताई बंद करोगी? अच्छा हुआ तुम साइंटिस्ट न हुई वरना ग्लोबल वार्मिग की दशा, दिशा और उसके कारण सब बदल जाते। हूं.. और? लडकी गंभीर होने लगी। और क्या? लडने ने पूछा। और क्या-क्या अच्छा हुआ, जो मैं न हुई? मतलब? मतलब अगर मैं पॉलीटिशियन होती तो? तो.. तो क्या संसद में कविताएं पढी जातीं। काम-धाम ठप्प। लडके ने उपहास करते हुए कहा। खेत, खलिहान, पगडंडी, अलाव, चूल्हा, रोटी, चिडिया, धान, मुस्कुराहटें, उगता हुआ सूरज, चमकीली रातें यह सब होता ना उन कविताओं में?

लडकी ने पांव पानी में से निकाल लिये। हां.. आं..। लडके को और कुछ कहते ना बना। अगर संसद में पढी जातीं ऐसी कविताएं जिनमें सुंदर जीवन की कामना होती तो बुरा क्या होता। कम से कम फेंकी तो न जातीं कुर्सियां। दी तो न जातीं गालियां। लडकी फिर मुस्कुरा दी। और..? लडकी ने पूछा।

और क्या? और क्या ना हुई तो अच्छा हुआ? तुम तो पीछे ही पड गई। फिलहाल तो यही सोच रहा हूं कि तुम लडकी न होतीं तो.. तो? तो मैं यहां तुम्हारी फिलॉसफी न झेल रहा होता। लडका जोर से हंस पडा।

हूं.. तो तुम मुझे इसलिए झेलते हो क्योंकि मैं लडकी हूं। ये लो इसमें क्या शक है। तुम लडकी ना होतीं तो मैं तुम्हें प्यार थोडी ना करता। मैं नॉर्मल लडका हूं यार। लडका शरारत से मुस्कुराया।

जानती हूं एक लडके का लडकी से प्यार करना तो नॉर्मल है। है ना? हां, और लडकी का लडके से प्यार भी। लडके ने कहा। लडके को अब तक लडकी के इजहारे मोहब्बत का इंतजार था। लडकी के सर पर फूल गिर पडा था, जिसे लडके ने जानबूझकर नहीं हटाया। -जो लडके नदी में डूबना नहीं चाहते। जो डूबना नहीं जानते, भला नदी कैसे उन्हें प्यार करेगी। बोलो तो? लडके ने चौंककर देखा लडकी की ओर। बोला कुछ नहीं।

नहीं समझे? नहीं? तो मत समझो! लडकी फिर खिलखिला पडी। उसने पर्स उठाया। वो चल पडी। लडका भी उसके पीछे-पीछे चल पडा। सूरज इत्मीनान से नदी में डूबता रहा।

काव्य-संसार

तुम, चाँद गोरा-गोरा


तुम, एक कच्ची रेशम डोर
तुम, एक झूमता सावन मोर

तुम, एक घटा ज्यों गर्मी में गदराई,
तुम, चाँदनी रात, मेरे आँगन उतर आई

तुम, आकाश का गोरा-गोरा चाँद
तुम, नदी का ठंडा-ठंडा बाँध

तुम, धरा की गहरी-गहरी बाँहें
तुम, आम की मँजरी बिखरी राहें

तुम, पहाड़ से उतरा नीला-सफेद झरना
तुम, चाँद-डोरी से बँधा मेरे सपनों का पलना

तुम, जैसे नौतपा पर बरसी नादान बदली
तुम, जैसे सोलह साल की प्रीत हो पहली-पहली

तुम, तपते-तपते खेत में झरती-झरती बूँदें,
तुम, लंबी-लंबी जुल्फों में रंगीन-रंगीन फुंदे,

तुम, सौंधी-सौंधी-सी मिट्टी में शीतल जल की धारा
तुम, बुझे-बुझे-से द्वार पर खिल उठता उजियारा।

गुदगुदी

रमन की प्रार्थना

रमन मंदिर में जाकर भगवान के सामने हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहा था, हे भगवान, पंजाब की राजधानी दिल्ली को बना दो। तभी वहाँ एक पुजारी आया।
पुजारी- भाई तुम्हें पंजाब की राजधानी से क्या कष्ट है। तुम ऐसा भगवान से क्यों माँग रहे हो?
रमन- क्योंकि मैंने एक्जाम में पंजाब की राजधानी दिल्ली लिख दी है।

सामयिक

कार चलेगी आँख के इशारे से
कार चलाना कोई हँसी-ठठ्ठा नहीं है, जल्द ही हो जाएगा। यहाँ तक कि कार को घुमाने-फिराने तक के लिए हाथ नहीं लगाना पड़ेगा। बोलना भी नहीं पड़ेगा। कार चलेगी आँख के इशारे से।

कार चलाना आसान बनाने के लिए इस समय हर जगह होड़ चल रही है। उपग्रह आधारित नेविगेशन प्रणालियों ने सड़कों के नक्शे साथ रखना तो बेकार बना ही दिया है, अब कोशिश है कंप्यूटर नियंत्रित ऐसी ड्राइविंग प्रणालियाँ बनाने की कि कार को घुमाने-फिराने के लिए हाथ की भी जरूरत न पड़े।

जर्मनी में बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी की एक टीम ने ऐसी ही भावी कार के कंप्यूटर के लिए एक ऐसा सॉफ्टवेर तैयार किया है, जो आँख की पुतलियों को देखते हुए कार को उसी दिशा में मोड़ता-चलाता है, जहाँ आप देख रहे होते हैं।

गत 23 अप्रैल को बर्लिन के एक पुराने हवाई अड्डे पर पत्रकारों के सामने आइड्राइविंग (EyeDriving) नाम की इस प्रणाली का प्रदर्शन किया गया। परियोजना प्रमुख प्रोफेसर राउल रोखासः 'कार में एक वीडियो कैमरा है जो कार चालक की आँखों को देख रहा होता है। चालक दाहिने देख रहा है या बाएँ, आँख की पुतलियों की हरकतों को पढ़ रहा कंप्यूटर इसे जान जाता है।'

कैमरे और कंप्यूटर चलाएँगे कार :
प्रो. डॉ. रोखास मूल रूप से मेक्सिको के हैं, पर अब बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। वे कहते हैं, 'कंप्यूटर, कार की इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली से जुड़ा होता है और उसी के माध्यम से कार की स्टीयरिंग को आँखों की हरकतों के अनुसार नियंत्रित करता है। यदि आप सड़क पर हैं और सीधे सामने की ओर जाना चाहते हैं, तो सीधे सामने की ओर देखिए, कार चल पड़ेगी। यदि आप दाहिने मुड़ना चाहते हैं, तो दहिनी ओर देखें, कार दाहिनी ओर मुड़ जाएगी। तो, इस तरह सड़क पर अपनी नजर की दिशा के द्वारा आप कार को पूरी तरह नियंत्रित कर सकते हैं।'

दो तरीके :
यदि आप को डर है कि आपकी आँखें बहुत चंचल हैं, बहुत चकर-मकर करती हैं, तो कोई बात नहीं, प्रो. कहते हैं, 'चलाने के दो तरीके हैं- एक तरीका तो यह है कि कार पूरी तरह चालक के नियंत्रण में है, यानी वह कार को पूरी तरह अपनी आँख के इशारों से चला रहा है। दूसरा है सेमी-ऑटोमैटिक तरीका। यानी कार में लगे सेंसर और कंप्यूटर जानते हैं कि कार ठीक इस समय कहाँ है। कार में सैटेलाइट वाला जीपएस नेविगेशन सिस्टम है, लेजर स्कैनर हैं और कई दूसरे वीडियो कैमरे भी हैं। उनकी मदद से कार जानती है कि वह कहाँ है, किस जगह है। कार जब सीधी सड़क पर चल रही हो तो आपको कुछ नहीं करना होता। केवल नुक्कड़ या चौराहे पर आप को अपनी आँख से सामने लगे वीडियो कैमरे को इशारा करना होगा कि आप कहाँ जाना चाहते हैं।'

नजर फिसली, तो कोई बात नहीं :
लेकिन, यह भी तो हो सकता है कि किसी बात से आप का ध्यान बँट गया, आप किसी और दिशा में देखने लगें, तब?
प्रो. रोखास कहते हैं, 'कोई दुर्घटना नहीं होगी। कुछ लोगों ने कहा, आपकी नजरें यदि किसी सुंदरी की तरफ फिसल गईं, तब? तब भी नहीं। कार यदि सेमी ऑटोमैटिक दशा में है तो वह यह भी जानती है कि सड़क यातायात के नियम-कानून क्या हैं, सड़क की सीमा कहाँ है। वह आपको सड़क की सीमा पार नहीं करने देगी, नियम भंग नहीं करने देगी, इसलिए कोई दुर्घटना भी नहीं होगी। बर्लिन के प्रदर्शन के समय हमने दिखाया कि यदि कोई आदमी कार के सामने आ जाए, तो उसके सेंसर तुरंत जान जाते हैं कि रास्ते में कोई बाधा आ गई है और वे कार को तुरंत रोक देते हैं।'

चौतरफा नजर :
आँखों के इशारों पर कार चलाने वाला यह सॉफ्टवेयर फिलहाल अधिकतम 50 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति के लिए बना है। जर्मनी के शहरों और बस्तियों में यही गति सीमा है। पर, बाद में उसे एक्सप्रेस हाईवे के लायक भी बनाया जाएगा। सॉफ्टवेयर बनाने का काम 2007 में शुरू हुआ था। उसे कई बार आजमाया जा चुका है।

प्रो. रोखास ने बताया कि अभी तक कोई दुर्घटना नहीं हुई है, 'दुर्घटना रोकने लिए कार में लेजर किरण वाले ऐसे स्कैनर लगे हैं, जो लेजर किरणें छोड़ते रहते हैं। यदि वे किसी चीज से टकराती हैं, तो उनके लौटकर वापस आने में लगे समय के आधार पर हम जान सकते हैं कि वह चीज कार से कितनी दूर है। इस तरह कार चालने के दौरान 70 मीटर के दायरे में हर चीज का पता रहता है, चाहे वह कोई आदमी हो, कोई पेड़ हो या कोई मकान हो। आदमी तो केवल सामने ही देखता है, लेकिन हमारी प्रणाली हर समय 360 डिग्री यानी चारो तरफ देख रही होती है।'

कार के वीडियो कैमरे सड़क पर बने निशानों, लेन दिखाने वाली पट्टियों, आगे-पीछे और बगल में चल रहे वाहनों तथा ट्रैफिक सिग्नल की बत्तियों पर भी सारा समय नजर रखे रहते हैं। चालक यदि थका-माँदा और सुस्त हो, दुर्घटना का डर हो, तो जरूरत पड़ने पर वे कार रोकने के ब्रेक को भी सक्रिय कर देते हैं।