सोमवार, 3 मई 2010

लतीफ़े

दो शराबी रात को..
पहला शराबी (दूसरे से)- यार कितने बजे हैं।
दूसरे शराबी ने पत्थर उठाया और शर्मा जी के घर की खिड़की पर दे मारा।
खिड़की का कांच टूटते ही शर्मा जी चिल्लाये- नालायकों रात के 2 बजे भी तुम्हें चैन नही है।


मां- मैं तो तंग हो गई हूं तुमसे। एक के बाद एक गलतियां करते रहते हो। कब सुधरोगे?
बेटा- सुधरने के लिए क्या करना होगा मां?
मां- मम्मी-पापा और टीचर की हर बात माननी होगी।
अगले दिन जब मां कमरे में आई तो बेटे पर नजर पड़ते ही गुस्से से चिल्ला उठी।
मां (डांटते हुए)- किताब के पन्ने क्यों खा रहे हो?
बेटा (मासूमियत से)- सुधरने के लिए मां। तुम्हीं ने तो कहा था सुधरने के लिए टीचर की बात माननी होगी। मैडम ने कहा है, खाते-पीते-सोते बस किताबों में ही लगे रहो। वही तो कर रहा हूं।


पति- पता है, तुम्हें देखते ही मैंने तय कर लिया था कि शादी करूंगा तो तुम्हीं से।
पत्नी- अच्छा।
फिर खुशी से शर्माते हुए पत्नी ने कहा- मैं तुम्हें पहली ही नजर में इतनी अच्छी लगी थी।
पति- हां, क्योंकि मेरा बॉस रोज मुझे डांटता था कि मैं हमेशा घर में ही क्यों रहना चाहता हूं? ऑफिस में समय क्यों नहीं देता? इसका हल तुम्हें देखते ही मुझे सूझ गया था। मुझे पता था कि तुम घर में रहोगी तो मैं ऑफिस में ही रहना चाहूंगा।


संता सिंह ने एक कॉलेज खोलने का मन बनाया। उसने यह बात बंता को बताई। बंता ने कहा- यार, यह तो बड़ी अच्छी बात है। बस एक बात का ध्यान रखना कि कॉलेज का नाम सबसे अच्छा और अलग हो।
संता सिंह ने कॉलेज के नाम के बारे में खूब सोचा। आखिर उसे एक नाम सूझ गया और वह बहुत खुश हो गया।
उसने कॉलेज का नाम रखा- संता सिंह ग‌र्ल्स कॉलेज फॉर ब्वॉयज।

डॉक्टर (मरीज से)- दवाई हिलाकर पिया करें।
मरीज- डॉक्टर साहब बड़ी परेशानी होती है दवाई हिलाने से चम्मच से गिर जाती है फिर जमीन से चाटनी पड़ती है।

कहानी


मेरा बचपन मत छीनो
कामवाली कई दिनों से नहीं आ रही थी। हम परेशान थे। हमने अपनी समस्या पडोसियों को बताई। बाजू के दयाल जी एक दिन घर पर पधारे। उन्होंने कहा, मेरी नजर में एक आठ साल की बच्ची है। उसे रखना चाहेंगे।

मरता क्या न करता। हमने तुरंत हां कर दी। दो दिन बाद ही वे बच्ची को लेकर हाजिर हो गए। बच्ची बेहद मासूम थी। मैंने पूछा, क्या तुमने कहीं पहले काम किया है?

इस बात का जवाब दयाल जी देने लगे, इस लडकी ने कुछ जगह काम किया, मगर कहीं टिक नहीं पाई। पन्द्रह से बीस दिन होते-होते यह काम छोडकर भाग आई। मुझे लगता है बडे निर्दयी और कंजूस रहे होंगे वह लोग। इस बच्ची से जरूरत से ज्यादा काम लेते थे। मुझे लगता है, इसी कारण यह भाग खडी होती है।

मेरी पत्नी ने बडे प्यार से उसे अपने पास बुलाया और कहा, चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें सब कुछ दूंगी। तुम्हें अच्छा खाना दूंगी। नए कपडे सिलवा दूंगी। सोने के लिए गद्देवाला बिस्तर लगवा दूंगी। पूरे पैसे भी दूंगी। बस, तू मन लगाकर काम कर।

मासूम बच्ची की गोल-गोल आंखें डबडबा गई। वह मेरी पत्नी की आंखों में एकटक देखने लगी। मगर उसने कहा कुछ नहीं। मेरी पत्नी ने पूछा, क्या तू इतने से खुश नहीं रहेगी? तुझे और क्या चाहिए?

उसने साहस बटोरा और धीरे से कहा, क्या मुझे स्कूल जाने देंगी? क्या मुझे कुछ देर बच्चों के साथ खेलने देंगी? मुझे टी.वी. देखने को मिलेगा? मेरी मां नहीं है, मुझे अपने पास सुलाएंगी?

इतने सारे सवालों से मैं अवाक् रह गया। मेरी आंखें भर आई। मैंने दयाल जी से कहा, यार, माफ करो। इसे इसके पिता के पास ले जाओ। हम इसका बचपन नहीं छीन सकते। वह बच्ची उल्लास में भरकर बाहर की तरफ बढ गई। मगर मेरी पत्नी का मूड ऑफ हो गया।

कहानी


रानी मुखर्जी की गुडि़या
हैं..??? तुम लोग मुखर्जी हो? आश्चर्य से मिसेज शिप्रा माथुर का मुंह खुला रह गया।

अरे नाहीं नाहीं बहू जी ऊ तो गांव मां एकरा बाप इस्कूल लई गवा रहै तैं जब नाम पूछेन ई खुदै आपन नाम धर लिहिन, एकरा घर का नाम तो बिट्टी है

ओह! आप तो बहुत इंटेलिजेंट हैं।

गेहुएं रंग पर चमकदार आंखें और चमक गई। यही कोई सात-आठ बरस की उम्र, घुटनों से नीचे तक की जीर्ण-शीर्ण फ्राक जो स्वयं इस बात की गवाह थी कि किसी की उतरन है, नंगे पैर और हाथों में एक अपने से पुरानी गुडिया पकडे हुये थी। गुडिया काफी प्राचीन पद्धति से बनी हुई थी। कपडे को छडी की तरह लपेट-लपेटकर, फिर उसे बीच से पलटकर दोगुना करके उसके अंदर से फंसाकर दो छडीनुमा बाहें निकाल दी गई थीं। फिर उस चेहरे पर, यदि उसे चेहरा कहा जाये तो, काले रंग से बाल और आंखें तथा लाल रंग से होंठ और सिंदूर बनाने की चेष्टा की गई थी। किन्तु अनेक बार नहलाये जाने के कारण लाल और काले रंग का मिला-जुला एक अजीब सा गेरुए रंग का सम्मिश्रण, गुडिया को लगभग प्रेतनी जैसा स्वरूप प्रदान कर रहा था।

आप पढती हैं बेटे?

बच्ची यानी रानी मुखर्जी के बोलने से पहले ही उसकी मां ने जवाब दिया, बहू जी एकरा कल्लू मास्टर कहत रहा बिटीवा बहुत हुसियार है। एकरा सहर मा पढाएव तैं ई बहिनजी हुइ जइहैं। बिट्टी की मां को बिट्टी में भविष्य की बहिन जी नजर आ रही थी।

बिट्टी बहू जी का बारा का पहाडा तनिक सुना दे।

बारा का बारा, बारा दूनी चौबिस, बार तियांई छत्तिस..

बिट्टी भरतनाट्यम की मुद्रा में गर्दन हिला-हिला कर पहाडा सुनाने लगी।

बस बस बस। मिसेज माथुर ने जल्दी से पहाडा बंद कराया नहीं तो बिट्टी की मां के सामान्य से काफी अधिक लंबे और भयंकर पीले दांत पहाडे के हर स्टेप के साथ थोडा और अधिक निकलते आ रहे थे।

ठीक है, बच्ची तो हमें पसंद है पर गोद लेने का मतलब समझती हो?

हां जानित काहे नाहीं बहू जी! माने अब एकरा महतारी बाप तुंई लोग हम लोगन नाहीं। बिट्टी की मां का स्वर थोडा कांप गया, जिसे छुपाने की चेष्टा में वह फिर से हंसने लगी। फिर वही पीले दांत!

उनके चेहरे पर आये भाव में न जाने ऐसा क्या था कि बिट्टी की मां ने हंसना बंद कर दिया। हां, और तुम लोगों का इससे कोई लेन देना नहीं रहेगा।

मिसेज माथुर सारी बातें साफ कर लेना चाह रही थीं।

वैसे तो उनके एक बेटा था पर घर में एक लडकी विशेषत: राहुल के लिये एक साथी की कमी उन्हें बहुत अखरती थी। अब की रक्षाबंधन पर राहुल कितना उदास था। समझा बुझाकर अभिनव के घर खेलने भेजा तो वहां से थोडी ही देर में लौट आया था। आते ही रैकेट उधर फेंका और जूते पहने-पहने ही बेड पर लेट गया। पूछने पर पहले तो उल्टी सीधी बातें बनाता रहा फिर बाद में बताया कि उसकी मम्मी ने कहा कि बेटा अभिनव आज राखी की वजह से बिजी है, खेल नहीं पायेगा। राहुल के पापा ने भी माना कि वह फस्ट्रेटेड हो रहा है। फस्ट्रेटेड! पर क्यों? ऐसा क्या है जो हम उसे दे नहीं पा रहे हैं। कम्पनी न होने की वजह से शायद लोनली महसूस करता है, ऐसा श्रेया जी भी उस दिन कह रही थीं। राहुल की टीचर हैं, उनसे ज्यादा राहुल की साइकलॉजी कौन समझेगा! अकेला होने की वजह से दोस्त भी कितना ब्लैकमेल करते हैं! घर में ही एक साथी मिल जाये तो राहुल को दोस्तों की मनमानी तो नहीं सहनी पडेगी। लडकी भी उन्हें आकर्षित कर रही थी। मुखाकृति बडी मोहिनी है, यदि ढंग से रहेगी तो आने जाने वालों को भी मिसफिट नहीं लगेगी। घर के पास वाले कन्या विद्यालय में भरती हो जायेगी, वहां छुट्टी भी जल्दी हो जाती है थोडा घर के काम में भी हांथ बंटा लेगी और जब बडी होगी तो दस बीस हजार रुपये शादी में खर्च कर दिये जायेंगे।

बिट्टी हम लोगन से कब्बौ कब्बौ मिल तो सकती है?

अनाकर्षक, चेहरे को तरलता से बचाने की भरपूर कोशिश के बावजूद उसकी आवाज में कंपकंपाहट बढ गई थी।

हां हां कभी कभार, पर साथ ले जाने का कोई चक्कर नहीं होगा। उनकी मुद्रा से लग रहा था कि अभी से सब कुछ स्पष्ट कह देना ठीक होगा।

ई बहिन जी बन जायें बस हम लोगन का यहै ठीक है।

ठीक है फिर बच्ची को यहीं छोड दो और लिखा-पढी के बाद गांव चले जाना। तब तक तुम लोग नन्दू के साथ उसके क्वार्टर में रह सकते हो। मिसेज माथुर उस औरत से जल्द से जल्द पीछा छुडाना चाह रही थीं।

बिट्टी ने एक बार मां को देखा दूसरे ही पल मिसेज माथुर ने एक सुंदर सी बारबी डाल उसे इशारे से दिखायी। आश्चर्य चकित आंखें उस प्रलोभन को ठुकरा न पाई और मुग्ध भाव से वह उनके पीछे पीछे चल दी। इस बीच वह हडप्पाकालीन गुडिया उसके हाथों से छूट कर कहां गिर पडी थी, यह बेचारी बिट्टी बिल्कुल ही नहीं जान सकी।

रविवार, 2 मई 2010

बाघ


वर्चस्व की जंग में मर रहे हैं बाघ
उत्तराखंड स्थित टाइगर रिजर्व जिम कार्बेट पार्क में बाघों की घनी आबादी ही उनकी मौत का कारण बन रही है। छोटी जगह पर बड़ी आबादी के कारण इस साल अब तक इलाकाई वर्चस्व की लड़ाई में चार बाघ मारे जा चुके हैं।
भारतीय वन्य जीव बोर्ड के सदस्य तथा जिम कार्बेट पार्क के मानद वार्डन बिजेन्द्रसिंह के अनुसार इस वर्ष अब तक शेरों के लिए विश्व में सबसे माकूल माने जाने वाले अभ्यारण्य कार्बेट टाइगर रिजर्व में चार बाघ मारे जा चुके हैं।
गत वर्ष पूरे प्रदेश में कुल नौ बाघ मारे गये थे, जबकि मारे जाने वाले तेंदुओं की संख्या इससे कहीं अधिक थी।
भारतीय वन्यजीव संस्थान के डीन वी.बी.माथुर के अनुसार इस टाइगर रिजर्व में बाघों की अच्छी खासी संख्या के बावजूद यहाँ लगभग हर माह एक बाघ कम हो रहा है।
बिजेन्द्रसिंह के अनुसार बढ़ती संख्या भी बाघों की मौत का कारण बन रही है। इसके लिए क्षमता से अतिरिक्त वन्य जीवों को अन्य क्षेत्रों में शिफ्ट करने का सुझाव भी दिया जा रहा है। इस पार्क में बाघों की संख्या उनके लिए तय भौगोलिक क्षेत्र के मानक से अधिक हो गई है।
संख्या बढ़ने के कारण बाघों में वर्चस्व को लेकर भी जंग छिड़ रही है और इस जंग में कई बाघ मारे जा रहे हैं।
वन विभाग के रिकार्ड के अनुसार, उत्तराखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद प्रदेश में लगभग 32 शेर मर गए हैं, और इनमें से कई शेर इलाके पर अपने अधिपत्य को लेकर हुए संषर्ष में मारे गए हैं।
वन्य जीव संस्थान द्वारा पूर्व में कराई गई एक गणना में कार्बेट में 200 वर्ग कि.मी. पर 77 बाघ पाए गए थे, जो कि दुनिया में बाघों का सबसे अधिक घनत्व था।
वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. वाईवी झाला के अनुसार एक बाघिन के लिए 50 वर्ग कि.मी. का एक आदर्श इलाका होता है। इसी तरह बाघ के लिए लगभग 300 वर्ग कि.मी. का इलाका उपयुक्त होता है ताकि उसे भरपूर मात्रा में शिकार मिल जाए।
बाघों के अलावा उत्तराखंड स्थित कार्बेट एवं राजाजी नेशनल पार्क हाथियों के लिए भी अच्छे प्रवास स्थल हैं। पिछली वन्य जीव गणना के अनुसार राज्य में कुल 1510 हाथी मौजूद हैं। लगभग 820 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले राजाजी नेशनल पार्क में भी हाथियों की संख्या उनके लिए तय मानकों के अनुसार भौगोलिक क्षेत्र से अधिक मानी जा रही है।
बिजेन्द्र सिंह के अनुसार राजाजी पार्क में हाथियों के लगभग 300 झुंड हैं, जो पानी की कमी व भोजन की तलाश में निकटवर्ती आबादी क्षेत्र में घुस रहे हैं। जिस कारण मानव से उनका संघर्ष बढ़ रहा है।

कहानियां


स्वाभिमान
विशेष और श्रेया प्रथम श्रेणी से लेकर ग्रेजुएशन तक साथ-साथ पढे। गहरी मित्रता और अपनापन था दोनों में। लंच साथ करते, जरूरत पडने पर एक-दूसरे का होमवर्क भी करते। क्लास में भी कभी विशेष फ‌र्स्ट आता, कभी श्रेया। कभी ईष्र्या या स्पर्धा नहीं होती दोनों में। धीरे-धीरे बचपन की सीमा लांघ कर दोनों युवा हुए, लेकिन मित्रता बरकरार थी। दोनों की तरफ से कोई मांग या शर्त भी कभी सामने नहीं आई थी। अजीब थी उनकी दोस्ती, जिसके आडे दोनों की युवा होती देह और उडान भरता रंगीन सपनों का भविष्य भी कभी रुकावट नहीं बनता था। सहज ढंग से मिलते, कैंटीन में या पार्क में, लेकिन कभी एक-दूसरे से आगे संबंध बनाने की इच्छा नहीं जगी। उनकी दोस्ती एक खुली किताब की तरह थी। मित्रों ने कई बार उनके बीच आने की चेष्टा की, लेकिन विफल रहे। श्रेया और विशेष बस अच्छे दोस्त थे। गहरा विश्वास था दोनों के बीच। शायद उन्हें याद नहीं था कि हमारे समाज में लडका-लडकी की दोस्ती को स्वस्थ ढंग से नहीं देखा जा सकता।
एक दिन विशेष एम.बी.ए. करने के लिए अमेरिका चला गया। श्रेया ने भारत में ही एक यूनिवर्सिटी में एम.बी.ए. करने का मन बनाया। फोन, चिट्ठियों से बातें होने लगीं। समय बीत रहा था और श्रेया के माता-पिता उसके लिए लडका तलाश रहे थे। यह तो तय था कि वह माता-पिता की इच्छा से ही शादी करेगी। विशेष को लेकर उसने कभी शादी के बारे में नहीं सोचा था। एम.बी.ए. करने के बाद विशेष भारत लौट आया। उसके पिता नहीं थे और मां भी उसकी शादी करके निश्चिंत हो जाना चाहती थीं। एक दिन मां ने नाश्ता करते-करते पूछ ही लिया कि वह कब शादी करना चाहता है। विशेष भी बोला, मां, जब आप कहें, शादी कर लूंगा, आपकी पसंद से। मां को जैसे समझ नहीं आया। बोलीं, बेटा पसंद तो तुम्हारी होनी चाहिए, जीवन तुम्हें बिताना है। मां, मैंने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं, मेरे लिए आपकी खुशी सबसे बडी है। आप अपने जैसी ही लडकी ढूंढो, जो आपको पसंद हो।

मां कुछ पल मौन रहकर बोलीं, तुम्हारी दोस्त है श्रेया, उसके बारे में क्या खयाल है?

श्रेया? मां वह तो बस मेरी मित्र है।

अच्छी दोस्त पत्‍‌नी नहींबन सकती क्या? इस बार मां ने आश्चर्य से पूछा।

नहीं मां, मैंने तो इस बारे में कभी सोचा ही नहीं। हम बचपन के दोस्त हैं। साथ पले-बढे, पढे और साथ बैठकर करियर को लेकर सोचा। शादी जैसी बातें हमारे मन में कभी आई नहीं। मैं तो यह भी नहीं जानता वह क्या सोचती है।
मैं पूछूं श्रेया से, वह क्या सोचती है?
मां की बात पर वह बोला, नहीं मां, छोडो, मैं ही बात करता हूं।
जल्दी कर लेना। यह बात तो तुम्हें पहले ही सोचनी थी। श्रेया के माता-पिता उसके लिए लडका ढूंढ रहे हैं। तुम तो बीस वर्र्षो से उसके परिवार को जानते हो।
आपकी बात सही है मां। लेकिन हमने सचमुच कभी शादी के बारे में नहीं सोचा। हम दोस्त रहे हैं और इसके अलावा कुछ नहीं सोचा।

नहीं बेटा, लडका-लडकी के बीच दोस्ती लंबे समय तक नहीं चल सकती और एक बार अगर अलग-अलग घर में शादी हो गई तो यह दोस्ती भी खत्म हो जाएगी। जरूरी नहींकि तुम जैसे सोचते हो, श्रेया के घरवाले भी उस ढंग से सोचें। कल ये भी तो हो सकता है कि उसके घरवालों को इस दोस्ती पर संदेह होने लगे। तब क्या तुम सहन कर सकोगे? ऐसे समाज में मन की पवित्रता कौन देखता है? मां ने शायद अपना अनुभव बांटा।

विशेष देर रात तक सोचता रहा था। हर पहलू से उसने इस बात पर विचार किया और अंत में इस निर्णय तक पहुंचा कि श्रेया से बात करनी ही होगी। सुबह होते ही वह श्रेया के घर चला गया और हिम्मत बांधकर उसने कहा, श्रेया तुमसे एक बात करनी है।

कहो। श्रेया ने सहज भाव से कहा।
मां ठीक कहती हैं।
क्या कहती हैं, कुछ बोलोगे?
काफी देर चुप रहने के बाद वह बोला, मां का कहना है कि अब हमें इस मित्रता को रिश्ते में बदल देना चाहिए।
रिश्ता? कैसा रिश्ता? श्रेया चौंक कर बोली।
स्त्री-पुरुष में मित्रता के अलावा पति-पत्नी का रिश्ता भी हो सकता है।
विशेष, मैंने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं। मैं मम्मी-पापा से बात करूंगी। तभी तुम्हें कोई जवाब दे पाऊंगी।
श्रेया इसमें सोचना कैसा? क्या तुम कभी चाहोगी हमारे बीच कोई तीसरा आए।
दोस्ती तो दोस्ती होती है विशेष। इसमें तीसरे की बात कहां से आ गई?
शादी के बाद सोच और दृष्टि बदल जाती है। विशेष ने सोचते हुए कहा।
ऐसा तुम्हारा सोचना है, मेरा नहीं। श्रेया फिर बोली।
कुछ पल दोनों चुप रहे। विशेष घर लौट गया। श्रेया गहरी सोच में डूब गई। अगले दिन उसने मां से बात की। मां ने पिता को श्रेया की पसंद के बारे में बताया। उन दोनों को विशेष पहले भी पसंद था। अब चूंकि विशेष ने ही रिश्ते की पहल की तो उन्हें कोई आपत्ति नहींथी। अगले दिन दोनों विशेष की मां से मिलने गए और विवाह की बात पक्की हो गई। जल्दी ही दोनों का विवाह हो गया। एक-दूसरे का साथ पाकर दोनों बेहद खुश थे। उन्हें लगने लगा था कि मनुष्य का मन देह पर निर्भर न सही, लेकिन देह निरपेक्ष या उससे स्वतंत्र भी कहां होती है। मन चाहे तो देह की सीमाओं को बांध सकता है, लेकिन उससे स्वतंत्र नहीं हो सकता।

यह नहीं होता कि हम एक ढंग से जिएं, दूसरे ढंग से सोचें और तीसरे ढंग से आचरण करें। भले ही हम इसे नकारें, भावनाओं को नियंत्रण में रखने का दावा करें, शरीर को मन से ज्यादा समय तक अलग नहीं किया जा सकता।

श्रेया और विशेष की शादी को कुछ समय बीत चुका था। दोनों मन से एक-दूसरे की करीबी महसूस करते थे, लेकिन शादी के बाद मन और शरीर दोनों का जो साम्य होना चाहिए, वह उन दोनों के बीच नहींपनप पा रहा था। कुछ समय बाद इसे लेकर दोनों कुंठित रहने लगे। साथ होने के बावजूद वे अंतरंग क्षणों को जी नहींपाते थे। एक दिन बहुत सोच-समझकर श्रेया ने विशेष को सुझाव दिया कि वह किसी अच्छे डॉक्टर से मिले। विशेष का एक दोस्त डॉक्टर था। दोनों उसके पास गए, जहां दोनों के कई टेस्ट हुए। रिपोर्ट में श्रेया को सामान्य बताया गया। फिर समस्या कहां है? श्रेया के पूछने पर डॉक्टर दोस्त ने विशेष से हिचकिचाते हुए कहा, समस्या तुम्हारे भीतर है विशेष। तुम पिता नहींबन सकते। दरअसल तुम.., डॉक्टर ने आगे कुछ न कहते हुए श्रेया को सुझाव दिया कि अगर वह बच्चा चाहती है तो कुछ समय बाद बच्चा गोद ले ले या फिर चाहे तो नई तकनीक के जरिये खुद मां बन सकती है।

रिपोर्ट हाथ में लेते हुए दोनों के हाथ कांप रहे थे। श्रेया निराश तो थी, लेकिन वह विशेष के सामने मजबूत दिखना चाहती थी। वह अपने पति से बहुत प्यार करती थी और नहींचाहती थी कि ऐसे समय में उसका साथ छोडे। वह ऐसी हालत में घर पर सास का सामना नहींकरना चाहती थी, लिहाजा वे पल वह घर से बाहर बिताना चाहती थी। वह विशेष को स्थिति का सामना करने की शक्ति देना चाहती थी। उसने सोच लिया था कि इस रहस्य को खुद तक ही सीमित रखेगी, कभी किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। वह विशेष को इतना प्यार, भरोसा और अपनापन देगी कि वह सब भूल जाएगा। ऐसा ही हुआ भी..।

कुछ वर्र्षो तक इस बात को लेकर घर में कोई चर्चा नहीं हुई। दोनों अपनी-अपनी नौकरी में व्यस्त रहे। धीरे-धीरे विशेष सहज होने लगा था। श्रेया ने रिपोर्ट छिपाकर रखी थी। विशेष से उसका रिश्ता एक बार फिर दोस्ती का हो गया था। सास कभी कुछ पूछना चाहतींतो कह देती कि सब ठीक है। अभी बच्चे के लिए समय ही कहां है, दोनों व्यस्त हैं। जब समय होगा-देखा जाएगा। माता-पिता भी जब जोर देने लगे तो श्रेया ने उकता कर कहा, अगर आप लोगों को बहुत चाह है तो एक बच्चा गोद ले लेते हैं। विशेष न रोता, न हंस पाता, मौन रह जाता। श्रेया प्यार से उसकी हथेली को दबाते हुए कहती, मस्त रहो विशेष। कोई चिंता नहीं। हमारे जैसे लोग बहुत से हैं दुनिया में। समय आने पर किसी बच्चे को गोद ले लेंगे, किसी अनाथ का भला हो जाएगा। क्या हमारे बीच दोस्ती काफी नहीं?

श्रेया दफ्तर से लौटकर मस्त गुनगुनाते हुए रसोई में खाना बना रही थी। आज विशेष की बुआ आई थीं। श्रेया-विशेष की शादी को सात वर्ष पूरे हो गए थे। दोनों के बीच सब ठीक चल रहा था। मां ने भी सवाल करना छोड दिया था। बुआ और मां बातें कर रही थीं। विशेष उनके पास बैठा था। बुआ गुस्से में थीं। कह रही थीं, क्या रखा है इस बांझ में जो सात सालों में एक बच्चा भी नहींदे सकी। मेरा तो भाई भी नहीं रहा, अब वंश आगे कैसे चलेगा? विशेष, तुझे भी कोई चिंता नहीं है। कुछ तो सोच।

तभी मां बोलीं, बेटा बुआ ठीक ही तो कह रही हैं।

तभी बुआ बोलीं, बेटा, श्रेया को भी रखो, वह कमाती है, तुम पर बोझ नहींबनेगी। लेकिन घर में बच्चा तो होना ही चाहिए। दूसरी शादी कर लो। मैंने तुम्हारे लिए एक लडकी भी देख ली है।

विशेष मौन था। मां आज तक चुप बैठी थीं, बुआ का सहारा पाकर बोलने लगी थीं। विशेष पहले तो चुप रहा। फिर खडा होकर बोला, अच्छा, ठीक है। देख लो लडकी..। इतना कह कर वह कमरे से बाहर चला गया। मां और बुआ खुश थीं कि बेटे ने बात मान ली है। वैसे भी विशेष मां की हर इच्छा पूरी करता था।

रसोई में खाना बनाते हुए श्रेया को जैसे खुद से घृणा होने लगी। वह बेवकूफ थी, जो इतने समय तक भावुक होकर विशेष से जुडी रही। मां-बुआ कुछ कहतींतो वह सहन कर लेती, वे सच्चाई नहीं जानती थीं। लेकिन विशेष तो जानता है कि कमी उसमें ही है। वह कैसे मौन रह गया? कैसे वह दूसरी शादी कर सकता है?

श्रेया आज पहली बार उस पुरुष को समझ पा रही थी। उसके मन में बहुत कुछ उबल रहा था। भयंकर विस्फोट के बाद वह सब ऊपर आ गया। कैसा दोस्त और पति है विशेष? आज तक सब कुछ भुलाकर जो पत्‍‌नी समर्पिता बनी हुई है, उससे इस तरह बदला ले रहा है? श्रेया ने कभी शिकायत नहीं की, कभी उसे एहसास नहींहोने दिया कि मां न बन पाने का दुख कई बार उसे भी होता है..।

लेकिन अब इस भावुक मन:स्थिति से बाहर आने का समय था। स्त्री होने के स्वाभिमान को बचाना था। अब उसे इस देहरी को पार करना होगा। स्थितियों से सीधे मुठभेड करनी होगी। हर बार समाज स्त्री पर ही उंगली क्यों उठाए? क्यों वही बांझ हो? डायन, वेश्या, दूसरी औरत, व्यभिचारिणी जैसे संबोधन सिर्फ उसके लिए ही क्यों हों? क्यों वह पुरुष के भी सारे अपराध अपने जिम्मे ले?

श्रेया रसोई में खाना बनाते हुए अपने आगामी संघर्ष के बारे में सोच रही थी। वह खुद से ही नाराज थी, खुद से ही सवाल कर रही थी। आर्थिक स्वतंत्रता क्या सचमुच स्वाभिमान व आत्मसम्मान भी देती है? उसने देखा, विशेष की मौन स्वीकृति से मां व बुआ खुश थीं। वह रसोई में थी। विशेष उसकी प्रतीक्षा करते-करते सो गया था। श्रेया कमरे में आई तो वह गहरी नींद में था। निश्चिंत होकर उसने अलमारी खोली और रिपोर्ट निकाली। फिर उसने अपनी सास के नाम एक छोटा सा पत्र लिखा-

मां, मैं घर छोडकर जा रही हूं। आपका बेटा नपुंसक है, वह कभी पिता बनने का सुख नहींले सकता। इस सच को पिछले सात सालों से मैंने छुपाकर रखा था, क्योंकि मैं विशेष से प्यार करती थी। मेरे लिए प्रेम का अर्थ देह नहीं, मन का समर्पण है। मैं उसे अपमानित होते नहींदेखना चाहती थी, लेकिन आज अनजाने में आपने और बुआ जी ने मुझे इतनी बडी गाली दे दी कि मेरा अहं जाग उठा। मेरा बस यही अनुरोध है कि किसी दूसरी लडकी की जिंदगी न बर्बाद करें..।

पत्र मेज पर रखकर एक सूटकेस में उसने अपने कपडे रखे। फिर धीरे-धीरे सीढियां उतरकर सुनसान-अंधेरी सडक पर आ गई। उसने बांह पर चुटकी काटी यह जानने के लिए कि क्या सचमुच वह देहरी लांघ आई है? क्या उसे अब अपनी मंजिल मालूम है?


मंदी-मंदी सब कहैं.. मंदी ना जाने कोय
इधर मालूम हुआ है कि सारे विश्व में मंदी महामारी की तरह फैल गई है। कई देश इसकी चपेट में आ गए हैं। अमेरिका जैसे पहलवानों को भी कई महीनों से ज्वर चढा हुआ है। हर देश की नब्ज मंदी ने मंद कर रखी है। अलबत्ता अपना भारत इस इन्फेक्शन से काफी हद तक बचा हुआ है। बचपन में सरकारी सब्सिडियों के घोर टीकाकरण का लाभ लेने और जवानी में नित्य नेशनलाइजेशन का स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक पीने वाली हमारी अर्थव्यवस्था थोडे से जुकाम या छीं-छूं के बावजूद लगभग तंदुरुस्त है और मंदी से ग्रस्त मुल्कों को देखकर मंद-मंद मुसकरा रही है।

वैसे भी हमें मंदी से घबराने की कोई खास आवश्यकता नहीं है। हमारे यहां प्रागैतिहासिक काल से ही मंदी का महत्व निर्विवाद रूप से स्थापित है। हमारे देवगण सदैव से मंद-मंद स्मित द्वारा अपने भक्तजनों को आह्लादित करते रहे हैं। हमारे उपवनों-कुंजों एवं वाटिकाओं में मलय पर्वत से आने वाली सुगंधित समीर सदैव से मंद-मंद संचरण करती रही है। हमारे सर-सरित-निर्झर इत्यादि सदैव से मंद-मंद ध्वनि गुंजित करते हुए प्रभावित रहे हैं। हमारी कोमलांगी, चंद्रवदना पद्मिनी नायिकाएं सदैव से मंद-मंद मुसकान बिखेर कर इत्र-उत्र कमल-श्रेणियां खिलाती रही हैं। अपने मंद-मंद गमनागमन के कारण ही ये गजगामिनियां कहलाई हैं। इन्होंने जब भी मंद-मंद स्वर से कुछ कहा है, सदैव मानो पुष्प वर्षा हुई है। और तो और.. जब भगवान राम वनवास हेतु चले थे तो ऋषि वाल्मीकि के अनुसार उन्होंने भी मंद-मंद प्रस्थान ही किया था। जब हमें मंद-मंद सदैव से इतना प्रिय रहा है तो अब मंदी के प्रति भय-भ्रम-भ्रांति क्यों?

यही नहीं, हमारे यहां मंद-मंद का एक अन्य पर्यायवाची भी खूब प्रचलित रहा है और वह है धीरे-धीरे। महत्व इसका भी उतना ही विशिष्ट है जितना मंद-मंद का। संत कबीर ने गहन-गंभीर अंदाज में संतों को समझाया है-

धीरे-धीरे रे मना, धीरे ही सब होय।

माली सींचे सौ घडा, ऋतु आए फल होय।।

चलचित्र कवि शिरोमणि आनंद बक्षी भी जन-मन को वार्तालाप के मर्म का साक्षात्कार कराते कहते हैं, धीरे धीरे बोल कोई सुन ना ले..।

कुछ कवियों ने धीरे-धीरे के एक अन्य रूप हौले-हौले का भी उत्कृष्ट प्रयोग किया है। हिंदी साहित्य के रीतिकाल के श्रृंगार-धुरंधर बिहारी के विषय में तो ज्ञात नहीं, परंतु फिल्म काल के प्रेम कवि एसएच बिहारी की नायिका तीव्र गति से चल रहे नायक की तेजी को मंदी में बदलने के उद्देश्य से कहती है-

जरा हौले-हौले चलो मोरे साजना/ हम भी पीछे हैं तुम्हारे..

हिंदी साहित्य के फिल्मकाल के ही एक अन्य प्रेमवादी कवि भरत व्यास के नायक-नायिका भी जो कर रहे हैं, वह स्लो मोशन में ही कर रहे हैं। पहले नायिका का उद्गार देखें-

हौले-हौले घूंघट पट खोले सजनवा बेदर्दी..

अब नायक के प्रत्युत्तर पर गौर फरमाएं-

हौले-हौले जहर काहे घोले नयनवा बेदर्दी..

फिल्मकाल के उर्दू शायर भी इससे अछूते नहीं रह सके हैं। उन्होंने मंद-मंद, धीरे-धीरे एवं हौले-हौले के स्थान पर प्रयोग किया है- आहिस्ता-आहिस्ता - मुहब्बत रंग लाती है मगर आहिस्ता-आहिस्ता..

यही नहीं, फिल्म काल के एक दृश्य काव्य का तो नाम ही है - आहिस्ता-आहिस्ता।

कुछ अन्य ने रफ्ता-रफ्ता एवं खरामा-खरामा का प्रयोग भी किया है। यथा, रफ्ता-रफ्ता देखो आंख मेरी लडी है.. या फिर

वो आने लगे मेरे दिल में खरामा-खरामा..। संस्कृति और साहित्य ही नहीं, इस मंद-मंद प्रवृत्ति का हमारे जनजीवन पर भी गहरा असर है। जनसंख्या, महंगाई, बेरोजगारी एवं भ्रष्टाचार को छोडकर सब-कुछ मंद-मंद गति से सरक रहा है।

जैसे-विकास हो रहा है, परंतु मंद-मंद। साक्षरता बढ रही है, परंतु धीरे-धीरे। जागरूकता आ रही है, पर हौले-हौले। प्रति व्यक्ति आय बढ रही है, मगर आहिस्ता-आहिस्ता। नव-निर्माण चल रहा है, मगर रफ्ता-रफ्ता। अदालतों में मुकदमों का निपटारा हो रहा है, मगर खरामा-खरामा..।

हम इस धीरे-धीरे के इतने दीवाने हैं कि हमने सडकों-रास्तों पर बडे-बडे बोर्ड लगा रखे हैं-धीरे चलें, धीरे चलें-सुरक्षित पहुंचे, दुर्घटना से देर भली, स्पीड थ्रिल्स बट किल्स.. आदि। यही कारण है कि हमारी ट्रेनें मंद-मंद गति से चलते-चलते रास्ते के सारे बोर्ड पढते-पढते इतनी लेट हो जाती हैं कि सवारियों को प्लेटफार्म पर लेट-लेट कर ट्रेन की प्रतीक्षा करनी पडती है। हमारे लोकजीवन में भी इस हौले-हौले को बेहद सराहा गया है। सहज पके सो मीठा होय, जल्दी का काम शैतान का, जल्दी की घानी आधा तेल आधा पानी, धीरा सो गंभीरा जैसे कई मुहावरे और लोकोक्तियां हमारे लोकजीवन में प्रचलित हैं। और तो और.. हमारे पंचतंत्र में तीव्र गति से भागने वाले खरगोश को मंद-मंद गति से चलने वाले कछुए से हारते हुए दिखाया गया है। स्लो एंड स्टेडी विंस द रेस।

अब आप ही बताएं, हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने वाली मंदी में आखिर क्या बुराई है? अजी! शब्द मंदी ही अपने आपमें कमाल का है। इसे अक्ल के साथ लगाइए तो अक्लमंदी बन जाता है, अगर हुनर के साथ लगाया जाए तो हुनरमंदी हो जाता है और अगर यह नियाज के साथ लगे तो उसे नियाजमंदी कर देता है। अगर आप इसे हमारी रजा के साथ जोड दें तो इस मामले में आपकी रजामंदी भी मिल जाए।

हमारे इस मंदी-विवेचन का यदि आप पर अभी भी कोई प्रभाव नहीं पडा है तो आइए आपको मंदी के तार्किक विश्लेषण के लिए अपने एक मित्र के पास ले चलें। हैं तो वे अर्थशास्त्री, परंतु हमें सदैव व्यर्थ शास्त्री ही लगते रहे हैं। फिर भी हमने एक दिन मन मार कर उनसे पूछ ही लिया-सर जी! यह जो चार-चुफेरे मंदी-मंदी का अखंड जाप चल रहा है, यह आखिर है क्या? आप तो अर्थ के शास्त्री हैं। मंदी पर तनिक मंद-मंद प्रकाश तो डालें।

अर्थशास्त्री महोदय ने जब हमें अपने चरणों में प्रश्नवाचक की मुद्रा में दंडवत पडे देखा तो उनके सप्लाई-डिमांड ग्राफ जैसे चेहरे पर अनर्थशास्त्रियों जैसी मंद-मंद मुसकान फैल गई। उन्होंने हमें उठाया और अपने रिजर्व बैंक जैसे कोरे-कठोर सीने से लगाने की कोशिश की, परंतु मुद्रा-स्फीति सा फूलता जा रहा उनका पेट मध्य में आ गया।

खैर, उन्होंने गला खंखार कर साफ किया और अपने (अर्थ) शास्त्रीय संगीत की सुरीली तान छेड दी- मित्र श्रेष्ठ! मंदी का अर्थ है कि जनता सयानी हो गई है। वास्तव में बडे-बडे मुल्कों की बडी-बडी कंपनियों ने बडे-बडे बैंकों से बडे-बडे कर्जे लेकर बडे-बडे उत्पाद बनाए, ताकि जनता के बडे वर्ग को अपने बडे-बडे प्रोडक्ट बडे-बडे मुनाफे लेकर बेचे जा सकें। परंतु लोग बडे सयाने निकले। वे बडे-बडे दावों और बडे-बडे सब्जबागों के चक्कर में नहीं आए और बाजार में बडी-बडी खरीदारियां नहीं कीं। इससे बडे-बडे मैन्युफैक्चरर्स बडे-बडे घाटों में आ गए। सो बडे-बडे कर्जे वापस न हो सके और बडे-बडे बैंक डूब गए। मंदी की इस बडे कमाल की परिभाषा को हमने दही में पडे बडे के समान डूबते-उतराते आश्चर्य से सुना। वे आगे बोले-मंदी हो या न हो, जनता के बडे वर्ग को बडे संघर्ष में जीवन जीना होता है। उनके जीवन के बडे हिस्से में कोई बडा बदलाव नहीं आता या बडा फर्क नहीं पडता।

इतना कहकर वे मंद-मंद मुसकराने लगे। हमने मंद स्वर से उन्हें धन्यवाद ज्ञापित किया और उनके घर से अपने घर की ओर मंद-मंद प्रस्थान किया। कदाचित अब आपके हृदय में भी मंदी के भय की तीव्रता मंद पडने लगी होगी।

पुण्यतिथि पर विशेष..


हिंदी सिनेमा की सशक्त हस्ताक्षर थीं नर्गिस
बालीवुड में अपनी सुंदरता के साथ-साथ अभिनय के लिए ख्याति पाने वाली चंद अभिनेत्रियों में निस्संदेह नर्गिस का नाम अग्रिम पंक्ति में रखा जाता है। इसका उदाहरण है महबूब खान की क्लासिक दर्जा पा चुकी फिल्म मदर इंडिया जिसमें राधा की अमर भूमिका निभाकर नर्गिस ने अपने सशक्त अभिनय का परिचय दिया था।

नर्गिस को कला परंपरा में मिली थी और उनकी मां जद्दनबाई हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में एक प्रसिद्ध नाम थी। नर्गिस को फिल्मों में लाने में उनकी मां की भूमिका उल्लेखनीय रही। तलाश.ए.हक उनकी पहली फिल्म थी जिसमें उन्होंने सिर्फ छह साल की उम्र में ही अभिनय किया था। उनका मूल नाम फातिमा राशिद था लेकिन इस फिल्म में उनका नाम बेबी नर्गिस था। बाद के फिल्मी सफर में नर्गिस ही उनका नाम हो गया।

उनके फिल्मी सफर को 1940 के दशक में पहचान मिली और 1950 के दशक में उन्होंने अभिनय की नई बुलंदियों को छुआ। 1957 में प्रदर्शित महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया उनकी सर्वाधिक चर्चित फिल्मों में रही। इस फिल्म को आस्कर के लिए नामित किया गया था। इस दौरान उन्होंने कई स्थापित कलाकारों के साथ काम किया। उनके सहकलाकारों में राजकुमार, दिलीप कुमार, मोतीलाल, राजकुमार, बलराज साहनी जैसे कलाकार शामिल थे। बाल कलाकार के रूप में अपने फिल्मी सफर की शुरुआत करने वाली नर्गिस ने दर्जनों कामयाब फिल्मों में काम किया हालंाकि राजकपूर के साथ उनकी जोड़ी विशेष रूप से सराही गई। इस जोड़ी की कई फिल्में बेहद कामयाब रहीं। ऐसी फिल्मों में बरसात, अंदाज, आवारा, आह, श्री 420, चोरी चोरी, जागते रहो आदि शामिल हैं।

एक जून 1929 को पैदा हुइ नर्गिस ने अपने फिल्मी सफर में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं की लेकिन मदर इंडिया विशेष चर्चित हुई। इस फिल्म में उनकी भूमिका को आज भी याद किया जाता है। इस फिल्म को देश के अलावा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी सराहना मिली और कई पुरस्कार मिले। बाद में नर्गिस ने सुनील दत्त के साथ शादी कर ली जो मदर इंडिया में उनके सह-कलाकार थे। शादी के बाद वह फिल्म से लगभग अलग हो गर्ई। बाद में उन्होंने रात और दिन में काम किया। इस फिल्म में उनके अभिनय की बेहद तारीफ हुई और उन्हें इसके लिए पुरस्कृत किया गया।

शादी के बाद उन्होंने अपने पति के साथ अजंता आर्ट्स कल्चरल ट्रूप की स्थापना की। यह दल सीमावर्ती क्षेत्रों में तैनात सैनिकों के लिए स्टेज शो करता था। इस दल में उन्होंने अपने समय के कई कलाकारों और गायकों को भी शामिल किया था। नर्गिस को पद्मश्री और उर्वशी सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले। इनमें फिल्मफेयर पुरस्कार के अलावा फिल्म रात और दिन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार शामिल है। विभिन्न सामाजिक कार्याें के अलावा नर्गिस स्पास्टिक सोसाइटी आफ इंडिया से भी जुड़ी रहीं। उन्हें बाद में राज्यसभा के लिए भी मनोनीत किया गया। लेकिन किस्मत को यह मंजूर नहीं था कि वह सांसद के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करें। उन दिनों वह बीमार रहने लगीं और तीन मई 1981 को कैंसर के कारण उनका निधन हो गया।

साहित्यिक कृतियां


सम्मान
राजीव और संजीव दोनों मित्र थे। एक दिन वे कहीं जा रहे थे कि रास्ते में उनके पुराने विद्यालय के गुरू जी मिल गए। राजीव ने उनका अभिवादन करते हुए चरणस्पर्श किए लेकिन संजीव खडा मुंह देखता रहा। इधर इस पर राजीव को तो आश्चर्य हो ही रहा था, साथ ही उनके गुरू जी को भी। कुछ दूर चलने पर राजीव ने अपने मित्र से गुरू जी का सम्मान न करने का कारण पूछा। इस पर संजीव ने कहा कि, भले ही वे हमारे गुरू रहे हैं लेकिन मैं ऐसे गुरुओं का सम्मान नहीं करता जो ट्यूशन के नाम पर छात्रों का शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करते हैं और जिनमें भेदभाव करने की आदत हो। कुछ दूरी पर खडे गुरू जी ने भी यह सुन लिया था। यह सुनकर राजीव तो सकते में रह ही गया साथ ही गुरू जी का भी सिर अपने आप ही झुक गया था।