गुरुवार, 20 मई 2010

सोच

पांच सौ रुपये

र्थपुरी में चार दिन रहने के बाद वापसी में प्लेटफार्म पर बैठा मैं ट्रेन का इंतजार कर रहा था कि सामने आठ दस लोगों के एक परिवार पर नजर पडी।
परिवार का मुखिया मुट्ठी में कुछ रुपये दबाये पंडित जी से विनती कर रहा था, पंडित जी आपने हमारे पूरे परिवार को दो दिन काफी अच्छी तरह से सारे मंदिरों के दर्शन कराये, पूजा अर्चना भी कराई। ये हमारी तरफ से जो बन पडा उसे दक्षिणा के रूप में स्वीकार कीजिये। पंडित जी ने जानना चाहा, कितने हैं?। देखिये महाराज जितनी हमारी श्रद्धा है उतना दे रहे हैं। कृपया स्वीकार करें। उन्होंने घाटे की आशंका से अपने मन की बात खोल ही दी, देखिये यजमान मैं पूरे दो दिन आपके साथ रहा। आपके पूरे परिवार को अच्छी तरह से दर्शन कराये आपको कम से कम पांच सौ रुपये तो देने ही पडेंगे। पंडित जी मैंने अपने मन में बरसों से जो सोचा हुआ था उसे पूरा कर लेने दीजिये। वैसे ये तो अपनी अपनी श्रद्धा की बात होती है हमारी इतनी श्रद्धा है इसमें ना नहीं कीजिये! यजमान ने एक बार पुन: विनती की। पर पंडित जी नहीं माने, देखिये यजमान मैं तो पांच सौ रुपये ही लूंगा। आपके सोचने से थोडे ही कुछ होता है।

कुछ मैंने भी तो अपने मन में सोचा हुआ है। यजमान ने थोडी देर सोचा और अंतिम बार पंडित जी से पूछा, तो आपको ये रुपये नहीं चाहिये? - नहीं यजमान, मैं आपको पहले ही बता चुका हूं, मुझे तो पांच सौ रुपये ही चाहिये।

यजमान ने मुट्ठी खोली उसमें पांच पांच सौ के चार नोट थे। उसमें से उन्होंने एक नोट पंडित जी को दिया और बाकी के तीन नोट पास खडे भिखारी को दे दिये।

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