यू आर माई देसी गर्ल..
या फिर इधर आई अधिकतर फिल्मों के ऐसे ही कई और गाने.. अंग्रेजी-हिंदी-पंजाबी-उर्दू या कोई और भाषा..
फिल्मों से लेकर टेलीविजन, रेडियो और पत्र-पत्रिकाओं तक भाषा नए सिरे से कबीर की याद दिला रही है तो कथ्य सारे बंधन तोड कर एकदम से उत्तर आधुनिकता के दौर से भी आगे निकल जाने पर उतारू हैं। बिंदासपन के मामले में यह फ्रांसिस फुकुयामा की याद दिलाती है तो हर फिल्म से आता नया संदेश सोच की मौलिकता के स्तर पर लुडविग विटगेंस्टाइन को साकार कर देता है। समाज का एक बडा तबका तहेदिल से इसका स्वागत कर रहा है, वहीं कुछ लोग नाक-भौं सिकोडते भी दिख रहे हैं। जो इस बदलाव के साथ हैं, उनका सीधा मानना है.. अच्छा लगता है, रिलीफ देता है, आसानी से समझ में आता है और थीम में नयापन है.. बस। इसके अलावा और क्या चाहिए कोई फिल्म या सीरियल देखने, गाना या रेडियो प्रोग्राम सुनने या फिर किताबें पढने के लिए! यह कोई बुद्धिजीवियों का तर्क नहीं, सीधी बात है। वह वजह है जिसके नाते वे पसंद करते हैं किसी फिल्म, प्रोग्राम या किताब को। दूसरी तरफ इसके खिलाफ खडे लोग हैं और उनके पास सिर्फ अपने शुद्धतावादी आग्रह हैं। उनका सवाल है कि इसमें समझने के लिए है क्या? वे व्याकरण के नियम जानते हैं, पर भाषा विज्ञान के तौर-तरीकों से उनका बहुत मतलब नहीं है। वे यह तो देख रहे हैं कि बोलचाल के साथ-साथ लिखत-पढत की हिंदी में भी अब अंग्रेजी के शब्द ज्यादा आने लगे हैं, पर शायद यह नहीं देख पा रहे कि अभिव्यंजना शक्ति से संपन्न दूसरी भारतीय भाषाओं के वे देशज शब्द भी खूब आ रहे हैं जिन्हें अब तक भदेस माने जाने के कारण साहित्य की दहलीज से प्राय: बाहर ही रहना पडा है।
फ्यूजन है विकास का हेतु
भाषाओं का इतिहास जानने वाले किसी भी व्यक्ति को यह कहने में संकोच नहीं होगा कि फ्यूजन की यही प्रक्रिया हमेशा विकास की वजह बनी है। हिंदी के मामले में तो वक्त चाहे अमीर खुसरो का रहा हो, या कबीर या फिर निराला का ही क्यों न हो! खुसरो ने एक पंक्ति फारसी तो दूसरी हिंदवी में लिखने का अभिनव प्रयोग किया तो कबीर की भाषा को नाम ही पंचमेल खिचडी दिया गया। निराला संस्कृत के मूल शब्दों के साथ-साथ लोक में प्रचलित बोलियों के वे शब्द भी ले आए जिनका प्रयोग साहित्य में उनके पहले तक नहीं होता रहा है।
दुष्यंत कुमार को उर्दू की काव्यविधा गजल को पूरी तरह हिंदी की प्रकृति के अनुकूल ढालने के लिए जाना जाता है और त्रिलोचन शास्त्री को अंग्रेजी छंद सॉनेट को हिंदी के अनुरूप बनाने के लिए। लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि किसी भी देसी-विदेशी भाषा का कोई छंद हिंदी में उठा लाने या केवल प्रयोग के लिए कुछ भी कर देने भर से ही कोई कालजयी रचनाकारों की श्रेणी में आ जाएगा या हिट हो जाएगा। हिट हो जाने के लिए रचना में एक अलग तरह के ताप की जरूरत होती है। वह ताप जो उसे दूसरी रचनाओं से अलग करता है। वह ताप जो उसमें अपने समय की सही तसवीर दिखाकर उसे आमजन की मांग बनाता है। बेशक लोकप्रियता की कसौटी पर कई बार ऐसी चीजें भी खरी उतरी हैं जो सिर्फ कुछ आवेगों को उभारती हैं और वे अच्छा बिजनेस भी कर लेती हैं, पर उनकी उम्र बहुत नहीं होती। सैकडों फिल्मी-गैर फिल्मी गाने इसके उदाहरण हैं। कालजयी तो सिर्फ वही रचनाएं होती हैं जो अपने समय और उससे आगे के सच को सहजता से उजागर कर रही होती हैं। ऑल इज वेल.. जैसे गीत सिर्फ इसलिए हिट नहीं होते कि वे युवाओं को सुनने में अच्छे लगते हैं। महंगाई, बेकारी और गला काट प्रतिस्पर्धा के इस कठिन दौर में जरा-जरा सी बात पर हताशा से भर जाने वाले युवाओं की सोच को यह गीत सकारात्मक दिशा भी देता है। वह भी उपदेश के लहजे में नहीं, बिलकुल खिलंदडे अंदाज में।
रामायण और महाभारत जैसे हजारों साल पहले रचे गए महाकाव्यों पर आधारित फिल्में व सीरियल आज भी हर आयुवर्ग में लोकप्रिय हो जाते हैं। किताबें हिंदी के हिसाब से बेस्टसेलर के निकट तक पहुंच जाती हैं। क्या इसकी वजह सिर्फ श्रद्धा-विश्वास है? नहीं, असल में इनमें आज के लोगों को भी जिंदगी की उलझनों के सार्थक समाधान मिल जाते हैं। भले ही इसे हम मूल्यों के पतन का दौर कहें, पर इनमें स्थापित मूल्यों की प्रतिष्ठा की जरूरत आज हर आदमी महसूस करता है। यही वजह है जो मुन्नाभाई एमबीबीएस की गांधीगिरी उसे लुभाती है और रंग दे बसंती उसमें व्यवस्था की विसंगतियों से लडने का जज्बा भर देती है।
फॉर्मूला मार्ग से हटकर
पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में हिंदी सिनेमा जिस तरह फॉर्मूलावादी मार्ग पर चला उसका नतीजा यह हुआ कि तकनीक के तरक्की करते ही दर्शक हॉलों से दूर भागने लगा। उसे फिर से हॉल तक ले आना बडी चुनौती बन गई और फिल्मकारों ने इसे स्वीकार किया। यह चुनौती सिर्फबात को नए ढंग से पेश करने की ही नहीं, बल्कि अपने समय के समाज की दुखती रग पर सलीके से उंगली रखने की भी थी। मुन्ना भाई एमबीबीएस, रंग दे बसंती और लगान जैसी फिल्में इसी कडी की शुरुआत थीं। शायद फिल्मी दुनिया समझ गई थी कि भारतीय जनता को सिर्फ थ्रिलर मनोरंजन नहीं चाहिए। पंचतंत्र और हितोपदेश से लेकर गोदान और वोल्गा से गंगा तक यह मनोरंजन के साथ-साथ सार्थक संदेश चाहती रही है।
यह प्रयोग समानांतर सिनेमा के रूप में वैसे तो 80 के दशक में ही हुआ था, पर सफल नहीं हो सका। क्योंकि तब व्यावसायिक और सार्थक सिनेमा नदी के दो किनारों की तरह साफ तौर पर अलग-अलग दिख रहे थे। बिलकुल वैसे ही जैसे लुगदी और सार्थक साहित्य. एक का काम सिर्फ सस्ता मनोरंजन परोसना है, समाज की बुनावट और भविष्य की परवाह किए बगैर और दूसरे का सिर्फ विचारधारा थोपना। जबकि भारत में ही बांग्ला, कन्नड, मलयाली जैसी क्षेत्रीय कही जाने वाली भाषाओं में यह काम साथ-साथ हो रहा है। सिनेमा ने इस सच को समझ लिया और शायद टीवी ने भी। इसीलिए सिनेमा अब ऐसे ही साहित्य की ओर लौट रहा है तो बुद्धू बक्सा अपने ही अतीत में झांक रहा है। एक दौर था जब वहां शरतचंद्र के श्रीकांत, प्रेमचंद के निर्मला, रांगेय राघव के कब तक पुकारूं और देवकी नंदन खत्री के चंद्रकांता संतति जैसे उपन्यासों पर आधारित सीरियल छाए हुए थे। मनोहर श्याम जोशी के कक्का जी कहिन व बुनियाद, आर के नारायण की कहानियों पर आधारित मालगुडी डेज के अलावा फटीचर और नुक्कड जैसे शो हिट होते थे। फिर धीरे-धीरे कब और कैसे ये इतिहास की धरोहर बन गए और इनकी जगह रिअलिटी शोज ने ले ली, यह अब पीछे मुडकर देखने वालों को हैरत में डाल देता है। लेकिन नहीं, अब अगर अपने दौर को जरा गौर से देखें तो मालूम होता है कि छोटा परदा नए सिरे से इतिहास दुहराने की ओर बढ रहा है। शरद जोशी की कहानियों पर आधारित लापतागंज और तारक मेहता का उल्टा चश्मा इसकी मिसाल हैं। बंदिनी वर्षा अदालजा के चर्चित गुजराती उपन्यास रेतपांखी पर आधारित है तो सजन घर जाना है बंकिम चंद्र के उपन्यास देवी चौधरानी से प्रेरित।
नई सोच ही लोकप्रिय
सिनेमा ने नए सिरे से इसकी शुरुआत विकास स्वरूप की बेस्टसेलर क्यू एंड ए पर बनी स्लमडॉग मिलियनेयर के हिंदी रूपांतर से की। वैश्विक पृष्ठभूमि पर रची गई इस कृति पर बनी फिल्म दुनिया भर में लोकप्रिय हुई। अभी हाल ही में चेतन भगत के फाइव प्वाइंट समवन पर आधारित थ्री इडियट्स इसका ताजा उदाहरण है। यही नहीं, सदी के आरंभ में जो गांव और कस्बे सुनहले परदे से गायब हो गए थे, वे अब नए सिरे से लौट रहे हैं। अपहरण, गंगाजल, ओंकारा के अलावा वेलकम टु सज्जनपुर, बिल्लू बारबर, मालामाल वीकली व इश्किया भी इसी कडी का विस्तार हैं। यह वापसी आखिर क्यों है? क्योंकि सिनेमा के निर्देशक जानते हैं कि मल्टीप्लेक्स आने वाले दर्शकों के भी एक बडे तबके का मूल गांवों-कस्बों में है और उन्हें अपना वह परिचित परिवेश खींचता है। वे समझ गए हैं कि आज का दर्शक थोपा हुआ कुछ भी बर्दाश्त नहीं करेगा- न तो उपदेश और न फूहड मनोरंजन ही। उसे साफ-सुथरा और स्वस्थ मनोरंजन चाहिए, अपने जीवन के लिए सुगम मार्ग के साथ। संदेश के रूप में राजनीतिक आश्वासन नहीं, सही दिशा चाहिए। मनोरंजन के रूप में अफीम नहीं, सकारात्मक सोच और उम्मीद की सच्ची किरण चाहिए। वस्तुत: यह आपका दबाव है जिसे वे समझ रहे हैं। वह आपकी भाषा है, जिसे सभी अपना रहे हैं। भाषा में फ्यूजन की यह प्रक्रिया और शुद्धतावादी आग्रह - दोनों हर भाषा में हमेशा साथ-साथ चलते रहे हैं। इसलिए अपनी सोच और जुबान दोनों में से किसी को भी लेकर परेशान होने की जरूरत बिलकुल नहीं है। अगर कुछ परंपरागत मान्यताओं के कारण वर्जनाओं के कुछ आग्रह आप पर हावी हो भी रहे हों तो भी बी कूल और मान कर चलें.. भैया ऑल इज वेल..
स्वाभाविक है लैंग्वेज कॉकटेल
अभिनेता संजय दत्त
मैं समझता हूं कि समय के साथ बदलने में ही समझदारी है। आज से 20-25 साल पहले मुन्ना भाई एमबीबीएस फिल्म बनती तो क्या वो समाज के हर तबके में हर स्तर पर सराही जाती? दरअसल मुन्नाभाई की सीक्वेल भी बनी, अब एक और वर्जन मुन्नाभाई का आ रहा है। फिल्म की लैंग्वेज फिल्म की शायद सबसे बडी खूबी है। अगर मुन्ना भाई और सर्किट शुद्ध हिंदी बोलते तो क्या पब्लिक डायजेस्ट करती? कुछ विषय- कुछ फिल्में सामयिक होती हैं। वहीं अगर गुरुदत्त साहब की फिल्म प्यासा के किरदार मेरे कू-तेरे कू.. बोलते तो क्या वो फिल्म एक दस्तावेज के रूप में उभरती?
अपनी बात करूं तो मेरी खुद की हिंदी कुछ खास अच्छी नहीं है। हमारे घर पर मेरी देखभाल मॉम ने की, पर मेरी देखभाल के लिए गवर्नेस भी थी। हर तरह की भाषा मेरे कानों ने बचपन में सीखी, जो कहीं न कहीं आगे चलकर मेरी जबान पर चढ गई। आजकल हायर क्लास हो या फिर मिडिल क्लास, सभी बच्चे कॉन्वेंट एजुकेशन हासिल कर रहे हैं। ऐसे में उनकी थिंकिंग लैंग्वेज भी इंग्लिश हो जाती है। उन्हें हिंदी या फिर किसी दूसरी जबान में बात करनी है, तो लैंग्वेज कॉकटेल बननी स्वाभाविक है। बॉलीवुड में नई जेनरेशन के लेखक-निर्देशक भी इंग्लिश मीडियम के पढे-लिखे हैं। वे भी आम तौर पर अंग्रेजी के लफ्ज स्क्रिप्ट में डाल देते हैं। अल्टीमेटली फिल्ममेकर्स भी आजकल लैंग्वेज पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं देते। उनके लिए सफलता ज्यादा इंपॉर्टेट है। मैं मुन्नाभाई फिल्म सीरीज का ग्रेटफुल हूं। इन फिल्मों की सफलता ने मेरे करिअर में चार चांद लगा दिए हैं। मैं जहां भी जाता हूं, मुझे पब्लिक मुन्नाभाई के नाम से ही आवाज देती है और मुझे बुरा भी नहीं लगता कि मुझे एक गुंडे-बदमाश के किरदार से ही क्यों पहचाना जा रहा है! खैर, इसी दौरान मैंने परिणीता जैसी फिल्म की, जो सफल रही। इसमें मेरा किरदार सॉफिस्टिेकेटेड था, तो भाषा भी वैसी ही थी। मिक्स लैंग्वेज कोई सफलता की गांरटी नहीं है बॉलीवुड में, न यह कोई खास बदलाव है। कभी-कभी यह किसी खास किरदार को एस्टैब्लिश करने के लिए फिल्म की जरूरत होती है।
आजकल युवा पीढी में बोलचाल की भाषा आम तौर पर अंग्रेजी हो गई है। हिंदी में भी कई मिक्स अल्फाज डाल दिए जाते हैं। अब मुझसे अगर कोई बिलकुल शुद्ध हिंदी बोलने लगे तो हो सकता है कि मेरे लिए भी वो मामला बाउंसर हो जाए। मैं खुद मानता हूं और जानता हूं कि अगर किसी को बॉलीवुड की फिल्मों में काम करना है तो उसे यदि अच्छी नहीं तो कम से कम ठीकठाक कामचलाऊ हिंदी जरूर आनी चाहिए। लेकिन हर मामले में ऐसा हो नहीं रहा है। मेरी अपनी स्क्रिप्ट तो हिंदी में ही होती है, लेकिन कुछ एक्टर्स की अंग्रेजी में भी होती है। मेरा खयाल है कि जब तक जिस तरह काम चलता है चला लेना चाहिए। आज की हर प्रादेशिक भाषा पर अंग्रेजी का आक्रमण हो चुका है, इससे हम इनकार नहीं कर सकते।
स्क्रीन पर जब मुन्नाभाई और सर्किट बंबइया हिंदी में बात करते हैं, तो इंटेलेक्चुअल लोग भी हंस-हंस कर पागल होने लगते हैं। हो सकता है कि आजकल के लोगों का यही टेस्ट हो। वैसे जो चलता है, वही बिकता भी है। कुल मिलाकर मतलब यह है कि असली मसला लैंग्वेज नहीं है, बात यह है कि कम्युनिकेशन होनी चाहिए। हम जो कह रहे हैं, उसे लोग समझें। अब वह चाहे जैसे भी हो।
प्रश्न अभिव्यक्ति का है
निर्माता-निर्देशक
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी
भाषा चाहे सिनेमा की हो या साहित्य की, वह हमेशा बदलती रही है। दस साल पहले वाली हिंदी अब नहीं है। जहां तक सवाल सिनेमा का है, यह एक व्यावसायिक माध्यम है। इसका उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों का मनोरंजन करना है, साथ ही बढिया बिजनेस भी। इसलिए इसमें आम आदमी की भाषा हमेशा प्राथमिकता पाती रही है और पाती रहेगी। छह साल पहले मैंने जो लिखा है, आज अगर उस पर काम करना होता है तो मैं उसे अपडेट करता हूं। सिर्फ कंटेंट ही नहीं, उसकी भाषा भी बदल देता हूं। इसके कुछ फायदे हैं, पर नुकसान भी हैं। भाषा में वह काव्यात्मकता नहीं रह गई जिससे उसकी अलग पहचान बनती है। 91 में मुझे हिन्दी की सेवा के लिए पुरस्कार मिला था। दुख होता है कि आज मैं ही उसे सरलतम करने.. हिंदुस्तानी बनाने में जुटा हूं। पर एक बात ध्यान में रखने की है। अब तक के अनुभव बताते हैं कि इस देश में हिंग्लिश नहीं चली। टीवी न्यूज में इसका कुछ दिनों तक प्रयोग जरूर हुआ, पर वह सफल नहीं हुआ।
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इंडस्ट्री में इधर अंग्रेजियत का असर बढ रहा है। पहले मैं अपनी स्क्रिप्ट देवनागरी में लिखता था, पर अब मुझे ही रोमन हिंदी लिखनी पड रही है। क्योंकि हिंदी के जरिये पैसा और प्रसिद्धि का शिखर छूने वाले कई कलाकार हिंदी नहीं पढ पाते। हीरो-हिरोइन अगर एक पेज भी न पढ सकें तो क्या किया जाए?
कंटेंट में जो बदलाव हो रहा है, वह भी मुझे बहुत सकारात्मक नहीं दिखाई दे रहा है। चाहे सिनेमा हो या टेलीविजन। लापतागंज जैसे सीरियल कोई मुख्यधारा की चीज नहीं हैं। ये अपवाद हैं। इन दिनों तमाम टीवी चैनलों पर कुल मिलाकर 150 से ज्यादा सीरियल चल रहे हैं। उनमें सिर्फ दो-चार अगर उम्दा साहित्यिक कृतियों पर आधारित हों तो कोई खास फर्क नहीं पडता। यही हाल सिनेमा का भी है। वहां भी गांव-देहात, कस्बों, छोटे शहरों के जीवन की हकीकत दिखाने की बात बहुत कम है। अधिकतर फिल्मों की तो शूटिंग ही यूरोप-अमेरिका के शहरों में हो रही है। ग्लोबल होने की ओर बहुत तेजी से बढ रहा है भारतीय सिनेमा। उसमें छटपटाहट अपने देश के जीवन का सच दिखाने की नहीं है, बेताबी है ग्लोबल हो जाने की। जाहिर है, गांव-कस्बों की बात करने वाला सिनेमा ऐसी स्थिति में मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन सकता। सच्चाई यह है कि ऐसी फिल्में भी अपवाद ही हैं।
उसकी बुनियादी वजह यह है कि टेलीविजन या सिनेमा के दर्शक को छोटे या बडे परदे से चिपके रहने के लिए लगातार कोई न कोई रस चाहिए। उन्माद, क्रोध, प्रेम.. कोई न कोई रस उसे हमेशा चाहिए। ऐसा कि जो उसे उलझाए रहे। एक अलग तरह की सनसनी में लगातार उसे बांधे रहे। इसके लिए निर्माता-निर्देशकों को कोई दूसरा रास्ता दिखाई नहीं देता, सिवाय इसके कि वे उसे इन्हीं भावनाओं के रोमांच से भरे रहें। वस्तुत: मूलभूत प्रश्न न तो भाषा का है और न केवल विषय वस्तु या कहानी का ही है। गांव-शहर या सिनेमा के ग्लोबल होने का भी नहीं है। वास्तव में सबसे बडा प्रश्न अभिव्यक्ति का है और समग्रता में अभिव्यक्ति की बात अगर करें तो स्थितियां आश्वस्त करने वाली दिखाई नहीं देती हैं। मैं तो यह देख रहा हूं कि जो कुछ भी कलात्मक या सुरुचिपूर्ण था, वह सब अब धीरे-धीरे गायब हो रहा है। बाकी जो बच रहा है वह निर्माता-निर्देशकों या कलाकारों की तिजोरी भले भर दे, पर समाज को कुछ खास दे पाने में सक्षम दिखाई नहीं देता है।
नए जमाने की भाषा
गीतकार समीर
आज का यूथ कॉन्वेंट एजुकेटेड है, उसका रुझान वेस्टर्न म्यूजिक और अंग्रेजी फिल्मों में ज्यादा रहता है। चूंकि ऐसे लोग ही फिल्में ज्यादा देखते हैं, इसलिए उनकी पसंद और समझ के अनुरूप अंग्रेजी तडके के साथ हिंदी स्क्रिप्ट लिखवाई जाती है। ज्यादातर स्टार्स भी अंग्रेजीप्रेमी हैं, सो उनकी भी सुविधा देखी जाती है। पुराने गानों को वेस्टर्न फ्लेवर के साथ प्रस्तुत किया जाता है। रिमिक्स गानों की लोकप्रियता की वजह यही तो थी। इसकी मार्केटिंग करने वालों का कहना है कि मूल गानों से कई गुना ज्यादा कमाई रिमिक्स से हो जाती है। हालात तब और बदहाल हो जाते हैं जब हिंग्लिश में क्षेत्रीय भाषा का तडका देने की कोशिश होती है। वैसे मनोरंजन की दुनिया से जुडे कुछ लोगों का पुराने साहित्य के प्रति प्रेम सालों से उपजता रहा है। पिंजर, परिणीता, ओंकारा, देवदास जैसी फिल्में इसी का नतीजा हैं। यह भी बदलाव की प्रक्रिया के तहत है। सालों से सूरज बडजात्या और प्रकाश झा गांव की पृष्ठभूमि पर फिल्में बना रहे हैं। कुछ और मेकर्स भी कभी-कभार गांव पहुंच जाते हैं। ऐसे विषयों पर जो फिल्में हिट हुई हैं उसके पीछे गीत-संगीत, संवाद व एक्शन भी अहम वजहें होती हैं। स्थानीय भाषा की सिनेमैटिक छूट लेकर मेकर्स अकसर गालियां भी संवाद या गीत में डाल देते हैं। हालांकि सभ्य समाज में आज भी यह भाषा मान्य नहींहै। मगर चूंकि यूथ को ये चीजें भाती हैं, लिहाजा हम यही कह सकते हैं कि जो हिट है वही फिट है।
यूथ जो पसंद करेगा मेकर्स वही दिखाने-सुनाने की कोशिश करेंगे। चंदन सा बदन चंचल चितवन. जैसे कई मधुर गीत लिख चुके इंदीवर जी को भी समय के बहाव में बकबक ना कर नाक तेरा लंबा है. लिखना पडता है। फिर भी लेखकों को अपनी कोशिश जारी रखनी चाहिए। मैंने सांवरिया में कुछ ऐसी कोशिश की थी, दुर्भाग्यवश फिल्म नहींचली। जहां तक सवाल स्क्रिप्ट का है, यदि कलाकार का हिंदीज्ञान शून्य हो तो उसे हिंदी स्क्रिप्ट देने का औचित्य नहीं है। उसकी सुविधा के लिए पूरी स्क्रिप्ट रोमन में लिखवाई जाती है। दुख तब होता है, जब कॉन्वेंट एजुकेटेड लोगों को हिंदी स्क्रिप्ट लिखते देखता हूं। इसका थमना जरूरी है।
सिर्फ सुविधा के लिए होती है छेडछाड
रेडियो जॉकी रोहित
पिछले दो सालों से मैं रेडियो सिटी का जॉकी हूं। रेडियो सिटी 91.1 एफ.एम. पर हर दिन चलने वाले मेरे प्रोग्राम का नाम है जॉय राइड। इस कार्यक्रम का शीर्षक भले अंग्रेजी में है पर एंकरिंग इसकी हिंदी में ही होती है। न सिर्फमेरे प्रोग्राम में, बल्कि मैं महसूस कर रहा हूं कि वक्त के साथ हर भाषा में जो बदलाव आया है, उसका असर साहित्य में भी दिखाई देने लगा है। अमूमन जितने भी रेडियो प्रोग्राम्स हो रहे हैं, सभी में इस तरह की कॉकटेल भाषा का प्रयोग ही आपको सुनने को मिल रहा है। यह कहने के लिए कॉकटेल है, पर है तो बोलचाल की भाषा। भाषा का यह बदलाव बडे शहरों में खास तौर से दिखाई दे रहा है। मेरा प्रोग्राम शाम को होता है। इस समय लोग अपना दिन भर का स्ट्रेस उतारना चाहते हैं। ऐसे समय में अगर किसी से उसकी भाषा में थोडी सी बात कर लें तो उसे अच्छा लगता है। मराठीभाषी श्रोता से नमस्कार कहा, किसी से सलाम-दुआ, किसी गुजराती से केम छो पूछा। अपनी बोली में बात करने पर किसी को भी अपनापन लगता है। वैसे भी बडे शहरों में अब किसी एक भाषा का प्रभाव नहीं रहा। मैं मुंबई के शिवाजी पार्क एरिया में बडा हुआ हूं। इस मोहल्ले में किसी जमाने में मराठीभाषी लोगों की बडी तादाद थी, आज सब-कुछ मिक्सचर हुआ है। और तो और आज के यूथ ही नहीं, पर बडे सीनियर लोग भी एसएमएस की भाषा शॉर्टफॉर्म में ही लिखते हैं। यह एसएमएस की भाषा तो पूरी दुनिया में बोली-लिखी जाती है। जब इंटरनेट पर चैटिंग होती है, तो भी भाषा का मूल रूप उसके व्याकरण के अनुसार कभी नहीं होता। सारी चैटिंग की भाषा संक्षिप्त रूप में ही चलती है, फिर चैट करने वाला उम्र में युवा हो या न हो। दरअसल भाषा के साथ छेडछाड सिर्फ सुविधा के लिए होती है। कुछ और वजह नहीं होती।
जहां तक मुंबई की बात है, यहां शुद्ध हिंदी बोलने वाले बहुत कम लोग मिलेंगे। यहां हर दूसरे शख्स को आपने कहते सुना होगा - अपन वहां चलेंगे। हो सकता है, कोई शुद्ध हिंदीभाषी यह कहे कि यह अपन का मतलब क्या है? अपन यानि हम। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना भी मुंबई में कम है. फॉर्गेट एबाउट प्योर हिंदी। कॉकटेल भाषा इसीलिए बोली जाती है क्योंकि इसमें आप आसानी से कम्युनिकेट कर लेते हैं। मैं तो कहता हूं कि भाषा इसीलिए बनी ही है कि आप अकेले न पडें। प्योर भाषा की दहशत नहीं होनी चाहिए। भाषा कम्युनिकेशन का प्रमुख जरिया है। फिर हमारे रेडियो पर तो मिक्स भाषा होती ही है। इसलिए कि आप यानी कोई भी हमसे संपर्क कर सके। हमसे बात करे। जिसमें भाषा दरार न बने। किसी श्रोता को अगर अच्छी हिंदी नहीं आती तो कोई बात नहीं, वह हमसे मराठी में बात कर ले। अंग्रेजी नहीं आती तो हिंदी में बात करें। रेडियो पर यदि भाषा की शुद्धता का प्रेशर हो तो फिर आम लोग संपर्क करने में ही हिचकिचाएंगे।
वक्त के साथ चलने में ही समझदारी है। अब फिल्मों का ही देखें। जोधा-अकबर में उर्दू भाषा का बेहद खूबसूरत प्रयोग हुआ है और यह किया है एक ऐसे निर्देशक ने जिनकी मातृभाषा मराठी है। आशुतोष गोवारिकर ने बहुत उम्दा उर्दू का प्रयोग किया है। फिर मुन्नाभाई एमबीबीएस की बात करें। उसमें मुन्ना चूंकि भाई हैं, तो यह किरदार टिपिकल मुंबइया हिंदी बोलता है। एक भाई की हिंदी अमूमन ऐसी ही होती है। यह निर्देशक का इंटरप्रिटेशन है। मुन्नाभाई शुद्ध और समझदारी की भाषा बोलता तो फिर गंाधी जी क्यों उसे नसीहत देते? कुल मिलाकर मामला असल में यह है कि जैसा देस वैसा भेस..यानी जैसी फिल्म वैसा चोला। लिहाजा इस बदलाव को लेकर मुझे कोई दुख नहीं है।
हर जगह हुआ है बदलाव
निर्माता निर्देशक अजय सिन्हा
भाषा में तो सदियों से बदलाव होता रहा है। कभी संस्कृत चलन में थी, फिर उर्दू-फारसी ने जोर पकडा। आज हिंग्लिश का चलन है। समय के साथ भाषा का स्वरूप बदलता रहता है। बढते चैनलों के साथ काम बढा तो लेखन के क्षेत्र में कम नॉलेज वालों की भीड जुट गई है। आज इस फील्ड में अंग्रेजी मीडियम स्कूलों से आए लोगों की बहुतायत है। उन्हें सामान्य बोलचाल वाली हिंदी भी नहीं आती। स्क्रिप्टिंग करते समय अंग्रेजी शब्द टांकना उनकी मजबूरी है। यही भाषा फिल्मों और धारावाहिकों से आम लोगों तक पहुंचती है। मैं इसकी आलोचना नहीं करूंगा, क्योंकि यह बदलाव स्वाभाविक है। आपको एडजस्ट करके चलना पडेगा।
पहले क्षेत्रीय या गंवई भाषा का प्रयोग कम होता था, तब मीडिया इतनी पॉवरफुल नहींथी। आज मीडिया में क्रांति आई है, वह गांव के कोने-कोने तक पहुंच गई है। इससे भी भाषा प्रभावित हुई है। थ्री इडियट्स में लघुशंका शब्द का प्रयोग किया गया है। यह शब्द नया नहीं है, किंतु बोलचाल की भाषा में नहीं आता था। मगर फिल्म देखने के बाद मेरा बेटा कहता है डैडी मैं लघुशंका के लिए जा रहा हूं। इस तरह की भाषा आज के यूथ को आकर्षित करती है। बदलाव केवल हिंदी ही नहीं, दुनिया की दूसरी भाषाओं में भी आया है। जहां तक सवाल गांव की पृष्ठभूमि वाली फिल्मों का है, इस पर अच्छी फिल्में बनाना हर किसी के वश की बात नहींहै। अधिकतर मेकर्स को तो भारतीय गांवों की समझ ही नहीं है। शोध के लिए उनके पास वक्त नहींहोता। जिन्हें रुचि है वे आज भी गांव पर अच्छी फिल्में बना रहे हैं। यहां हम टीवी को अपवाद कहेंगे। क्योंकि हम लोग और बुनियाद के समय से ही टीवी गांव को हमेशा शहर से जोडता रहा है।
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