हँसते-हँसते फाँसी चढ़ गए बांठिया
भारत को आजादी यूँ ही नहीं मिली। इसके लिए कई लोगों ने अपनी कुरबानी दी थी, तब जाकर हिन्दुस्तान स्वतंत्र हुआ। इन महानायकों की अपनी विशेष भूमिका रही। ग्वालियर के ऐसे ही महानायक शहीद अमरचंद बांठिया ने अपना जीवन मातृभूमि के नाम समर्पित करते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को अपने गले से लगा लिया। २२ जून को उनका बलिदान दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर कई कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं, पर जरूरत है इन कार्यक्रमों के साथ-साथ उन्हें सच्चे दिल से याद करने की।
कौन थे शहीद बांठिया
राजस्थान की राजपूतानी शौर्य भूमि में बीकानेर में शहीद अमरचंद बांठिया का जन्म 1793 में हुआ था। देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा शुरू से ही उनमें था। बाल्यकाल से ही अपने कार्यों से उन्होंने साबित कर दिया था कि देश की आन-बान और शान के लिए कुछ भी कर गुजरना है।
इतिहास में स्व. अमरचंद के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती, लेकिन कहा जाता है कि पिता के व्यावसायिक घाटे ने बांठिया परिवार को राजस्थान से ग्वालियर कूच करने के लिए मजबूर कर दिया और यह परिवार सराफा बाजार में आकर बस गया। तत्कालीन ग्वालियर रियासत के महाराज ने उन्हें उनकी कीर्ति से प्रभावित होकर राजकोष का कोषाध्यक्ष बना दिया।
सन १८५७ के विद्रोह ने देश की चारों दिशाओं में विप्लव की चिंगारी पैदा कर दी थी। भारतीय सैनिकों के लिए आर्थिक संकट की घड़ी पैदा होने के कारण कोई तत्कालीन हल नजर नहीं आ रहा था। ऐसे समय शहीद बांठिया ने भामाशाह बनकर सैनिकों और क्रांतिकारियों के लिए पूरा राजकोष खोल दिया। यह धनराशि उन्होंने ८ जून १८५८ को उपलब्ध कराई। उनकी मदद के बल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई दुश्मनों के छक्के छु़ड़ाने में सफल रहीं, लेकिन अँगरेज सरकार ने बांठिया के कृत्य को राजद्रोह माना और वीरांगना के शहीद होने के चार दिन बाद अमरचंद बांठिया को राजद्रोह के अपराध में सराफा में नीम के पेड़ पर फाँसी दे दी। अँगरेजों ने भले ही उन्हें फाँसी पर लटका दिया हो, पर उनका कार्य और शहादत हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।
अब आधा ही बचा नीम का पेड़
सराफा बाजार में जिस नीम के पेड़ पर अमर शहीद को फांसी दी गई थी, उसे कुछ लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते कुछ वर्षों पूर्व आधा कटवा दिया था, जिस वजह से ये पेड़ अब ठूँठ के रूप में आधा ही रह गया है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें