बुधवार, 14 अप्रैल 2010

साहित्यिक कृतियां

छब्बीस इंच की काली साइकिल
अरुण बंछोर
जब भी कार को गैराज में पार्क करने के लिए या कहीं ले जाने के लिए मैं गैराज में जाता हूं तो मेरी निगाह साइकिल पर टिक जाती है। बच्चों का शोरगुल, दफ्तर जाने की जल्दी के चलते मैं अक्सर साइकिल पर सरसरी निगाह फेंकता हूं और नजरंदाज करके निकल जाता हूं। शायद यह भी मेरी एक आदत ही बन गई है। कभी-कभी मुझे लगता है कि यह साइकिल आम साइकिलों जैसी नहीं है, बल्कि अगर मैं कहूं कि यह खास साइकिल से भी कोई ऊपर के दर्जे की है तो गलत नहीं होगा। हालांकि साइकिल के दोनों पहियों में से हवा बिल्कुल निकल चुकी है और उसके पहिए रिम के साथ चिपक चुके हैं और कहीं-कहीं से रबर फट भी गया है। रिम को जंग लगा हुआ है और ब्रेक लैदर शहीद हो चुके हैं पर काठी पर हरे रंग का कवर साइकिल को आज भी जवान और तरोताजा बनाने में सहायक है। उसकी घंटी की टनटन की गूंज से ऐसा लगता है जैसे आज भी दिल उसमें तेजी से धडकता हो। कई सालों से साइकिल ऐसे ही इसतरह खडी होने के कारण गतिहीन जरूर हो गई है, इसके बावजूद एक खास किस्म की पहचान बना कर इस गैराज में खडी है। कई बार मैं सोचता हूं कि साइकिल को ध्यान से देखूं मगर कामकाज का बोझ ज्यादा होने के कारण ऐसा नहीं कर पा रहा हूं। .. बच्चों के पेपर खत्म हो गए हैं और वे अपनी मां के साथ ननिहाल गए हुए हैं। आज इतवार का दिन है। सुबह के सात बजने वालेहैं। मैंने अपने नौकर शामलाल को चाय बना कर गैराज में लाने के लिए कह दिया है। सिगरेट और लाइटर को गाउन की जेब में डालकर मैं सीधा गैराज की तरफ बढ गया और जाते ही शटर ऊपर उठा दिया। गाडी में बैठ कर मैंने सिगरेट सुलगायी और खिडकी का शीशा नीचे करके स्टीरियो ऑन कर दिया। कुछ समय के बाद शामलाल चाय ले कर आ गया। जैसे ही शामलाल ने हाथ में चाय का कप पकडाया तो मैंने उसे कहा, कोई मिलने के लिए आए तो उसे कह देना कि मैं घर पर नहीं। .. और कहते-कहते मैंने अपना मोबाइल फोन साइलेंट पर लगा दिया। चाय हाथ में पकड कर सिगरेट के कश खींचने लगा और जोर से धुआं साइकिल की चेन पर मारा तो मेरी नजर साइकिल की चेन पर अटक गई। साइकिल की चेन पर लगी ग्रीस पर पता नहीं कितनी मिट्टी पड चुकी थी। चेन की तरफ देखते-देखते मुझे एकदम बापू की याद आ गई। मुझे ऐसे लगा जैसे बापू अब भी साइकिल को ग्रीस दे रहे हैं। जैसे ही मैंने चेन से नजरें उठाई तो मेरा ध्यान अचानक साइकिल की फ्रेम पर गया तो मुझे अपना बचपन याद आने लग पडा। मुझे और मेरे कई दोस्तों को यही साइकिल चलाते देखकर बापू खुश होते थे। खुशी में बापू एक दिन बता रहे थे, जब मैंने नयी-नयी साइकिल खरीदी थी तो दूर-दूर से लोग साइकिल देखने आये थे। इससे भी मजे की बात यह है कि वह कहते थे कि मास्टर ने काले रंग की घोडी खरीदी है जो घास नहीं खाती। शुरू-शुरू में मुझे लगता था कि बापू तगडी गप्पे हांकते हैं और मुझे हंसी भी आती और विश्वास भी नहीं होता था, क्योंकि यह बात मेरी कल्पना से बाहर थी। पर यह मेरा भ्रम था जो बहुत जल्द ही टूट गया, जब बापू के किसी विद्यार्थी ने विदेश से टीवी भेजा तो सारे मुहल्ले वाले हमारे घर टीवी देखने आते और तरह-तरह की अजीबो-गरीब बातें करते। मुझे अच्छी तरह से याद है कि टीवी में पहली फिल्म पाकीजा दिखाई जानी थी। हमारा बरामदा और खुला आंगन लोगों से खचाखच भर गया था। फिल्म में एक जगह गाडी का सीन था। पूरी स्क्रीन पर गाडी छा गई थी। एक हट्टा-कट्टा नौजवान गाडी को अपनी तरफ आते देख कर डर से बाहर भाग गया था। ऐसी कई घटनाएं देखकर मुझे बापू के काले रंग की घोडी वाली बात ठीक लगनी शुरू हो गई थी। फिर एकदम मेरा ध्यान साइकिल की हैंडल पर गया तो मुझे याद आया हैंडल पर लटकता झोला, झोले में एक डायरी, स्कूल का हाजिरी रजिस्टर, कुछ किताबें और एक छोटा-सा गोल डंडा। डंडे का ख्याल आते ही मेरी आंखों के सामने बापू का गुस्सैल चेहरा घूमना शुरू हो गया। मुझे याद आया बापू अक्सर कहते थे, बिगडियां-तिगडियां दा डंडा पीर है। मैंने कई बार बापू से कहा था, .. या तो इस साइकिल को फेंक दो या किसी कबाडी को बेच दें। दुनिया इतनी तरक्की कर चुकी है और आपका वजूद इस पुरानी टूटी हुई साइकिल में ही अटक कर रह गया है.. अपने साथी मोहन सिंह की तरफ देखो। आटोमेटिक गियरों वाले स्कूटर पर स्कूल जाने लग पडे हैं। बापू समय तेजी से बदल रहा है पर आप हैं कि वहीं खडे हैं। आपको पता है कि बदलाव कुदरत का नियम है और हम लोग तो इंसान हैं। हममें बदलाव बहुत जरूरी है। बदलाव के बिना हम अधूरे हैं, अकेले हैं। जीते-जी उस फल की तरह हैं जो पककर गल रहा है.. सड रहा है..। मेरी इस बात पर बापू अक्सर चुप रहते थे और कई बार मेरी यह बात दोहराने पर एक दिन बापू ने कहा था, पुत्तर मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं कि बदलाव आना जरूरी है और हम सब लोग चाहते भी हैं पर जहां मोह होता है.. प्यार होता है.. वे इन सब बदलावों से दूर होता है और कुदरत के नियमों को तोडता है। प्यार अमर है.. प्यार अजर है.. प्यार आत्मा है.. प्यार परमात्मा है, प्यार में कोई बदलाव नहीं होता.. प्यार कभी नहीं मरता.. प्यार पर कोई नियम लागू नहीं होता। बापू ने अपनी बात को खुद ही काट दिया और कहा, यही प्यार है। पहले भी वही था और अब भी वही है.. प्यार सदा बना रहता है। इसीलिए प्यार आत्मा है.. प्यार परमात्मा है। परमात्मा कभी नहीं मरता.. मतलब प्यार कभी नहीं मरता.. इसीलिए इसका कोई नियम नहीं.. कोई चेंज नहीं। बापू कहते-कहते भावुकता की सारी हदें फलांग गए थे। उस दिन के बाद मैंने बापू को साइकिल के बारे में कुछ भी कहना बंद कर दिया था। अचानक मैं हडबडा उठा जब सिगरेट का हल्का-सा सेंक मेरी उंगली पर लगा। पर मुझे एक बात अब भी समझ नहीं आई कि रिटायरमेंट के बाद जैसे ही बापू ने साइकिल छोडी तो उन्होंने खाट पकड ली थी। आज मेरे बच्चे और पत्नी बार-बार मुझे साइकिल बाहर फेंकने के लिए या कबाडी को बेचने के लिए कहते हैं। आज मैं साइकिल को बाहर भी फेंक सकता हूं.. कबाडी को भी बेंच सकता हूं.. पर आज यह सब करने में असमर्थ हूं.. मेरा हौसला भी नहीं पडता.. शायद मैं.. बदलाव.. मुझे लगा जैसे मेरे ऊपर आज कुदरत का कोई नियम लागू नहीं हो रहा और मैं जल्दी से गाडी से निकलकर बाहर खुली हवा में आ जाता हूं।

हीरे का सेट
ओमप्रकाश बंछोर
डॉ. वर्मा की मिसेज इस बार मिलीं तो जेवरों से और अधिक लदी थीं, जैसे किसी जौहरी की दुकान में, शो केश में खडी मॉडल, जेवरों का विज्ञापन कर रही हो। इस बार उनके गले में, मोतियों का नया हार, कान में मोतियों के बडे-बडे बुंदे झूल रहे थे। मैंने पूछा, मिसेज वर्मा, इतना सुंदर सेट कहां से लिया? ये सेट तो इन्होंने मुझे हैदराबाद से लाकर दिया है। अच्छा! आपके जन्मदिन का तोहफा है। नहीं, नहीं, ये तो मस्तिष्क-ज्वर का उपहार है, जबसे यह बुखार फैला है, हमने कई चीजें लेलीं, ये तो कह रहे थे, कि यदि ये मस्तिष्क-ज्वर एक महीने और टिक जाये, तो मुझे हीरे का सेट देंगे।
गणमान्य
शेष नारायण बंछोर
शहर में कई दिनों से विज्ञापन-पोस्टर लग रहे थे, सिटी-चैनल में भी विज्ञापन आ रहा था, कि स्थानीय स्टेडियम में, एक बडा शो आयोजित किया जा रहा है, उसमें कोई टिकट भी नहीं लगेगा, पूर्णत: नि:शुल्क है। नियत तिथि पर स्टेडियम की तरफ जाने वाली भीड देख, उनका छ: वर्षीय नाती जिद करने लगा- बाबा, बाबा, मुझे भी शो दिखाने ले चलिये। बेटा, इतनी भीड में हम कैसे जायेंगे। मैं नहीं जानता, कैसे जायेंगे, मेरे सारे दोस्त भी जा रहे हैं, आप मुझे भी ले चलिये न। नाती की जिद के आगे, उन्हें झुकना पडा। वे स्टेडियम पहुंचे, बहुत भीड थी, वहां प्रवेश के लिये दो द्वार बने थे, एक पर लिखा था- सामान्य दूसरे पर गणमान्य। सामान्य की भीड देख, वो गणमान्य की तरफ बढे। जैसे अंदर घुसने लगे, द्वार पर तैनात सज्जन ने टोंका, कहां घुस रहे हैं ये गणमान्य लोगों के लिये हैं। हां, मैंने पढ लिया, मैं भी कालेज में प्रोफेसर हूं। नहीं, आप नहीं जा सकते, उनके कदम रुक गये, उनके पढाये स्नातक तक पढे छात्र सफेद कुत्र्ता-पाजामा पहने गणमान्य द्वार से धडाधड अंदर जा रहे थे।

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