सोमवार, 27 दिसंबर 2010

मनोरंजन

जब दुर्योधन ने भीम को विष पिलाया

हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों को वैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।
दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।
तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।

न्यू यिअर पार्टी से मत रोको पापा
डियर पापा,
मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप मुझे न्यू यिअर पार्टी में क्यों नहीं जाने देना चाहते। कल रात मैंने आपकी और ममी की बातें सुन ली थीं। इससे मुझे समझ में आ गया कि आप किन चीजों से हिचक रहे हैं। पापा, मुझे भी मालूम है कि दिल्ली में इन दिनों क्राइम बहुत बढ़ गया है।
लड़कियां सेफ नहीं रह गई हैं। लेकिन क्या इस कारण लड़कियों ने स्कूल-कॉलेज और ऑफिस जाना बंद कर दिया? पापा, मैं अब आठवीं क्लास में आ गई हूं। अपनी जिम्मेदारी और आपकी फीलिंग्स को भी समझती हूं। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी जिससे आप लोगों को तकलीफ पहुंचे। अब मेरा भी तो मन करता है कि न्यू इयर्स की पार्टी दोस्तों के साथ एंजॉय करें। इसमें कोई नई बात तो है नहीं।
आप खुद बताते हैं कि बचपन में आप मोहल्ले भर के बच्चों के साथ मेला देखने जाते थे। न्यू इयर्स की पार्टी उसी मेले का मॉडर्न रूप है। मैं किसी अनजान लोगों के साथ तो पार्टी में जा नहीं रही हूं। इसमें हमारी कई फ्रेंड्स रहेंगी और सीनियर्स भी। आपने स्कूल की पिकनिक में जाने से तो मना नहीं किया था।
जैसे वहां बच्चों ने एक-दूसरे का हमेशा ख्याल रखा वैसे ही इसमें भी रखेंगे। फिर पड़ोस की मुग्धा दीदी भी तो रहेंगी। मैं उन्हीं के साथ चली जाऊंगी। लौटते समय क्या आप रात में हमें पिक अप करने नहीं आ सकते? एक दिन की तो बात है। मेरे लिए थोड़ी तकलीफ उठा लीजिए। प्लीज पापा।
आपकी बेटी

उन्हें रोककर तो दिखाओ
नवभारत टाइम्स
सड़कों पर भारी ट्रैफिक के चलते जब भी मुझे मौका मिलता है, मैं मेट्रो से ऑफिस आना पसंद करता हूं। उस दिन दफतर में एक लेख लिखते हुए थोड़ा लेट हो गया था। मेट्रो पकड़ी और अपने घर के नजदीकी स्टेशन पर उतरा। मेरा फ्लैट, स्टेशन से करीब दो किलोमीटर दूर है। वहां तक का रिक्शे का किराया 10 रुपया है। मैंने बाहर निकलकर एक रिक्शे वाले को पुकारा। मैंने रिक्शे वाले से पूछा- परवाना विहार चलोगे? वह बोला, चलूंगा, मगर 15 रुपये लूंगा। मैं हंसा- लगता है कि तुम मुझे परदेसी समझ रहे हो। मैं यहीं का बाशिंदा हूं। रिक्शा वाला बोला- रात का वक्त है। मैंने कहा- बहानेबाजी मत कहो, 10 रुपये में चलो। चूंकि वहां सवारी कम थी, रिक्शा वाला मन मारकर राजी हो गया।
क्शा थोड़ी दूर ही गया था कि मैंने रिक्शे वाले से बातचीत शुरू की। मैंने कहा- भैया, थोड़ी ईमानदारी रखा करो। कोई जरूरतमंद मिल गया तो मनमाना किराया वसूलोगे। यह क्या तरीका है। वह बोला- हम मेहनत करते हैं। मुझे गुस्सा आया- तो क्या हम लोग मेहनत नहीं करते। हम भी मेहनत करते हैं। ठीक है कि तुम शारीरिक मेहनत ज्यादा करते हो, हम दिमागी तौर पर मेहनत करते हैं। रिक्शे वाले ने पूछा- क्या करते हैं आप? मैंने कहा- पत्रकार हूं। रिपोर्टर हूं, जानते हो, रिपोर्टर किसे कहते हैं। जो खबरें लाता है, उसे लिखता है, तभी अखबार में खबरें छपती है। अब बोलो, क्या मैं मेहनत नहीं करता। भैया मेहनत सभी करते हैं। ऐसे में तुम जो 10 रुपये की जगह 15 रुपये किसी मेहनतकश से वसूलते हो वह गलत है। जो तुम्हारा बनता है, उसे लो। उसे देने में कोई ऐतराज नहीं करेगा और किसी को दुख भी नहीं होगा। मैं बोलता रहा, वह रास्ते भर.. हूं, हूं करके सुनता रहा।
मेरे अपार्टमेंट का गेट आ गया। मैं उतरा, जेब से रुपये निकालता, तभी रिक्शा वाला बोला- आप पत्रकार हैं। मुझे काफी कुछ सीख दे रहे थे। ठीक है मैं रिक्शा चला रहा हूं, मगर मैं भी थोड़ा- बहुत पढ़ा लिखा हूं। मैंने 10 की जगह 15 रुपये मांग लिए तो आप इतना बोल रहे हैं। आप पत्रकार हैं तो उन लोगों को कुछ बोलिए न जो घोटाला करके करोड़ों रुपये देश का डकार गए। रोज अखबार में छप रहा है कि यह घोटाला हुआ, वो घोटाला हुआ। आप ही लोग छाप रहे हैं। देश, प्रदेश के नेता से लेकर सरकारी बाबू तक करोड़ों रुपये कमा रहे हैं, वह भी नाजायज रूप से। रात का समय है, सर्दी लग रही है, अगर मैंने पांच रुपये ज्यादा मांग लिये तो आप इतना बोल रहे हैं। पत्रकार हैं आप, उनको रोकिए घोटाला करने से, जो नाजायज तरीके से ऐसा कर रहे हैं।
मैं सहम गया। उसकी बातों में सच की आंच थी जिसे सहने की ताकत मुझमें नहीं थी। हम पत्रकार-बुद्धिजीवी बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं पर आम आदमी के सवालों का कोई जवाब हमारे पास नहीं है। मैंने चुपचाप जेब से 15 रुपये निकाले और उसे दे दिए। उससे आंख मिलाने का साहस मैं नहीं कर पा रहा था।


मन की जीत
नमि नामक राजा राजपाट छोड़कर तपस्या करने निकले। वह ज्यों ही राजमहल से बाहर आए, एक देवदूत उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, 'राजन्! आप जा रहे हैं। किंतु पहले आपका कर्त्तव्य है कि आप अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर जाएं ताकि प्रजा और भावी सम्राट सुरक्षित रह सकें।'
इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।
मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।
आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।
प्रस्तुतकर्ता अरुण बंछोर पर 27.12.10 0 टिप्पणियाँ इस संदेश के लिए लिंक
नए साल के लिए एक जनवरी ही क्यों
एक जनवरी नजदीक आ गई है। जगह-जगह हैपी न्यू ईयर के बैनर व होर्डिंग लग गए हैं। जश्न मनाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं। जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया था।
भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेज शासकों ने वर्ष 1752 में शुरू किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे अनेक देशों ने अपना लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नवम्बर 1952 में हमारे देश में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी। मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलंडर को ही सरकारी कामकाज के लिए उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलंडर के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
ग्रेगेरियन कैलंडर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के काफी कम समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3579 वर्ष, रोम की 2756 वर्ष, यहूदियों की 5767 वर्ष, मिस्र की 28670 वर्ष, पारसी की 198874 वर्ष चीन की 96002304 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो भारतीय ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है। जिस प्रकार ईस्वी संवत् का संबंध ईसाई जगत से है उसी प्रकार हिजरी संवत् का संबंध मुस्लिम जगत से है। लेकिन विक्रमी संवत् का संबंध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्मांड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परंपराओं को दर्शाती है।
भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए हमें सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देशप्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है, जिससे भारतीय नव वर्ष प्रारंभ होता है। यह सृष्टि रचना का पहला दिन है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की। विक्रमी संवत् के नाम के पीछे भी एक विशेष विचार है। यह तय किया गया था कि उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होगा जिसके राज्य में न कोई चोर हो न अपराधी हो और न ही कोई भिखारी। साथ ही राजा चक्रवर्ती भी हो।
सम्राट विक्रमादित्य ऐसे ही शासक थे जिन्होंने 2067 वर्ष पहले इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया था। प्रभु श्रीराम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में अपने राज्याभिषेक के लिए चुना। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। विक्रमादित्य की तरह शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
प्राकृतिक दृष्टि से भी यह दिन काफी सुखद है। वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। यह समय उल्लास - उमंग और चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरा होता है। फसल पकने का प्रारंभ अर्थात किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् नए काम शुरू करने के लिए यह शुभ मुहूर्त होता है। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम का भाव पैदा हो सके या स्वाभिमान तथा श्रेष्ठता का भाव जाग सके ? इसलिए विदेशी को छोड़ कर स्वदेशी को स्वीकार करने की जरूरत है। आइए भारतीय नव वर्ष यानी विक्रमी संवत् को अपनाएं।
विनोद बंसल

चार मित्र
सेन के राज्य में प्रजा बहुत खुशहाल और संतुष्ट थी। वहां कभी किसी तरह का तनाव नहीं होता था। यह बात पड़ोसी राज्य के राजा कुशल सेन तक भी पहुंची। उसके यहां आए-दिन झगड़े होते रहते थे और प्रजा बहुत दु:खी थी। राजा कुशल सेन अपने पड़ोसी राज्य की सुख-शांति व खुशहाली का राज जानने के लिए आदर्श सेन के पास पहुंचा और बोला, 'मेरे यहां हर ओर दु:ख-दर्द व बीमारी फैली है। पूरे राज्य में त्राहि-त्राहि मची हुई है। कृपया मुझे भी अपने राज्य की सुख-शांति का राज बताएं।' कुशल सेन की बात सुनकर राजा आदर्श सेन मुस्कुरा कर बोला, 'मेरे राज्य में सुख-शांति मेरे चार मित्रों के कारण आई है।' इससे कुशल सेन की उत्सुकता बढ़ गई।
उसने कहा, 'कौन हैं वे आपके मित्र? क्या वे मेरी मदद नहीं कर सकते?' आदर्श सेन ने कहा, 'जरूर कर सकते हैं। सुनिए मेरा पहला मित्र है सत्य। वह कभी मुझे असत्य नहीं बोलने देता। मेरा दूसरा मित्र प्रेम है, वह मुझे सबसे प्रेम करने की शिक्षा देता है और कभी भी घृणा करने का अवसर नहीं देता। मेरा तीसरा मित्र न्याय है। वह मुझे कभी भी अन्याय नहीं करने देता और हर वक्त मेरे आंख-कान खुले रखता है ताकि मैं राज्य में होने वाली घटनाओं पर निरंतर अपनी दृष्टि बनाए रखूं। और मेरा चौथा मित्र त्याग है। त्याग की भावना ही मुझे स्वार्थ व ईर्ष्या से बचाती है। ये चारों मिलकर मेरा साथ देते हैं और मेरे राज्य की रक्षा करते हैं।' कुशल सेन को आदर्श सेन की सफलता का रहस्य समझ में आ गया।

महात्मा की शिक्षा
एक बार मगध के राजा चित्रांगद वन विहार के लिए निकले। साथ में कुछ बेहद करीबी मंत्री और दरबारी भी थे। वे घूमते हुए काफी दूर निकल गए। एक जगह सुंदर सरोवर के किनारे किसी महात्मा की कुटिया दिखाई दी। वह जगह राजा को बहुत पसंद आई हालांकि वह उसे दूर से ही देखकर निकल गए। राजा ने सोचा कि महात्मा अभावग्रस्त होंगे, इसलिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ धन भिजवा दिया। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी। कुछ दिनों बाद और अधिक धन भेजा गया, पर सब लौटा दी गई। तब राजा स्वयं गए और उन्होंने महात्मा से पूछा, 'आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की?'
महात्मा हंसते हुए बोले, 'मेरी अपनी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है।' राजा ने कुटिया में इधर-उधर देखा, केवल एक तुंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र था, यहां तक कि धन रखने के लिए कोई अलमारी आदि भी नहीं थी। राजा ने फिर कहा, 'मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता।' महात्मा ने राजा को पास बुलाकर उनके कान में कहा, 'मैं रसायनी विद्या जानता हूं। किसी भी धातु से सोना बना सकता हूं।' अब राजा बेचैन हो गए, उनकी नींद उड़ गई। धन-दौलत के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही महात्मा के पास पहुंचकर बोले, 'महाराज! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूं।' महात्मा ने कहा, 'ठीक है पर इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना होगा। साल पूरा होते ही विद्या सिखा दूंगा।' राजा रोज आने लगे। महात्मा के साथ रहने का प्रभाव जल्दी ही दिखने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच पूरी तरह बदल गई। महात्मा ने एक दिन पूछा, 'वह विद्या सीखोगे?' राजा ने कहा, 'गुरुदेव! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूंगा।'


क्यों कहते हैं विष्णु को नारायण?
हिंदू धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि सृष्टि का निर्माण त्रिदेवों ने मिलकर किया है। भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालनकर्ता माना गया है। कहते हैं कि जब भी धरती पर कोई मुसीबत आती है तो भगवान विभिन्न अवतार लेकर आते हैं और हमें उन मुसीबतों से बचाते हैं।
हिन्दू धर्म में भगवान के जितने रूप है उतने ही उनके नाम भी बताये गए है। भगवान विष्णु का ऐसा ही एक नाम है नारायण। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि भगवान को नारायण क्यों कहते हैं? भगवान विष्णु का नारायण नाम कैसे पड़ा?
विष्णु महापुराण में भगवान के नारायण नाम के पीछे एक रहस्य बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जल की उत्पत्ति नर अर्थात भगवान के पैरों से हुई है इसलिए पानी को नीर या नार भी कहा जाता है। चूंकि भगवान का निवास स्थान (अयन) पानी यानी कि क्षीर सागर को माना गया है इसलिए जल में निवास करने के कारण ही भगवान को नारायण (नार+अयन) कहा जाता है।
हमारे शास्त्रों नें बताया है कि इस सृष्टि का निर्माण भी जल से हुआ है। और भगवान के पहले तीन अवतार भी जल से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हिन्दू धर्म में जल को देव रूप मे पूजा जाता है।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

कहानियां

संगीत का सौंदर्य
फ्रांस के प्रसिद्ध संगीतकार गाल्फर्ड के पास एक लड़की संगीत सीखने आया करती थी जो अत्यंत कुरूप थी। एक दि
न लड़की ने गाल्फर्ड को बताया कि जब कभी वह मंच पर जाती है तो सोचने लगती है कि अन्य लड़कियां तो बहुत ही आकर्षक हैं। कहीं लोग उसकी हंसी तो नहीं उड़ाएंगे। इस आशंका से वह ढंग से नहीं गा पाती। लेकिन घर पर अपने लोगों के बीच वह ठीक से गाती है और वहां सभी उसके गायन की प्रशंसा करते हैं। बस मंच पर जाने के समय ही वह अपनी सारी क्षमता गंवा बैठती है।
गाल्फर्ड ने उसकी बातें ध्यान से सुनी। फिर अत्यंत स्नेहपूर्वक बोले, 'बेटी, संगीत का अपना सौंदर्य होता है। जो उस सौंदर्य का रस पीने आते हैं, वे गायक व गायिका का रूप नहीं देखते। फिर भी तुम ऐसा करो कि रोजाना एक बड़े शीशे के सामने खड़े होकर अपनी छवि निहारो और ऐसा करते हुए गीत गाओ। इससे तुम्हारी झिझक अपने आप खत्म हो जाएगी और यह भी समझ में आ जाएगा कि संगीत की मधुरता और संगीतकार के रूप का आपस में कोई संबंध नहीं है। दर्पण के सामने जब तुम भाव विभोर होकर गाओगी तो तुम्हारे मन से हर तरह का डर निकल जाएगा। फिर धीरे-धीरे तुम मंच पर बेफिक्र होकर गा सकोगी।'
लड़की ने अपने गुरु की सलाह पर उसी दिन से अमल करना शुरू कर दिया। इससे उसके भीतर आत्मविश्वास आने लगा। फिर जब वह मंच पर उतरी तो उसकी झिझक पूरी तरह खत्म हो गई। संगीत के क्षेत्र में उसने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की। उसका नाम था मेरी वुडलनाल्ड।

शांति की खोज
उन दिनों स्वामी रामतीर्थ अमेरिका गए हुए थे। वहां उनके प्रवचन की हर ओर धूम थी। अमेरिकी नागरिक उनसे अपनी
परेशानियों के हल पूछने आते और खुशी-खुशी वहां से जाते थे। एक दिन एक अमेरिकी महिला उनके पास पहुंची और बोली, 'स्वामी जी, मेरा सब कुछ लुट गया। मुझे अब इस जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती। कृपया मेरे चित्त को शांत करने का उपाय बताएं।'
स्वामी जी ने कहा, 'माता, पहले आप अपने दुख का कारण तो बताएं।' महिला रोती हुई बोली, 'मेरा इकलौता पुत्र काल के गाल में समा गया है। अब मैं क्या करूं?' वह जोर-जोर से विलाप करने लगी। स्वामी जी ने उसे सांत्वना दी और अगले दिन उसके दुख को दूर करने का वादा किया। अगले दिन महिला फिर पहुंची। उसने कहा, 'स्वामी जी, आपने मुझसे वादा किया था कि आज आप मेरी समस्या का समाधान करेंगे।' स्वामी जी बोले, 'बिल्कुल, मैं अवश्य आपकी समस्या दूर करूंगा।'
इसके बाद उन्होंने एक छोटे से बालक को आवाज देकर बुलाया और उसका हाथ महिला के हाथ में सौंपते हुए कहा, 'यह लो अपना बेटा। आपको संतान चाहिए और इसे माता-पिता। आप इसके साथ बेटे जैसा व्यवहार करना, फिर देखना आपके सारे दु:ख-दर्द कैसे दूर हो जाते हैं।' उस महिला को इसकी आशा न थी। वह बोली, 'स्वामी जी, भला यह कैसे संभव है? मैं इसे अपना पुत्र कैसे मान लूं? पता नहीं यह कौन है? इसमें तो मेरा अंश मात्र भी नहीं है।'
उसकी बात सुनकर स्वामी जी गंभीर होकर बोले, 'ऐसे सोचेंगी तो न कभी आपका दु:ख-दर्द दूर होगा न ही जीवन में शांति मिल सकेगी। आत्मीयता का विस्तार करना सीखें। औरों में भी अपना रूप देखें। इस बच्चे में अपना बेटा देखें। जीवन जरूर बदलेगा। जीवन में सुख और शांति आएगी।' वह अमेरिकी महिला स्वामी रामतीर्थ की बातें सुनकर दंग रह गई। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया। वह अनाथ बच्चे को प्रेम से अपने साथ ले गई ।

दो थैले
हमारे गांवों में अक्सर एक कथा सुनने को मिलती है। ईश्वर ने जब मनुष्य की रचना की तो उसे अपनी अन्य सभी कृ
तियों से श्रेष्ठ बनाया। सुघड़ और सुंदर बनाने के साथ उसे बुद्धि भी दी। जब मनुष्य इस पृथ्वी पर पहुंचा तो ब्रह्मा ने उससे पूछा, अब यहां आकर तुम क्या चाहते हो? मनुष्य ने कहा, प्रभु, मैं तीन बातें चाहता हूं। एक, मैं सदा प्रसन्न रहूं। दूसरा, सभी मेरा सम्मान करें। और तीसरा, मैं सदा उन्नति के पथ पर चलता रहूं।
मनुष्य की ये इच्छाएं जान कर ब्रह्मा जी ने उसे दो थैले दिए और कहा, एक थैले में तुम अपनी सभी कमजोरियां डाल दो, और दूसरे थैले में दूसरे लोगों की कमियां डालते रहो। साथ ही यह भी कहा कि इन दोनों थैलों को हमेशा अपने कंधों पर ले कर चलना। लेकिन हां, एक बात का ध्यान और रखना कि जिस थैले में तुम्हारी अपनी खामियां हैं, उसे तो अगली तरफ रखना। और जिस थैले में दूसरों की कमजोरियां रखी हैं, उन्हें पीछे की तरफ यानी पीठ पर रखना। समय-समय पर सामने वाला थैला खोलकर निरीक्षण भी करते रहना, ताकि अपनी त्रुटियां दूर कर सको। परंतु दूसरे लोगों के अवगुणों का थैला, जो पीठ पर डाला होगा, उसे कभी न खोलना और न ही दूसरों के ऐब देखना या कहना। यदि तुम इस परामर्श पर ठीक से आचरण करोगे, तो तुम्हारी तीनों इच्छाएं पूरी होंगी- तुम सदा प्रसन्न रहोगे, सबसे सम्मान पाओगे और सदा उन्नति करोगे।
मनुष्य ने ब्रह्मा जी को नमस्कार किया और अपने दुनियावी कामकाज में लग गया। लेकिन इस बीच उसे थैलों की पहचान भूल गई। जो थैला पीछे डालना था उसे तो आगे टांग लिया और जिस थैले को आगे रख कर देखते रहने को कहा था, वह पीछे की तरफ कर दिया। तब से मनुष्य दूसरों के अवगुण ही देखता है, अपनी कमजोरियों पर ध्यान नहीं देता। इसी वजह से उसेफल भी उलटा ही मिलता है।

रेत का पुल
भारद्वाज ऋषि के पुत्र यवक्रीत को विद्यार्जन में रुचि नहीं थी। इसलिए वह अध्ययन से दूर रहे पर बाद में उन
्हें अहसास हुआ कि अशिक्षित होने और शास्त्रों का ज्ञान नहीं होने के कारण समाज में उनका सम्मान नहीं होता। लेकिन चूंकि उनकी उम्र ज्यादा हो चुकी थी, विधिवत शिक्षा ग्रहण करने का समय निकल चुका था, इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न देवताओं की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया जाए और वरदान मांग कर सारी विद्याएं प्राप्त कर ली जाएं। वह गंगा किनारे भगवान को खुश करने के लिए ध्यानमग्न हो गए। भगवान इंद्र उनके मन की बात समझ गए।
एक दिन वह साधु का वेश धारण करके वहां आए और दोनों हाथों से रेत उठा कर पानी में डालने लगे। थोड़ी देर में यवक्रीत की आंखें खुलीं। उन्होंने साधु को पानी में बालू डालते देख कर पूछा, 'आप यह क्या कर रहे हैं?' साधु ने कहा, 'गंगा के ऊपर पुल बना रहा हूं।' इन्हें भी पढ़ें
यवक्रीत ने कहा, 'आप तो बड़े ज्ञानी लगते हैं लेकिन यह मूर्खता वाला काम क्यों कर रहे हैं। कहीं बालू से पुल बनता है। बालू तो पानी में गिरते ही उसमें घुल जाता है।' यह सुन कर साधु ने कहा, 'यदि बिना पढ़े-लिखे ज्ञान मिल सकता है तो बालू से पुल क्यों नहीं बन सकता। अगर तपस्या करने से ही ज्ञान मिलता तो फिर पढ़ने- लिखने का कष्ट कौन उठाता। सभी आप की तरह तपस्या करके भगवान को खुश करके ज्ञान का वर मांग लेते।' यह सुन कर यवक्रीत सोच में पड़ गए।
उन्होंने कहा, 'पर इतनी ज्यादा उम्र में पढ़ाई कौन करता है।' साधु ने कहा, 'वत्स, ज्ञान प्राप्त करने की कोई उम्र सीमा नहीं होती। यदि आप संकल्प कर लोगे तो अब भी अपने पिता के समान महान ज्ञानी बन सकते हो।' यवक्रीत ने कहा, 'आप ठीक कह रहे हैं। अब मैं अध्ययन करूंगा।' बाद में यवक्रीत महान विद्वान बने और तपोदत्त के नाम से जाने गए।

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

कहानी

पूजा और भक्ति
एक साधु एक राजा के अतिथि बने। राजा ने साधु से पूछा, 'बताएं, पूजा और भक्ति में क्या अंतर है?' साधु ने र
ाजा को कुछ दिन प्रतीक्षा करने के लिए कहा। एक दिन जब राजा और साधु एक साथ भोजन कर रहे थे तब राजा ने रसोइए को बुलाया और कहा, 'आज सभी सब्जियां स्वादिष्ट हैं लेकिन बैंगन की सब्जी लाजवाब है।' रसोइए ने प्रसन्न होकर कहा, 'महाराज, बैंगन तो है ही शाही सब्जी। जैसे आप शहंशाह हैं वैसे ही बैंगन भी सब्जियों का शहंशाह है।' रसोइए ने अगले दिन फिर से बैंगन की सब्जी बनाई। अब वह रोज बैंगन बनाने लगा।
एक दिन राजा ने भोजन की थाली परे सरकाते हुए रसोइए को बुलाकर फटकार लगाई। रसोइया हाथ जोड़कर बोला, 'महाराज गलती हो गई। बैंगन तो घटिया सब्जी है। इसमें तो कोई गुण नहीं होता तभी तो इसका नाम बैंगन पड़ा। आदमी तो क्या, इसे जानवर भी नहीं खाते। अब मैं कभी इसकी सब्जी नहीं बनाऊंगा।' राजा रसोइए की बात सुनकर हैरान था। उसने कहा, 'अभी कुछ दिन पहले तो तुम बैंगन की तारीफ कर रहे थे और आज इसे घटिया कह रहे हो।' रसोइया तपाक से बोला, 'महाराज, मैं नौकर आपका हूं, बैंगन का नहीं।' तभी साधु ने बीच में टोकते हुए राजा से कहा, 'रसोइए ने ऐसा मेरे कहने पर किया है। यही आपके प्रश्न का उत्तर है। हम मंदिर जाकर पूजा करते हैं, करवाते है, पुजारी को दक्षिणा देते हैं। यह भक्ति नहीं है। पुजारी तो ठहरा दक्षिणा का भोगी। जैसी दक्षिणा वैसी पूजा, वैसा ही आशीर्वाद। पूजा में हमें परमात्मा की भक्ति कहां याद रहती है।' राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।

बुधवार, 17 नवंबर 2010

कहानी

संगति का फल
ओमप्रकाश बंछोर
पुराने समय की बात है। एक राज्य में एक राजा था। किसी कारण से वह अन्य गाँव में जाना चाहता था। एक दिन वह धनुष-बाण सहित पैदल ही चल पड़ा। चलते-चलते राजा थक गया। अत: वह बीच रास्ते में ही एक विशाल पेड़ के नीचे बैठ गया। राजा अपने धनुष-बाण बगल में रखकर, चद्दर ओढ़कर सो गया। थोड़ी ही देर में उसे गहरी नींद लग गई।
उसी पेड़ की खाली डाली पर एक कौआ बैठा था। उसने नीचे सोए हुए राजा पर बीट कर दी। बीट से राजा की चादर गंदी हो गई थी। राजा खर्राटे ले रहा था। उसे पता नहीं चला कि उसकी चादर खराब हो गई है।
कुछ समय के पश्चात कौआ वहाँ से उड़कर चला गया और थोड़ी ही देर में एक हंस उड़ता हुआ आया। हंस उसी डाली पर और उसी जगह पर बैठा, जहाँ पहले वह कौआ बैठा हुआ था अब अचानक राजा की नींद खुली। उठते ही जब उसने अपनी चादर देखी तो वह बीट से गंदी हो चुकी थी।
राजा स्वभाव से बड़ा क्रोधी था। उसकी नजर ऊपर वाली डाली पर गई, जहाँ हंस बैठा हुआ था। राजा ने समझा कि यह सब इसी हंस की ओछी हरकत है। इसी ने मेरी चादर गंदी की है।
क्रोधी राजा ने आव देखा न ताव, ऊपर बैठे हंस को अपना तीखा बाण चलाकर, उसे घायल कर दिया। हंस बेचारा घायल होकर नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा। वह तड़पते हुए राजा से कहने लगा-
'अहं काको हतो राजन्!
हंसाऽहंनिर्मला जल:।
दुष्ट स्थान प्रभावेन,
जातो जन्म निरर्थक।।'
अर्थात हे राजन्! मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया, तुमने मुझे अपने तीखे बाणों का निशाना बनाया है? मैं तो निर्मल जल में रहने वाला प्राणी हूँ? ईश्वर की कैसी लीला है। सिर्फ एक बार कौए जैसे दुष्ट प्राणी की जगह पर बैठने मात्र से ही व्यर्थ में मेरे प्राण चले जा रहे हैं, फिर दुष्टों के साथ सदा रहने वालों का क्या हाल होता होगा?
हंस ने प्राण छोड़ने से पूर्व कहा - 'हे राजन्! दुष्टों की संगति नहीं करना। क्योंकि उनकी संगति का फल भी ऐसा ही होता है।' राजा को अपने किए अपराध का बोध हो गया। वह अब पश्चाताप करने लगा।

सौजन्य से - देवपुत्र

कहानी

बच्चे की बात में ख़ुशी का राज
Bhaskar
एक बच्चे के स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे। उसे नाटक में हिस्सा लेने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन भूमिकाएं कम थीं और उन्हें निभाने के इच्छुक विद्यार्थी बहुत Êयादा थे। सो, शिक्षक ने बच्चों की अभिनय क्षमता परखने का निर्णय लिया। इस बच्चे की मां उसकी गहरी इच्छा के बारे में जानती थी, साथ ही डरती भी थी कि उसका चयन न हो पाएगा, तो कहीं उस नन्हे बच्चे का दिल ही न टूट जाए।

बहरहाल, वह दिन भी आ गया। सभी बच्चे अपने अभिभावकों के साथ पहुंचे थे। एक बंद हॉल में शिक्षक बच्चों से बारी-बारी संवाद बुलवा रहे थे। अभिभावक हॉल के बाहर बैठे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
घंटे भर बाद दरवाजा खुला। कुछ बच्चे चहकते हुए और बाक़ी चेहरा लटकाए हुए, उदास-से बाहर आए। वह बच्च दौड़ता हुआ अपनी मां के पास आया। उसके चेहरे पर ख़ुशी और उत्साह के भाव थे। मां ने राहत की सांस ली। उसने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ, अभिनय करने की बच्चे की इच्छा पूरी हो रही है।
वह परिणाम के बारे में पूछती, इतने में बच्च ख़ुद ही बोल पड़ा, ‘जानती हो मां, क्या हुआ?’ मां ने चेहरे पर अनजानेपन के भाव बनाए और उसी मासूमियत से बोली, ‘मैं क्या जानूं! तुम बताओगे, तब तो मुझे पता चलेगा।’
बच्च उसी उत्साह से बोला, ‘टीचर ने हम सभी से अभिनय कराया। मैं जो रोल चाहता था, वह तो किसी और बच्चे को मिल गया। लेकिन मां, जानती हो, मेरी भूमिका तो नाटक के किरदारों से भी बड़ी मजेदार है।’ मां को बड़ा आश्चर्य हुआ। बच्च बोला, ‘अब मैं ताली बजाने और साथियों का उत्साह बढ़ाने का काम करूंगा!’

बकरीद

क्यों मनाते हैं बकरीद?
बकरीद को इस्लाम में बहुत ही पवित्र त्योहार माना जाता है। इस्लाम में एक वर्ष में दो ईद मनाई जाती है। एक ईद जिसे मीठी ईद कहा जाता है और दूसरी है बकरीद।

बकरीद पर अल्लाह को बकरे की कुर्बानी दी जाती है। पहली ईद यानी मीठी ईद समाज और राष्ट्र में प्रेम की मिठास घोलने का संदेश देती है।
दूसरी ईद अपने कर्तव्य के लिए जागरूक रहने का सबक सिखाती है। राष्ट्र और समाज के हित के लिए खुद या खुद की सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का संदेश देती है। बकरे की कुर्बानी तो प्रतीक मात्र है, यह बताता है कि जब भी राष्ट्र, समाज और गरीबों के हित की बात आए तो खुद को भी कुर्बान करने से नहीं हिचकना चाहिए।
कुर्बानी का मतलब है दूसरों की रक्षा करना
कोई व्यक्ति जिस परिवार में रहता है, वह जिस समाज का हिस्सा है, जिस शहर में रहता है और जिस देश का वह निवासी है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह अपने देश, समाज और परिवार की रक्षा करें। इसके लिए यदि उसे अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देना पड़े तब भी वह पीछे ना हटे।
तीन हिस्से किए जाते हैं कुर्बानी के...
इस्लाम में गरीबों और मजलूमों का खास ध्यान रखने की परंपरा है। इसी वजह से ईद-उल-जुहा पर भी गरीबों का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस दिन कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। इन तीनों हिस्सों में से एक हिस्सा खुद के लिए और शेष दो हिस्से समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों का बांटा दिया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि पैगम्बर हजरत को अल्लाह ने हुक्म दिया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बान मेरे लिए कुर्बान कर दो। पैगंबर साहब को अपना इकलौता बेटा इस्माइल सबसे अधिक प्रिय था। खुदा के हुक्म के अनुसार उन्होंने अपने प्रिय इस्माइल को कुर्बान करने का मन बना लिया। इस बात से इस्माइल भी खुश था वह अल्लाह की राह में कुर्बान होगा।
बकरीद के दिन ही जब कुर्बानी का समय आया तब इस्माइल की जगह एक दुम्बा कुर्बान हो गया। अल्लाह ने इस्माइल को बचा लिया और पैगंबर साहब की कुर्बानी कबुल कर ली। तभी से हर साल पैगंबर साहब द्वारा दी गई कुर्बानी की याद में बकरीद मनाई जाने लगी।

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

शोध

छोटी छुट्टियां ज्‍यादा यादगार होती हैं

कॉमन वेल्‍थ गेम्‍स के कारण स्‍कूलों में छुट्टियां हो गई हैं ऐसे में बहुत सारे पेरेंट्स लंबी छुट्टियां मनाने के मूड में हैं। अगर बच्‍चों की जिद के कारण लंबी छुट्टी पर जाने का प्‍लान कर रहे हैं तो शोधकर्ताओं के इस शोध पर विचार करें।

हाल ही में हुए अध्‍ययन में अमेरिका के नॉर्थ कैरोलिना के ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डैन एरीली ने कहा है कि लंबी छुट्टियों से बेहतर छोटी छुट्टियां होती हैं। अगर आप अपने जीवन में खुशहाली और यादों को संजोना चाहते हैं तो लंबे अवकाश पर न जाकर थोड़े-थोड़े अंतराल पर कम दिनों का अवकाश लें। क्‍योंकि कम दिनों के अवकाश की ज्यादातर यादें खुशनुमा होती हैं। अंतिम दिनों तक उत्‍साह बना रहता है।

लंबे अवकाश के दौरान पहला दिन सातवें दिन की अपेक्षा ज्यादा अच्छा होता है क्योंकि सातवें दिन तक उत्साह कम हो जाता है। लोगों को रूटीन लाइफ की आदत होती है। ऐसे में जब वे लंबी छुट्टियों पर जाते हैं तो उन्हें कुछ दिन बाद ही ऊब होने लगती है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि साल में चार बार अवकाश पर जाना ज्यादा अच्छा है। एक सप्ताह के अवकाश में उतनी खुशियां नहीं मिलतीं जितनी कि तीन चार दिन के अवकाश में मिलती है।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

कहानी

दोस्ती की परख
एक जंगल था । गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे । उन चारों में मित्रता हो गई । वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे । पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था । एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी ।
खरगोश पास जाकर कहने लगा - "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो ।"उन्होंने कहा - "अच्छा ।" तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ । खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता । कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था ।
एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था । अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी । खरगोश ने गाय से कहा - "तुम मुझे पीठ पर बिठा लो । जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना ।"
गाय ने कहा - "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है ।"तब खरगोश घोड़े के पास गया । कहने लगा - "बड़े भाई ! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ । तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे ।"घोड़े ने कहा - "मुझे बैठना नहीं आता । मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ । मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे ? मेरे पाँव भी दुख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं । मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा ? तुम कोई और उपाय करो ।
तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा - "मित्र गधे ! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो । मुझे पीठ पर बिठा लो । जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना ।"गधे ने कहा - "मैं घर जा रहा हूँ । समय हो गया है । अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा ।"तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला ।
बकरी ने दूर से ही कहा - "छोटे भैया ! इधर मत आना । मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है । कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ ।"इतने में कुत्ते पास अ गए । खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा । कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके । खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया । वह मन में कहने लगा - "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए ।"
सीख - दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है। दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है।

बोलने वाली मांद
किसी जंगल में एक शेर रहता था। एक बार वह दिन-भर भटकता रहा, किंतु भोजन के लिए कोई जानवर नहीं मिला। थककर वह एक गुफा के अंदर आकर बैठ गया। उसने सोचा कि रात में कोई न कोई जानवर इसमें अवश्य आएगा। आज उसे ही मारकर मैं अपनी भूख शांत करुँगा।
उस गुफा का मालिक एक सियार था। वह रात में लौटकर अपनी गुफा पर आया। उसने गुफा के अंदर जाते हुए शेर के पैरों के निशान देखे। उसने ध्यान से देखा। उसने अनुमान लगाया कि शेर अंदर तो गया, परंतु अंदर से बाहर नहीं आया है। वह समझ गया कि उसकी गुफा में कोई शेर छिपा बैठा है।
चतुर सियार ने तुरंत एक उपाय सोचा। वह गुफा के भीतर नहीं गया।उसने द्वार से आवाज लगाई- ‘ओ मेरी गुफा, तुम चुप क्यों हो? आज बोलती क्यों नहीं हो? जब भी मैं बाहर से आता हूँ, तुम मुझे बुलाती हो। आज तुम बोलती क्यों नहीं हो?’
गुफा में बैठे हुए शेर ने सोचा, ऐसा संभव है कि गुफा प्रतिदिन आवाज देकर सियार को बुलाती हो। आज यह मेरे भय के कारण मौन है। इसलिए आज मैं ही इसे आवाज देकर अंदर बुलाता हूँ। ऐसा सोचकर शेर ने अंदर से आवाज लगाई और कहा-‘आ जाओ मित्र, अंदर आ जाओ।’
आवाज सुनते ही सियार समझ गया कि अंदर शेर बैठा है। वह तुरंत वहाँ से भाग गया। और इस तरह सियार ने चालाकी से अपनी जान बचा ली।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

श्रीगणेश कथा

श्री गणेश जन्म कथा
श्रीगणेश के जन्म की कथा भी निराली है। वराहपुराण के अनुसार भगवान शिव पंचतत्वों से बड़ी तल्लीनता से गणेश का निर्माण कर रहे थे। इस कारण गणेश अत्यंत रूपवान व विशिष्ट बन रहे थे। आकर्षण का केंद्र बन जाने के भय से सारे देवताओं में खलबली मच गई। इस भय को भाँप शिवजी ने बालक गणेश का पेट बड़ा कर दिया और सिर को गज का रूप दे दिया।

दूसरी कथा शिवपुराण से है। इसके मुताबिक देवी पार्वती ने अपने उबटन से एक पुतला बनाया और उसमें प्राण डाल दिए। उन्होंने इस प्राणी को द्वारपाल बना कर बैठा दिया और किसी को भी अंदर न आने देने का आदेश देते हुए स्नान करने चली गईं। संयोग से इसी दौरान भगवान शिव वहाँ आए। उन्होंने अंदर जाना चाहा, लेकिन बालक गणेश ने रोक दिया। नाराज शिवजी ने बालक गणेश को समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी।
क्रोधित शिवजी ने त्रिशूल से गणेश का सिर काट दिया। पार्वती को जब पता चला कि शिव ने गणेश का सिर काट दिया है, तो वे कुपित हुईं। पार्वती की नाराजगी दूर करने के लिए शिवजी ने गणेश के धड़ पर हाथी का मस्तक लगा कर जीवनदान दे दिया। तभी से शिवजी ने उन्हें तमाम सामर्थ्य और शक्तियाँ प्रदान करते हुए प्रथम पूज्य और गणों का देव बनाया।
सबक गणेश के पास हाथी का सिर, मोटा पेट और चूहा जैसा छोटा वाहन है, लेकिन इन समस्याओं के बाद भी वे विघ्नविनाशक, संकटमोचक की उपाधियों से नवाजे गए हैं। कारण यह है कि उन्होंने अपनी कमियों को कभी अपना नकारात्मक पक्ष नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी ताकत बनाया। उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सूंड बताती है कि सफलता का पथ सीधा नहीं है।
यहाँ दाएँ-बाएँ खोज करने पर ही सफलता और सच प्राप्त होगा। हाथी की भाँति चाल भले ही धीमी हो, लेकिन अपना पथ अपना लक्ष्य न भूलें। उनकी आँखें छोटी लेकिन पैनी है, यानी चीजों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करना चाहिए। कान बड़े है यानी एक अच्छे श्रोता का गुण हम सबमें हमेशा होना चाहिए।

श्री गणेशजी की आरती

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा
माता जाकी पार्वती पिता महादेवा ॥ जय...


एक दन्त दयावन्त चार भुजा धारी।
माथे सिन्दूर सोहे मूसे की सवारी ॥ जय...

अन्धन को आँख देत, कोढ़िन को काया।
बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया ॥ जय...

हार चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा।
लड्डुअन का भोग लगे सन्त करें सेवा ॥ जय...

दीनन की लाज रखो, शम्भु सुतकारी।
कामना को पूर्ण करो जाऊँ बलीहारी॥ जय...

आरती-2

सुखकर्ता दुःखहर्ता वार्ता विघ्नाची।
नुरवी पुरवी प्रेम कृपा जयाची।
सर्वांगी सुंदर उटी शेंदुराची।
कंठी झळके माळ मुक्ताफळांची॥

जय देव जय देव जय मंगलमूर्ती।
दर्शनमात्रे मन कामनांपुरती॥ जय देव...

रत्नखचित फरा तूज गौरीकुमरा।
चंदनाची उटी कुंकुमकेशरा।
हिरेजड़ित मुकुट शोभतो बरा।
रुणझुणती नूपुरे चरणी घागरीया॥ जय देव...

लंबोदर पीतांबर फणीवर बंधना।
सरळ सोंड वक्रतुण्ड त्रिनयना।
दास रामाचा वाट पाहे सदना।
संकष्टी पावावें, निर्वाणी रक्षावे,
सुरवरवंदना॥ जय देव...

आरती-3


शेंदुर लाल चढ़ायो अच्छा गजमुखको।
दोंदिल लाल बिराजे सुत गौरिहरको।
हाथ लिए गुडलद्दु साँई सुरवरको।
महिमा कहे न जाय लागत हूँ पादको ॥1॥

जय जय जी गणराज विद्या सुखदाता।
धन्य तुम्हारा दर्शन मेरा मन रमता ॥धृ॥

अष्टौ सिद्धि दासी संकटको बैरि।
विघ्नविनाशन मंगल मूरत अधिकारी।
कोटीसूरजप्रकाश ऐबी छबि तेरी।
गंडस्थलमदमस्तक झूले शशिबिहारि ॥2॥

भावभगत से कोई शरणागत आवे।
संतत संपत सबही भरपूर पावे।
ऐसे तुम महाराज मोको अति भावे।
गोसावीनंदन निशिदिन गुन गावे ॥3॥

आरती-4


घालीन लोटांगण वंदीन चरण।
डोळ्‌यांनी पाहिन रूप तुझे ।
प्रेमें आलिंगीन आनंद पूजन।
भावे ओवाळिन म्हणे नामा॥

त्वमेव माता पिता त्वमेव।
त्वमेव बंधुः सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा।
बुध्यात्मना वा प्रकृति स्वभावत्‌।
करोमि यद्यत्‌ सकलं परस्मै।
नारायणायेती समर्पयामि॥
अच्युतं केशवं राम नारायणम्‌।
कृष्णदामोदरं वासुदेवं भजे।
श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभम्‌।
जानकीनायकं रामचंद्रं भजे॥

आरती-5
जय गणेशाय नमः

प्रारंभी विनती करू गणपती विद्यादयासागरा।
अज्ञानत्व हरोनी बुद्धि मती दे आराध्य मोरेश्वरा
चिंता, क्लेश, दरिद्र दुःख अवघे,

देशांतरा पाठवी।
हेरंबा गणनायका गजमुखा भक्तां बहू तोषवीं॥

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

भगवान गणेश

क्या दो देवता हैं गणेश और गणपति?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रसंग है कि भगवान शिव के विवाह में सबसे पहले गणपति की पूजा हुई थी। यह सुनकर मन में यह जानने कि उत्सुकता होती है कि जब भगवान गणेश शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो उनके विवाह के पहले ही उनकी पूजा कैसे की गई। लोक मान्यताओं में भी गणेश और गणपति को एक देवता के रुप में जाना जाता है। किंतु धर्म ग्रंथ में गणेश और गणपति को अलग-अलग रुप के बारे में बताया गया हैं। जानते हैं अंतर को -

शास्त्रों के अनुसार गणेश का अर्थ है - जगत के सभी प्राणियों का ईश्वर या स्वामी। इसी तरह गणपति का मतलब होता है - गणों यानि देवताओं का मुखिया या रक्षक।
गणपति को शिव, विष्णु की तरह ही स्वयंभु, अजन्मा, अनादि और अनंत यानि जिनका न जन्म हुआ न ही अंत है, माना गया है।
श्री गणेश इन गणपति का ही अवतार हैं। जैसे पुराणों में विष्णु का अवतार राम, कृष्ण, नृसिंह का अवतार बताया गया है। वैसे ही गणपति, गणेश रुप में जन्में और अलग-अलग युगों में अलग-अलग रुपों में पूजित हुए। विनायक, मोरेश्वर, धूम्रकेतु, गजानन कृतयुग, त्रेतायुग में पूजित गणपति के ही रुप है। यही कारण है कि काल अन्तर से श्रीगणेश जन्म की भी अनेक कथाएं हैं।
सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पांच देवों की पूजा लोकप्रिय है। इनमें गणपति पंच देवों में प्रमुख माने गए हैं। इन सब बातों में एक बात साफ है कि गणपति हो या गणेश वास्तव मे दोनों ही शक्ति का नाम है जो हर कार्य मे सिद्ध यानि कुशल और सफल बनाती है।

ऐसा रुप क्यों है गणेश का?

हर धार्मिक कर्म, पूजा, उपासना या शुभ और मंगल कार्यों में स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है। लोक भाषा में यह मंगल का प्रतीक है। लेकिन यहां जानते हैं कि वास्तव में शुभ कार्यों में स्वस्तिक बनाने का क्या कारण है -
दरअसल धार्मिक नजरिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रुप है। इसमें बाएं भाग में गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है।

स्वस्तिक के भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। यह मंत्र है -
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:
स्वस्तिनस्ता रक्षो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पर्तिदधातु
इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है।
इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्रीगणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।

लाईफ बना दे ऐसी गणेश पूजा
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि (इस बार 11 सितंबर) श्री गणेश का जन्मदिन होने से गणपति उपासना का विशेष महत्व है। इस विनायकी चतुर्थी पर भगवान श्री गणेश की प्रसन्नता के पूरी आस्था और श्रद्धा से व्रत, उपवास, पूजा-अर्चना की जाती है। जानते हैं इसी गणेश पूजा की सरल विधि -

- प्रात:काल स्नान एवं नित्यकर्म करें।
- मध्यान्ह के समय शुभ मुहूर्त देखकर अपनी शक्ति के सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान गणेश की प्रतिमा घर, कार्यालय या देवालय में स्थापित करें।
- श्रीगणेश पूजा स्वयं या फिर किसी विद्वान ब्राह्मण से कराएं। जिसमें संकल्प मंत्र के बाद षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। इस पूजन में भगवान श्री गणेश को सोलह प्रकार की पूजन सामग्री अर्पित की जाती है। इनमें धूप, दीप, गंध, पुष्प, अक्षत के साथ विशेष रुप से सिंदूर, दूर्वा, लाल चंदन जरुर चढ़ाना चाहिए।
- पूजा में तुलसी दल भगवान श्री गणेश को नहीं चढ़ाना चाहिए। यह शास्त्रों में वर्जित बताया गया है।
- गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र बोलते हुए 21 दुर्वा-दल चढ़ाएं।
ऊँ गणाधिपायनम:। ऊँ उमापुत्रायनम:।
ऊँ विघ्ननाशायनम:। ऊँ विनायकायनम:।
ऊँ ईशपुत्रायनम:। ऊँ सर्वसिद्धिप्रदायनम:।
ऊँ एकदन्तायनम:। ऊँ इभवक्त्रायनम:।
ऊँ मूषकवाहनायनम:। ऊँ कुमारगुरवेनम:।
- भगवान गणेश का मंत्र ओम गं गणपतये नम: बोलकर भी दुर्वा चढाएं। इस मंत्र का 108 बार जप भी करें।
- गुड़ या बूंदी के 21 लड्डुओं का ही भोग लगाना चाहिए। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाएं और 5 ब्राह्मण को दें। बाकी लड्डू प्रसाद रूप में बांट दें।
- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें। यह स्त्रोत इस साईट पर उपलब्ध है।
- ब्राह्मण भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा भेंट करने के बाद शाम के समय स्वयं भोजन ग्रहण कर सकते हैं। जहां तक संभव हो उपवास करें।
श्री गणेश की पूजा और आरती अगले दस दिनों तक पूरी श्रद्धा, भाव से करें। धार्मिक दृष्टि से श्री गणेश की ऐसी पूजा सभी भौतिक सुख, सफलता देने वाली होती है।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

रक्षा बंधन

रक्षा बंधन भाई बहन के रिश्ते की अलार्म क्लॉक
रक्षाबंधन का यह पर्व आज पूरी दुनिया में मशहूर है। बाजार भी कई तरह के उपहारों से भरा पड़ा है। राखियां भी कई तरह के रंगबिरंगे रंगों से दुकानों में बंदनवार जैसे सजी हुई हैं। बहनें राखी तलाश रही हैं और भाई उपहार खोज रहे हैं। पर एक महत्वपूर्ण चीज जिसे खोजा जाना चाहिए था वह कोई नहीं खोज रहा जबकि असल में वही ज़रूरी है और वह ज़रूरी चीज़ है विश्वास और प्रेम। हम मंहगी राखियों और कीमती उपहारों से ज्यादा कुछ नहीं सोच रहे क्योंकि यह ही हमारे दिमाग में हावी हैं।

विश्वास और प्रेम होता तो क्या कोई भाई अपनी बहन और उसके जीवनसाथी की जान ले सकता था? इज्जत के नाम पर हत्या का जो खेल लगातार चल रहा है वह थम न गया होता? क्या इन भाइयों की कलाई पर राखी नहीं सजी होगी या फिर इन्होंने कीमती उपहार नहीं दिए? सब कुछ हुआ पर विश्वास और प्रेम का रिश्ता न बन सका। रक्षाबंधन का दिन इसी विश्वास और प्रेम को कायम रखने के लिए मनाया जाता है एक तरह से यह भाई-बहन के रिश्ते की अलार्म क्लॉक है। ताकि रिश्ते हमेशा सजग रहें।

धर्म और जाति से परे है रक्षाबंधन
रक्षा बंधन का पर्व भाई और बहन के रिश्ते की डोर में बंधा सुरक्षा कवच है। यह रिश्ता धर्म की सीमाओं से भी परे है। इतिहास गवाह है कि हिंदू,मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी जैसे अलग-अलग धर्मों के बीच भी भाई और बहन के रिश्तों ने जन्म लिया और पूरे जीवनभर निभाया।

दूर-दूर तक फैली है रिश्तों की डोर
यह रिश्ता एक ही कोख से जन्म लेने वाले भाई- बहन के बीच जितना लोकप्रिय है उतना ही लोकप्रिय अंतरजातीय, अंतरदेशीय भाई बहन के बीच भी है। बहुत सारे अंचल ऐसे भी हैं जहां यह रिश्ते परस्पर फूल और मिठाई देकर तय होते हैं और इसे फूल पताना या सहया बनाना कहते हैं फूल माँ, फूल बाबा, फूल भाई, फूल बहन। झारखंड में इस तरह के रिश्तों का रिवाज है और यह रिश्ते हर पीढ़ी को निभाने होते हैं और लोग बहुत प्रेम के साथ यह रिश्ते निभाते हैं। फूल मां और फूल बहन के रिश्ते ऐसे गांवों में ज्यादा हैं,जहां अलग -अलग जातियों के लोग रहते हैं। रक्षाबंधन से लेकर शादी तक में रस्में निभाई जाती हैं। इस तरह से रिश्तों की यह बनावट हमारे समाज को मजबूत करती है और सांस्कृतिक विकास भी करती हैं।

फिल्मों से लेकर सीरियल तक में है रक्षाबंधन का त्योहार
इस थीम पर बनी फिल्में भी सुपरहिट रही। इन फिल्मों के गाने आज भी रक्षाबंधन के दिन एफएम से लेकर टीवी तक में देखे सुने जा सकते हैं। समय के साथ यह गाने अन्य गानों की तरह बासी नहीं हुए बल्कि आज भी इन गानों को सुनकर रिश्तों की मिठास का अनुभव होता है। इसकी वजह साफ हैं क्योंकि भाई-बहन के रिश्ते में किसी तीसरे की घुसपैठ की संभावना नहीं रहती। टीवी सीरियलों में भी भाई -बहन की जोड़ी यह त्योहार मनाती है।

भाई-बहन की जोड़ी आदर्श
परिवार की पूर्णता के लिए अभी भी भाई-बहन की जोड़ी आदर्श मानी जाती है। पहली बेटी है तो अभी भी लोग आर्शीवाद देते समय कहते हैं अब तो भाई आना चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि भाई और बहन की जोड़ी समाज में परिवार की संपूर्णता के रूप में देखी जाती है। राखी के दिन बहन भी अपने भाई को उपहार
देती है।

मौन भी हो जाते हैं रिश्ते
आज से कुछ समय पहले रिश्तों में एक अजीब सा ठहराव आ गया था। मन की दूरियां भी बढ़ने लगी थी इसकी वजह यह थी कि आपस में संवाद नहीं हो पाता था। संवाद के साधनों में सिर्फ डाक सेवा थी टेलीफोन भी सबके घरों में नहीं थे। चिट्ठी में कितना लिख सकते हैं और उसके पहुंचने में भी समय लगता था। फिर भी उसका आसरा था। घर से दूर गया भाई एक ही चिट्ठी में सबको लिखता था। पर्सनल स्पेस कम था। पढ़ाई-लिखाई के लिए या फिर नौकरी के लिए निकला भाई काम में इतना व्यस्त हो जाता था कि उसे फुर्सत ही नहीं मिल पाती थी । यही वजह थी कि रिश्तों में दूरियां थी।

तकनीक ने दिए रिश्तों को बोल
उदारीकरण के बाद बदलाव आया। नई तकनीकि का विकास जोर शोर से शुरू हुआ लोगों के पास पैसा भी आया । हर किसी के घर में फोन में घंटियां बजने लगीं। इतना ही नहीं मोबाइल भी लोगों के हाथ में दिखाई देने लगे। शुरू में यह बहुत मंहगे थे पर धीरे-धीरे यह सस्ते हो गए और हर किसी के हाथ में आ गए। इसी के साथ कंप्यूटर की दुनिया में भी सभी का दखल होने लगा। छोटे से लेकर बड़े शहरों में कंप्यूटर सिखाने वाले इंस्टीटय़ूट दिखाई देने लगे और इस तरह संवाद के रास्ते भी खुल गए। रिश्ते मन के और करीब आ गए। फेस बुक, ट्विटर, ई-मेल ने रिश्तों का विकास किया।

बहनें करती हैं भाइयों के सपने पूरे
बहुत बार जिंदगी में ऐसे भी मोड़ आते हैं,जो असहनीय होते हैं रिश्तों की डोर टूट जाती है। काम अधूरे रह जाते हैं। ऐसे में बहनें अपने भाई के द्वारा शुरू किए गए कार्यों को मंजिल तक पहुंचाती हैं। वह डॉक्टर बनती है, आईएएस बनती है। पर हर हाल में भाई का सपना पूरा करती हैं।

बहनें बहनें भी बांधती हैं राखियां
अपने ही बारे में बताती हूं। हम दो बहनें है। भाई की मृत्यु एक्सीडेंट से हो गई। एक्सीडेंट के बाद जब उसे अस्पताल ले जाया गया डॉक्टर ने केस हेंडिल करने में काफी समय लगा दिया। इससे उसका काफी खून बह गया और वह बच नहीं सका। मेरी दीदी तब बहुत ही छोटी थी और उसके लिए यह एक ऐसा घाव था जो कभी नहीं भर सकता था। उसके दिमाग में यह बात बैठ गई कि अगर डॉक्टर ने समय रहते उसे देख लिया होता तो मेरा भाई जिंदा रहता। उस छोटी सी बच्चाी ने उसी दिन खुद से वादा किया कि मैं बड़ी होकर डॉक्टर बनूंगी और मरीजों की सेवा करूंगी। आज वह डॉक्टर है और मरीजो ं की सेवा में जी-जान से जुटी है। मैं अपनी इसी दीदी को राखी बांधती हूं। क्योंकि मेरे लिए तो भाई भी वही है और दीदी भी।

मुनाफा नहीं है रिश्ता
भाई-बहन का रिश्ता मुनाफा नहीं है। रक्षाबंधन का पर्व प्रेम और सद्भावना का है पर हमने इसे मुनाफे से जोड़ दिया है। राखी के गिफ्ट ज्यादा पापुलर हो रहे हैं। और यह गिफ्ट भी काफी मंहगें हैं। रिश्तों में बाजार इस कदर हावी है कि रिश्ते का अर्थ उपहार की कीमत से देखा जा रहा है। बहनों को भी सोसायटी फोबिया है और वह भाई के उपहार को अपना स्टेटस सिंबल बना रही हैं। भाई की कुशल क्षेम पूछने के बजाए दोस्तों को इस बात को जानने की इच्छा होती है कि गिफ्ट क्या मिला? बहन की खुशी गिफ्ट के डिब्बे में कैद हो गई हैं। बाजार महिला के इसी मनोविज्ञान को भुना रहा है और काफी हद तक सफल भी है।

एहसान

काबिले-ग़ौर है अंग्रेजी का औरतों पर एहसान
जाहिदा हिना
दा पुरानी नहीं, बस सदी-सवा सदी पुरानी बात है, जब हमारे उपमहाद्वीप में क्या हिंदू, क्या मुस्लिम दोनों ही समाजों में लड़कियों की शिक्षा को बहुत बुरा समझा जाता था। कुछ लोगों का ख़्याल था कि लड़कियां पढ़-लिख कर बिगड़ जाएंगी।

अंग्रेजी राज से लाख शिकायतों के बावजूद, हमारे उपमहाद्वीप की हिंदू और मुस्लिम औरतों पर उनका एहसान है कि उन्होंने उनकी तालीम पर जार दिया। 1787 में मद्रास के गवर्नर की बीवी लेडी कैंबल ने हिंदुस्तानी लड़कियों के लिए पहला स्कूल शुरू किया और फिर यह बात इतनी आगे बढ़ी कि राजा राममोहन राय, शेख़ अब्दुल्ला, मौलवी मुमताज अली और दूसरे कई लोगों ने लड़कियों की शिक्षा को फैलाने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

उस समय क्या हिंदू और क्या मुस्लिम दोनों ही तरफ़ के रूढ़िवादी लोगों की ओर से यह कहा जाता था कि लड़कियों की अंग्रेजी शिक्षा एक बुराई है, जो अंग्रेजी ने फैलाई है और जिसका मक़सद दोनों समाजों की लड़कियों का धर्म भ्रष्ट करना है। यह बुराई हमारे समाज में इस तेजी से फैली कि देखते ही देखते सिर्फ़ साहित्य के ही क्षेत्र में रुकैया सख़ावत हसमैन, सरोजिनी नायडू, शाइस्ता इकराम उल्लाह, कुर्रतुलऐन हैदर और आज की नस्ल की अरुंधति राय जैसी मशहूर लेखिकाएं पैदा हुईं, जिनका अंग्रेजी दुनिया में भी नाम है।

एक तरफ़ उपमहाद्वीप की औरतों की साहित्य के क्षेत्र में यह सफलता, दूसरी तरफ़ सियासत है, तो इसमें विजय-लक्ष्मी पंडित, इंदिरा गांधी, मिसेज बेनÊाीर भुट्टो के नाम सारी दुनिया में मशहूर हैं। इस व़क्त पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों मुल्कों की स्पीकर महिलाएं ही हैं।

इन सब बातों को देखते हुए इन उग्रवादियों और दहशतगर्दी पर हैरत होती है, जो पिछले आठ-दस वर्षो से पाकिस्तानी लड़कियों की तालीम के पीछे पड़े हुए हैं। स्वात, पेशावर और कई स्थानों पर अब तक लड़कियों के छह-सात सौ स्कूल बमों से उड़ाए जा चुके हैं या जला कर राख किए जा चुके हैं। बाज इलाकों में लोगों ने लड़कियों के स्कूल दोबारा बनाए, तो उन्हें फिर से तबाह कर दिया गया। बहुत से इलाक़ों से पढ़ने वाली औरतों के घरों पर ख़त भेजे गए कि अगर उन्होंने घर से बाहर क़दम निकाला, तो क़त्ल कर दिया जाएगा, उनके चेहरों पर तेजाब फेंक दिया जाएगा। और ऐसा करके दिखाया भी। इसके बावजूद पाकिस्तानी लड़कियां पढ़ रही हैं, पाकिस्तानी औरतें पढ़ रही हैं।

जहां स्कूल दोबारा से नहीं बनाए जा सके, वहां खेमों (तंबू) में कई बड़े घरों में या खुले आसमान के नीचे पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला जारी है। पाकिस्तानी लड़कियों में तालीम के शौक़ का अंदाÊा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज से नहीं साल दर साल से स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में टॉप करती हैं, गोल्ड मैडल और छात्रवृत्तियां लेती हैं, जबकि उनमें से 90 प्रतिशत लड़कियां घर के काम भी करती हैं और उन्हें ऐसी बहुत सी सुविधाएं हासिल नहीं हैं, जो हमारे यहां आमतौर पर, लड़कों को उनका हक़ समझ कर दी जाती हैं।

चंद ह़फ्तों पहले कराची में मैट्रिक साइंस का रिजल्ट आया है। इस इम्तिहान में 68 हजार लड़कों और 53 हजार लड़कियों ने हिस्सा लिया था। इनमें टॉप करने वाली तीनों लड़कियां थीं। 6500 लड़कियों ने ए-1 ग्रेड लिया है, जबकि ए ग्रेड लेने वाले लड़कों की तादाद 4000 थी। मैट्रिक ह्यूमनिटीज का रिजल्ट भी आया है। इसमें भी लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से बेहतर रहा है। इसी तरह लाहौर ग्राम स्कूल की लड़कियों ने नासा से जुड़े जॉनसन स्पेस सेंटर की तरफ़ से होने वाले मुक़ाबले में हिस्सा लिया।

यह मुक़ाबला अंतरिक्ष में इंसानी बस्तियां बनाने की डिजाइन बनाने का था और इस मुक़ाबले में क्वालिफाई करने के लिए हिंदुस्तान में एशियन रीजनल मुक़ाबला हुआ था। जनवरी 2010 में हिंदुस्तान के शहर गुड़गांव में एशिया की 33 टीमों ने इस प्रतियोगिता में भाग लिया था, जिनमें से 15 टीमें हिंदुस्तान और पाकिस्तान की थीं। इसका वर्णन बहुत विस्तृत है, इसीलिए इसमें जाने की बजाय मैं आपको यह बताना चाहती हूं कि इसमें पाकिस्तानी लड़कियों ने कामयाबी हासिल की और उनके बनाई हुई डिजाइन विशेष रूप से स्वीकृत किए गए।

इससे आप पाकिस्तानी लड़कियों और औरतों में तालीम के साथ-साथ साइंस और टेक्नोलॉजी के क्षेत्रों में आगे बढ़ने की ख्वाहिश का अंदाज लगा सकते हैं। उधर, लोग अभी कराची से इस्लामाबाद जाने वाली एयर बस के क्रैश का ही शोक माना रहे थे कि इस हादसे के बारे में दर्जनों अफ़वाहों का बाजार गर्म था कि हमारे दरिया गजबनाक हो कर उबल पड़े, बाढ़ हर साल आती है। इससे तबाही भी होती है, लेकिन इस रिकॉर्ड के साथ ही बहुत से बांध भी टूट गए, सैकड़ों, देहात और दर्जनों बड़े क़स्बों और छोटे शहरों को पानी अपने साथ बहा कर ले गया।

सरकार यह कहती है कि अब तक बाढ़ से 25 लाख लोग बेघर हो चुके हैं। दो हजार से Êयादा लोगों की मौत हो चुकी है। लोग कहते हैं कि मरने और बेघर होने वालों की सही तादाद इससे कहीं जयादा है। आफ़त ने पिछले सात दिनों से कराची को घेर लिया है, शहर में बलवाई गोलियां बरसते घूम रहे हैं। प्रोविंशियल एसेंबली के एक मेंबर के क़त्ल के बाद पिछले दिनों में 50 लोग मार दिए गए। पब्लिक ट्रांसपोर्ट सड़कों से ग़ायब हैं। मैं जहां रहती हूं, वहां बलवे का इतना जार है कि इन फ्लैटों के दरवाजे पर लोग मारे गए और दो रातों से सिर्फ़ गोलियां चलने की आवाजे सुनाई दे रही हैं।
ई-1, जुनैद प्लाजा, राशिद मिन्हास रोड, गुलशन-ए-इक़बाल, ब्लॉक-6, कराची-75300 (पाकिस्तान)

सोमवार, 5 जुलाई 2010

प्रेरक व्यक्तित्व

हँसते-हँसते फाँसी चढ़ गए बांठिया

भारत को आजादी यूँ ही नहीं मिली। इसके लिए कई लोगों ने अपनी कुरबानी दी थी, तब जाकर हिन्दुस्तान स्वतंत्र हुआ। इन महानायकों की अपनी विशेष भूमिका रही। ग्वालियर के ऐसे ही महानायक शहीद अमरचंद बांठिया ने अपना जीवन मातृभूमि के नाम समर्पित करते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को अपने गले से लगा लिया। २२ जून को उनका बलिदान दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर कई कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं, पर जरूरत है इन कार्यक्रमों के साथ-साथ उन्हें सच्चे दिल से याद करने की।
कौन थे शहीद बांठिया
राजस्थान की राजपूतानी शौर्य भूमि में बीकानेर में शहीद अमरचंद बांठिया का जन्म 1793 में हुआ था। देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा शुरू से ही उनमें था। बाल्यकाल से ही अपने कार्यों से उन्होंने साबित कर दिया था कि देश की आन-बान और शान के लिए कुछ भी कर गुजरना है।
इतिहास में स्व. अमरचंद के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती, लेकिन कहा जाता है कि पिता के व्यावसायिक घाटे ने बांठिया परिवार को राजस्थान से ग्वालियर कूच करने के लिए मजबूर कर दिया और यह परिवार सराफा बाजार में आकर बस गया। तत्कालीन ग्वालियर रियासत के महाराज ने उन्हें उनकी कीर्ति से प्रभावित होकर राजकोष का कोषाध्यक्ष बना दिया।
सन १८५७ के विद्रोह ने देश की चारों दिशाओं में विप्लव की चिंगारी पैदा कर दी थी। भारतीय सैनिकों के लिए आर्थिक संकट की घड़ी पैदा होने के कारण कोई तत्कालीन हल नजर नहीं आ रहा था। ऐसे समय शहीद बांठिया ने भामाशाह बनकर सैनिकों और क्रांतिकारियों के लिए पूरा राजकोष खोल दिया। यह धनराशि उन्होंने ८ जून १८५८ को उपलब्ध कराई। उनकी मदद के बल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई दुश्मनों के छक्के छु़ड़ाने में सफल रहीं, लेकिन अँगरेज सरकार ने बांठिया के कृत्य को राजद्रोह माना और वीरांगना के शहीद होने के चार दिन बाद अमरचंद बांठिया को राजद्रोह के अपराध में सराफा में नीम के पेड़ पर फाँसी दे दी। अँगरेजों ने भले ही उन्हें फाँसी पर लटका दिया हो, पर उनका कार्य और शहाद‍त हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।
अब आधा ही बचा नीम का पेड़
सराफा बाजार में जिस नीम के पेड़ पर अमर शहीद को फांसी दी गई थी, उसे कुछ लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते कुछ वर्षों पूर्व आधा कटवा दिया था, जिस वजह से ये पेड़ अब ठूँठ के रूप में आधा ही रह गया है।

कहानी

बँटवारे का चक्कर
एक जंगल में एक सियार अपनी पत्नी के साथ रहता था। एक दिन उसकी पत्नी को ताजी मछली खाने की तीव्र इच्छा हुई। सियार अपनी पत्नी से वादा कर नदी किनारे पहुँचा, ताकि मछलियों का कुछ जुगाड़ किया जा सके। वह बहुत देर तक वहाँ मछलियों की तलाश करता रहा पर उसे कुछ दिखलाई नहीं पड़ा।

तभी उसने वहाँ देखा कि दो ऊदबिलाव एक बड़ी मछली को नदी में से खींचकर बाहर ला रहे हैं। वह ऊदबिलावों के पास पहुँचा और उसने कहा- मित्रों, तुम दोनों ने मिलकर यह मछली पकड़ तो ली है, परंतु इसका बँटवारा तुम कैसे करोगे? ज्यादा अच्छा हो यदि तुम किसी तीसरे से इसका बँटवारा करवाओ।

दोनों ऊदबिलावों को यह बात जम गई। आसपास कोई तीसरा था नहीं, लिहाजा उन्होंने सियार से ही बँटवारा करने को कहा। सियार तो पहले से ही इस बात की फिराक में था कि किसी तरह इन दोनों को मूर्ख बनाकर बँटवारे का मामला जमा दिया जाए। खैर सियार ने मछली के तीन हिस्से किए। सिर एक ऊदबिलाव को दिया। पूँछ दूसरे को। बीच का पूरा हिस्सा लेकर वह अपने घर की ओर चलने लगा। ऊदबिलावों ने उसे रोका और पूछा- अरे, ये क्या करते हो? तुम तो मछली का बँटवारा हम दोनों में कर रहे थे।

सियार ने जवाब दिया- मूर्खों, तुम दोनों को बराबर का हिस्सा मिल चुका है। यह जो मैं ले जा रहा हूँ, वह तो मेरा मेहनताना है। यह कह कर वह मछली के बड़े हिस्से को लेकर चला गया। ऊदबिलावों ने अपना सिर धुन लिया।

अगर वे बँटवारे के चक्कर में न पड़ते तो उन्हें मछली का सारा हिस्सा मिलता और इस तरह सियार मछली को हड़प नहीं भी नहीं पाता । तब दोनों ने तय किया कि भविष्य में वे किसी भी तीसरे के चक्कर में नहीं आएँगे।

सुरक्षा

कैसे करें छोटे कीड़ों से बचाव
इन दिनों कीड़े जो दिखाई नहीं देते वे भी शरीर को नुकसान पहुँचाते हैं। खुजली, सूजन और एलर्जी इन्हीं की देन है। ये अधिकतर नमी और गरम स्थानों पर डेरा डाले रहते हैं। इनसे बचने के लिए :
1. घर में धूल न जमने दें।
2. घर के हर कोने की नियमित सफाई करें।
3. बेडशीट, तकिए, गद्दे आदि को झटककर साफ करते रहें।
4. पायरेथ्रिन स्प्रे या पावडर छिड़कने से भी इनसे निजात मिल सकती है।
5. पालतू जानवरों को शैम्पू करने के बाद ही कमरों में लाएँ।
6. बिस्तर इस मौसम में नम हो जाते हैं इसलिए जैसे ही धूप निकले बिस्तर को धूप में रखें।

जीवन के रंगमंच से ...

बंद करो, यह बंद...!
स्मृति जोशी
बंद, यानी सब कुछ बंद। सब शांत और सड़कों पर पसरा सन्नाटा। मगर यह क्या? यह कैसा बंद है? बंद, जिसमें सब चल रहा है। सब बढ़ रहा है। बंद, जिसमें हिंसा चल रही है। बंद, जिसमें परेशानी बढ़ रही है। इस बंद में इतना शोर है, डर और आतंक है तो फिर यह कैसा बंद है? आज महँगाई के विरोध में भारत बंद का आह्वान है। हर छोटे-बड़े शहरों में बंद का असर देखा जा रहा है। जो बंद नहीं है उसे करवाया जा रहा है।
सवाल यह है कि किसी बात के विरोध का यह तरीका अगर स्वीकार्य है तो सिर्फ और सिर्फ इस शर्त पर कि सब कुछ शांतिपूर्ण और अनुशासन में होगा। लेकिन देश भर में ऐसे बंद कैसे और किस प्लानिंग के साथ अंजाम दिए जाते हैं यह हम जानते हैं। लेकिन बेबस हैं हम। यह बंद आखिर हमारे लिए ही तो हो रहा है।

इस बंद में जिस तरह की तस्वीरें सामने आ रही है, वह निहायत ही शर्मनाक है। ट्रेन और बस से उतरते यात्रियों के साथ बिना बात की मारपीट और बदतमीजी! आखिर किसने इन बंद समर्थकों को यह हक दिया कि सरेआम किसी के साथ अशोभनीय-असम्मानजनक व्यवहार करें? निहत्थे और निर्दोष यात्री कुछ समझे-संभले उससे पहले चाँटों की बरसात! कितना भद्दा लगता है यह सोचकर कि हमारे अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं। हमारी अपनी कोई इच्छा या जरूरत नहीं। हमारी अपनी कोई जिंदगी नहीं। हमें जो भी करना है किसी और के द्वारा रचे गए सत्ता के घिनौने खेल को देखते हुए करना है। यह कैसे शुभचिंतक हैं हमारे जो हमारे हक के लिए लड़ रहे हैं लेकिन हमसे ही लड़ रहे हैं। हमें ही पीट रहे हैं। बसों में तोड़फोड़, आगजनी, हाथापाई? ये कैसी असभ्यता पर उतर आते हैं तथाकथित 'सामाजिक' लोग?

बंद में जो वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं वह हैं यात्री। जिनकी ना जाने कौन-सी ऐसी मजबूरी थी कि घर से निकलना ही पड़ा है। हम नहीं समझते ऐसी किसी भी मजबूरी को। संवेदनशीलता के स्तर पर हमारी सोच वहाँ तक पहुँचती ही नहीं है जहाँ तक पहुँचना मानवीय होने की पहली शर्त है। परेशान होने वाले अन्य वर्ग में शामिल होते हैं महिलाएँ, बच्चे और मरीज।

बार-बार कहें और बार-बार लिखें, तब भी मानसिक रूप से लाचार उपद्रवी वर्ग को यह बात कभी समझ में नहीं आती कि शासन करने के लिए दबाव से दिलों में जगह नहीं बनाई जा सकती। सामान्य-जन के दिलों में स्थान बनाने के लिए उन्हें सम्मान और सुरक्षा की दरकार है। अगर महँगाई को कम करने की माँग के लिए हल्की हरकतें की जाती हैं तो बेहतर है कि महँगाई बनी रहे लेकिन सभ्यता सस्ती ना हो, संस्कार सस्ते ना हो और कानून सस्ता ना हो। 'बंद' अगर इतना 'खुला' है गलत गतिविधियों के लिए, तो बंद करो यह 'बंद'...!

देसी गर्ल

रोशनी चोपड़ा बनी देसी गर्ल

‘देसी गर्ल’ की विजेता का नाम घोषित होने से पहले कश्मीरा शाह का दावा सबसे मजबूत माना जा रहा था। दूसरा नाम इशिता अरुणा का था। तीसरी फाइनलिस्ट रोशनी चोपड़ा को कमजोर प्रतिद्वंद्वी कहा जा रहा था, लेकिन जो परिणाम घोषित हुआ उससे सब चौंक गए। रोशनी चोपड़ा ने ‘देसी गर्ल’ का खिताब अपने नाम कर लिया।
चंडीगढ़ के निकट सियाल्बा माजरी नामक गाँव में आठ लड़कियों ने ग्रामीण जिंदगी जी। चूल्हे पर खाना पकाया, गोबर उठाया, भैंसों को नहलाया और वो सभी काम किए जो गाँव में रहने वाली लड़की करती है। लेकिन लोगों का दिल जीतने में रोशनी कामयाब रहीं।
30 वर्षीय रोशनी को सियाल्बा माजरी के लोगों के अलावा पूरे भारत से सर्वाधिक वोट मिले।

सोनम कपूर

एक हीरोइन बहन-बेटी जैसी
अनिल कपूर की बेटी सोनम क्या कभी कोई बोल्ड भूमिका करेंगी? बोल्ड कपड़े पहनेंगी? बोल्ड संवाद अदा करेंगी? पर्दे पर वे हीरोइन कम और भले घर की बहन-बेटी अधिक जान पड़ती हैं। जाहिर है निर्देशकों को निर्देश रहते हैं कि सोनम पर कैमरा बहन-बेटी वाली नजर से घूमे। अभी तक सोनम की तीन फिल्में आई हैं और तीनों में सोनम बहन-बेटी ही लगी हैं। दर्शकों के अचेतन में यह बात बजती रहती है कि यह लड़की अनिल कपूर की बेटी है।

लड़कियों के प्रति फिल्म इंडस्ट्री का यह दोहरा रवैया है। जो लड़की किसी बड़े आदमी की बहन-बेटी नहीं है, उसे कैमरा गरीब की जोरू की तरह बेवजह यहाँ-वहाँ से घूरकर देखता है। मगर बड़े आदमी की बेटी सामने आते ही कैमरे की नजर पैरों के ऊपर नहीं जाती। यह गलत रवैया है। इस तरह के रवैए के साथ बड़े आदमी की बहन-बेटी दो-चार फिल्में तो कर सकती हैं, ज्यादा नहीं।

करिश्मा कपूर ने अपनी पहली ही फिल्म में बिकनी पहनी थी। करीना अपने बदन को अपनी मर्जी से ढँकती-उघाड़ती हैं। जहाँ जरूरी समझती हैं, वहाँ पीछे नहीं रहतीं और जहाँ जरूरी न हो, वहाँ उनसे कहने की किसी में हिम्मत भी नहीं है।

सोहा अली खान कुछ समय तक शर्मिला की बेटी और सैफ की बहन बनकर रहीं मगर हाल ही में आई एक फिल्म में उन्होंने चुंबन दृश्य भी दिए हैं। राजेश खन्ना की बेटी ट्विंकल और रिंकी खन्ना ने भी जितनी फिल्में की उनमें कहीं भी यह नहीं था कि ये हीरो-हीरोइन की बेटियाँ हैं। खुद काजोल की अपनी इतनी बड़ी पहचान बनी कि लोग उन्हें तनुजा की बेटी के रूप में याद नहीं करते।

कई लड़कियाँ आती हैं और वे सोचती हैं कि कैमरे के सामने कम कपड़ों में पेश होने से कामयाबी मिल जाएगी। अगर अंग-प्रदर्शन कामयाबी की जमानत नहीं है, तो बहनजी टाइप रहने से भी कामयाबी मिलेगी इसमें शक है।

कैमरे के सामने जब कोई लड़की हो, तो उसे यह भूल जाना चाहिए कि वह किसकी बेटी है, या किसकी बेटी नहीं है। वहाँ तो रोल के मुताबिक ही पोशाक और हाव-भाव होने चाहिए।

सोनम कपूर को देखकर एक किस्म की उलझन होती है। यह उलझन निर्देशक द्वारा बरते गए उस लिहाज से पैदा होती है जिसके तहत वे अनिल कपूर की बेटी को कपूर की टिकिया की तरह ढँककर, लपेटकर पेश करते हैं। हवा लगने से कपूर उड़ सकता है सोनम कपूर नहीं। आधुनिक कपड़े भी सोनम को पहनाए जाते हैं, तो यह ध्यान रखा जाता है कि "बेबी" वल्गर न लगे।

फिल्म "आई हेट लव स्टोरीज" में नायक के लिए दैहिक-संबंध कोई मायने नहीं रखते, मगर वह नायिका को पूजनीय ही बनाए रखता है। उसके साथ चुंबन तक की स्वतंत्रता नहीं लेता। सोनम कपूर इस तरह तो बहुत देर तक नहीं चल पाएगी। फिल्म इंडस्ट्री उन्हें अनिल कपूर की बेटी समझकर हमेशा लिहाज कर सकती है, पर दर्शक नहीं।

कुछ दिन बाद दर्शक सोनम कपूर का नाम सुनते ही अंदाजा लगा लेंगे कि उनका रोल किस तरह का होगा। यह सोनम कपूर के लिए भी खतरनाक है और उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले अन्य लोगों के लिए भी।

मंगलवार, 29 जून 2010

कहानी

पूजा किसे कहें!

नीना अग्रवाल

उन्होंने स्कार्पियो से उतर मंदिर में प्रवेश किया, शिव जी को जल चढ़ाया, फिर बारी-बारी से सभी देवी-देवताओं के सामने नतमस्तक होती रही। हम भी वहीं विधिवत पूजा अर्चना कर रहे थे। हमने सभी मूर्तियों के सामने दस-दस के नोट चढ़ाए, दान-पात्र में पचास रुपए का करारा नोट डाला। इन सौ-सवा सौ रुपए के बदले प्रभु से अ‍नगिनत बार मिन्नतें कीं। पति की कमाई में दोगुनी बढ़ोतरी करें, बेटे की नौकरी लग जाए, बेटी की शादी किसी धनाढ्‍य खानदान में हो जाए। उधर हमारा ध्यान उन प्रौढ़ भक्त पर भी था जिन्होंने अभी तक प्रभु के चरणों में एक रुपया भी नहीं चढ़ाया था।

हमने सगर्व एक पचास रुपए का नोट पंडितजी को चरण स्पर्श करके दिया और प्रदर्शित किया, पूजा इसे कहते हैं। हम दोनों पूजा के बाद साथ ही मंदिर के बाहर निकले, हमें मंदिर के द्वार पर एक परिचित मिल गईं। हम उनसे बातें करने लगे मगर हमारा ध्यान उन्हीं कंजूस भक्तों पर रहा।

उधर उन्होंने अपनी गाड़ी से एक बड़ी सी डलिया निकाली, जिसमें से ताजा बने भोजन की भीनी-भीनी महक आ रही थी। वो मंदिर के बगल में बने आदिवासी आश्रम में गईं। तब तक हमारी परिचित जा चुकी थीं। अब वो प्रौढ़ा हमारे लिए जिज्ञासा का विषय बन गईं। हम आगे बढ़कर उनकी जासूसी करने लगे।

उन्होंने स्वयं अपने हाथों से पत्तलें बिछानी शुरू कीं, बच्चे हाथ धोकर टाट-पट्टी पर बैठने लगे। वो बड़े चाव से आलू-गोभी की सब्जी व गरमागरम पराठे उन मनुष्यमात्र में विद्यमान ईश्वर को परोस रही थीं। वाह रे मेरा अहंकार! हम इस भोली पवित्र मानसिकता में भक्ति को पनपी देख सोचने लगे, पूजा किसे कहते हैं।

प्रेरक व्यक्तित्व

उन्हें एक राष्ट्र के दो झंडे स्वीकार नहीं थे
बंगाल ने कितने ही क्रांतिकारियों को जन्म दिया है। स्व. डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी इसी पावन बंगभूमि से पैदा हुए थे। 6 जुलाई, 1901 को उनका जन्म एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके पिता आशुतोष बाबू अपने जमाने ख्यात शिक्षाविद् थे।

अभी केवल जीवन के आधे ही क्षण व्यतीत हो पाए थे कि हमारी भारतीय संस्कृति के नक्षत्र अखिल भारतीय जनसंघ के संस्थापक तथा राजनीति व शिक्षा के क्षेत्र में सुविख्यात डॉ. मुखर्जी की 23 जून, 1953 को मृत्यु की घोषणा की गईं। यह क्या वास्तविक मौत थी या कोई साजिश? बरसों बाद भी ये राज, राज ही रहा। डॉ. मुखर्जी ने अपनी प्रतिभा से समाज को चमत्कृत कर दिया था। महानता के सभी गुण उन्हें विरासत में मिले थे।
22 वर्ष की आयु में आपने एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा उसी वर्ष आपका विवाह भी सुधादेवी से हुआ। बाद में उनसे आपको दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। आप 24 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्य बने। आपका ध्यान गणित की ओर विशेष था। इसके अध्ययन के लिए वे विदेश गए तथा वहाँ पर लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी ने आपको सम्मानित सदस्य बनाया। वहाँ से लौटने के बाद आप वकालत तथा विश्वविद्यालय की सेवा में कार्यरत हो गए।
आपने कर्मक्षेत्र के रूप में 1939 से राजनीति में भाग लिया और आजीवन इसी में लगे रहे। आपने गाँधीजी व कांग्रेस की नीति का विरोध किया, जिससे हिन्दुओं को हानि उठानी पड़ी थी। एक बार आपने कहा-"वह दिन दूर नहीं जब गाँधीजी की अहिंसावादी नीति के अंधानुसरण के फलस्वरूप समूचा बंगाल पाकिस्तान का अधिकार क्षेत्र बन जाएगा।" आपने नेहरूजी और गाँधीजी की तुष्टिकरण की नीति का सदैव खुलकर विरोध किया। यही कारण था कि आपको संकुचित सांप्रदायिक विचार का द्योतक समझा जाने लगा।
अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में एक गैर-कांग्रेसी मंत्री के रूप में आपने वित्त मंत्रालय का काम संभाला। आपने चितरंजन में रेल इंजन का कारखाना, विशाखापट्टनम में जहाज बनाने का कारखाना एवं बिहार में खाद का कारखाने स्थापित करवाए। आपके सहयोग से ही हैदराबाद निजाम को भारत में विलीन होना पड़ा।
1950 में भारत की दशा दयनीय थी। इससे आपके मन को गहरा आघात लगा। आपसे यह देखा न गया और भारत सरकार की अहिंसावादी नीति के फलस्वरूप मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर संसद में विरोधी पक्ष की भूमिका का निर्वाह करने लगे। एक ही देश में दो झंडे और दो निशान भी आपको स्वीकार नहीं थे। अतः काश्मीर का भारत में विलय के लिए आपने प्रयत्न प्रारंभ कर दिए। इसके लिए आपने जम्मू की प्रजा परिषद पार्टी के साथ मिलकर आंदोलन छेड़ दिया।
अटलबिहारी वाजपेयी (तत्कालीन विदेश मंत्री), वैद्य गुरुदत्त, डॉ. बर्मन और टेकचंद आदि को लेकर आपने 8 मई 1953 को जम्मू के लिए कूच किया। सीमा प्रवेश के बाद आपको जम्मू-काश्मीर सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। 40 दिन तक आप जेल में बंद रहे और 23 जून 1953 को जेल में आपकी रहस्यमय ढंग से मृत्यु हो गई।

क्या तुम जानते हो?

सलाम, टा-टा, बाय-बाय
विश्व की सभी सभ्यताओं में शिष्टाचार और विनम्र व्यवहार को बहुत महत्व दिया गया है। हर देश के प्राचीन इतिहास में 'छोटों द्वारा बड़ों को सलाम' करने की परंपरा रही है। प्राचीन राजाओं के दरबारों में 'सलाम पेश' करने के अलग-अलग तरीके थे। एक तरीका था - दूर से ही कमर झुकाकर दाहिने हाथ से बार-बार सलाम करते हुए बादशाह के साने आने का था।
एक तरीका घुटनों के बल चलकर या सामने बैठकर सलाम पेश करने का था। कई दरबारों में खासकर अँगरेजों के यहाँ टोपी, पगड़ी या साफा उतारकर सलाम पेश किया जाता था। गरीब जनता, हिंदुस्तान में हाथों को जोड़कर विनम्र भाव से सलाम करती है। जब समान हस्ती वाले बादशाह या राजा मिलते थे तो वे अपने देश में प्रचलित सलाम या अभिवादन का वह तरीका अपनाते थे जो उनकी गरिमा वाले लोगों के लिए उस देश में संवैधानिक रूप से स्वीकृत होता था।
आजकल एक देश का राज्याध्यक्ष दूसरे राज्याध्यक्ष से मिलने जाता है तो उसके लिए दोनों देश के अधिकार पहले से मिलकर अभिवादन से लेकर विदा तक के शिष्टाचार संबंधी प्रचलित नियमों की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं और फिर राज्याध्यक्ष के दौरे के दौरान दोनों देश उनके अनुसार व्यवहार करते हैं। आज शिष्टाचार सामाजिक-राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग बन गया है।
विश्व की सभी सभ्यताओं में शिष्टाचार का एक अन्य शब्द है - थैंक यू या धन्यवाद। अँगरेजी में थैंक्स शब्द उसी स्रोत से निकला है जिससे जर्मन का शब्द 'डॉके' निकला है और दोनों शब्दों का एक ही स्रोत खोजा जाए तो अंतत: दोनों ही प्रोटोमर्जिक शब्द 'थैंकोजान' से निकलते हैं। वास्तव में 'थैंक' करना 'थिंक' शब्द से जुड़ा है। ऐसा लगता है कि इसका स्रोत भी सरलतम तरीका है। जब भी हम किसी से सेवा, मदद या सहायता लेते हैं तो हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम उसका 'थैंक्स' अदा करें। सभ्यता का यह नियम इतना अच्छा माना गया है कि विश्व का शायद ही ऐसा कोई देश हो जहाँ इसका वहाँ की भाषा में 'पर्यायवाची' शब्द का प्रयोग न होता हो। यह भी उल्लेखनीय है कि 'आभार न मानना' किसी भी सभ्यता में धृष्टता माना जाता है। उर्दू में 'शुक्रिया', 'शुक्र गुजार, कृतज्ञ का विलोम है 'नाशुक्रा' (शुक्रिया अदा न करने वाला)। 'शुक्राने की नमाज' पढ़ने का इस्लाम में बड़ा महत्व माना गया है। खञदा से माँगी दुआ जब पूरी होती है तो शुक्रिया अदा करने के लिए पढ़ी गई विशेष नमाज को 'शुक्राने' की नमाज कहते हैं।
'टा-टा' और 'बाय-बाय' या 'गुड बाय' एक ही क्रिया की अलग-अलग अभिव्यक्तियों वाले शब्द हैं। यह क्रिया ह 'गुड-बाय' या 'अलविदा'। जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों का समूह आपस में विदा लेता है तो वे संक्षिप्त में 'गुड नाइट' न कहकर 'गुड बाय' कहते हैं। ऐसा कहकर वे एक-दूसरे के प्रति शुभकामना प्रकट करते हैं कि आपकी रात सुखद बीते या 'गुड डे' दिन सुखद बीते।
'बाय-बाय' का प्रयोग पहली बार 1823 में एक शिशु द्वारा रिकॉर्ड की गई रेडियो वार्ता में किया गया। इसके बाद 'टा-टा-फॉर-नाउ' (अभी के लिए विदा दीजिए) का प्रयोग बीबीसी ने 1941 में अपने एक प्रोग्राम 'इटमा' में किया। इस कार्यक्रम में क्रॉकरी धोने वाली चरित्र मिसेज मौपप द्वारा बोले गए डायलॉग को स्वर दिया था डोरोथी समर्स ने। 'बाय-बाय' को जापानी 'सायोनारा' कहते हैं। दरअसल, यह (हैप्पी जर्नी) यात्रा शुभ हो कहना का एक अंदाज है। इन दो शब्दों में शुभकामना और अभिलाषाओं का भंडार भरा है, इसलिए उस भंडार की अभिव्यक्ति केवल शब्दों से की जाती है।
(लेखक 'पराग' के पूर्व संपादक और प्रसिद्ध बाल साहित्यकार हैं।)

कुख्यात से मिसाल बना गाँव

काठेवाडी गाँव का कायाकल्प
महाराष्ट्र के नांदेड जिले का एक छोटा सा गाँव है काठेवाडी। गाँव की आबादी मात्र ७०० है। तहसील डेगलुर के इस छोटे से गाँव का आज दूर-दूर तक नाम है। नाम है अच्छाई है लिए। इस गाँव को लोग पहले भी जानते थे पर बदमाशी के लिए। गाँव का नाम लेते ही लोगों में डर भर जाता था। गाँव की ज्यादातर आबादी पियक्कड़ थी। लोग पूरे दिन जमकर दारू पीते और बीड़ी फूँकते थे।

गाँव में किसी तरह की कोई सुविधा नहीं थी। लोग पक्के पियक्कड़ थे सो लड़ाई-झगड़े में आगे रहते थे। जिसने टोका, उसी को ठोक दिया। आसपास के लोग गाँव के नजदीक आने-जाने से भी डरते थे। लोग खूब पीते थे, इस कारण कोई दूसरे को कुछ समझता भी नहीं था। गाँव की हालत यह हो गई कि ज्यादातर लोग बीमार पड़ने लगे। ऐसे में आर्ट ऑफ लिविंग ने गाँव को सुधारने का बीड़ा उठाया।

आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर ने यह काम सौंपा एक अध्यापक को। आज यह गाँव पूरे देश के लिए एक मिसाल बन गया है। गाँव में कोई दारू-बीड़ी नहीं पीता। लगता है जैसे गाँव में रामराज्य है। लोग दुकान से सामान खरीदते हैं, तिजोरी में पैसा डालते हैं और चल देते हैं। यह गाँव में सबसे बड़ा बदलाव है। रोजाना की जरूरत की हर चीज दुकान पर मिल जाती है।

श्री श्री रविशंकर ने बताया कि गाँव में रामराज्य लाने का यह विचार उन्हें जर्मनी के एक गाँव की व्यवस्था से आया। जर्मनी में आर्ट ऑफ लिविंग आश्रम के पास एक गाँव है। इस गाँव में फलों के एक बगीचे में बिना दुकानदार फल बेचे जाते हैं। एक बोर्ड पर फलों के दाम लिखे होते हैं। खरीदार आते हैं, फलों की थैली उठाते हैं और तय दाम एक डिब्बे में डाल देते हैं। उन्होंने बताया कि जब काठेवाडी गाँव की समस्या उनके सामने आई तो, इस विचार को यहां साकार करने के बारे में सोचा गया।

कमाल की बात यह रही है कि दो साल में ही गाँव की काया पलट हो गई। आर्ट ऑफ लिविंग के स्वयंसेवकों ने गाँव में पहला नवचेतना शिविर लगाया। संस्था ने अपने फाइव एच (हेल्थ, होम, हाइजीन, ह्यूमन वैल्यूस, ह्यूमनिटी इन डाइवर्सिटी) कार्यक्रम के तहत गाँववालों को बदलने का काम शुरू किया। आर्ट ऑफ लिविंग के स्वयंसेवकों ने गाँव के स्वास्थ्य, घर, स्वच्छता, मानवीय मूल्यों और मानवीय विविधता (फाइव एच) कार्यक्रम के तहत गाँववालों पर अच्छा असर हुआ। शुरुआत में कम लोग उनके अभियान में शामिल हुए।

गाँव को सबसे पहले दारू और धूम्रपान मुक्तकराने की पहल हुई। इस काम में गाँव के युवकों ने सबसे ज्यादा साथ दिया। सारे गाँववालों से तंबाकू और बीड़ी लेकर जमा की गई। बाद में इसे जला दिया गया। लगभग १३ हजार रुपए का तंबाकू का सामान जलाया गया। छोटे से गाँव के लोगों के लिए यह बड़ी रकम थी। स्वस्थ रहने के लिए उन्होंने तंबाकू के साथ ही दारू पीने से तौबा कर ली। आज हालत यह है कि गाँव पूरी तरह दारू और धूम्रपान से मुक्त है।

लिविंग ऑफ आर्ट के स्वयंसेवकों ने बताया कि शुरुआत में गाँववालों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। कुछ दिन बाद कुछ गाँव वाले कार्यक्रम में शामिल होने लगे। आज २०० से ज्यादा गाँव वाले कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं। लगभग ५०० लोग विभिन्न कार्यक्रमों में शरीक होते हैं। इसके साथ ही आसपास के गाँवों के लोगों को भी अच्छा जीवन जीने के लिए प्रेरणा देते हैं। गाँव में सुविधाएँ जुटाने के लिए भी गाँववाले ही पैसा इकट्‍ठा करते हैं। इसके लिए एक दान पेटी बनाई गई है। सुबह-सुबह दान पेटी पूरे गाँव में घुमाई जाती है। जिसकी जितनी इच्छा होती है दान पेटी में धन डालता है। स्वच्छता अभियान के तहत गाँव के लोग सड़कों, मंदिर, समुदाय भवन और अन्य इलाकों की सफाई करते हैं।

गाँव में दो साल पहले किसी भी घर में शौचालय नहीं था। महिलाओं को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता था। दिन में शौच न जाने के कारण महिलाओं का स्वास्थ्य खराब रहता था। आज गाँव में हर घर में शौचालय है। आर्ट ऑफ लिविंग ने अभियान के तहत 110 शौचायलों का निर्माण कराया। बिना किसी सरकारी सहायता के हर घर में शौचालय के निर्माण को बड़े पैमाने पर प्रशंसा मिली। गाँव को राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने निर्मल गाँव पुरस्कार से सम्मानित किया। केंद्र सरकार की तरफ से गाँव में विकास कार्य के लिए 50 हजार रुपए का अनुदान दिया गया। गाँव को पूरी तरह से दारू और तंबाकू से मुक्त होने पर महाराष्ट्र सरकार ने टंटा मुक्ति अभियान से सम्मानित किया। इसके लिए महाराष्ट्र सरकार ने सवा लाख रुपए भेंट किए।

पियक्कड़ों का गाँव पूरी तरह शराब और तंबाकू से मुक्त, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सम्मानित किया, केंद्र सरकार ने ५० हजार रुपए दिए, अब हर घर में है शौचालय, महाराष्ट्र सरकार ने भी सम्मानित किया। गाँव में एक और बड़ा बदलाव आया। यह है सूदखोरों से मुक्ति। इसके लिए गाँव में स्वयं सहायता समूह बनाया गया। महिला और पुरुष अलग-अलग समूह में काम करते हैं। हर महीने एक तय राशि बैंक में जमा करते हैं। जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करते हैं। हालत यह है कि गाँव में सूद पर पैसा देने वालों का आना ही बंद कर दिया गया है।

गाँव की कायापलट की प्रशंसा करते हुए रविशंकर कहते हैं कि अगर आप समाज के प्रति समर्पित हो तो समाज का पूरा समर्थन आपको मिलता है। समर्पण से लंबे समय के बाद फायदा मिलता है। अपनी प्रतिबद्धता से इस दुनिया को जीने के लिए अच्छा स्थान बनाओ। सफलता मिलेगी।

रविवार, 27 जून 2010

क्या तुम जानते हो?

पेले बनना चाहते थे पायलट
एडीसन एरनटेस डो नासाअमेंटो का जन्म एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ। इतने बड़े नाम से बुलाने में दिक्कत होती थी तो इस बालक का प्यार का नाम रखा गया "डिको"। डिको ने अभी स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया था कि परिवार की गरीबी दूर करने के लिए उसे जूते पॉलिश का काम करना पड़ा।

डिको के पिता एक साधारण फुटबॉल खिलाड़ी थे और उन्हें देखकर छोटी उम्र में डिको को फुटबॉल का शौक लगा। हालाँकि पिता का फुटबॉल खेलना हमेशा घर में माँ की चिढ़ और झगड़े का कारण बना रहता था क्योंकि इस शौक ने घर को तंगहाली में ला पटका था। नन्हे डिको ने महसूसा कि गरीबी बहुत बुरी चीज है और यह सपने छीन लेती है।

कुछ समय बाद डिको की स्कूली पढ़ाई शुरू हुई। वह स्कूल गया तो उसके दोस्तों ने एक गोलकीपर बिले के नाम पर चिढ़ाते हुए उसे पेले नाम दिया। डिको को अपने इस नए नाम से चिढ़ थी पर वह जितना चिढ़ता गया यह नया नाम उतना उसके साथ चिपकता गया। डिको अब पेले बन गया। स्कूल के दिनों में वह अपने घर की गरीबी दूर करने के लिए पायलट बनने का सपना देखता था। खाली समय में फुटबॉल भी खेलता था।
फुटबॉल खेलना सीखने के लिए वह किसी क्लब में भर्ती होना तो चाहता था पर वह ऐसा कर नहीं सकता था क्योंकि घर की माली हालत इसकी इजाजत नहीं देती थी। पेले ने पिता से ही फुटबॉल सीखना शुरू किया। उसके पास फुटबॉल खरीदने के भी पैसे नहीं होते थे तो पेले के दोस्त गली में कागज से और कपड़े की गेंद बनाकर फुटबॉल खेलते। इन्हीं दोस्तों के साथ मिलकर पेले ने पहला फुटबॉल क्लब बनाया था।

जब पेले १२ साल का था तब उसने एक क्लब से जुड़कर फुटबॉल प्रतियोगिता में भाग लिया और सबसे ज्यादा गोल मारकर अपनी टीम को जिता ले गया। इसी समय हवाई जहाज उड़ाने का विचार छूट गया और उसके दिमाग में फुटबॉल धमाचौकड़ी मचाने लगी। मगर परीक्षा अभी खत्म नहीं हुई थी। कुछ समय बाद क्लब बंद हो गया और पेले का स्कूल जाना भी। पुराने दोस्तों ने मदद की और पेले एक जूनियर क्लब से जुड़ा। उसकी जिंदगी में निर्णायक मोड़ तब आया जब पता चला कि इस नए क्लब में उसे ब्राजील के स्टार फुटबॉलर व्लादेमर डी ब्रिटो कोचिंग देंगे।

एक साल तक ब्रिटो ने पेले को फुटबॉल खेलना सिखाया और फिर किन्हीं कारणों से क्लब से अलग हो गए। पेले के करियर पर फिर से प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। तब सीनियर टिम नाम के खिलाड़ी ने पेले और उसके दोस्तों को कोचिंग देना शुरू किया। टिम ने ही पेले को एक बड़े क्लब से जुड़ने में मदद की। पेले के परिवार के लिए यह खुशी का बड़ा मौका बना, क्योंकि उसके पिता जीवनभर जिस बात के लिए तरसते रहे वह उनके बेटे को मिल रही थी।

पेले जब अपने शहर से बड़ी जगह खेलने जा रहा था तो उसकी माँ को चिंता भीहुई कि उसके बेटे की उम्र अभी 14 साल ही है और वह घर से दूर कैसे रहेगा। पेले भी घर से ज्यादा जुड़ाव रखता था। यहाँ ब्रिटो एक बार फिर पहले के लिए ईश्वर का अवतार बनकर आए।

उन्होंने पेले की सेंटोज क्लब से जुड़ने में मदद की। यह उन दिनों बहुत ही जाना माना फुटबॉल क्लब था। पेले शुरुआत में शरीर से कमजोर था, क्योंकि उसका बचपन रूखा-सूखा खाकर गुजरा था।

शारीरिक रूप से मजबूत नहीं होने के कारण उसका चयन सीनियर टीम में नहीं हो सका। पर यहाँ पेले को रोजाना अच्छा खानपान मिलने लगा ताकि वह मजबूत खिलाड़ी बन सके। पेले को यहाँ अपने घर की बहुत याद आती थी और एक बार तो वह अपना सामान लेकर भी आ गया था। पर लक्ष्य को याद करके वह अभ्यास पर लौट आया।

पेले को 15 साल की उम्र में पहला बड़ा अवसर मिला जब एक शीर्ष खिलाड़ी चोटिल हो गया। अपने दूसरे मैच में पेले ने अपने करियर का पहला गोल मारा। पेले को मालूम नहीं हुआ पर यहाँ से उसकी उड़ान शुरू हो गई। क्लब फुटबॉल खेलते हुए पेले ने सभी को अपने खेल से चकित कर दिया और फिर एक दिन रेडियो पर 1958 में स्वीडन में होने वाले वर्ल्ड कप के लिए ब्राजील टीम में चुने जाने की सूचना पाकर पेले की आँख से आँसू आ गए।

1958 से पहले ब्राजील ने कोई वर्ल्ड कप नहीं जीता था। पेले टीम में चुना गया पर स्वीडन के वर्ल्ड कप में क्वार्टर फाइनल तक वह एक भी गोल नहीं कर पाया। वेल्स के विरुद्ध क्वार्टर फाइनल में उसने यादगार गोल किया। इसी गोल से ब्राजील जीता। पूरा स्वीडन पेले के खेल कौशल का दीवाना हो गया। सेमीफाइनल में ब्राजील ने फ्रांस को 5-2 से हराया। पेले ने ह‍ैट्रिक लगाई।

पेले ने अद्‍भुत खेल से ब्राजील को पहला विश्वकप जितवा दिया। घर लौटी ब्राजील टीम का लोगों ने बहुत स्वागत किया। लोगों की जुबान पर एक ही नाम था पेले... पेले...। पेले के मन में अपने पिता और दोस्तों की स्मृति ताजा थी।

कहानी

'अतिथि भगवान होता है'

रेगिस्तान को पार करते हुए दो यात्रियों ने एक खानाबदोश बेदुइन की झोपड़ी को देखा और ठहरने की इजाजत माँगी। जैसे सभी बंजारा जातियाँ करती हैं, बेदुइन ने बहुत हर्षोल्लास से उनका स्वागत किया और उनकी दावत के लिए एक ऊँट को जिबह करके बेहतरीन भोजन परोसा।

अगले दिन दोनों यात्री तड़के ही उठ गए और उन्होंने यात्रा जारी रखने का निश्चय किया। बेदुइन उस वक्त घर पर नहीं था इसलिए उन्होंने उसकी पत्नी को सौ दीनार दिए और अलसुबह चलने के लिए इजाजत माँगी। उन्होंने कहा कि ज्यादा देर करने पर सूरज चढ़ जाएगा और उन्हें यात्रा करने में असुविधा होगी।

वे लगभग चार घंटे तक रेगिस्तान में चलते रहे। उन्होंने पीछे से किसी को पुकार लगाते सुना। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, बेदुइन आ रहा था। पास आने पर बेदुइन ने दीनारों की पोटली रेत पर फेंक दी। बेदुइन ने कहा- 'क्या तुम लोगों को यह सोचकर शर्म नहीं आती कि मैंने कितनी खुशी से तुम दोनों का अपनी झोपड़ी में स्वागत किया था!'

यात्री आश्चर्यचकित थे। उनमें से एक ने कहा- 'हमें जितना ठीक लगा उतना हमने दे दिया। इतने दीनारों में तो तुम तीन ऊँट खरीद सकते हो।'

'मैं ऊँट और दीनारों की बात नहीं कर रहा हूँ!' बेदुइन ने कहा, 'यह रेगिस्तान हमारा सब कुछ है। यह हमें हर कहीं जाने देता है और हमसे बदले में कुछ नहीं माँगता। हमने अपने प्यारे रेगिस्तान से यही सीखा है कि अतिथि भगवान का रूप होता है। अतिथि की सेवा-सत्कार करना ही हमारा धर्म है। अतिथि से हम कुछ ले नहीं सकते और आप मुझे ये दीनार देकर जा रहे हैं। आपने मेरे आतिथ्य का अपमान किया है।' तभी दोनों यात्रियों ने बेदुइन को दिव्य रूप के दर्शन कराए और कहा- 'हम आपकी परीक्षा ले रहे थे।'


पूजा किसे कहें!

नीना अग्रवाल

उन्होंने स्कार्पियो से उतर मंदिर में प्रवेश किया, शिव जी को जल चढ़ाया, फिर बारी-बारी से सभी देवी-देवताओं के सामने नतमस्तक होती रही। हम भी वहीं विधिवत पूजा अर्चना कर रहे थे। हमने सभी मूर्तियों के सामने दस-दस के नोट चढ़ाए, दान-पात्र में पचास रुपए का करारा नोट डाला। इन सौ-सवा सौ रुपए के बदले प्रभु से अ‍नगिनत बार मिन्नतें कीं। पति की कमाई में दोगुनी बढ़ोतरी करें, बेटे की नौकरी लग जाए, बेटी की शादी किसी धनाढ्‍य खानदान में हो जाए। उधर हमारा ध्यान उन प्रौढ़ भक्त पर भी था जिन्होंने अभी तक प्रभु के चरणों में एक रुपया भी नहीं चढ़ाया था।

हमने सगर्व एक पचास रुपए का नोट पंडितजी को चरण स्पर्श करके दिया और प्रदर्शित किया, पूजा इसे कहते हैं। हम दोनों पूजा के बाद साथ ही मंदिर के बाहर निकले, हमें मंदिर के द्वार पर एक परिचित मिल गईं। हम उनसे बातें करने लगे मगर हमारा ध्यान उन्हीं कंजूस भक्तों पर रहा।

उधर उन्होंने अपनी गाड़ी से एक बड़ी सी डलिया निकाली, जिसमें से ताजा बने भोजन की भीनी-भीनी महक आ रही थी। वो मंदिर के बगल में बने आदिवासी आश्रम में गईं। तब तक हमारी परिचित जा चुकी थीं। अब वो प्रौढ़ा हमारे लिए जिज्ञासा का विषय बन गईं। हम आगे बढ़कर उनकी जासूसी करने लगे।

उन्होंने स्वयं अपने हाथों से पत्तलें बिछानी शुरू कीं, बच्चे हाथ धोकर टाट-पट्टी पर बैठने लगे। वो बड़े चाव से आलू-गोभी की सब्जी व गरमागरम पराठे उन मनुष्यमात्र में विद्यमान ईश्वर को परोस रही थीं। वाह रे मेरा अहंकार! हम इस भोली पवित्र मानसिकता में भक्ति को पनपी देख सोचने लगे, पूजा किसे कहते हैं।

कबीर जयंती

कबीर के लोकप्रिय दोहे
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डा‍रि दे, मन का मनका फेर॥

तिनका कबहुँ ना निंदए, जो पाँव तले होए।
कबहुँ उड़ अँखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥

गुरु गोविंद दोऊँ खड़े, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥

साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥

रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय।
हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥

दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥

मेहनत

अपने आप से समझौता न करें
अच्छा जॉब पाना और उसके लिए लगातार मेहनत करना किसी प्रतियोगी परीक्षा के लिए वह भी पूर्ण लगन के साथ। आपने लगन के साथ मेहनत की है पर परिणाम नकारात्मक आ रहा है। आप क्या करेंगे? मेहनत करना छोड़ देंगे या अपना लक्ष्य बदल देंगे? यह स्थिति प्रत्येक युवा के सामने आती है। सफलता प्राप्ति का दबाव एक असफलता के बाद जरा ज्यादा ही हो जाता है। व्यक्ति स्वयं से प्रश्न पूछने लगता है कि आखिर कहाँ गड़बड़ हो गई?

दरअसल व्यक्ति कई बार इस प्रकार की स्थिति होने पर पलायनवादी मानसिकता अपना लेता है। वह असफलता से इतना डर जाता है कि पुन: उस रास्ते पर जाने की वह हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह अपने आप से समझौता करने लगता है कि शायद पेपर ही कठिन था या जॉब इंटरव्यू में उससे ज्यादा काबिल लोग आए थे। इतनी मेहनत करना मेरे बस की बात नहीं आदि। वह अपने आपको ही तर्क देने लगता है और मेहनत से जी चुराने के लिए प्रेरित करने लगता है। जबकि यही समय होता है आत्मविश्लेषण करने का, अपनी कमियों को स्वयं के सामने रखने का और सफलता से पुन: प्रेम करने का।

* असफलता अंत नहीं
परीक्षा या जॉब न पाने की असफलता का मतलब अंत नहीं है। असफलता का मतलब होता है कि बस अब आप सफलता के लिए तैयार हो रहे हैं। रोजाना की जिंदगी में हमें कई ऐसे लोग मिलते हैं जिन्होंने आरंभिक रूप से असफलता पाई परंतु समय के साथ उन्होंने तर्कों की कसौटी पर सफलता को ऊँचा ही रखा और पुन: अपने आपको प्रेरित कर मेहनत करने लगते हैं। वे असफलता को अपने आप पर हावी नहीं होने देते।

* एक ही लक्ष्य
असफलताओं से होता हुआ रास्ता ही सफलता के नजदीक पहुँचाता है। असफलता आपको बताती है कि कहाँ गड़बड़ हो गई और अगले प्रयास में कहाँ ज्यादा मेहनत करना है। इससे आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति में काफी आसानी हो जाती है। क्योंकि लक्ष्य और भी सटीक और सामने नजर आने लगता है ऐसा लक्ष्य जो पहले से ज्यादा नजदीक है।

लक्ष्य की निकटता आपको ‍और ‍अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित करती है।

* असफलता भी सभी के साथ बाँटें
अक्सर हम असफलता को दुनिया से छिपाते हैं। इसके परिणाम काफी घातक सिद्ध होते हैं। जब सफलता को हम सभी को बताना चाहते हैं तब असफलता को छुपाने से हम स्वयं ही ऐसे विचारों के द्वंद्व में खो जाते हैं जहाँ से केवल असफलता ही नजर आने लगती है। असफलता मिलने का मतलब है कि आपने प्रयास किया और क्या प्रयास करने को भी आप दुनिया के सामने नहीं लाना चाहेंगे।

असफलता को अपने दोस्तों और परिवार वालों के साथ बाँटें, हो सकता है कि आपको वे ऐसी राय दें जिसके बारे में आपने कभी कल्पना ही न की हो। इससे मन भी नकारात्मक विचारों से हल्का हो जाएगा जिससे ताजे और सकारात्मक विचारों के लिए आपके मन में जगह बन पाएगी और आप पुन: सफलता के लिए अपने प्रयास तेज कर देंगे।

मेहनत

अपने आप से समझौता न करें
अच्छा जॉब पाना और उसके लिए लगातार मेहनत करना किसी प्रतियोगी परीक्षा के लिए वह भी पूर्ण लगन के साथ। आपने लगन के साथ मेहनत की है पर परिणाम नकारात्मक आ रहा है। आप क्या करेंगे? मेहनत करना छोड़ देंगे या अपना लक्ष्य बदल देंगे? यह स्थिति प्रत्येक युवा के सामने आती है। सफलता प्राप्ति का दबाव एक असफलता के बाद जरा ज्यादा ही हो जाता है। व्यक्ति स्वयं से प्रश्न पूछने लगता है कि आखिर कहाँ गड़बड़ हो गई?

दरअसल व्यक्ति कई बार इस प्रकार की स्थिति होने पर पलायनवादी मानसिकता अपना लेता है। वह असफलता से इतना डर जाता है कि पुन: उस रास्ते पर जाने की वह हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह अपने आप से समझौता करने लगता है कि शायद पेपर ही कठिन था या जॉब इंटरव्यू में उससे ज्यादा काबिल लोग आए थे। इतनी मेहनत करना मेरे बस की बात नहीं आदि। वह अपने आपको ही तर्क देने लगता है और मेहनत से जी चुराने के लिए प्रेरित करने लगता है। जबकि यही समय होता है आत्मविश्लेषण करने का, अपनी कमियों को स्वयं के सामने रखने का और सफलता से पुन: प्रेम करने का।

* असफलता अंत नहीं
परीक्षा या जॉब न पाने की असफलता का मतलब अंत नहीं है। असफलता का मतलब होता है कि बस अब आप सफलता के लिए तैयार हो रहे हैं। रोजाना की जिंदगी में हमें कई ऐसे लोग मिलते हैं जिन्होंने आरंभिक रूप से असफलता पाई परंतु समय के साथ उन्होंने तर्कों की कसौटी पर सफलता को ऊँचा ही रखा और पुन: अपने आपको प्रेरित कर मेहनत करने लगते हैं। वे असफलता को अपने आप पर हावी नहीं होने देते।

* एक ही लक्ष्य
असफलताओं से होता हुआ रास्ता ही सफलता के नजदीक पहुँचाता है। असफलता आपको बताती है कि कहाँ गड़बड़ हो गई और अगले प्रयास में कहाँ ज्यादा मेहनत करना है। इससे आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति में काफी आसानी हो जाती है। क्योंकि लक्ष्य और भी सटीक और सामने नजर आने लगता है ऐसा लक्ष्य जो पहले से ज्यादा नजदीक है।

लक्ष्य की निकटता आपको ‍और ‍अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित करती है।

* असफलता भी सभी के साथ बाँटें
अक्सर हम असफलता को दुनिया से छिपाते हैं। इसके परिणाम काफी घातक सिद्ध होते हैं। जब सफलता को हम सभी को बताना चाहते हैं तब असफलता को छुपाने से हम स्वयं ही ऐसे विचारों के द्वंद्व में खो जाते हैं जहाँ से केवल असफलता ही नजर आने लगती है। असफलता मिलने का मतलब है कि आपने प्रयास किया और क्या प्रयास करने को भी आप दुनिया के सामने नहीं लाना चाहेंगे।

असफलता को अपने दोस्तों और परिवार वालों के साथ बाँटें, हो सकता है कि आपको वे ऐसी राय दें जिसके बारे में आपने कभी कल्पना ही न की हो। इससे मन भी नकारात्मक विचारों से हल्का हो जाएगा जिससे ताजे और सकारात्मक विचारों के लिए आपके मन में जगह बन पाएगी और आप पुन: सफलता के लिए अपने प्रयास तेज कर देंगे।

सेहत

अच्‍छी बातें सोचें, स्वस्थ रहें
सकारात्मक लोगों के साथ रहें - सबसे ज्यादा जरूरी है आप के आस-पास के लोग सकारात्मक सोच वाले हों।
दयालुता - इसकी शुरुआत भी आप अपने आप से करें। खुद के प्रति दयालु रहें आपकी सोच पॉजिटिव हो जाएगी।
विश्वास - जी हाँ, फरेब की इस दुनिया में विश्वास के साथ चलें। आपका विश्वास आपको दिशा देगा।

प्रेरणा लें - जिस व्यक्ति का काम अच्छा लगे उससे प्रेरणा लें। अखबार के अलावा किताबें पढ़ने की आदत डालें।
स्माइल - सबसे अधिक जरूरी है आपका मुस्कुराना। दिन भर में पचासों ऐसे कारण सामने आते है जिनसे खीज होती है, स्वस्थ रहने के लिए बेहतर है कि यह खीज आपके साथ क्षण भर ही रहे। तुरंत नियंत्रण पाने की कोशिश करें।
ध्यान बाँटें - जो बात आपको ज्यादा परेशान कर रही है उससे अपना ध्यान हटा कर उन बातों की तरफ रूख कीजिए जो आपको अच्छी लगती है।
प्यार के बारे में सोचें : हम सभी अपने जीवन में एक बार प्यार अवश्य करते हैं। स्वस्थ रहने के लिए वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है प्यार की मधुर स्मृतियाँ आपको ताकत देती है। याद रहे, प्यार की अच्छी और सुखद बातें ही सोचें ना कि तकलीफदेह बातें।

स्वस्थ परिवार

खाना-पीना फिट तो फैमिली हिट
स्वस्थ परिवार की निशानी है तरक्की। परिवार में किसी एक का भी स्वास्थ्य गड़बड़ाया नहीं कि पूरा परिवार परेशान हो जाता है। ऐसे में यदि परिवार के सदस्यों की उम्र के हिसाब से खाना-पीना सुनिश्चित कर लिया जाए तो आप जल्दी किसी बीमारी की चपेट में नहीं आएंगे। बस इस बात का ध्यान रखें कि उनको पहले से तो कोई बीमारी नहीं है। तो चलिए, इस बार हम आपको बताते हैं कि नन्हे-मुन्ने और टीनएजर का कैसा खान-पान हो ताकि वह अंदर से बने स्ट्रांग।

बच्चे का खानापीना

शिशु (बच्चा) माता के गर्भ में रहता है तो उसका पोषण एवं खाने की पूर्ति माता द्वारा लिए गए भोजन से ही होती है। शिशु का जन्म होना प्रकृति की एक लीला है। बच्चे की पैदाइश के बाद माता के शरीर में से भोजन सीढ़ी या प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। अत: उसका भोजन अलग से व्यवस्थित करना पड़ता है। बच्चा फूल की तरह कोमल होता है। उसको यदि जरा-सी भी गलत चीज दे दी जाती है तो अनर्थ हो सकता है, कारण कि उसके शरीर में कोमलता किसी गलत चीज को सहने में सक्षम नहीं। वह तो अपनी माता या धाया पर निर्भर है।

एक से छह महीने तक नवजात शिशु को माता का दूध ही दिया जाना चाहिए क्योंकि माता के दूध में वे सभी आवश्यक पोषक तत्व मौजूद हैं, जिससे उनके मन तथा शरीर की विकास प्रक्रियाओं की आधारशिला रखी जानी है।

यदि किसी कारण से माता के स्तनों में दूध आता ही न हो या इतनी मात्र में न आता हो जो बच्चे की आवश्यकता पूरी करने के लिए पर्याप्त न हो तो उन्हें किसी चिकित्सक से परामर्श करना चाहिए। यदि संभव उपाय करने के बाद भी समस्या का कोई उपाय न निकले तो बच्चों को केवल गाय का दूध ही दें। माता के दूध के बाद गाय के दूध का नंबर ही आता है। यदि गाय का दूध आसानी से न मिल सके तो शिशु को बकरी का दूध ही दें।

दो पशुओं का दूध मिलाकर शिशु को कभी न दें क्योंकि हर दूध में पोषक तत्व अलग-अलग होते हैं, तासीर भी अलग-अलग होती है और प्रभाव भी अलग होता है। दूध के बाद बच्चे को विटामिन सी और डी की जरूरत होती है जिसकी पूर्ति क्रमश: मौसमी या संतरे के ताजे रस और मछली के तेल से पूरी हो सकती है। आहार का समय निश्चित कर लें और नियत समय पर ही आहार दें। प्राय: माताएं समझती हैं कि शिशु जब रोता है तो भूखा होता है, यह धारणा निराधार है। शिशु के रोने का कारण कोई रोग भी हो सकता है।

शिशु का आहार जिन बर्तनों में दिया जाता है (जैसे दूध की बोतल, चम्मच, कटोरी, प्लेट आदि) उन्हें सदा स्वच्छ रखें और स्वच्छ रूप से ही उन्हें सदा प्रयोग करें।

शिशु को आहार सुषुम देना चाहिए-न तो गरम हो और न ही ठंडा। गर्म के बाद ठंडा या ठंडे के बाद गरम।

जब भी शिशु दूध या अन्य आहार लेने से मना कर दे या अरुचि दिखाए या वह सो रहा हो, तो ऐसी अवस्था में जोर-जबर्दस्ती न करें।

वयस्कों के नियम और दिनचर्या शिशु पर लागू करना अनुचित है। उसे आप स्वाभाविक जीवन व्यतीत करने दें। शिशु को कोई वस्तु खाने पर मजबूर न करें। उसकी रुचि-अरुचि का पूरा ध्यान रखें। रात या जब भी आवश्यक हो शिशु को पेशाब कराना न भूलें और ऐसा प्रयत्न करें कि वह शौच और मूत्र समय पर ही विसजिर्त करे।

शिशु का भोजन हल्का, सुपाच्य, खट्टे और मिर्च-मसाले से रहित होना चाहिए और उसकी तासीर मौसम के अनुसार ही होनी चाहिए।

शिशु को कभी भी बहुत ढीले या कसे हुए कपड़े न पहनाएं। उसके कपड़े नायलोन या सिंथेटिक कपड़ों के न होकर सूती हों तो बेहतर है।

शिशु के शरीर की स्वच्छता का पूरा ध्यान रखें। जब भी कपड़ा गीला हो जाए तो उसे फौरन बदल दें वरना गीले कपड़े शरीर पर अधिक देर तक रहने से उसे चमड़ी के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।

बच्चे को कभी ज्यादा ठंडे या गरम वातावरण में आहार न दें। ऋतु परिवर्तन के अनुसार उसके कपड़े, आहार और रख-रखाव का पूरा ध्यान रखें।

शिशु को कोई रोग हो जाए तो उस अवस्था में जिस प्रकार को भोजन दिया जाना जरूरी है, उसके बारे में योग्य चिकित्सक से सलाह लेने के बाद ही उसके आहार में परिवर्तन करें, स्वयं कोई परिवर्तन न करें।

ऐसा आहार (जैसे चिकनाई वाले पदार्थ, खट्टा, मिर्च, मसाला आदि) जो शिशु को सुहाते न हों और जिनसे खांसी, बुखार, दस्त, पेट में दर्द, वमन, ठंड लगने, गला खराब होने की आशंका हो, न दें।