रविवार, 23 मई 2010

काव्य-संसार

तुम, चाँद गोरा-गोरा


तुम, एक कच्ची रेशम डोर
तुम, एक झूमता सावन मोर

तुम, एक घटा ज्यों गर्मी में गदराई,
तुम, चाँदनी रात, मेरे आँगन उतर आई

तुम, आकाश का गोरा-गोरा चाँद
तुम, नदी का ठंडा-ठंडा बाँध

तुम, धरा की गहरी-गहरी बाँहें
तुम, आम की मँजरी बिखरी राहें

तुम, पहाड़ से उतरा नीला-सफेद झरना
तुम, चाँद-डोरी से बँधा मेरे सपनों का पलना

तुम, जैसे नौतपा पर बरसी नादान बदली
तुम, जैसे सोलह साल की प्रीत हो पहली-पहली

तुम, तपते-तपते खेत में झरती-झरती बूँदें,
तुम, लंबी-लंबी जुल्फों में रंगीन-रंगीन फुंदे,

तुम, सौंधी-सौंधी-सी मिट्टी में शीतल जल की धारा
तुम, बुझे-बुझे-से द्वार पर खिल उठता उजियारा।

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