बुधवार, 10 मार्च 2010

इरफान खान का बचपन

बचपन के दिन जंगल और शिकार
दोस्तो, मेरा जन्म जयपुरClick here to see more news from this city में हुआ और यहीं मैं पला और बड़ा हुआ। स्कूल के दिनों से ही मैं पढ़ने में बहुत तेज स्टूडेंट नहीं था। और खासकर स्कूल जाने से मुझे बहुत चिढ़ होती थी। सुबह 6.30 बजे स्कूल जाना और दोपहर में 4 बजे तक वापस आना मुझे बहुत बोरिंग काम लगता था।
इसके बजाय मुझे क्रिकेट खेलना बहुत ही अच्छा लगता था। मैं अपने पड़ोस में और चौगान स्टेडियम में जाकर क्रिकेट खेलने में खूब रुचि लेता था और बड़ा होकर क्रिकेटर ही बनना चाहता था। क्रिकेट में मेरी प्रैक्टिस भी खूब अच्छी थी और सीके नायडू ट्रॉफी के लिए मेरा सिलेक्शन भी लगभग हो गया था। पर जब घर पर सभी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने इसके लिए इजाजत नहीं दी। घर पर सभी को यह ठीक नहीं लगा कि मैं क्रिकेट खेलूँ। इस तरह मेरा क्रिकेट छूट गया।
क्रिकेट छोड़ने के बाद मुझे ठीक तरह से ग्रेजुएशन करने को कहा गया। पता नहीं कुछ भारी-भरकम विषय भी मुझे दिला दिए गए ताकि मेरा ध्यान पढ़ाई में ही लगा रहे। वैसे अब मुझे लगता है कि पढ़ाई करने से मुझे बहुत सारी चीजों की समझ मिली वरना मैं किसी काम में आगे नहीं बढ़ पाता। पर ग्रेजुएशन के साथ ही मैंने एक्टिंग की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया। पहले मैं कुछ नए कलाकारों के साथ एक्टिंग सीखने की कोशिश करने लगा। फिर मेरी मुलाकात नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के एक शख्स से हुई। वे कॉलेजों में जाकर नाटक किया करते थे। मैं भी उनके साथ उनकी टीम में शामिल हो गया और स्टूडेंट्‍स के साथ कॉरिडोर में, क्लासरूम में और कैंटीन में ड्रामा करते हुए ही एक्टिंग के प्रति मेरी समझ बढ़ी और मैं इस दिशा में करियर को लेकर गंभीर हुआ।
बड़ा होने पर कोई डॉक्टर बन जाता है तो कोई एक्टर। बड़ा होने पर चाहे हम कुछ भी बन जाएँ पर सभी को अपने बचपन के दिनों की याद तो आती ही है। बचपन के दिन सबसे मजेदार होते हैं। इन दिनों की घटनाएँ बड़ा हो जाने पर ही कहीं ना कहीं याद आती ही है। इसके बाद सीरियल और फिल्में मिलने लगी और फिर इरफान खान अभिनेता हो गए। फिल्मों में भी मैं अपने रोल को लेकर बहुत ज्यादा मेहनत करता हूँ। मुझे लगता है कि काम को दिल लगाकर करना चाहिए। यह बात आप सभी पाठकों के लिए भी जरूरी है। क्योंकि इन दिनों अगर आप दिल लगाकर पढ़ाई करेंगे तो अच्छे नंबरों के साथ अगली कक्षा में जाओगे।
बड़ा होने पर कोई डॉक्टर बन जाता है तो कोई एक्टर। बड़ा होने पर चाहे हम कुछ भी बन जाएँ पर सभी को अपने बचपन के दिनों की याद तो आती ही है। बचपन के दिन सबसे मजेदार होते हैं। इन दिनों की घटनाएँ बड़ा हो जाने पर ही कहीं ना कहीं याद आती ही है।
मैं अपने बचपन के दिनों को याद करता हूँ तो पिताजी के साथ शिकार खेलने जाने की यादें आती हैं। दोस्तो, जब मैं छोटा था तब जयपुर के आसपास घने जंगल थे। इन्हीं जंगलों में मेरे पिताजी हर सप्ताह शिकार के लिए जाते थे। मैं भी बहुत-सी बार उनके साथ गया हूँ। बचपन में मुझे जंगल में रात बिताना बहुत ही रोमांचक लगता था। वैसे बचपन में मुझे शूटिंग बिलकुल भी पसंद नहीं थी। यह प्रश्न मेरे मन में हमेशा आता था कि पिताजी जानवरों का शिकार क्यों करते हैं। पर यह बात पिताजी से पूछने की हिम्मत कभी नहीं हुई।
बाद में मुझे पता लगा कि शिकार का शौक मेरे पिता ने उनके पिता से पाया था। जब भी मुझे डर लगता था तो वे मुझे बहादुर बनने को कहते थे। जब मैं 10 साल का था तब शिकार करने पर रोक लग गई। खैर, अब मैं देखता हूँ कि सभी के समझ में यह बात आ गई है कि हमारे आसपास के परिंदे और जानवर हमारे जीवन का हिस्सा हैं और इनका शिकार नहीं करना चाहिए। अब तो शिकार रोकने के लिए बहुत सख्‍त कानून भी बन गए हैं। यह अच्छी बात है। वैसे कभी भी किसी जंगल के दृश्य को देखकर मुझे अपने बचपन के दिनों की याद आ ही जाती है।

आपका
इरफान खान

अजब-गजब

मदद करके खुश होते हैं चिंपाजी
चिंपाजी एक-दूसरे के हावभाव को देखकर भी बातों को समझ लेते हैं। दूसरों के हावभाव की समझ भी मदद करने का भाव मन में पैदा करने का काम करती है। चिंपाजी तभी मदद करने का प्रयास करते हैं जब कोई उनसे मदद माँगता है।
विज्ञान की दुनिया से इन दिनों खबर है कि सिर्फ मनुष्य ही उदार नहीं है बल्कि चिंपाजी भी इसमें पीछे नहीं है। दूसरों को दुख में देखकर मदद का भाव चिंपाजी के मन में भी आता है, ऐसा शोध करने वालों का कहना है। मनुष्य और चिंपाजी दोनों ही अपने दूसरे साथियों के प्रति संवेदनशील होते हैं। मनुष्य तो प्रकृति का सबसे समझदार प्राणी है पर चिंपाजी भी इस तरह से सोचते हैं, इस बात का पता चलना विज्ञान की दुनिया के लिए नई बात है।
इसमें महत्वपूर्ण है कि चिंपाजी अपने दूसरे साथियों के कामकाज का ध्यान रखते हैं, तभी तो उन्हें पता चलता है कि दूसरे को मदद की जरूरत है। चिंपाजी एक-दूसरे के हावभाव को देखकर भी बातों को समझ लेते हैं। दूसरों के हावभाव की समझ भी मदद करने का भाव भी मन में पैदा करती है। दूसरों की मदद लेकर मनुष्य और चिंपाजी में जो बड़ा फर्क है वह यह है कि मनुष्य अगर किसी को मदद की जरूरत नहीं है तो भी मदद करने के लिए पूछता है जबकि चिंपाजी तभी मदद करने का प्रयास करता है जबकि उनसे कोई मदद माँगता है।
इन दिनों जबकि मनुष्य दूसरों की मदद करना भूलता जा रहा है चिंपाजी की दुनिया से आने वाली यह खबर उसे उसका काम याद दिलाने वाली है। काम वही दूसरों की मदद दिलाने वाली है। काम वही दूसरों की मदद वाला। सभी मुश्किलें आसान हो जाए। जब चिंपाजी अपने साथियों के बारे में सोच सकता है तो क्या हमें नहीं सोचना चाहिए?

हाथी खेलता है बास्केटबॉल
थाईलैंड में ट्रेनर के सिखाने पर हाथी तरह-तरह के करतब सीख जाते हैं। और ऐसे-ऐसे कमाल के काम तो कर जाते हैं जिन्हें देखकर बच्चों तो क्या बड़ों को भी हैरत होती है। यहाँ के आईलैंड सफारी सेंटर पर ऐसे ही जब 1 साल के हाथी को बास्केटबॉल खेलने की ट्रेनिंग दी गई तो वह पट्‍ठा इस खेल की सारी कला‍बाजियाँ फटाफट सीख गया।
अब वह बॉल को उठाकर अपनी सूँड पर नचाते-नचाते दौड़कर बास्केट तक जाता है और बॉल को उसमें पटक देता है। यह हाथी बॉल को बास्केट करने से पहले अपने ट्रेनर की सीटी का इंतजार भी करता है। अगर सीटी बजी तो बास्केट, वरना बॉल नाचती रहती है। वैसे हाथियों को बुद्धिमान प्राणी माना जाता है और चीजों को सीखने और समझने में वे ज्यादा देर नहीं लगाते हैं।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

लतीफ़े

संता को परीक्षा में किसी भी सवाल का जवाब नही आता था,
संता ने हर सवाल के नीचे /////////////// लाइन लगा दी और लिखा स्क्रैच करके जवाब पढ़ लेना।

पत्नी (पति से)- किचन से.. अजी सुनते हो देखो मैं आज बहुत खूबसूरत लग रही हूं...
पति (पत्नी से)- तुमने कैसे जाना?
पत्नी- आज मेरी खूबसूरती देखकर रोटी भी जल रही है।
चिंटू (सोनू से)- मैंने हाथी के सामने 12 सेब रखे, उसने 11 खा लिये लेकिन एक नही खाया?


सोनू (चिंटू से)- हाथी का पेट भर गया होगा।
चिंटू- नही यार, 12वां सेब प्लास्टिक का था।
अच्छा दोबारा मैंने हाथी के सामने 12 सेब रखे लेकिन हाथी ने एक भी नही खाया।
सोनू- सारे सेब प्लास्टिक के होंगे।
चिंटू- नही इस बार हाथी प्लास्टिक का था।


शर्मा जी ने बैंक से लोन लेकर कार ली, लेकिन लोन वापिस न कर सके तो बैंक वाले कार ले गये।
शर्मा जी- पहले पता होता तो शादी भी बैंक से लोन लेकर करता।


डॉक्टर- ये मर चुका है..
तभी मरीज बोल पड़ा- मैं जिंदा हूं..!
मरीज की पत्नी- तुम चुप रहो जी, हमेशा अपनी चलाते हो, इतना बड़ा डॉक्टर क्या झूठ बोलेगा?

कहानी

गुझिया
टैक्सी आ गयी। सामान रखा जाने लगा। फ्लाइट का समय हो गया था। बेंगलूर पहुंचते-पहुंचते रात हो जायेगी। और घर पहुंचने तक बच्चे सो जायेंगे। मैंने इस बार भी कितनी बार मां से कहा, बाबूजी से बात छेडो न। अब यहां अकेले-अकेले क्यों पडी हुई हो? चलो, बेंगलूर। मेरे पास..।
मां का वही जवाब था, जब तक हाथ पांव चल रहे है- हमें अपना काम कर लेने दे। फिर तो तू है ही।
और भी एक समस्या थी। इस मकान का क्या होगा? मैंने वहां अपना फ्लैट कब का ले लिया है। तनख्वाह से लोन की किस्त भी कट रही है। रिटायरमेंट के बाद यहां आकर न मैं रह पाऊंगा, न मेरा छोटा भाई। यहां न बिजली है, न पानी। ऊपर से सडक सीधी कभी नहीं चलती। हमेशा नीचे या ऊपर। खैर, मन को यही समझाता रहता हूं- जब समस्या आयेगी, तब उसका हल भी ढूंढा जायेगा..।
रुचि, इसमें गुझिया है। सूटकेस में और सामानों के ऊपर रखना। घर जाते ही पैकेट खोल लेना। वैसे तो तला हुआ सामान खराब नहीं होता। फिर भी गरम-गरम रखा गया है- कहीं-! मां ने पत्नी को एक पैकेट थमाते हुए कहा।
तुम भी न मां! अब ये सब करने की क्या जरूरत थी? मैंने कहा। वैसे मन में लड्डू फूट रहे थे, बेकार की इतनी मेहनत!
बेकार की? मां ने मेरी आंखों में झांककर कहा, तुझे मेरे हाथ की गुझिया इतनी पसंद है। और मैंने क्या किया? मैदा बेलना, खोवा भूनना, भरना, तलना- सब कुछ तो रुचि ने ही किया।
अम्माजी, यह मत कहिए। वरना कहने लगेंगे- तुम्हारी गुझिया मेरी मां जैसी नहीं होती।
बाबूजी को प्रणाम कर हम कार में बैठ गये। मेरी आंखों के सामने एक पुरानी तस्वीर खिल उठी.. ठीक जैसे पानी में परछंाई तैरती रहती है..। कार चलने लगी..
बी.टेक सेकेंड या थर्ड ईअर में था। त्यौहार और इतवार को लेकर तीन दिन की छुट्टी थी। रात के डिनर के बाद मैं स्टेशन के लिए निकलने ही वाला था कि अपनी लॉबी के तीन चार दोस्तों ने मुझे घेर लिया, क्यों गुरू, घर जा रहा है? तेरे ही मजे हैं।
बस, करीब एक रात की जर्नी होने के कारण मैं दो दिन की छुट्टी में भी घर भाग सकता था। इन बेचारों को जलन होती। इनके घर दूर जो थे। मेरा लैब पार्टनर विश्वेशदत्त बोला, अरे मोटे! घर से गुझिया लेते आना। चाची के हाथ की गुझिया निराली होती है। सबने समर्थन किया।
अच्छा बाबा, जरूर लाऊंगा। मैंने उन्हें आश्वस्त किया।
घर पहुंचते ही मैंने मां से कह दिया था, मां, जाते समय मेरे साथ गुझिया दे देना। वरना सब मुझे नोच खायेंगे।
वापस आने के दिन मुझे सुबह की ट्रेन पकडनी थी। पहले दिन शाम को यूं ही चाय पीते-पीते जब मां कह रही थी, तू ने अपना सामान ठीक से पैक कर लिया है न? हां मां! अब कितनी बार पूछोगी? तुमने गुझिया बना दी है न?
हाय राम! मां परेशान हो उठी, तू ने तो एक बार भी याद नहीं दिलाया। खोआ मंगा लेती। अब क्या होगा?
क्या मां, तुम भी-! मैं झुंझला उठा। हाथ की चाय कडवी लगने लगी। मैं उठ गया।
अरे चाय तो पी ले-
नहीं रहने दो। मुझे गुस्सा आ रहा था। मैं उबलने लगा, तुमने एक बार भी न सोचा दोस्तों के सामने मेरी मिट्टी पलीद होगी। अब? फिर मैं जाने क्या क्या बकबक करता रहा। मां चुपचाप मुझे देखती रही। मेरी बकबक सुनती रही। आखिर रसोई की ओर जाते-जाते उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा, अपने बाप की तरह तू भी खाली मेरे ऊपर बरसेगा ही? तू भी तो खोआ ला सकता था। मुझे तैश आ गया, मुझे क्या मालूम कि खोवा चाहिए? असली बात तो यह है कि मैं भी भूल ही गया था। मगर उस समय बेचारी मां पर आग उगल रहा था। मां तो थी ही ऐसी। मैंने सुना था बाबूजी की बहुत इच्छा थी कि मां भी जाडे में एक कार्डिगन पहने। मगर मां टालती रही। बुआ का नाम लेकर कहती, लोग क्या कहेंगे कि अनब्याही ननद बैठी है, और यह गुलछर्रे उडा रही है।
रात का खाना मैंने ठीक से नहीं खाया। मां उदास थी। मैंने भी उन्हें नहीं मनाया। उनके गले लिपटकर कह सकता था, अच्छा बाबा, अगली बार तुम ढेर सारी गुझिया बना देना। फाइन समेत।
मगर मैं था कि अपनी झूठी प्रेस्टिज के चक्कर में खाना खाकर लेट गया। भोर में उठना भी था।
अलार्म बजते ही मैं जल्दी-जल्दी तैयार होने लगा। रात की बात याद आते ही दिमाग फिर से खट्टा हो गया। सभी दोस्त मुझे जरूर छेडेंगे, स्साले कंजूस! और जाने क्या क्या कहेंगे।
पराठे खाकर, चाय पीकर, दादा दादी और बाबूजी माताजी को प्रणाम कर मैं चलने लगा तो मां ने एक पोटली अलग से मेरे हांथों में थमा दी, संभाल कर ले जाना। अभी भी गरम है।
यह क्या है?
तेरे दोस्तों के लिए गुझिया! रात ही में मैंने तेरे बाबूजी को कहकर खोआ बाजार से मंगवा लिया था। मुझे बडा ताज्जुब हुआ, और तुम सारी रात बैठकर गुझिया बनाती रहीं? मुझे पता भी न चलने दिया? मां मुस्कुरा रही थी, तू क्या करता? मेरे साथ मैदा बेल देता? मैं ठगा सा खडा रहा। मां की ओर नजरें उठाकर देख नहींपा रहा था। मेरी आंखें मुझे धोखा देने लगीं, धत्, तुम भी.. पता नहीं क्या करती रहती हो! कहते हुए मैं भाग खडा हुआ।
बेंगलूर में घर पहुंचते ही हमारे बच्चे अपनी दादी की बनायी गुझिया पर टूट पडे। मैं ड्राइंग रूम में बैठा था।
पापा! कहते हुए मेरी बेटी एक प्लेट में गुझिया लेकर आ गयी, लो, मां ने कहा तुम भी खा लो!
मैंने उधर देखा और हंस दिया, अच्छा, रख दे।
नहीं, पहले तुम खाओ। छह साल की सावनी अपने नन्हें से हाथ से एक गुझिया मेरे मुंह मे ठूंसने लगी। अच्छा, मेरी मां! चल मैं खा लूंगा। पहले तू तो खा-! वह अपने भैया के पास भागी। फिर मैंने उनकी मां को बुलाया, रुचि, तुम भी इसमें से खाओ न-! मैं एक गुझिया उसके मुंह के पास ले गया।

आप भी हद करते हैं। वह मानो झेंप गई, बच्चे देखेंगे तो क्या कहेंगे?
धत् तेरी की! खाओ न-! जरा ठहरिए। अम्मा जी को फोन कर लूं। मेरी बगल में बैठे-बैठे उसने मोबाइल से घर का नम्बर मिलाया, अम्मा हम लोग ठीक ठाक पहुंच गये हैं। उसने स्पीकर लाउड कर दिया।
तुमने सबको गुझिया दे दी?
हां हां। बच्चे उस कमरे में हैं। और आपके मुन्ना तो यहीं बैठकर खा रहे हैं। उसने मुझे मोबाइल थमा दिया- हां मां, बोलो-!
गुझिया ठीक बनी है?
पता नहीं क्यों मेरा गला भर आया था, हां मां-! क्या हां मां, हां मां कर रहा है? मां और कुछ बातें करना चाहती थी, तेरी पसन्द की चीज है। इस बार चिरौंजी देना भूल गयी। और खोआ जरा ज्यादा भून गया था-। नहीं मां, बहुत अच्छी बनी है। बहुत अच्छी-! मैंने मोबाइल रुचि के हाथ में थमा दिया। आंखें फिर से धोखा देने लगी थीं..

मां इतनी दूर रहकर भी मेरे पास ही बैठी थी। अपने बेटे को गुझिया खिला रही थी..

कहानी

गुझिया
टैक्सी आ गयी। सामान रखा जाने लगा। फ्लाइट का समय हो गया था। बेंगलूर पहुंचते-पहुंचते रात हो जायेगी। और घर पहुंचने तक बच्चे सो जायेंगे। मैंने इस बार भी कितनी बार मां से कहा, बाबूजी से बात छेडो न। अब यहां अकेले-अकेले क्यों पडी हुई हो? चलो, बेंगलूर। मेरे पास..।
मां का वही जवाब था, जब तक हाथ पांव चल रहे है- हमें अपना काम कर लेने दे। फिर तो तू है ही।
और भी एक समस्या थी। इस मकान का क्या होगा? मैंने वहां अपना फ्लैट कब का ले लिया है। तनख्वाह से लोन की किस्त भी कट रही है। रिटायरमेंट के बाद यहां आकर न मैं रह पाऊंगा, न मेरा छोटा भाई। यहां न बिजली है, न पानी। ऊपर से सडक सीधी कभी नहीं चलती। हमेशा नीचे या ऊपर। खैर, मन को यही समझाता रहता हूं- जब समस्या आयेगी, तब उसका हल भी ढूंढा जायेगा..।
रुचि, इसमें गुझिया है। सूटकेस में और सामानों के ऊपर रखना। घर जाते ही पैकेट खोल लेना। वैसे तो तला हुआ सामान खराब नहीं होता। फिर भी गरम-गरम रखा गया है- कहीं-! मां ने पत्नी को एक पैकेट थमाते हुए कहा।
तुम भी न मां! अब ये सब करने की क्या जरूरत थी? मैंने कहा। वैसे मन में लड्डू फूट रहे थे, बेकार की इतनी मेहनत!
बेकार की? मां ने मेरी आंखों में झांककर कहा, तुझे मेरे हाथ की गुझिया इतनी पसंद है। और मैंने क्या किया? मैदा बेलना, खोवा भूनना, भरना, तलना- सब कुछ तो रुचि ने ही किया।
अम्माजी, यह मत कहिए। वरना कहने लगेंगे- तुम्हारी गुझिया मेरी मां जैसी नहीं होती।
बाबूजी को प्रणाम कर हम कार में बैठ गये। मेरी आंखों के सामने एक पुरानी तस्वीर खिल उठी.. ठीक जैसे पानी में परछंाई तैरती रहती है..। कार चलने लगी..
बी.टेक सेकेंड या थर्ड ईअर में था। त्यौहार और इतवार को लेकर तीन दिन की छुट्टी थी। रात के डिनर के बाद मैं स्टेशन के लिए निकलने ही वाला था कि अपनी लॉबी के तीन चार दोस्तों ने मुझे घेर लिया, क्यों गुरू, घर जा रहा है? तेरे ही मजे हैं।
बस, करीब एक रात की जर्नी होने के कारण मैं दो दिन की छुट्टी में भी घर भाग सकता था। इन बेचारों को जलन होती। इनके घर दूर जो थे। मेरा लैब पार्टनर विश्वेशदत्त बोला, अरे मोटे! घर से गुझिया लेते आना। चाची के हाथ की गुझिया निराली होती है। सबने समर्थन किया।
अच्छा बाबा, जरूर लाऊंगा। मैंने उन्हें आश्वस्त किया।
घर पहुंचते ही मैंने मां से कह दिया था, मां, जाते समय मेरे साथ गुझिया दे देना। वरना सब मुझे नोच खायेंगे।
वापस आने के दिन मुझे सुबह की ट्रेन पकडनी थी। पहले दिन शाम को यूं ही चाय पीते-पीते जब मां कह रही थी, तू ने अपना सामान ठीक से पैक कर लिया है न? हां मां! अब कितनी बार पूछोगी? तुमने गुझिया बना दी है न?
हाय राम! मां परेशान हो उठी, तू ने तो एक बार भी याद नहीं दिलाया। खोआ मंगा लेती। अब क्या होगा?
क्या मां, तुम भी-! मैं झुंझला उठा। हाथ की चाय कडवी लगने लगी। मैं उठ गया।
अरे चाय तो पी ले-
नहीं रहने दो। मुझे गुस्सा आ रहा था। मैं उबलने लगा, तुमने एक बार भी न सोचा दोस्तों के सामने मेरी मिट्टी पलीद होगी। अब? फिर मैं जाने क्या क्या बकबक करता रहा। मां चुपचाप मुझे देखती रही। मेरी बकबक सुनती रही। आखिर रसोई की ओर जाते-जाते उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा, अपने बाप की तरह तू भी खाली मेरे ऊपर बरसेगा ही? तू भी तो खोआ ला सकता था। मुझे तैश आ गया, मुझे क्या मालूम कि खोवा चाहिए? असली बात तो यह है कि मैं भी भूल ही गया था। मगर उस समय बेचारी मां पर आग उगल रहा था। मां तो थी ही ऐसी। मैंने सुना था बाबूजी की बहुत इच्छा थी कि मां भी जाडे में एक कार्डिगन पहने। मगर मां टालती रही। बुआ का नाम लेकर कहती, लोग क्या कहेंगे कि अनब्याही ननद बैठी है, और यह गुलछर्रे उडा रही है।
रात का खाना मैंने ठीक से नहीं खाया। मां उदास थी। मैंने भी उन्हें नहीं मनाया। उनके गले लिपटकर कह सकता था, अच्छा बाबा, अगली बार तुम ढेर सारी गुझिया बना देना। फाइन समेत।
मगर मैं था कि अपनी झूठी प्रेस्टिज के चक्कर में खाना खाकर लेट गया। भोर में उठना भी था।
अलार्म बजते ही मैं जल्दी-जल्दी तैयार होने लगा। रात की बात याद आते ही दिमाग फिर से खट्टा हो गया। सभी दोस्त मुझे जरूर छेडेंगे, स्साले कंजूस! और जाने क्या क्या कहेंगे।
पराठे खाकर, चाय पीकर, दादा दादी और बाबूजी माताजी को प्रणाम कर मैं चलने लगा तो मां ने एक पोटली अलग से मेरे हांथों में थमा दी, संभाल कर ले जाना। अभी भी गरम है।
यह क्या है?
तेरे दोस्तों के लिए गुझिया! रात ही में मैंने तेरे बाबूजी को कहकर खोआ बाजार से मंगवा लिया था। मुझे बडा ताज्जुब हुआ, और तुम सारी रात बैठकर गुझिया बनाती रहीं? मुझे पता भी न चलने दिया? मां मुस्कुरा रही थी, तू क्या करता? मेरे साथ मैदा बेल देता? मैं ठगा सा खडा रहा। मां की ओर नजरें उठाकर देख नहींपा रहा था। मेरी आंखें मुझे धोखा देने लगीं, धत्, तुम भी.. पता नहीं क्या करती रहती हो! कहते हुए मैं भाग खडा हुआ।
बेंगलूर में घर पहुंचते ही हमारे बच्चे अपनी दादी की बनायी गुझिया पर टूट पडे। मैं ड्राइंग रूम में बैठा था।
पापा! कहते हुए मेरी बेटी एक प्लेट में गुझिया लेकर आ गयी, लो, मां ने कहा तुम भी खा लो!
मैंने उधर देखा और हंस दिया, अच्छा, रख दे।
नहीं, पहले तुम खाओ। छह साल की सावनी अपने नन्हें से हाथ से एक गुझिया मेरे मुंह मे ठूंसने लगी। अच्छा, मेरी मां! चल मैं खा लूंगा। पहले तू तो खा-! वह अपने भैया के पास भागी। फिर मैंने उनकी मां को बुलाया, रुचि, तुम भी इसमें से खाओ न-! मैं एक गुझिया उसके मुंह के पास ले गया।

आप भी हद करते हैं। वह मानो झेंप गई, बच्चे देखेंगे तो क्या कहेंगे?
धत् तेरी की! खाओ न-! जरा ठहरिए। अम्मा जी को फोन कर लूं। मेरी बगल में बैठे-बैठे उसने मोबाइल से घर का नम्बर मिलाया, अम्मा हम लोग ठीक ठाक पहुंच गये हैं। उसने स्पीकर लाउड कर दिया।
तुमने सबको गुझिया दे दी?
हां हां। बच्चे उस कमरे में हैं। और आपके मुन्ना तो यहीं बैठकर खा रहे हैं। उसने मुझे मोबाइल थमा दिया- हां मां, बोलो-!
गुझिया ठीक बनी है?
पता नहीं क्यों मेरा गला भर आया था, हां मां-! क्या हां मां, हां मां कर रहा है? मां और कुछ बातें करना चाहती थी, तेरी पसन्द की चीज है। इस बार चिरौंजी देना भूल गयी। और खोआ जरा ज्यादा भून गया था-। नहीं मां, बहुत अच्छी बनी है। बहुत अच्छी-! मैंने मोबाइल रुचि के हाथ में थमा दिया। आंखें फिर से धोखा देने लगी थीं..

मां इतनी दूर रहकर भी मेरे पास ही बैठी थी। अपने बेटे को गुझिया खिला रही थी..

सोमवार, 8 मार्च 2010

मस्त चुटकुले

लल्लू (प्रेमिका से) : मैं आज तुमसे हर चीज शेयर करना चाहता हूँ।
प्रेमिका : चलो बैंक अकाउंट से शुरू करते हैं।

पुत्र (लल्लू से) : पिताजी नेताओं के कपड़ों का रंग सफेद क्यों होता है?
लल्लू : बेटा, ताकि दल बदलने पर भी कपड़े न बदलने पड़ें।

लल्लू डॉक्टर (कल्लू से) : देखो वो रही मेरी प्रेमिका।
कल्लू : तुम उससे शादी क्यों नहीं कर लेते?
लल्लू डॉक्टर : कर तो लूँ, पर मेरा बड़ा नुकसान हो जाएगा। वह करोड़पति बाप की इकलौती बेटी है और सिर्फ मुझसे ही इलाज करवाती है।

संता (बंता बॉस से) : बॉस मुझे छुट्‍टी चाहिए।
बंता : क्यों?
संता : मेरी फैमिली पेड़ से गिर गई है।
बंता : पूरी फैमिली पेड़ पर क्या कर रही थी?
संता : सर, हमारे यहाँ घरवाली को ही फैमिली कहते हैं।

नौकरानी (मालकिन से) : मेमसाब, जल्दी आइए। पड़ोस की तीन औरतें बाहर बाहर आपकी सास की पिटाई कर रही हैं। मालकिन गैलरी में आकर देखने लगी।
नौकरानी : आप उनकी मदद करने नहीं जाएँगी?
मालकिन : नहीं! तीन ही काफी हैं।

बहादुर महिलाएँ

अंटार्कटिका पर सात बहादुर महिलाएँ
रूसी सॉफ्टवेयर फर्म कैस्परस्काई के प्रायोजकत्व में सात महिलाओं का एक दल अंटार्कटिका पर स्कीइंग करने गया। कॉमनवेल्थ देशों के सदस्यों वाले इस दल में एक भारतीय महिला रीना कौशल धर्मशक्तु भी थीं। रीना ऐसी पहली भारतीय महिला है, जिन्होंने अंटार्कटिका जाकर स्कीइंग की। वे बताती हैं कि स्कीइंग बहुत सारे मामलों में पर्वतारोहण से मिलती-जुलती है तो कई सारे मामलों में अलग भी। इससे पहले वे हिमालय पर कई बार पर्वतारोहण कर चुकी थीं लेकिन वे बताती हैं कि अंटार्कटिका का मामला अलग है।

अंटार्कटिका में हवा आपकी सबसे बड़ी दुश्मन हैं- यह कहना है रीना कौशल धर्मशक्तु का। वहाँ के अपने आनंदमय अनुभव ग्रहण कर वे अपने घर दिल्ली पहुँची। रीना इससे पहले हिमालय पर कई अभियानों में हिस्सा ले चुकी हैं और साउथ पोल पर यह उनका पहला अनुभव है। वे दोनों के बीच का अंतर बताते हुए कहतीं हैं 'हिमालय और अंटार्कटिका के मौसम और दशा में बहुत अंतर है। हिमालय पर जब सूर्य निकलता है, तब सर्दी उतनी नहीं लगती है। वहाँ बहुत तेज हवाओं के दौर में भी सूर्य हमें गर्मी देता है। लेकिन अंटार्कटिका में यह सुविधा नहीं है। यहाँ सूर्य के निकलने या नहीं निकलने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। यहाँ तो इस बात से अंतर पड़ता है कि हवा चल रही है या नहीं। हवा ही आपके लिए मुश्किल पैदा कर सकती है।

वे मुस्कुराते हुए बताती हैं कि स्कीइंग के दौरान शरीर को किस तरह से गर्म रखा जाता है : 'स्कीइंग के दौरान हमारे चेहरे पूरी तरह से ढँके हुए रहते थे, हमारे स्नो गॉगल्स के नीचे हम गॉरिल्ला मास्क पहनते थे, जो हमारी नाक, मुँह और गालों को ढँक कर रखे। साँसें तक जम जाती थीं क्योंकि मास्क पर बर्फ जमी रहती थी। जब हम अपने नाश्ते के लिए रुकते थे, तब पहले हमें उस बर्फ को तोड़ना होता था फिर हम नाश्ता करने के लिए मास्क हटा पाते थे।

'द कैस्परस्काई लैब कॉमनवेल्थ अंटार्कटिका एक्सपीडिशन' ने ब्रिटिश पोलर एक्सपर्ट फेलिसिटी एस्टोन के नेतृत्व में आठ महिलाओं के सपनों को पूरा किया। यह मूलतः एस्टोन का अपना प्रोजेक्ट था। महिला सशक्तिकरण, मौसम परिवर्तन और पर्यावरण विनाश के खिलाफ संदेश के साथ ही 1 जनवरी को कॉमनवेल्थ की 60वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में यह आयोजन किया गया। 2008 में एस्टोन अपने भारतीय आवेदकों के इंटरव्यू के सिलसिले में दिल्ली में मीडिया से मिलीं। उन्होंने 130 आवेदकों को छाँटा, उनमें से शार्टलिस्टिंग कर 10 का इंटरव्यू लिया।
दूसरी बार सभी फिर सितंबर 2009 में न्यूजीलैंड में ट्रेनिंग के लिए इकट्ठा हुईं। अभियान से पहले घाना की सदस्य को मलेरिया हो गया। हालाँकि वह तेजी से ठीक हो रहीं थी, फिर भी बीमारी के दौरान उनकी तैयारी का समय निकल गया और यह तय किया गया कि उन्हें अभियान में नहीं ले जाया जाए। उनकी जगह ब्रिटेन की एक महिला ने ली, जो पहले भी साउथ पोल पर एडवेंचर अभियान कर चुकी थीं और वहाँ के उनके अनुभव बहुत काम के थे। जमैका की सदस्य को भी छोड़ा गया, क्योंकि अंटार्कटिका में ही अनुकूलन ट्रेनिंग के दौरान उनकी उँगली फ्रॉस्टबाईट की शिकार हुई थी।

इसके बावजूद कि वहाँ गर्मी का मौसम था और यहाँ हर समय दिन की रोशनी हुआ करती थीं लेकिन यहाँ महाद्वीप के किनारे से 900 किलोमीटर तक की स्कीइंग के दौरान तापमान माइनस 30 डिग्री सेल्सियस और 80 नॉट की गति से हवा चलती थी। टीम अपने साथ स्लैज पर रखकर 55 किलो सामान जिसमें टैंट, स्टोव, राशन, मेडिकल किट, नेविगेशन और संचार के उपकरण खींचकर ले गईं।
रीना बताती हैं, 'दक्षिण अमेरिका के सामने 82 डिग्री अक्षांश पर अंटार्कटिका की बर्फ की चट्टान मैसनर स्टार्ट से अभियान प्रारंभ हुआ। 38 दिनों तक हर दिन हमने 10 या उससे भी ज्यादा घंटे स्कीइंग की। इस बर्फीले बीहड़ में बर्फ की चादर, पहाड़ और आसमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। मात्र हम लोग ही जीवित प्राणी थे, यहाँ तक कि वहाँ मकड़ी तक नहीं थी। इतना होने के बाद भी हम सारे लोग ऊर्जा से भरे हुए रहते थे। यदि हम अपना लक्ष्य पा सकते हैं, तो कोई भी ऐसा कर सकता है। अभियान का जोर इसी संदेश पर था।'अपनी यादों को खंगालते हुए वे अपने बचपन के बारे में बात करती हैं। वे बताती हैं कि जब वे बच्ची थीं, तब वे सेना में काम कर रहे अपने पिता के साथ दार्जिलिंग में रहती थीं और रोज कंजनजंगा को देखते हुए सोचती थीं कि पास से देखने पर यह कैसा लगता होगा? वे नेपाली और पंजाबी दोनों में धाराप्रवाह बोलती हैं। जहाँ एक समय तेनजिंग की बेटी पढ़ी थी, उसी लॉरैटो कॉन्वेंट स्कूल के अपने दिनों को भी वे याद करती हैं। वे बताती हैं कि उनके पिता उन्हें उनके भाई-बहन के साथ अक्सर दार्जिलिंग के आसपास पर्वतारोहण के लिए ले जाते थे और तभी से उनकी रुचि इस दिशा में जागृत हुई।
वे बताती हैं कि वे अपने पति उत्तराखंड के पर्वतारोही लवराजसिंह धर्मशक्तु की भी कर्जदार हैं। लवराज ने तीन बार एवरेस्ट और कंजनजंगा की डरावनी यात्रा भी की। वे कभी भी मनसियारी में अपनी जड़ों को नहीं भूले, जहाँ वे अक्सर स्कूल से भागकर अकेले ही हिमालय फुटहिल्स पर जाते थे। उन्होंने घर की देखरेख की और रीना को अपने सपने को पूरा करने के लिए जाने दिया।