हँसते-हँसते फाँसी चढ़ गए बांठिया
भारत को आजादी यूँ ही नहीं मिली। इसके लिए कई लोगों ने अपनी कुरबानी दी थी, तब जाकर हिन्दुस्तान स्वतंत्र हुआ। इन महानायकों की अपनी विशेष भूमिका रही। ग्वालियर के ऐसे ही महानायक शहीद अमरचंद बांठिया ने अपना जीवन मातृभूमि के नाम समर्पित करते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को अपने गले से लगा लिया। २२ जून को उनका बलिदान दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर कई कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं, पर जरूरत है इन कार्यक्रमों के साथ-साथ उन्हें सच्चे दिल से याद करने की।
कौन थे शहीद बांठिया
राजस्थान की राजपूतानी शौर्य भूमि में बीकानेर में शहीद अमरचंद बांठिया का जन्म 1793 में हुआ था। देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा शुरू से ही उनमें था। बाल्यकाल से ही अपने कार्यों से उन्होंने साबित कर दिया था कि देश की आन-बान और शान के लिए कुछ भी कर गुजरना है।
इतिहास में स्व. अमरचंद के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती, लेकिन कहा जाता है कि पिता के व्यावसायिक घाटे ने बांठिया परिवार को राजस्थान से ग्वालियर कूच करने के लिए मजबूर कर दिया और यह परिवार सराफा बाजार में आकर बस गया। तत्कालीन ग्वालियर रियासत के महाराज ने उन्हें उनकी कीर्ति से प्रभावित होकर राजकोष का कोषाध्यक्ष बना दिया।
सन १८५७ के विद्रोह ने देश की चारों दिशाओं में विप्लव की चिंगारी पैदा कर दी थी। भारतीय सैनिकों के लिए आर्थिक संकट की घड़ी पैदा होने के कारण कोई तत्कालीन हल नजर नहीं आ रहा था। ऐसे समय शहीद बांठिया ने भामाशाह बनकर सैनिकों और क्रांतिकारियों के लिए पूरा राजकोष खोल दिया। यह धनराशि उन्होंने ८ जून १८५८ को उपलब्ध कराई। उनकी मदद के बल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई दुश्मनों के छक्के छु़ड़ाने में सफल रहीं, लेकिन अँगरेज सरकार ने बांठिया के कृत्य को राजद्रोह माना और वीरांगना के शहीद होने के चार दिन बाद अमरचंद बांठिया को राजद्रोह के अपराध में सराफा में नीम के पेड़ पर फाँसी दे दी। अँगरेजों ने भले ही उन्हें फाँसी पर लटका दिया हो, पर उनका कार्य और शहादत हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।
अब आधा ही बचा नीम का पेड़
सराफा बाजार में जिस नीम के पेड़ पर अमर शहीद को फांसी दी गई थी, उसे कुछ लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते कुछ वर्षों पूर्व आधा कटवा दिया था, जिस वजह से ये पेड़ अब ठूँठ के रूप में आधा ही रह गया है।
सोमवार, 5 जुलाई 2010
कहानी
बँटवारे का चक्कर
एक जंगल में एक सियार अपनी पत्नी के साथ रहता था। एक दिन उसकी पत्नी को ताजी मछली खाने की तीव्र इच्छा हुई। सियार अपनी पत्नी से वादा कर नदी किनारे पहुँचा, ताकि मछलियों का कुछ जुगाड़ किया जा सके। वह बहुत देर तक वहाँ मछलियों की तलाश करता रहा पर उसे कुछ दिखलाई नहीं पड़ा।
तभी उसने वहाँ देखा कि दो ऊदबिलाव एक बड़ी मछली को नदी में से खींचकर बाहर ला रहे हैं। वह ऊदबिलावों के पास पहुँचा और उसने कहा- मित्रों, तुम दोनों ने मिलकर यह मछली पकड़ तो ली है, परंतु इसका बँटवारा तुम कैसे करोगे? ज्यादा अच्छा हो यदि तुम किसी तीसरे से इसका बँटवारा करवाओ।
दोनों ऊदबिलावों को यह बात जम गई। आसपास कोई तीसरा था नहीं, लिहाजा उन्होंने सियार से ही बँटवारा करने को कहा। सियार तो पहले से ही इस बात की फिराक में था कि किसी तरह इन दोनों को मूर्ख बनाकर बँटवारे का मामला जमा दिया जाए। खैर सियार ने मछली के तीन हिस्से किए। सिर एक ऊदबिलाव को दिया। पूँछ दूसरे को। बीच का पूरा हिस्सा लेकर वह अपने घर की ओर चलने लगा। ऊदबिलावों ने उसे रोका और पूछा- अरे, ये क्या करते हो? तुम तो मछली का बँटवारा हम दोनों में कर रहे थे।
सियार ने जवाब दिया- मूर्खों, तुम दोनों को बराबर का हिस्सा मिल चुका है। यह जो मैं ले जा रहा हूँ, वह तो मेरा मेहनताना है। यह कह कर वह मछली के बड़े हिस्से को लेकर चला गया। ऊदबिलावों ने अपना सिर धुन लिया।
अगर वे बँटवारे के चक्कर में न पड़ते तो उन्हें मछली का सारा हिस्सा मिलता और इस तरह सियार मछली को हड़प नहीं भी नहीं पाता । तब दोनों ने तय किया कि भविष्य में वे किसी भी तीसरे के चक्कर में नहीं आएँगे।
एक जंगल में एक सियार अपनी पत्नी के साथ रहता था। एक दिन उसकी पत्नी को ताजी मछली खाने की तीव्र इच्छा हुई। सियार अपनी पत्नी से वादा कर नदी किनारे पहुँचा, ताकि मछलियों का कुछ जुगाड़ किया जा सके। वह बहुत देर तक वहाँ मछलियों की तलाश करता रहा पर उसे कुछ दिखलाई नहीं पड़ा।
तभी उसने वहाँ देखा कि दो ऊदबिलाव एक बड़ी मछली को नदी में से खींचकर बाहर ला रहे हैं। वह ऊदबिलावों के पास पहुँचा और उसने कहा- मित्रों, तुम दोनों ने मिलकर यह मछली पकड़ तो ली है, परंतु इसका बँटवारा तुम कैसे करोगे? ज्यादा अच्छा हो यदि तुम किसी तीसरे से इसका बँटवारा करवाओ।
दोनों ऊदबिलावों को यह बात जम गई। आसपास कोई तीसरा था नहीं, लिहाजा उन्होंने सियार से ही बँटवारा करने को कहा। सियार तो पहले से ही इस बात की फिराक में था कि किसी तरह इन दोनों को मूर्ख बनाकर बँटवारे का मामला जमा दिया जाए। खैर सियार ने मछली के तीन हिस्से किए। सिर एक ऊदबिलाव को दिया। पूँछ दूसरे को। बीच का पूरा हिस्सा लेकर वह अपने घर की ओर चलने लगा। ऊदबिलावों ने उसे रोका और पूछा- अरे, ये क्या करते हो? तुम तो मछली का बँटवारा हम दोनों में कर रहे थे।
सियार ने जवाब दिया- मूर्खों, तुम दोनों को बराबर का हिस्सा मिल चुका है। यह जो मैं ले जा रहा हूँ, वह तो मेरा मेहनताना है। यह कह कर वह मछली के बड़े हिस्से को लेकर चला गया। ऊदबिलावों ने अपना सिर धुन लिया।
अगर वे बँटवारे के चक्कर में न पड़ते तो उन्हें मछली का सारा हिस्सा मिलता और इस तरह सियार मछली को हड़प नहीं भी नहीं पाता । तब दोनों ने तय किया कि भविष्य में वे किसी भी तीसरे के चक्कर में नहीं आएँगे।
सुरक्षा
कैसे करें छोटे कीड़ों से बचाव
इन दिनों कीड़े जो दिखाई नहीं देते वे भी शरीर को नुकसान पहुँचाते हैं। खुजली, सूजन और एलर्जी इन्हीं की देन है। ये अधिकतर नमी और गरम स्थानों पर डेरा डाले रहते हैं। इनसे बचने के लिए :
1. घर में धूल न जमने दें।
2. घर के हर कोने की नियमित सफाई करें।
3. बेडशीट, तकिए, गद्दे आदि को झटककर साफ करते रहें।
4. पायरेथ्रिन स्प्रे या पावडर छिड़कने से भी इनसे निजात मिल सकती है।
5. पालतू जानवरों को शैम्पू करने के बाद ही कमरों में लाएँ।
6. बिस्तर इस मौसम में नम हो जाते हैं इसलिए जैसे ही धूप निकले बिस्तर को धूप में रखें।
इन दिनों कीड़े जो दिखाई नहीं देते वे भी शरीर को नुकसान पहुँचाते हैं। खुजली, सूजन और एलर्जी इन्हीं की देन है। ये अधिकतर नमी और गरम स्थानों पर डेरा डाले रहते हैं। इनसे बचने के लिए :
1. घर में धूल न जमने दें।
2. घर के हर कोने की नियमित सफाई करें।
3. बेडशीट, तकिए, गद्दे आदि को झटककर साफ करते रहें।
4. पायरेथ्रिन स्प्रे या पावडर छिड़कने से भी इनसे निजात मिल सकती है।
5. पालतू जानवरों को शैम्पू करने के बाद ही कमरों में लाएँ।
6. बिस्तर इस मौसम में नम हो जाते हैं इसलिए जैसे ही धूप निकले बिस्तर को धूप में रखें।
जीवन के रंगमंच से ...
बंद करो, यह बंद...!
स्मृति जोशी
बंद, यानी सब कुछ बंद। सब शांत और सड़कों पर पसरा सन्नाटा। मगर यह क्या? यह कैसा बंद है? बंद, जिसमें सब चल रहा है। सब बढ़ रहा है। बंद, जिसमें हिंसा चल रही है। बंद, जिसमें परेशानी बढ़ रही है। इस बंद में इतना शोर है, डर और आतंक है तो फिर यह कैसा बंद है? आज महँगाई के विरोध में भारत बंद का आह्वान है। हर छोटे-बड़े शहरों में बंद का असर देखा जा रहा है। जो बंद नहीं है उसे करवाया जा रहा है।
सवाल यह है कि किसी बात के विरोध का यह तरीका अगर स्वीकार्य है तो सिर्फ और सिर्फ इस शर्त पर कि सब कुछ शांतिपूर्ण और अनुशासन में होगा। लेकिन देश भर में ऐसे बंद कैसे और किस प्लानिंग के साथ अंजाम दिए जाते हैं यह हम जानते हैं। लेकिन बेबस हैं हम। यह बंद आखिर हमारे लिए ही तो हो रहा है।
इस बंद में जिस तरह की तस्वीरें सामने आ रही है, वह निहायत ही शर्मनाक है। ट्रेन और बस से उतरते यात्रियों के साथ बिना बात की मारपीट और बदतमीजी! आखिर किसने इन बंद समर्थकों को यह हक दिया कि सरेआम किसी के साथ अशोभनीय-असम्मानजनक व्यवहार करें? निहत्थे और निर्दोष यात्री कुछ समझे-संभले उससे पहले चाँटों की बरसात! कितना भद्दा लगता है यह सोचकर कि हमारे अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं। हमारी अपनी कोई इच्छा या जरूरत नहीं। हमारी अपनी कोई जिंदगी नहीं। हमें जो भी करना है किसी और के द्वारा रचे गए सत्ता के घिनौने खेल को देखते हुए करना है। यह कैसे शुभचिंतक हैं हमारे जो हमारे हक के लिए लड़ रहे हैं लेकिन हमसे ही लड़ रहे हैं। हमें ही पीट रहे हैं। बसों में तोड़फोड़, आगजनी, हाथापाई? ये कैसी असभ्यता पर उतर आते हैं तथाकथित 'सामाजिक' लोग?
बंद में जो वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं वह हैं यात्री। जिनकी ना जाने कौन-सी ऐसी मजबूरी थी कि घर से निकलना ही पड़ा है। हम नहीं समझते ऐसी किसी भी मजबूरी को। संवेदनशीलता के स्तर पर हमारी सोच वहाँ तक पहुँचती ही नहीं है जहाँ तक पहुँचना मानवीय होने की पहली शर्त है। परेशान होने वाले अन्य वर्ग में शामिल होते हैं महिलाएँ, बच्चे और मरीज।
बार-बार कहें और बार-बार लिखें, तब भी मानसिक रूप से लाचार उपद्रवी वर्ग को यह बात कभी समझ में नहीं आती कि शासन करने के लिए दबाव से दिलों में जगह नहीं बनाई जा सकती। सामान्य-जन के दिलों में स्थान बनाने के लिए उन्हें सम्मान और सुरक्षा की दरकार है। अगर महँगाई को कम करने की माँग के लिए हल्की हरकतें की जाती हैं तो बेहतर है कि महँगाई बनी रहे लेकिन सभ्यता सस्ती ना हो, संस्कार सस्ते ना हो और कानून सस्ता ना हो। 'बंद' अगर इतना 'खुला' है गलत गतिविधियों के लिए, तो बंद करो यह 'बंद'...!
स्मृति जोशी
बंद, यानी सब कुछ बंद। सब शांत और सड़कों पर पसरा सन्नाटा। मगर यह क्या? यह कैसा बंद है? बंद, जिसमें सब चल रहा है। सब बढ़ रहा है। बंद, जिसमें हिंसा चल रही है। बंद, जिसमें परेशानी बढ़ रही है। इस बंद में इतना शोर है, डर और आतंक है तो फिर यह कैसा बंद है? आज महँगाई के विरोध में भारत बंद का आह्वान है। हर छोटे-बड़े शहरों में बंद का असर देखा जा रहा है। जो बंद नहीं है उसे करवाया जा रहा है।
सवाल यह है कि किसी बात के विरोध का यह तरीका अगर स्वीकार्य है तो सिर्फ और सिर्फ इस शर्त पर कि सब कुछ शांतिपूर्ण और अनुशासन में होगा। लेकिन देश भर में ऐसे बंद कैसे और किस प्लानिंग के साथ अंजाम दिए जाते हैं यह हम जानते हैं। लेकिन बेबस हैं हम। यह बंद आखिर हमारे लिए ही तो हो रहा है।
इस बंद में जिस तरह की तस्वीरें सामने आ रही है, वह निहायत ही शर्मनाक है। ट्रेन और बस से उतरते यात्रियों के साथ बिना बात की मारपीट और बदतमीजी! आखिर किसने इन बंद समर्थकों को यह हक दिया कि सरेआम किसी के साथ अशोभनीय-असम्मानजनक व्यवहार करें? निहत्थे और निर्दोष यात्री कुछ समझे-संभले उससे पहले चाँटों की बरसात! कितना भद्दा लगता है यह सोचकर कि हमारे अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं। हमारी अपनी कोई इच्छा या जरूरत नहीं। हमारी अपनी कोई जिंदगी नहीं। हमें जो भी करना है किसी और के द्वारा रचे गए सत्ता के घिनौने खेल को देखते हुए करना है। यह कैसे शुभचिंतक हैं हमारे जो हमारे हक के लिए लड़ रहे हैं लेकिन हमसे ही लड़ रहे हैं। हमें ही पीट रहे हैं। बसों में तोड़फोड़, आगजनी, हाथापाई? ये कैसी असभ्यता पर उतर आते हैं तथाकथित 'सामाजिक' लोग?
बंद में जो वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं वह हैं यात्री। जिनकी ना जाने कौन-सी ऐसी मजबूरी थी कि घर से निकलना ही पड़ा है। हम नहीं समझते ऐसी किसी भी मजबूरी को। संवेदनशीलता के स्तर पर हमारी सोच वहाँ तक पहुँचती ही नहीं है जहाँ तक पहुँचना मानवीय होने की पहली शर्त है। परेशान होने वाले अन्य वर्ग में शामिल होते हैं महिलाएँ, बच्चे और मरीज।
बार-बार कहें और बार-बार लिखें, तब भी मानसिक रूप से लाचार उपद्रवी वर्ग को यह बात कभी समझ में नहीं आती कि शासन करने के लिए दबाव से दिलों में जगह नहीं बनाई जा सकती। सामान्य-जन के दिलों में स्थान बनाने के लिए उन्हें सम्मान और सुरक्षा की दरकार है। अगर महँगाई को कम करने की माँग के लिए हल्की हरकतें की जाती हैं तो बेहतर है कि महँगाई बनी रहे लेकिन सभ्यता सस्ती ना हो, संस्कार सस्ते ना हो और कानून सस्ता ना हो। 'बंद' अगर इतना 'खुला' है गलत गतिविधियों के लिए, तो बंद करो यह 'बंद'...!
देसी गर्ल
रोशनी चोपड़ा बनी देसी गर्ल
‘देसी गर्ल’ की विजेता का नाम घोषित होने से पहले कश्मीरा शाह का दावा सबसे मजबूत माना जा रहा था। दूसरा नाम इशिता अरुणा का था। तीसरी फाइनलिस्ट रोशनी चोपड़ा को कमजोर प्रतिद्वंद्वी कहा जा रहा था, लेकिन जो परिणाम घोषित हुआ उससे सब चौंक गए। रोशनी चोपड़ा ने ‘देसी गर्ल’ का खिताब अपने नाम कर लिया।
चंडीगढ़ के निकट सियाल्बा माजरी नामक गाँव में आठ लड़कियों ने ग्रामीण जिंदगी जी। चूल्हे पर खाना पकाया, गोबर उठाया, भैंसों को नहलाया और वो सभी काम किए जो गाँव में रहने वाली लड़की करती है। लेकिन लोगों का दिल जीतने में रोशनी कामयाब रहीं।
30 वर्षीय रोशनी को सियाल्बा माजरी के लोगों के अलावा पूरे भारत से सर्वाधिक वोट मिले।
‘देसी गर्ल’ की विजेता का नाम घोषित होने से पहले कश्मीरा शाह का दावा सबसे मजबूत माना जा रहा था। दूसरा नाम इशिता अरुणा का था। तीसरी फाइनलिस्ट रोशनी चोपड़ा को कमजोर प्रतिद्वंद्वी कहा जा रहा था, लेकिन जो परिणाम घोषित हुआ उससे सब चौंक गए। रोशनी चोपड़ा ने ‘देसी गर्ल’ का खिताब अपने नाम कर लिया।
चंडीगढ़ के निकट सियाल्बा माजरी नामक गाँव में आठ लड़कियों ने ग्रामीण जिंदगी जी। चूल्हे पर खाना पकाया, गोबर उठाया, भैंसों को नहलाया और वो सभी काम किए जो गाँव में रहने वाली लड़की करती है। लेकिन लोगों का दिल जीतने में रोशनी कामयाब रहीं।
30 वर्षीय रोशनी को सियाल्बा माजरी के लोगों के अलावा पूरे भारत से सर्वाधिक वोट मिले।
सोनम कपूर
एक हीरोइन बहन-बेटी जैसी
अनिल कपूर की बेटी सोनम क्या कभी कोई बोल्ड भूमिका करेंगी? बोल्ड कपड़े पहनेंगी? बोल्ड संवाद अदा करेंगी? पर्दे पर वे हीरोइन कम और भले घर की बहन-बेटी अधिक जान पड़ती हैं। जाहिर है निर्देशकों को निर्देश रहते हैं कि सोनम पर कैमरा बहन-बेटी वाली नजर से घूमे। अभी तक सोनम की तीन फिल्में आई हैं और तीनों में सोनम बहन-बेटी ही लगी हैं। दर्शकों के अचेतन में यह बात बजती रहती है कि यह लड़की अनिल कपूर की बेटी है।
लड़कियों के प्रति फिल्म इंडस्ट्री का यह दोहरा रवैया है। जो लड़की किसी बड़े आदमी की बहन-बेटी नहीं है, उसे कैमरा गरीब की जोरू की तरह बेवजह यहाँ-वहाँ से घूरकर देखता है। मगर बड़े आदमी की बेटी सामने आते ही कैमरे की नजर पैरों के ऊपर नहीं जाती। यह गलत रवैया है। इस तरह के रवैए के साथ बड़े आदमी की बहन-बेटी दो-चार फिल्में तो कर सकती हैं, ज्यादा नहीं।
करिश्मा कपूर ने अपनी पहली ही फिल्म में बिकनी पहनी थी। करीना अपने बदन को अपनी मर्जी से ढँकती-उघाड़ती हैं। जहाँ जरूरी समझती हैं, वहाँ पीछे नहीं रहतीं और जहाँ जरूरी न हो, वहाँ उनसे कहने की किसी में हिम्मत भी नहीं है।
सोहा अली खान कुछ समय तक शर्मिला की बेटी और सैफ की बहन बनकर रहीं मगर हाल ही में आई एक फिल्म में उन्होंने चुंबन दृश्य भी दिए हैं। राजेश खन्ना की बेटी ट्विंकल और रिंकी खन्ना ने भी जितनी फिल्में की उनमें कहीं भी यह नहीं था कि ये हीरो-हीरोइन की बेटियाँ हैं। खुद काजोल की अपनी इतनी बड़ी पहचान बनी कि लोग उन्हें तनुजा की बेटी के रूप में याद नहीं करते।
कई लड़कियाँ आती हैं और वे सोचती हैं कि कैमरे के सामने कम कपड़ों में पेश होने से कामयाबी मिल जाएगी। अगर अंग-प्रदर्शन कामयाबी की जमानत नहीं है, तो बहनजी टाइप रहने से भी कामयाबी मिलेगी इसमें शक है।
कैमरे के सामने जब कोई लड़की हो, तो उसे यह भूल जाना चाहिए कि वह किसकी बेटी है, या किसकी बेटी नहीं है। वहाँ तो रोल के मुताबिक ही पोशाक और हाव-भाव होने चाहिए।
सोनम कपूर को देखकर एक किस्म की उलझन होती है। यह उलझन निर्देशक द्वारा बरते गए उस लिहाज से पैदा होती है जिसके तहत वे अनिल कपूर की बेटी को कपूर की टिकिया की तरह ढँककर, लपेटकर पेश करते हैं। हवा लगने से कपूर उड़ सकता है सोनम कपूर नहीं। आधुनिक कपड़े भी सोनम को पहनाए जाते हैं, तो यह ध्यान रखा जाता है कि "बेबी" वल्गर न लगे।
फिल्म "आई हेट लव स्टोरीज" में नायक के लिए दैहिक-संबंध कोई मायने नहीं रखते, मगर वह नायिका को पूजनीय ही बनाए रखता है। उसके साथ चुंबन तक की स्वतंत्रता नहीं लेता। सोनम कपूर इस तरह तो बहुत देर तक नहीं चल पाएगी। फिल्म इंडस्ट्री उन्हें अनिल कपूर की बेटी समझकर हमेशा लिहाज कर सकती है, पर दर्शक नहीं।
कुछ दिन बाद दर्शक सोनम कपूर का नाम सुनते ही अंदाजा लगा लेंगे कि उनका रोल किस तरह का होगा। यह सोनम कपूर के लिए भी खतरनाक है और उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले अन्य लोगों के लिए भी।
अनिल कपूर की बेटी सोनम क्या कभी कोई बोल्ड भूमिका करेंगी? बोल्ड कपड़े पहनेंगी? बोल्ड संवाद अदा करेंगी? पर्दे पर वे हीरोइन कम और भले घर की बहन-बेटी अधिक जान पड़ती हैं। जाहिर है निर्देशकों को निर्देश रहते हैं कि सोनम पर कैमरा बहन-बेटी वाली नजर से घूमे। अभी तक सोनम की तीन फिल्में आई हैं और तीनों में सोनम बहन-बेटी ही लगी हैं। दर्शकों के अचेतन में यह बात बजती रहती है कि यह लड़की अनिल कपूर की बेटी है।
लड़कियों के प्रति फिल्म इंडस्ट्री का यह दोहरा रवैया है। जो लड़की किसी बड़े आदमी की बहन-बेटी नहीं है, उसे कैमरा गरीब की जोरू की तरह बेवजह यहाँ-वहाँ से घूरकर देखता है। मगर बड़े आदमी की बेटी सामने आते ही कैमरे की नजर पैरों के ऊपर नहीं जाती। यह गलत रवैया है। इस तरह के रवैए के साथ बड़े आदमी की बहन-बेटी दो-चार फिल्में तो कर सकती हैं, ज्यादा नहीं।
करिश्मा कपूर ने अपनी पहली ही फिल्म में बिकनी पहनी थी। करीना अपने बदन को अपनी मर्जी से ढँकती-उघाड़ती हैं। जहाँ जरूरी समझती हैं, वहाँ पीछे नहीं रहतीं और जहाँ जरूरी न हो, वहाँ उनसे कहने की किसी में हिम्मत भी नहीं है।
सोहा अली खान कुछ समय तक शर्मिला की बेटी और सैफ की बहन बनकर रहीं मगर हाल ही में आई एक फिल्म में उन्होंने चुंबन दृश्य भी दिए हैं। राजेश खन्ना की बेटी ट्विंकल और रिंकी खन्ना ने भी जितनी फिल्में की उनमें कहीं भी यह नहीं था कि ये हीरो-हीरोइन की बेटियाँ हैं। खुद काजोल की अपनी इतनी बड़ी पहचान बनी कि लोग उन्हें तनुजा की बेटी के रूप में याद नहीं करते।
कई लड़कियाँ आती हैं और वे सोचती हैं कि कैमरे के सामने कम कपड़ों में पेश होने से कामयाबी मिल जाएगी। अगर अंग-प्रदर्शन कामयाबी की जमानत नहीं है, तो बहनजी टाइप रहने से भी कामयाबी मिलेगी इसमें शक है।
कैमरे के सामने जब कोई लड़की हो, तो उसे यह भूल जाना चाहिए कि वह किसकी बेटी है, या किसकी बेटी नहीं है। वहाँ तो रोल के मुताबिक ही पोशाक और हाव-भाव होने चाहिए।
सोनम कपूर को देखकर एक किस्म की उलझन होती है। यह उलझन निर्देशक द्वारा बरते गए उस लिहाज से पैदा होती है जिसके तहत वे अनिल कपूर की बेटी को कपूर की टिकिया की तरह ढँककर, लपेटकर पेश करते हैं। हवा लगने से कपूर उड़ सकता है सोनम कपूर नहीं। आधुनिक कपड़े भी सोनम को पहनाए जाते हैं, तो यह ध्यान रखा जाता है कि "बेबी" वल्गर न लगे।
फिल्म "आई हेट लव स्टोरीज" में नायक के लिए दैहिक-संबंध कोई मायने नहीं रखते, मगर वह नायिका को पूजनीय ही बनाए रखता है। उसके साथ चुंबन तक की स्वतंत्रता नहीं लेता। सोनम कपूर इस तरह तो बहुत देर तक नहीं चल पाएगी। फिल्म इंडस्ट्री उन्हें अनिल कपूर की बेटी समझकर हमेशा लिहाज कर सकती है, पर दर्शक नहीं।
कुछ दिन बाद दर्शक सोनम कपूर का नाम सुनते ही अंदाजा लगा लेंगे कि उनका रोल किस तरह का होगा। यह सोनम कपूर के लिए भी खतरनाक है और उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले अन्य लोगों के लिए भी।
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