मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

बड़ी-बड़ी 'बातों' से

आइए! धरती बचाएँ
22 अप्रैल : 'पृथ्‍वी दिवस' पर विशेष
रोहित बंछोर
बड़ी-बड़ी 'बातों' से
नहीं बचेगी धरती
वह बचेगी/छोटी-छोटी कोशिशों से
मसलन
हम नहीं फेंके कचरा इधर उधर
स्वच्छ रहेगी धरती
हम नहीं खोदें गड्‍ढे धरती पर
स्वस्थ रहेगी धरती
हम नहीं होने दें उत्सर्जित
विषैली गैसें
प्रदूषणात्मक रहेगी धरती
हम नहीं काटें जंगल
पानीदार रहेगी धरती
धरती को पानीदार बनाएँ
आइए! धरती बचाएँ

माँ सरस्वती से बच्चों की प्रार्थना
रोहित बंछोर

हे ज्ञान की देवी वीणावादिनी
सुन ले मेरी पुकार,
हाथ जोड़कर विनती करता
है यह बालक बारंबार।

हमारी पीड़ा दूर करने
कृपा करो माँ सरस्वती,
तेरा आशीष पाने की
है यह कैसी नीति!

शिक्षा देने का यह जिम्मा
जिन लोगों पर डाला तूने,
उन नीति नियंताओं की
देखो कैसी फिर गई है मति।

दया कर हम बच्चों पर माँ
दे इन बड़ों को तू सन्मति,
स्वार्थ की खातिर इन लोगों ने
ज्ञान मंदिरों की कर दी दुर्गति।

बेहाल हैं हम सब बच्चे
मन से सच्चे तन से कच्चे,
देख हमारे अरमानों के
कैसे उड़ रहे परखच्चे!
जानती तू बच्चों की है
कितनी निर्बल-कोमल काया,
शिक्षा देने का यह तरीका
हमको कभी न भाया।
नन्हे कंधों पर हम बच्चे
कितना बोझ उठाएँ,
स्कूली बस्तों में आखिर
कितनी किताबें सजाएँ।

निस दिन इन्हें उठा-उठाकर
कितना होता हमें दर्द,
पीड़ा हमारी देखकर भी
कोई न जाने मर्म।
कभी-कभी तो लगता है
यह शिक्षा है या सिरदर्द,
पढ़ना हमारी मजबूरी है
मौसम गर्म हो या फिर सर्द।

इधन बोझिल-जटिल किताबों ने
शिक्षा को ही बना दिया नीरस,
पढ़ने में नहीं लगता दिल
पर क्या करें हम बच्चे बेबस।
किताबें नहीं छोड़ती पीछा

स्कूल हो या फिर घर,
कभी होमवर्क की चिंता
कभी रहता परीक्षा का डर।
ऐसी शिक्षा किस काम की
जो छीन ले बच्चों का बचपन,
मुरझाए फूलों से भी क्या
कभी सजता है उपवन।

शिक्षा ऐसी दो हमें माँ
जिसमें मिले खुशी अपार,
ज्ञान और रंजन के साथ
मिले जीवन का आधार।
हमको भाए ऐसी शिक्षा
हँसते-खेलते पढ़े-लिखें हम,
किताबों से हो कभी न कोफ्‍त
मन में उमंग रहे हरदम।

आपातकाल के काले दिन
- शशींद्र जलधारी
25 जून उन्नीस सौ पचहत्तर,
जब ग्रहण लगा लोकतंत्र के सूरज पर।
छा गया आपातकाल का अँधियारा,
कतर दिए मौलिक अधिकारों के पर।।

था वो जुल्मो-सितम का दौर
नहीं पता था होगी भोर,
ठूँस-ठूँस कर भर दी जेलें
रौंद डाला कानून चहुँओर।।

वो बन बैठी थी तानाशाह
केवल सत्ता की खातिर,
कहने को तो थी वो नारी
पर थी वो दिल से अति शातिर।।

पूरा देश ही बना दिया था
एक किस्म का बंदीगृह,
न अपील थी न दलील थी
न सुना जा रहा था अनुग्रह।।

हमें न कहो तुम मीसाबंदी
हम हैं लोकतंत्र के प्रहरी,
आजादी की रक्षा के हित
जान भी दे देंगे हम अपनी।।

स्वतंत्र भारत के इतिहास का
था वो एक काला अध्याय,
जिसकी हर पंक्ति में लिखा
था मनमानी और अन्याय।।

दोबारा वो काले दिन
अब हम नहीं लौटने देंगे,
तोड़ देंगे उन हाथों को
जो जनतंत्र का गला घोंटेंगे

प्रजातंत्र के रक्षक हैं हम
लेते आज सब मिलकर प्रण,
सहन नहीं करेंगे हम अब
भारत माँ पर कोई आक्रमण।।

तानाशाही की मुखालिफत
को नाम दिया था देशद्रोह,
अगर यही सच है तो फिर
हम करेंगे बार-बार विद्रोह।।

(सन् 1975 में आपातकाल के दौरान लेखक तीन महीने इंदौर की जेल में निरुद्ध रहे।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें