गुरुवार, 18 मार्च 2010

कहानी

मटरगश्ती का रोजगार
पुराना साल खत्म होने को था। सालभर चमकते सूरज के रुख में भी नरमी आ गई थी। दोपहर की हल्की गुनगुनी धूप मटर के खेत में बिखरी थी। लोमड़-लोमड़ी धूप के गुलाबी स्वाद के चटखारे लेती लग रही थी। असल में उसके मुँह में पानी आने की वजह कुछ और ही थी। किसी दूसरे के खेत में घुसकर मटर खाने के चक्कर में पिछले वर्ष उसकी जो पिटाई हुई थी, उसके चलते लोमड़ी ने तय कर लिया था कि अब यदि वह मटर की फलियों को कभी मुँह लगाएगी तो अपने खेत के ही, नहीं तो नहीं।
जिस प्रेम के साथ उसने मटर के नर्म बीज बोए थे। दुलार के साथ पौधों को बड़ा किया था उसी का परिणाम था कि नाजुक से पौधों पर प्यारे-प्यारे फूल खिले थे और कहीं-कहीं नन्ही-नन्ही फलियाँ भी पत्तों के बीच से झाँक रही थीं। बार-बार वह उन पर वारी जाती और कहती कि भगवान करे तुम सदा ऐसे ही रहो, मुस्कुराती-झूलती रहो।
दिसंबर का आखिरी सप्ताह था और लोमड़ी ने अभी तक अपने खेत का एक भी दाना मुँह में नहीं डाला था। हाय दैया! कहीं इन मुई फलियों ने मेरी बात को सच तो नहीं मान लिया, कि तुम सदा ऐसी ही रहो। मुटियाओ नहीं। दानों से भरो नहीं। फिर वह एक-एक फली को छूते-टटोलते हुए खेत में घूमने लगी। तो उसने क्या देखा? जगह-जगह खाई हुई मटर के छिलके पड़े हैं। कहीं-कहीं कच्ची फलियाँ भी किसी नासमझ ने तोड़कर पटक दी हैं। अब समझ में आया। जरूर कोई न कोई मेरी फलियाँ चुरा रहा है।
मटर के हरे-भरे खेत में भूरी लोमड़ी गुस्से से लाल-पीली होने लगी। और लगी पगलाकर अपनी ही दुम नोचने- मैं चालाक लोमड़ी और कोई मुझे ही बेवकूफ बना रहा है। जब दुम में जलन होने लगी तो उसे ध्यान में आया कि चिढ़ने-कुढ़ने से कुछ होना-जाना नहीं। अकल का उपयोग करके खुराफाती जीव को पकड़ना होगा।
खेत की बागड़ में जहाँ अंदर घुसने जितनी जगह थी, वहीं पर फंदा लगाने का लोमड़ी ने तय किया। खरगोश, गिलहरी, नेवला जो भी हो, यहीं से आता-जाता होगा। फंदा एकदम सीधा-सादा पतली रस्सी का था, जिसका एक सिरा बागड़ में बनी पोल के इर्द-गिर्द छुपा था और दूसरा अमरूद के पेड़ में। अमरूद की एक लचीली टहनी को मोड़कर नीचे अटका दिया था, इस तरह कि झटका लगते ही फट से निकलकर ऊपर हो जाए। रस्सी खिंचेगी, फंदा कसेगा और चोरी करने की नीयत से घुसा प्राणी बिलबिलाते हुए डाल से लटक जाएगा।ऐसा ही हुआ। मटरगश्त खरहा शाम होते ही रोज की भाँति उछलते-कूदते मटर की दावत उड़ाने चला आया। अमावस की रात थी। अँधेरा घुप्प था। किसी के देखने का डर नहीं था। सो वह ज्यादा ही लापरवाह था। मटर के खेतों में हाथ साफ करने का लंबा अनुभव था उसे। तभी तो नाम मटरगश्त पाया था उसने। आज किस्मत धोखा दे गई। मुँह से चूँ तक न निकला। इसके पहले ही वह जाकर अमरूद की डाली से लटकने लगा, विक्रमादित्य के वेताल की तरह। सामने के पंजे फंदे में अटके थे और घिग्गी बँध गई थी सो अलग।
पूस की रात में भी खरहे को पसीना छूट गया, लेकिन क्या करता। लटका रातभर कुल्फी जमाते हुए। झुटपुटा हो रहा था। रात को देर से सोयी लोमड़ी साल के पहले दिन देर से ही जागेगी। लेकिन यहाँ से छूटने की कुछ जुगत तो भिड़ानी ही होगी। खरहे का फितूरी दिमाग खट-खट चलने लगा। तभी पगडंडी पर धप्प-धप्प की आहट सुनाई दी। बागड़ के उस पार कुछ काला सा चला आ रहा था।
अरे यह तो भुक्कड़ भालू है। खुराक की तलाश में मुँह अँधेरे ही बालों का घना लबादा ओढ़े निकल पड़ा है। खरहे के दिमाग में क्लिक हुआ और वह लगा जोर-जोर से झूलने। जो भी दोहे-चौपाइयाँ उसे याद आईं लगा उनका ऊँची आवाज में पाठ करने।
पहले तो भालू भी चौंका कि यह क्या माजरा है। भूत-प्रेत तो नहीं? थोड़ी देर वह दूर से ही खरहे की ये हरकतें देखता रहा, फिर पूछ बैठा कि यह क्या चल रहा है? लटूम रहा हूँ और कूदा-फाँद करके रुपया भी बना रहा हूँ। इतना कहकर खरहा और जोर से झूमने लगा। अब भालू से रहा न गया। भई लटूम झूम रहे हो, यह तो मैं भी देख रहा हूँ...लेकिन रुपया बनता नहीं दीख रहा।
खरहे ने अपना प्रलाप बंद किया और कहा कि लोमड़ी ने बड़े जतन से मटर उगाई है। चिड़िया-कौवे आकर उन्हें चुग न जाए इसलिए उसने मुझे रखवाली का काम सौंपा है। मैं जिंदा लाल बुझक्कड़ बनकर उन्हें भगा रहा हूँ। इसके लिए लोमड़ी मुझे घंटे के दस रुपए दे रही है। पिछली शाम से अब तक सवा सौ रुपया बना चुका हूँ। लंबे समय तक भालू को चुप देखकर खरहे ने पूछा- क्या तुम्हें भी रोजगार चाहिए?
मानो उसने भालू के मन की बात कह दी। भालू का बड़ा कुनबा था और सबके सब उसी की तरह भुक्कड़। बच्चे-कच्चों के लिए राशन जुटाते-जुटाते बेचारा आजीज आ जाता। उसने तुरंत हाँ भरी। अमरूद के पेड़ पर चढ़कर पहले तो उसने खरहे के पंजे छुड़ाए फिर खुद के पंजे फंदे में अटकाकर डाल से लटूम गया। श्लोक-दोहे उसे आते न थे, सो लगा घों-घों की आवाज निकालने।
नए साल का पहला सूरज निकला और अभी पूरब के आसमान में बाँस भर ही चढ़ा था कि लोमड़ी उधर आ निकली। कुछ न कुछ तो फँसा होगा। छोटा-मोटा जीव होगा तो दावत हो जाएगी। भारी-भरकम लोठ को लटका देख उसका दिल धक से रह गया। यह तो छूटते ही मुझे मारने दौड़ेगा। लेकिन गुस्सा भी था। लोमड़ ने अपने हाथ की बेंत से भालू की खूब पिटाई उड़ाई।
इतनी कि बेंत तो टूटी ही, भालू के छटपटाने से रस्सी भी टूटी और वह धम्म से नीचे आ गिरा। लोमड़ी पहले ही निकल भागी थी सो वह तो भालू को दिखी नहीं लेकिन खरहे पर अपना गुस्सा निकालने के लिए वह उसके पीछे हो लिया। खरहे को पहले से इस होनी का अंदाज था और डर भी। क्योंकि अब सामना लोमड़ी से नहीं भालू से था।
रातभर के थके-हारे भूखे खरहे से वैसे भी दौड़ते नहीं बना था सो वह थोड़ी ही दूर पगडंडी पर मचे कीचड़ में छुप कर बैठ गया। इस तरह कि पूरा शरीर तो कीचड़ में धँसा, सिर्फ मुँह और आँखें ऊपर, मानो वह एक मेंढक हो। लाल आँखों वाला खौफनाक मेंढक, खरहे ने मन ही मन सोचा। थोड़ी ही देर बाद हड़बड़ाया भालू उधर आ निकला। ऐसे अजीब से मेंढक को देखकर चौंका। इतनी सुबह जब जंगल में चहल-पहल की शुरुआत भी न हुई हो, इस अजीबो-गरीब मेंढक से ही पूछना होगा कि क्या कोई खरगोश अभी-अभी यहाँ से गुजरा है क्या।
भालू अभी सोच ही रहा था कि खरहे ने भर्राई आवाज में टर्राने की कोशिश करते हुए पूछा कि खुशकिस्मत खरहे को बिदा करने आए थे क्या? सुबह गला फाड़कर पाठ करने के कारण खरहे की आवाज में बला का खरखरापन आ गया था- 'खरहे को कहीं से रुपया हाथ आ गया था सो सुबह की पहली बस पकड़कर अभी-अभी शहर निकल गया है वहीं नई जिंदगी शुरू करने। सबको नए वर्ष की शुभकामनाएँ देने के लिए कह गया है मुझे।'

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