ट्रैकिंग में हो गई लटकिंग
इस घटना को याद करके सब मुझे लटकिंग हीरो कहकर चिढ़ाते हैं। बात दो साल पहले की है जब हम 10 वीं में थे। उस साल हमारा ग्रुप ट्रैकिंग के लिए पास की एक पहाड़ी पर गया था। ट्रैकिंग के लिए हममें बड़ा ही उत्साह था। हममें से हर एक ने छोटा-मोटा सामान ट्रैकिंग बैग में भरा और ट्रेकिंग के लिए पहुँच गए। मैं पहले भी ट्रैकिंग पर जा चुका था तो मुझे ट्रैकिंग का अनुभव था तो मैं सभी दोस्तों को जानकारी दे रहा था कि ट्रैकिंग में बहुत ध्यान से चलना होता है। कदम बड़े संभालकर रखना होते हैं। पूरे ग्रुप के साथ चलना होता है वगैरह-वगैरह। मेरी इन सारी समझाइश के साथ हम ट्रैकिंग पर चले। हमारे साथ दो टीचर भी थे।
हम छोटी-छोटी पहाड़ी पर चढ़ते ही जा रहे थे। मैं टीम का लीडर था क्योंकि मैं सभी को जानकारियाँ जो दे रहा था। मेरे साथ मेरा दोस्त आदित्य भी था। हम दोनों टीचर से भी आगे चल रहे थे। तभी पत्थरों के बीच में हमें एक चिड़िया का घोंसला दिखाई दिया। मैंने चिल्लाकर आवाज लगाई और सारे बच्चों ने उस घोंसले को देखा। अब तो अपनी और भी झाँकी जम गई। मुझे भी मजा आ रहा था। अचानक आदित्य का पैर फिसल गया और वह एक जगह पहाड़ी के नीचे लटक गया। उसने जोर से आवाज लगाई बचाओऽऽऽ। मैंने पलटकर देखा तो वह एक पत्थर के सहारे लटक गया था। जहाँ वह लटका था उसके नीचे काँटे और बहुत से पत्थर पड़े थे जिनमें गिरने का मतलब गंभीर चोट ही था। मेरे तो होश उड़ गए। मैंने सर को आवाज लगाई और सर ने सारे बच्चों को पीछे किया और अपने हाथ के सहारे से उसे ऊपर खींचा। आदित्य को तो कोई चोट नहीं लगी परंतु मुझे खूब डाँट पड़ी। यह घटना हम दोस्तों में ट्रैकिंग में लटकिंग के नाम से चल पड़ी और आज दो साल बाद भी सारे दोस्त लटकिंग हीरो कहकर बुलाते हैं।
सोचो पहले क्या करना है?
जंगल के राजा शेर को एक दिन बड़े जोरों की भूख लगी। उसने सोचा कि क्यों न शिकार करके अपने खाने का इंतजाम किया जाए। यह सोचकर वह गुफा से बाहर निकला। उसे शिकार की तलाश में ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा और उसे एक खरगोश दिखाई दिया। शेर बड़ा खुश हुआ कि शिकार की तलाश में उसे ज्यादा भटकना नहीं पड़ा। वह खरगोश पर धावा बोलने ही वाला था कि उसे एक हिरण दिखाई दिया।
हिरण को देखकर शेर के मन में लालच आ गया उसने सोचा कि छोटे खरगोश के बजाय इस हिरण को ही क्यों न शिकार बनाया जाए। यह सोचकर उसने हिरण पर छलाँग लगाई। मगर हिरण तेज था इसलिए वह बच निकला। शेर ने हिरण का बहुत पीछा किया परंतु वह कुलाँचे भरता हुआ सरपट निकल गया और शेर के हाथ नहीं लगा। शेर को जब लगा कि हिरण का पीछा करना अब व्यर्थ है तो उसे खरगोश की याद आई। उसने सोचा कि अब खरगोश को खाकर ही भूख मिटा ली जाए। यह सोचकर वह उस जगह वापस आया जहाँ उसने खरगोश देखा था पर अब तक खरगोश भी वहाँ से जा चुका था। बेचारे शेर को भूखा ही सोना पड़ा। दोस्तों हमें जो मिल रहा है उसका महत्व समझते हुए उसका फायदा उठाना चाहिए। कभी हम बड़े के चक्कर में छोटी-छोटी चीजों को छोड़ देते हैं और बाद में वही छोटी चीजें हमसे दूर हो जाती हैं। कहना बस इतना भर है कि अपनी जिम्मेदारियाँ हमें तय करना चाहिए। जो काम पहले करना हैं वे पहले करें और जो काम बाद में किए जा सकते हैं उनके लिए जल्दी न मचाएँ।
छोटी के आँसू और रूपहला सेब
यह उस जमाने की बात है जब कोई महीना, वार या तिथि नहीं चलती थी। यानी बहुत पुरानी बात है। एक सदाबहार जंगल में तीन बहनें रहती थीं। उन्हें याद नहीं वे कब से वहाँ थीं। यानी बचपन से थीं। जैसा कि परीकथाओं में हो सकता है, उनके कोई माता-पिता, सगे-संबंधी नहीं थे। न ही उन्होंने किसी और मनुष्य को देखा था। अजीब बात तो यह थी कि सबसे बड़ी बहन की एक आँख थी कपाल के बीचों-बीच। मझली बहन की तीन आँखें थीं। एक कपाल के बीचों-बीच और दो बिलकुल बाजू में, कानों के पास।
सबसे छोटी बहन की दो साधारण आँखें थीं। ठीक वैसी ही जैसी आपकी-हमारी हैं। लेकिन उन तीन बहनों में तो वह एकदम अलग थी। इसलिए अटपटी आँखों वाली दोनों बहनें छोटी से कटी-कटी रहतीं। बड़ी होने के नाते उसे बिना कारण डाँटती, उपेक्षा करती। यहाँ तक कि खाने के लिए भी अपना बचा-खुचा देतीं। पहनने को अपना उतारा हुआ देतीं। हर वक्त जली-कटी सुनातीं सो अलग।
छोटी क्या करती? दुःखी रहती फिर भी खुश रहने का प्रयत्न करती। बड़ी बहनों से यह भी देखा नहीं जाता। सो वे उसे बकरी चराने के लिए भेज देतीं। उन तीनों के पास एक बकरी थी जिसकी आँखें भी अगल-बगल थीं। छोटी कभी कोई शिकायत नहीं करती थी, बोलती नहीं थी, न आँसू बहाती थी। इसलिए उसमें अद्भुत शक्ति थी वह बोलती तो फूल खिलने लगते। आँसू बहाती तो बादल घिर आते।
एक दिन की बात है। वह पलाश के पेड़ के नीचे उदास बैठी थी। पेड़ रह-रहकर उस पर पत्ते गिरा रहा था। मानो थपकियाँ दे रहा हो। बकरी भी चुपचाप बैठी थी। छोटी की उदासी इस कदर गहराई की उसकी आँखें भर आईं। पलाश की डाल पर बैठी वनदेवी ने उसे देखा। दरअसल वह हमेशा जंगल में उसका ध्यान रखती थी। आज वह छोटी के सामने प्रकट हो पूछ बैठी कि बेटी दुखी क्यों हो? छोटी ने बताया कि मेरी दीदियाँ मुझसे इतनी नाराज हैं कि आज उन्होंने मुझे बचा-खुचा भी खाने के लिए नहीं दिया।
वनदेवी ने कहा- दुख न मनाओ। गाना गाओ-बकरी बकरी मिमियाओ, पंच-पकवान ले आओ। तब जादू देखना। जब तुम्हारा मन भर जाए तब कहना- बकरी बकरी मिमिया लिया, भरपेट खाना खा लिया। तब जादू की चीज जादू से गायब हो जाएगी जैसे मैं। ऐसा कहकर वनदेवी भी अदृश्य हो गई।
छोटी ने सहमते हुए यह मंत्र दोहराया... और लो। उसके सामने टेबल क्लॉथ और गुलदस्ते सहित एक मेज-कुर्सी आ गई। देखते ही देखते उस पर चीनी की तश्तरी और तश्तरी में पकवान सज गए। छोटी और बकरी ने डट कर खाना खाया। फिर मंत्र पढ़कर मेज-कुर्सी-तश्तरी कोहवा में गुल कर दिया। अब रोज ही छोटी और बकरी जंगल में मंगल करते, दावत उड़ाते।
छोटी को बचा-खुचा खाते न देखकर दोनों बहनों के मन में खुटका हुआ। मामला जरूर गड़बड़ है। बड़ी ने कहा- चलो आज मैं भी जंगल चलती हूँ। तुम बकरी को ठीक से चराती हो या नहीं, मैं भी तो देखूँ। सारा दिन बड़ी बहन छोटी और बकरी के आसपास डोलती रही। छोटी भूखी रही और बकरी भी। क्योंकि बकरी को भी अब पकवानों का चस्का लग गया था। भूखे पेट कमजोरी के कारण लौटते समय छोटी गिर पड़ी और उसकी आँखें छलछला उठी। और तभी वनदेवी प्रकट हो उठी और छोटी के कानों में एक नया मंत्र बुदबुदा गई। उनींदी आँख तुम क्यों जागती हो? उनींदी आँख तुम क्यों न सोती हो?
दूसरे दिन बड़ी बहन फिर छोटी के साथ हो ली लेकिन आज छोटी ने मंत्र पढ़कर बड़ी बहन को नींद में सुला दिया। छोटी और बकरी ने छककर भोजन किया। जब बड़ी बहन जागी तब हवा में अभी भी पकवानों की महक थी। अपनी दाल गलती न देखकर तीसरे दिन बड़ी ने मँझली बहन को छोटी के साथ जंगल भेजा। छोटी ने वही मंत्र दोहराया। मंत्र से मँझली की एक आँख तो लग गई, बाकि दोनों आँखें सारा नजारा देखती रहीं। असलियत का पता लगने पर दुष्ट बहनों ने बकरी को ही जंगल में भगा दिया। न बकरी मिमियाएगी न स्वादिष्ट खाना आएगा।
अब छोटी को बहुत दुख हुआ। भूखे रहने से ज्यादा उसे रोना आया उसकी साथी बकरी के दूर हो जाने से। छोटी की आँखों से आँसू ढलकने की देर थी कि वनदेवी फिर सामने आ गई। इस बार उसने छोटी को एक अनोखा बीज दिया। बीज की माया अजब थी कि उसे बोने पर वहाँ एक सेब का सुनहरा पेड़ उग आया। ऊँचा और चमचमाता। हवा से उसके पत्ते हिलते तो सारे जंगल में झिलमिल रोशनी होती और सुरीला संगीत बजता। इस पेड़ पर रुपहले फल लगते जो खाने में मीठे, स्वाद में अनूठे और चेहरे पर रौनक लाते। लेकिन उनका जादू यह था कि वे छोटी के कहने पर सिर्फ उसके हाथों में ही आ टपकते।
लड़कियों को अंदाज नहीं था कि जादू का पेड़ क्या गजब ढा रहा है। उसकी महक, उसका संगीत और उसकी झिलमिल जंगल-झरने-पहाड़ पार कर राजा के महल तक जा पहुँची। राजकुमार पेड़ के जादू का दीवाना हो तमाम ऊबड़-खाबड़ लाँघ कर लड़कियों की झोपड़ी के ऐन सामने आ खड़ा हुआ। पहले तो लड़कियाँ चौंकी लेकिन राजकुमार का रौब ही कुछ ऐसा था कि वे उस पर मोहित हो गईं।
राजकुमार का ध्यान तो ऊपर पेड़ की ओर था। उसे आकर्षित करने के लिए दोनों बड़ी बहनें लगी राजकुमार के इर्द गिर्द लगर-भगर करने। कई कोशिशों बाद जब राजकुमार से फल न टूटा तो उसने लड़कियों से कहा कि जो उसे फल तोड़कर देगा वह उसकी मन की चाह पूरी करेगा। बड़ी और मँझली लगी पेड़ पर चढ़ने-उछलने लेकिन शरारती पेड़ था कि अपनी डालियाँ ऊपर कर लेता। तना हिला कर लड़कियों को गिरा देता। सौ-सौ बार कूदने पर भी वे फल तोड़ न सकीं।
अब छोटी आगे आई। पेड़ भैया सेब भैया कहते ही दो फल गिरकर उसके हाथों में समा गए। अब तो राजकुमार पर छोटी का जादू चल गया। इतनी सुंदर लड़की तो रानी बननी चाहिए। इसकी आँखें भी मेरी तरह ही हैं। उसी क्षण बड़ी और मँझली बहन के ध्यान में भी यह बात आई। वे देखती ही रहीं- कभी छोटी को कभी राजकुमार को। उनके ध्यान में भी नहीं आया कि कब राजकुमार घोड़े से उतरा, कब उसने छोटी का अभिवादन किया, कब उसे सहारा देकर घोड़े पर चढ़ाया। उनका सम्मोहन तब टूटा जब धूल उड़ाते हुए राजकुमार छोटी को लेकर नजरों से ओझल हो गया।
मास्टरजी की छतरी
वे ऐसे ही बरसात के दिन थे जैसे कि इन दिनों हैं। हम सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। सरकारी स्कूल क्या था बरसात में हर जगह से टपकता था। पर कुछ कमरे अच्छे भी थे और हमारा कमरा उनमें से एक था। वहाँ पानी नहीं टपकता था।
हमारे टीचर थे वर्मा सर। गणित पढ़ाते थे। हम गणित से बहुत घबराते थे। पर वर्मा सर के पढ़ाने का तरीका बहुत ही अच्छा रहता तो गणित मुश्किल नहीं लगता था। बरसात के उन दिनों में वर्मा सर हमेशा अपने साथ छतरी लेकर आते थे। चाहे पानी गिरे चाहे न गिरे। हमें अजीब लगता था कि जब धूप निकली हो तो छतरी लाने का क्या मतलब है। हमने सर से पूछा भी पर वे कहते थे तुम्हें इससे क्या?
खैर एक दिन सर क्लास में पढ़ाने के बाद छतरी वहीं भूलकर चले गए। हमने सोचा मौका अच्छा है और छतरी छुपा दी। दूसरे दिन सर बड़े परेशान लगे। उन्होंने हमसे कहा कि मेरी छतरी देखी क्या? तो हम ऐसे बन गए जैसे कुछ मालूम नहीं हो।
उसी दिन जब स्कूल छूटा जो जोरदार बारिश हुई और हम तो भीगकर घर पहुँचे पर सर को भी भीगते हुए जाना पड़ा। दूसरे दिन सर नहीं आए। तीसरे दिन भी नहीं आए। और जब चौथे दिन भी नहीं आए तो हम उनके घर पहुँचे। घर जाकर देखा तो सर बीमार थे।
उन्होंने बताया कि उन्हें पानी से ठंडी लग जाती थी इसलिए वे छतरी लेकर चलते थे। हमने उनका छाता लौटाते हुए उनसे माफी माँगी और अपने किए पर शर्मिन्दा हुए।
ठंडी रात में गुडपारों का रहस्य
दीपावली के बाद के दिन थे। स्कूलों की छुट्टियाँ खत्म हो गई थीं। इससे भी अधिक दुःख की बात त्यौहारों का खत्म होना था। यानी अब लंबे समय तक छुट्टियों के आसार नहीं थे। रातें ठंडी हो गई थीं। ट्यूशन से घर लौटते ही झुटपुटा छाने लगता जिससे बाहर बगीचे में खेलने जाने का सिलसिला बंद हो चला था। ऊपर से छःमाही परीक्षा का खौफ। ऐसे में कौन बच्चा खुश रह सकता था? कुक्की और बिन्ना का भी यही हाल था। सुबह मुँह-अँधेरे उठकर स्कूल जाने के समय से ही दोनों भाई-बहन कुनमुना रहे थे। क्या यही जिंदगी है? इस पर मम्मी क्या कहती? खाने की चटपटी चीजों से शायद बच्चों का मन बहल जाए यह सोचकर दोपहर में मम्मी ने गुड़ की चाशनी में आटा भिगोकर उससे गुड़पारे बनाए। चाशनी थोड़ी गड़बड़ होने से गुड़पारे जरा कड़क बने। फिर भी कुक्की और बिन्ना के अनमनेपन को उन्होंने काफी नर्म किया। दोपहर से ही आसमान में बादल घिर आए थे। नाक और होंठों को छीलने वाली ठंडी हवा चल रही थी। रात को शायद वर्षा हो... कुक्की ने गुड़पारे चबाते हुए कहा। हमारे जीवन में कितना दुःख है, मुलायम बिस्तर में घुसते हुए बिन्ना ने इस प्रकार जवाब दिया। सोचो, उनसब पशु-पक्षियों पर क्या गुजर रही होगी, कुक्की ने बिन्ना का दुःख दूसरों पर धकेला। बिन्ना अपना दर्द छोड़ना नहीं चाहती थी- कम से कम वे आजाद हैं जहाँ चाहें वहाँ आने-जाने के लिए। कुक्की सोचने लगा उन जंगली प्राणियों के बारे में जिन्हें मन कर चिड़ियाघर के पिंजरों में रहना पड़ता है। चौबीसों घंटे-सालों-साल एक ही कोठरी में रहना, जो मिले उसे खाकर पड़े रहना। शहर की सड़कों पर घूमने वाले आवारा जानवर भले जो अलग-अलग कूड़ेदानों से वैरायटी का कचरा तो खा सकते हैं।
ठीक उसी समय शहर के चिड़ियाघर का बाघा शेर भी ऐसा ही कुछ सोच रहा था। शहर में रहते हुए उसे लंबा समय हो गया था फिर भी बचपन में जंगल में बिताए दिन उसे याद थे। वनवासी लोग उसे बाघा-बाघा कहते थे। चिड़ियाघर के दूसरे जानवरों को भी उसने अपना यही नाम बतायाथा। पिछले दिनों शहर में होने वाले बम धमाकों और सुर्रीदार आवाजों से बाघा खासा परेशान रहा था। कई बार जलते हुए पटाखे उसके पिंजरे के बाहर आकर गिरे थे। तभी से उसने तय कर लिया था वह यहाँ से दूर चला जाएगा।
वह इंतजार में था कि बाहरी दुनिया का यह डरावना शोर तो खत्म हो। आज माहौल ठीक था। रात गहराई और जैसे ही पूरब में तीन तारों का खटोला पेड़ों के ऊपर निकला, बाघा ने कोने के ढीले सरिए को धक्का दिया और पिंजरे से बाहर आ गया। बाहर खंदक थी। भादौ की आखिरी वर्षा से उसमें भरा पानी भी कभी कासूख चुका था। बाघा मजे से उसमें उतर कर दूसरी ओर चढ़ आया। अब वह आजाद था, जैसा कि जंगल का राजा होता है। हालाँकि बाघा खुद को राजा-वाजा नहीं मानता था। वह ठाठ से चल दिया। ठाठ उसके स्वभाव में ही था। पड़ोस के पिंजरे वाला भालू इतनी गहरी नींद सो रहा था कि उसे जरा भी खुटका नहीं हुआ। चिड़ियाघर के सारे प्राणी ठंडक के कारण मुँह छुपाए सो रहे थे। यहाँ से वहाँ तक कोई मनुष्य नहीं था। मुख्य दरवाजे पर पहरा देने वाला चौकीदार भी अपने दड़बे में खुर्राटे भर रहा था। हल्का टल्ला भर देने की जरूरत थी कि छोटा दरवाजा खुल गया और बाघा सड़क पर आ गया।
पहले तो बाघा को कुछ भी समझ में नहीं आया। क्योंकि न तो उसे शहर का भूगोल पता था न ही उसके दिमाग में तय था कि क्या करना। जैसे रास्ता चला, बाघा उस पर चल पड़ा। सारा शहर सुनसान पड़ा था। दिवाली में लगाई गई रोशनी की लड़ियाँ अब भी चुपचाप जगमगा रही थीं। नकोई कुत्ता भौंक रहा था न मोटर गाड़िया पीं-पीं कर रही थीं। बाघा बस यहाँ-वहाँ देखता-सूँघता चला जा रहा था। उसने सुन रखा था कि शहर में कांक्रीट का जंगल उग रहा है, उसी को वह तलाश रहा था। एक दुकान के ओटले पर गुड़ी-मुड़ी हुए पड़े भिखारियों में कुछ हलचल हुई और एक बच्चे ने अपनी माँ से कहा कि देखो शेर जा रहा है। माँ ने बच्चे को अपनी चादर में लेते हुए उनींदे स्वर में कहा कि वह चला जाएगा, सो जाओ। बच्चा सो गया और बाघा आगे चल पड़ा।
अचानक एक अनचीन्ही खुशबू ने बाघा की नाक को सहलाया। बाघा ठिठककर उसकी टोह लेने लगा। यह तो बड़ी अनोखी है। यह तो वसंत में खिलने वाले फूलों की महक से ज्यादा सुहावनी है। ऐसा मन करता है कि इसे चाटकर देखो। सीधा रास्ता छोड़कर बाघा उस वस्तु की खोज में निकल पड़ा। खुशबू एक घर की खिड़की से आ रही थी। अभी-अभी एक बिल्ली वहाँ से निकली थी इसलिए खिड़की खुली रह गई थी। खिड़की ऊँचाई पर थी लेकिन बाघा एक छलाँग में ही उसकी मुंडेर पर पहुँच गया और थोड़ी धक्का-मुक्की करके अंदर घुस गया।
घर के भीतर ठंड बिलकुल नहीं थी। दो बच्चे मुलायम रजाई ओढ़े सो रहे थे। बाघा का मन हुआ कि वह भी उनके बीच घुसकर सो जाए। लेकिन पहले उसे खुशबू की पड़ताल करनी थी। बाघा ने दबे पाँव घर का मुआयना किया और मिनट भर में उसने रसोईघर में रखे गुड़पारे ढूँढ निकाले। बाघा ने पहले जी भर के गुड़पारों को सूँघा। फिर चाटकर देखा तो बहुत ही अनोखा स्वाद पाया। अब तो उससे रहा नहीं गया। वह उन्हें चबा-चबाकर खाने लगा। उसे अंदाज भी नहीं था कि भूरे-काले, गिट्टी-पत्थर जैसी यह वस्तु खाने में इतनी बेहतरीन हो सकती है। गुड़पारों से भरी परात मिनटों में खाली हो गई।
सुबह दूध के प्यालों में चीनी घोलते समय मम्मी का ध्यान खाली पड़ी परात पर गया। ओ माँ, गुड़पारे कहाँ चले गए? रात को मैं उन्हें ढँककर रखना भूल गई और यहीं छोड़ गई थी। उन्होंने कुक्की और बिन्ना से गुड़पारों के बारे में पूछा तो कुक्की ने कहा कि शायद यह उस शेर की करतूत होगी। अब मम्मी खीझ उठी। सुबह-सुबह यह कैसी चुहलबाजी है! तब बिन्ना ने कहा कि जाकर देखिए, एक शेर हमारे कमरे के गलीचे पर सोया हुआ है। अब मम्मी जरा सहमी। अखबार और चाय का प्याला बाजू में रखकर पापा बोले- मैं देखता हूँ कि मामला क्या है? कमरे में जाकर देखा तो वहाँ न शेर था न शेर की पूँछ। लेकिन पंजों के बड़े-बड़े निशान, जो जाहिर ही किसी बिलौटे के नहीं थे, और गलीचे से चिपके शेर के बालों को देखकर पापा ने अपना निर्णय दिया कि बच्चों की बात को खारिज नहीं किया जा सकता।
रात को बाघा ने सोचा कि इस शहर से वह ज्यादा दूर नहीं जा पाएगा। अच्छा यही होगा कि जब मन करे वह पिंजरे से बाहर आकर सैर- सपाटा कर ले। बाघा रात के चौथे प्रहर उठकर चिड़ियाघर अपने पिंजरे में लौट गया। न चौकीदार को पता चला न भालू को कि बीती रात क्याहुआ। ठंडी रात के गुड़पारे कुक्की-बिन्ना और बाघा के बीच का रहस्य बना रहा। अगले ही रविवार पूरा परिवार चिड़ियाघर गया। जैसे ही कुक्की और बिन्ना शेर के पिंजरे के पास जाकर खड़े हुए, बाघा भी दुम इठलाते हुए सलाखों के पीछे उनके सामने आकर खड़ा हो गयाऔर आँखों में आँखें डाले देखता रहा। उस समय कोई और दर्शक वहाँ होता तो कहता, मानो न मानो, उसने शेर को मुस्कुराते हुए देखा है।
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