गुरुवार, 13 मई 2010

व्यंग्य

शिक्षा गारंटी कानून जिन्दाबाद!

हमारे कस्बे का दमडूलाल बड़ा पुराना नेता है। पिछले 15 बरसों से पार्षद का चुनाव जीतते चले आ रहा है। वहीं सुबह-सुबह हमारे झोपड़े के सामने आकर कहने लगा- 'क्यों रे गोपाल कहाँ पर है...?'
हमारी धर्म की पत्नी ने हमें टूटी खटिया पर से उठाते हुए कहा, 'नेताजी आए हैं।'
हमने अपनी गोदड़ी उठाकर एक ओर की और बिना मुँह धोए हाथ जोड़कर उनके सामने जा खड़े हुए।
'कैसे आए नेताजी?' हमने विनम्र स्वर में पूछा।
'क्यों रे, सब कामकाज कैसे चल रहा है?'
'कृपा है आपकी।'
'बच्चे कहाँ गए हैं?'
'क्यों लक्ष्मी बच्चे कहाँ हैं?' मैंने पत्नी से पूछते हुए कहा।
'नाले (गटर) पे नहाने गए हैं।' उसने अंदर से ही जवाब दिया।
'तुझे मालूम है वहाँ पानी कम है, कितनी गंदगी हो रही है', मैंने थोड़ी नाराजगी से कहा।
'यह क्यों भूल रहे हो वहाँ से सिविल लाइन के लिए पाइप लाइन गई है वह फूट गई है, उसी पानी से नहाकर बच्चे आएँगे। यहाँ कहाँ पानी है जो नहलाती...?' झोपड़े में से ही उसने उत्तर दिया।
'तुम्हारे कितने बालक-बालिकाएँ हैं?' दमड़ूलाल ने प्रश्न किया। मैंने उँगली पर गिना और बताया, 'चार लड़कियाँ, पाँचवाँ लड़का।'
'लड़के की उम्र कितनी है?' दमडूलाल ने पूछा। अभी तीन बरस का होने को है, लेकिन आप काहे पूछ रहे हैं?' मैंने थोड़ी घबराहट से पूछा।
'तुम तुम्हारी दोनों बड़ी लड़कियों को प्रायवेट 'मारामारी एडमिशन' स्कूल में भर्ती करवा दो।'
'वो तो अँगरेजी स्कूल है नेताजी, वहाँ बच्चों को पढ़ाने की हमारी हैसियत कहाँ है?' मैंने घिघियाते स्वर में कहा।
'वहीं तो तुम्हें बताने आया हूँ।'
'क्या?'
'तुम दोनों बच्चियों को लेकर चलना, हम वहाँ पर एडमिशन करवा देंगे।'
'वो कैसे?'
'तुम काहे फिक्र करत हो?' नेताजी ने मुँह में रखी तम्बाकू की पीक नाली में थूकते हुए कहा।
'किताबें, डरेस, फीस हम काहे से लावेंगे?'
'तोहे कोनू चिंता करवे की जरूरत नाही है, समझे कि नाही...? तुम हमार घर दस बजे आ जाओ, हम ले चले हैं।' कहकर नेताजी दूसरी झोपड़ी में भी यह संदेश पहुँचाते हुए आगे निकल गए।
दस बजे जब उनके घर के सामने गए तो बीस-पच्चीस हमारी बिरादरी के लोग खड़े थे। एक घंटे बाद नेताजी बाहर निकले और हम सबको 'मारामारी एडमिशन' स्कूल की ओर ले चले। बड़ी भारी बिल्डिंग थी, अंदर ढेर-से कमरे थे। हमने यहाँ ईंट-सीमेंट को ढोया था, इसलिए हमें मालूम था। रंग-रोगन के बाद तो इसके अंदर आना उसी तरह वर्जित हो गया था जैसे मंदिर के भीतर जिनावर।
इतनी भीड़ को देखकर वहाँ के चौकीदार ने टोक दिया। नेताजी ने अपना परिचय दिया तो उन्हें मात्र अंदर आने की इजाजत मिली। हम सब कुनकुनी धूप में बाहर खड़े रहे। एक घंटे बाद नेताजी खुशी-खुशी लौटे और हम सबको खबर दी कि- 'आप कल यहाँ आएँ और एडमिशन फॉर्म ले जाएँ। सरकार के शिक्षा गारंटी कानून के अंतर्गत सब गरीब लोगों को मुफ्त में एडमिशन मिलेगा, समझे कि नाही? कोनू यदि दिक्कत हो तो हम हैं आपके साथ।' हम सबने सुना और ताली बजाई और घर को लौट आए।

अगली सुबह हम फिर स्कूल के सामने पहुँचे। एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद चौकीदार ने कहा, 'एडमिशन फॉर्म छपे नहीं हैं, दो दिनों बाद आकर ले जाएँ।' हम दो दिनों की प्रतीक्षा करने का विचार करके लौट आए। बेटियों को अच्छी शिक्षा देने का सपना लिए हम दो दिनों बाद जब गेट पर पहुँचे तो हमें चौकीदार ने नाम-पता पूछकर फोकट में एडमिशन फॉर्म दे दिए।
मैं खुशी-खुशी घर आया। फॉर्म पूरा अँगरेजी में था। पड़ोस की कॉलोनी में जहाँ पत्नी बर्तन माँजने का काम करती थी, उस मैडम के वहाँ जाकर फॉर्म भरवाया। दो दिनों बाद जब लेकर गया तो चौकीदार ने फॉर्म लेकर कहा, 'भैया इसमें गरीबी रेखा का कार्ड तो लगाओ।'
मैं फॉर्म लेकर लौट आया। गरीबी रेखा के कार्ड की फोटो कॉपी करवाकर उसे फॉर्म पर लगाकर अगले दिन देने गया। चौकीदार ने देखा और कहा, 'भैया, इसमें गरीबी रेखा राशनकार्ड की फोटोकॉपी भी तो लगाओ।'
'क्यों? उसकी क्या जरूरत है?'
'भैया, दोनों बच्चियों के नाम भी गरीबी रेखा में है, यह मालूम होना चाहिए ना।' उसकी बात में दम था। हम लौट आए और राशनकार्ड की फोटोकॉपी करवाकर फॉर्म जमा करने गए तो चौकीदार ने कहा, 'कल आना।' हम लौट आए।
अगले दिन जब फॉर्म पूरा भरकर सबकी फोटोकॉपी लगाकर हाजिर हुए और बड़ी आशाभरी दृष्टि से चौकीदार को देखा तो उसने फॉर्म को उलट-पलटकर कहा, 'देखो भैया, एडमिशन होने के पूरे चांस हैं लेकिन एक बात है।''कैसी?'
'सरकार ने गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों के घर पर यानी सामने लिख छोड़ा है कि 'मैं' गरीब हूँ। यदि उसकी फोटो भी लगा दो, तो सौ प्रतिशत एडमिशन नक्की हो जाएगा।' हमने सुना तो लगा वह हमारा हितैषी है, तब ही तो नेक सलाह दे रहा है। हमने उसकी बात को अपनी पोटली में बाँधा और जल्दी से एक फोटोग्राफर को खोजने लगे।
फोटोग्राफर से झोपड़े के बाहर लिखे 'मैं गरीब हूँ' का फोटो उतरवाया और उसका प्रिंट बनवाकर अगले दिन पहुँचे तो वहाँ रविवार होने के कारण कोई नहीं मिला। आने वाले अगले दो दिनों में कोई धार्मिक त्योहार थे, उसके चलते कोई नहीं मिला।
दसवें दिन हम समय पर जा पहुँचे। हमें वही चौकीदार मिल गया। उसने फॉर्म लिया, देखा, पलटा और कहा, 'एकदम बढ़िया भरा है। जाओ, अंदर बड़ी मैडम को देकर आ जाओ।' हम धड़कते दिल से अंदर जा घुसे। अंदर बड़ी भीड़ लगी थी। सब विदेशियों के बीच हम देशी लग रहे थे।
हमने पूछताछ की कि कहाँ फॉर्म देना है। मैडमजी मिल गई थीं। हमने उन्हें फॉर्म दिया तो उन्होंने किसी गंदे कागज (टिश्यू पेपर) की तरह उसे एक कोने से पकड़कर उलटा- पलटा और कहने लगीं, ' ओह नो!'
'जी नो नहीं, मात्र दो ही बेटियों को प्रवेश चाहिए' , हाथ जोड़ते हुए मैंने कहा।
'भैया साहब, एडमिशन मारामारी में बंद हो गई,तारीख परसों खत्म हो गई।'
'आप कुछ करती तो...'
नो डिसीपलिन कुछ होता है कि नई, सॉरी आप जा सकते हैं' कहते हुए उसने फॉर्म वापस कर दिया।
हम मुँह लटकाए लौट रहे थे, तब ही दमड़ूलालजी हमारे नेता उनकी बेटी और बेटे को स्कूल में लाते दिखे। हमने उनसे अपना दुखड़ा रोया तो उन्होंने कहा, रे गोपले, गोबर के उपले में क्या करूँ? समय का ध्यान क्यों नहीं रखा? देख, मैंने समय का ध्यान रखा जिसके चलते मेरे दोनों बच्चों का एडमिशन हो गया', कहकर वे आगे बढ़ गए।
मुझ जैसे एक दर्जन माता-पिता उस अँगरेजी स्कूल के दरवाजे के बाहर खड़े रह गए। हमारी संख्या बताकर दमड़ूलालजी ने शायद ब्लैकमेल करके अपने बच्चों का एडमिशन करवा लिया और हम सब बाहर रह गए। दस दिनों की मजदूरी मारी गई सो अलग। बेटियों को अच्छे स्कूल में पढ़ाने का सपना टूट गया। सच कहूँ, सपना टूटना या सपनों का मर जाना समाज के लिए और सरकार के लिए खतरनाक होता है.....।

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