मंगलवार, 29 जून 2010

कहानी

पूजा किसे कहें!

नीना अग्रवाल

उन्होंने स्कार्पियो से उतर मंदिर में प्रवेश किया, शिव जी को जल चढ़ाया, फिर बारी-बारी से सभी देवी-देवताओं के सामने नतमस्तक होती रही। हम भी वहीं विधिवत पूजा अर्चना कर रहे थे। हमने सभी मूर्तियों के सामने दस-दस के नोट चढ़ाए, दान-पात्र में पचास रुपए का करारा नोट डाला। इन सौ-सवा सौ रुपए के बदले प्रभु से अ‍नगिनत बार मिन्नतें कीं। पति की कमाई में दोगुनी बढ़ोतरी करें, बेटे की नौकरी लग जाए, बेटी की शादी किसी धनाढ्‍य खानदान में हो जाए। उधर हमारा ध्यान उन प्रौढ़ भक्त पर भी था जिन्होंने अभी तक प्रभु के चरणों में एक रुपया भी नहीं चढ़ाया था।

हमने सगर्व एक पचास रुपए का नोट पंडितजी को चरण स्पर्श करके दिया और प्रदर्शित किया, पूजा इसे कहते हैं। हम दोनों पूजा के बाद साथ ही मंदिर के बाहर निकले, हमें मंदिर के द्वार पर एक परिचित मिल गईं। हम उनसे बातें करने लगे मगर हमारा ध्यान उन्हीं कंजूस भक्तों पर रहा।

उधर उन्होंने अपनी गाड़ी से एक बड़ी सी डलिया निकाली, जिसमें से ताजा बने भोजन की भीनी-भीनी महक आ रही थी। वो मंदिर के बगल में बने आदिवासी आश्रम में गईं। तब तक हमारी परिचित जा चुकी थीं। अब वो प्रौढ़ा हमारे लिए जिज्ञासा का विषय बन गईं। हम आगे बढ़कर उनकी जासूसी करने लगे।

उन्होंने स्वयं अपने हाथों से पत्तलें बिछानी शुरू कीं, बच्चे हाथ धोकर टाट-पट्टी पर बैठने लगे। वो बड़े चाव से आलू-गोभी की सब्जी व गरमागरम पराठे उन मनुष्यमात्र में विद्यमान ईश्वर को परोस रही थीं। वाह रे मेरा अहंकार! हम इस भोली पवित्र मानसिकता में भक्ति को पनपी देख सोचने लगे, पूजा किसे कहते हैं।

प्रेरक व्यक्तित्व

उन्हें एक राष्ट्र के दो झंडे स्वीकार नहीं थे
बंगाल ने कितने ही क्रांतिकारियों को जन्म दिया है। स्व. डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी इसी पावन बंगभूमि से पैदा हुए थे। 6 जुलाई, 1901 को उनका जन्म एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके पिता आशुतोष बाबू अपने जमाने ख्यात शिक्षाविद् थे।

अभी केवल जीवन के आधे ही क्षण व्यतीत हो पाए थे कि हमारी भारतीय संस्कृति के नक्षत्र अखिल भारतीय जनसंघ के संस्थापक तथा राजनीति व शिक्षा के क्षेत्र में सुविख्यात डॉ. मुखर्जी की 23 जून, 1953 को मृत्यु की घोषणा की गईं। यह क्या वास्तविक मौत थी या कोई साजिश? बरसों बाद भी ये राज, राज ही रहा। डॉ. मुखर्जी ने अपनी प्रतिभा से समाज को चमत्कृत कर दिया था। महानता के सभी गुण उन्हें विरासत में मिले थे।
22 वर्ष की आयु में आपने एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा उसी वर्ष आपका विवाह भी सुधादेवी से हुआ। बाद में उनसे आपको दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। आप 24 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्य बने। आपका ध्यान गणित की ओर विशेष था। इसके अध्ययन के लिए वे विदेश गए तथा वहाँ पर लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी ने आपको सम्मानित सदस्य बनाया। वहाँ से लौटने के बाद आप वकालत तथा विश्वविद्यालय की सेवा में कार्यरत हो गए।
आपने कर्मक्षेत्र के रूप में 1939 से राजनीति में भाग लिया और आजीवन इसी में लगे रहे। आपने गाँधीजी व कांग्रेस की नीति का विरोध किया, जिससे हिन्दुओं को हानि उठानी पड़ी थी। एक बार आपने कहा-"वह दिन दूर नहीं जब गाँधीजी की अहिंसावादी नीति के अंधानुसरण के फलस्वरूप समूचा बंगाल पाकिस्तान का अधिकार क्षेत्र बन जाएगा।" आपने नेहरूजी और गाँधीजी की तुष्टिकरण की नीति का सदैव खुलकर विरोध किया। यही कारण था कि आपको संकुचित सांप्रदायिक विचार का द्योतक समझा जाने लगा।
अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रिमंडल में एक गैर-कांग्रेसी मंत्री के रूप में आपने वित्त मंत्रालय का काम संभाला। आपने चितरंजन में रेल इंजन का कारखाना, विशाखापट्टनम में जहाज बनाने का कारखाना एवं बिहार में खाद का कारखाने स्थापित करवाए। आपके सहयोग से ही हैदराबाद निजाम को भारत में विलीन होना पड़ा।
1950 में भारत की दशा दयनीय थी। इससे आपके मन को गहरा आघात लगा। आपसे यह देखा न गया और भारत सरकार की अहिंसावादी नीति के फलस्वरूप मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर संसद में विरोधी पक्ष की भूमिका का निर्वाह करने लगे। एक ही देश में दो झंडे और दो निशान भी आपको स्वीकार नहीं थे। अतः काश्मीर का भारत में विलय के लिए आपने प्रयत्न प्रारंभ कर दिए। इसके लिए आपने जम्मू की प्रजा परिषद पार्टी के साथ मिलकर आंदोलन छेड़ दिया।
अटलबिहारी वाजपेयी (तत्कालीन विदेश मंत्री), वैद्य गुरुदत्त, डॉ. बर्मन और टेकचंद आदि को लेकर आपने 8 मई 1953 को जम्मू के लिए कूच किया। सीमा प्रवेश के बाद आपको जम्मू-काश्मीर सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। 40 दिन तक आप जेल में बंद रहे और 23 जून 1953 को जेल में आपकी रहस्यमय ढंग से मृत्यु हो गई।

क्या तुम जानते हो?

सलाम, टा-टा, बाय-बाय
विश्व की सभी सभ्यताओं में शिष्टाचार और विनम्र व्यवहार को बहुत महत्व दिया गया है। हर देश के प्राचीन इतिहास में 'छोटों द्वारा बड़ों को सलाम' करने की परंपरा रही है। प्राचीन राजाओं के दरबारों में 'सलाम पेश' करने के अलग-अलग तरीके थे। एक तरीका था - दूर से ही कमर झुकाकर दाहिने हाथ से बार-बार सलाम करते हुए बादशाह के साने आने का था।
एक तरीका घुटनों के बल चलकर या सामने बैठकर सलाम पेश करने का था। कई दरबारों में खासकर अँगरेजों के यहाँ टोपी, पगड़ी या साफा उतारकर सलाम पेश किया जाता था। गरीब जनता, हिंदुस्तान में हाथों को जोड़कर विनम्र भाव से सलाम करती है। जब समान हस्ती वाले बादशाह या राजा मिलते थे तो वे अपने देश में प्रचलित सलाम या अभिवादन का वह तरीका अपनाते थे जो उनकी गरिमा वाले लोगों के लिए उस देश में संवैधानिक रूप से स्वीकृत होता था।
आजकल एक देश का राज्याध्यक्ष दूसरे राज्याध्यक्ष से मिलने जाता है तो उसके लिए दोनों देश के अधिकार पहले से मिलकर अभिवादन से लेकर विदा तक के शिष्टाचार संबंधी प्रचलित नियमों की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं और फिर राज्याध्यक्ष के दौरे के दौरान दोनों देश उनके अनुसार व्यवहार करते हैं। आज शिष्टाचार सामाजिक-राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग बन गया है।
विश्व की सभी सभ्यताओं में शिष्टाचार का एक अन्य शब्द है - थैंक यू या धन्यवाद। अँगरेजी में थैंक्स शब्द उसी स्रोत से निकला है जिससे जर्मन का शब्द 'डॉके' निकला है और दोनों शब्दों का एक ही स्रोत खोजा जाए तो अंतत: दोनों ही प्रोटोमर्जिक शब्द 'थैंकोजान' से निकलते हैं। वास्तव में 'थैंक' करना 'थिंक' शब्द से जुड़ा है। ऐसा लगता है कि इसका स्रोत भी सरलतम तरीका है। जब भी हम किसी से सेवा, मदद या सहायता लेते हैं तो हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम उसका 'थैंक्स' अदा करें। सभ्यता का यह नियम इतना अच्छा माना गया है कि विश्व का शायद ही ऐसा कोई देश हो जहाँ इसका वहाँ की भाषा में 'पर्यायवाची' शब्द का प्रयोग न होता हो। यह भी उल्लेखनीय है कि 'आभार न मानना' किसी भी सभ्यता में धृष्टता माना जाता है। उर्दू में 'शुक्रिया', 'शुक्र गुजार, कृतज्ञ का विलोम है 'नाशुक्रा' (शुक्रिया अदा न करने वाला)। 'शुक्राने की नमाज' पढ़ने का इस्लाम में बड़ा महत्व माना गया है। खञदा से माँगी दुआ जब पूरी होती है तो शुक्रिया अदा करने के लिए पढ़ी गई विशेष नमाज को 'शुक्राने' की नमाज कहते हैं।
'टा-टा' और 'बाय-बाय' या 'गुड बाय' एक ही क्रिया की अलग-अलग अभिव्यक्तियों वाले शब्द हैं। यह क्रिया ह 'गुड-बाय' या 'अलविदा'। जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों का समूह आपस में विदा लेता है तो वे संक्षिप्त में 'गुड नाइट' न कहकर 'गुड बाय' कहते हैं। ऐसा कहकर वे एक-दूसरे के प्रति शुभकामना प्रकट करते हैं कि आपकी रात सुखद बीते या 'गुड डे' दिन सुखद बीते।
'बाय-बाय' का प्रयोग पहली बार 1823 में एक शिशु द्वारा रिकॉर्ड की गई रेडियो वार्ता में किया गया। इसके बाद 'टा-टा-फॉर-नाउ' (अभी के लिए विदा दीजिए) का प्रयोग बीबीसी ने 1941 में अपने एक प्रोग्राम 'इटमा' में किया। इस कार्यक्रम में क्रॉकरी धोने वाली चरित्र मिसेज मौपप द्वारा बोले गए डायलॉग को स्वर दिया था डोरोथी समर्स ने। 'बाय-बाय' को जापानी 'सायोनारा' कहते हैं। दरअसल, यह (हैप्पी जर्नी) यात्रा शुभ हो कहना का एक अंदाज है। इन दो शब्दों में शुभकामना और अभिलाषाओं का भंडार भरा है, इसलिए उस भंडार की अभिव्यक्ति केवल शब्दों से की जाती है।
(लेखक 'पराग' के पूर्व संपादक और प्रसिद्ध बाल साहित्यकार हैं।)

कुख्यात से मिसाल बना गाँव

काठेवाडी गाँव का कायाकल्प
महाराष्ट्र के नांदेड जिले का एक छोटा सा गाँव है काठेवाडी। गाँव की आबादी मात्र ७०० है। तहसील डेगलुर के इस छोटे से गाँव का आज दूर-दूर तक नाम है। नाम है अच्छाई है लिए। इस गाँव को लोग पहले भी जानते थे पर बदमाशी के लिए। गाँव का नाम लेते ही लोगों में डर भर जाता था। गाँव की ज्यादातर आबादी पियक्कड़ थी। लोग पूरे दिन जमकर दारू पीते और बीड़ी फूँकते थे।

गाँव में किसी तरह की कोई सुविधा नहीं थी। लोग पक्के पियक्कड़ थे सो लड़ाई-झगड़े में आगे रहते थे। जिसने टोका, उसी को ठोक दिया। आसपास के लोग गाँव के नजदीक आने-जाने से भी डरते थे। लोग खूब पीते थे, इस कारण कोई दूसरे को कुछ समझता भी नहीं था। गाँव की हालत यह हो गई कि ज्यादातर लोग बीमार पड़ने लगे। ऐसे में आर्ट ऑफ लिविंग ने गाँव को सुधारने का बीड़ा उठाया।

आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर ने यह काम सौंपा एक अध्यापक को। आज यह गाँव पूरे देश के लिए एक मिसाल बन गया है। गाँव में कोई दारू-बीड़ी नहीं पीता। लगता है जैसे गाँव में रामराज्य है। लोग दुकान से सामान खरीदते हैं, तिजोरी में पैसा डालते हैं और चल देते हैं। यह गाँव में सबसे बड़ा बदलाव है। रोजाना की जरूरत की हर चीज दुकान पर मिल जाती है।

श्री श्री रविशंकर ने बताया कि गाँव में रामराज्य लाने का यह विचार उन्हें जर्मनी के एक गाँव की व्यवस्था से आया। जर्मनी में आर्ट ऑफ लिविंग आश्रम के पास एक गाँव है। इस गाँव में फलों के एक बगीचे में बिना दुकानदार फल बेचे जाते हैं। एक बोर्ड पर फलों के दाम लिखे होते हैं। खरीदार आते हैं, फलों की थैली उठाते हैं और तय दाम एक डिब्बे में डाल देते हैं। उन्होंने बताया कि जब काठेवाडी गाँव की समस्या उनके सामने आई तो, इस विचार को यहां साकार करने के बारे में सोचा गया।

कमाल की बात यह रही है कि दो साल में ही गाँव की काया पलट हो गई। आर्ट ऑफ लिविंग के स्वयंसेवकों ने गाँव में पहला नवचेतना शिविर लगाया। संस्था ने अपने फाइव एच (हेल्थ, होम, हाइजीन, ह्यूमन वैल्यूस, ह्यूमनिटी इन डाइवर्सिटी) कार्यक्रम के तहत गाँववालों को बदलने का काम शुरू किया। आर्ट ऑफ लिविंग के स्वयंसेवकों ने गाँव के स्वास्थ्य, घर, स्वच्छता, मानवीय मूल्यों और मानवीय विविधता (फाइव एच) कार्यक्रम के तहत गाँववालों पर अच्छा असर हुआ। शुरुआत में कम लोग उनके अभियान में शामिल हुए।

गाँव को सबसे पहले दारू और धूम्रपान मुक्तकराने की पहल हुई। इस काम में गाँव के युवकों ने सबसे ज्यादा साथ दिया। सारे गाँववालों से तंबाकू और बीड़ी लेकर जमा की गई। बाद में इसे जला दिया गया। लगभग १३ हजार रुपए का तंबाकू का सामान जलाया गया। छोटे से गाँव के लोगों के लिए यह बड़ी रकम थी। स्वस्थ रहने के लिए उन्होंने तंबाकू के साथ ही दारू पीने से तौबा कर ली। आज हालत यह है कि गाँव पूरी तरह दारू और धूम्रपान से मुक्त है।

लिविंग ऑफ आर्ट के स्वयंसेवकों ने बताया कि शुरुआत में गाँववालों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। कुछ दिन बाद कुछ गाँव वाले कार्यक्रम में शामिल होने लगे। आज २०० से ज्यादा गाँव वाले कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं। लगभग ५०० लोग विभिन्न कार्यक्रमों में शरीक होते हैं। इसके साथ ही आसपास के गाँवों के लोगों को भी अच्छा जीवन जीने के लिए प्रेरणा देते हैं। गाँव में सुविधाएँ जुटाने के लिए भी गाँववाले ही पैसा इकट्‍ठा करते हैं। इसके लिए एक दान पेटी बनाई गई है। सुबह-सुबह दान पेटी पूरे गाँव में घुमाई जाती है। जिसकी जितनी इच्छा होती है दान पेटी में धन डालता है। स्वच्छता अभियान के तहत गाँव के लोग सड़कों, मंदिर, समुदाय भवन और अन्य इलाकों की सफाई करते हैं।

गाँव में दो साल पहले किसी भी घर में शौचालय नहीं था। महिलाओं को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता था। दिन में शौच न जाने के कारण महिलाओं का स्वास्थ्य खराब रहता था। आज गाँव में हर घर में शौचालय है। आर्ट ऑफ लिविंग ने अभियान के तहत 110 शौचायलों का निर्माण कराया। बिना किसी सरकारी सहायता के हर घर में शौचालय के निर्माण को बड़े पैमाने पर प्रशंसा मिली। गाँव को राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने निर्मल गाँव पुरस्कार से सम्मानित किया। केंद्र सरकार की तरफ से गाँव में विकास कार्य के लिए 50 हजार रुपए का अनुदान दिया गया। गाँव को पूरी तरह से दारू और तंबाकू से मुक्त होने पर महाराष्ट्र सरकार ने टंटा मुक्ति अभियान से सम्मानित किया। इसके लिए महाराष्ट्र सरकार ने सवा लाख रुपए भेंट किए।

पियक्कड़ों का गाँव पूरी तरह शराब और तंबाकू से मुक्त, राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सम्मानित किया, केंद्र सरकार ने ५० हजार रुपए दिए, अब हर घर में है शौचालय, महाराष्ट्र सरकार ने भी सम्मानित किया। गाँव में एक और बड़ा बदलाव आया। यह है सूदखोरों से मुक्ति। इसके लिए गाँव में स्वयं सहायता समूह बनाया गया। महिला और पुरुष अलग-अलग समूह में काम करते हैं। हर महीने एक तय राशि बैंक में जमा करते हैं। जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे की सहायता करते हैं। हालत यह है कि गाँव में सूद पर पैसा देने वालों का आना ही बंद कर दिया गया है।

गाँव की कायापलट की प्रशंसा करते हुए रविशंकर कहते हैं कि अगर आप समाज के प्रति समर्पित हो तो समाज का पूरा समर्थन आपको मिलता है। समर्पण से लंबे समय के बाद फायदा मिलता है। अपनी प्रतिबद्धता से इस दुनिया को जीने के लिए अच्छा स्थान बनाओ। सफलता मिलेगी।

रविवार, 27 जून 2010

क्या तुम जानते हो?

पेले बनना चाहते थे पायलट
एडीसन एरनटेस डो नासाअमेंटो का जन्म एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ। इतने बड़े नाम से बुलाने में दिक्कत होती थी तो इस बालक का प्यार का नाम रखा गया "डिको"। डिको ने अभी स्कूल जाना भी शुरू नहीं किया था कि परिवार की गरीबी दूर करने के लिए उसे जूते पॉलिश का काम करना पड़ा।

डिको के पिता एक साधारण फुटबॉल खिलाड़ी थे और उन्हें देखकर छोटी उम्र में डिको को फुटबॉल का शौक लगा। हालाँकि पिता का फुटबॉल खेलना हमेशा घर में माँ की चिढ़ और झगड़े का कारण बना रहता था क्योंकि इस शौक ने घर को तंगहाली में ला पटका था। नन्हे डिको ने महसूसा कि गरीबी बहुत बुरी चीज है और यह सपने छीन लेती है।

कुछ समय बाद डिको की स्कूली पढ़ाई शुरू हुई। वह स्कूल गया तो उसके दोस्तों ने एक गोलकीपर बिले के नाम पर चिढ़ाते हुए उसे पेले नाम दिया। डिको को अपने इस नए नाम से चिढ़ थी पर वह जितना चिढ़ता गया यह नया नाम उतना उसके साथ चिपकता गया। डिको अब पेले बन गया। स्कूल के दिनों में वह अपने घर की गरीबी दूर करने के लिए पायलट बनने का सपना देखता था। खाली समय में फुटबॉल भी खेलता था।
फुटबॉल खेलना सीखने के लिए वह किसी क्लब में भर्ती होना तो चाहता था पर वह ऐसा कर नहीं सकता था क्योंकि घर की माली हालत इसकी इजाजत नहीं देती थी। पेले ने पिता से ही फुटबॉल सीखना शुरू किया। उसके पास फुटबॉल खरीदने के भी पैसे नहीं होते थे तो पेले के दोस्त गली में कागज से और कपड़े की गेंद बनाकर फुटबॉल खेलते। इन्हीं दोस्तों के साथ मिलकर पेले ने पहला फुटबॉल क्लब बनाया था।

जब पेले १२ साल का था तब उसने एक क्लब से जुड़कर फुटबॉल प्रतियोगिता में भाग लिया और सबसे ज्यादा गोल मारकर अपनी टीम को जिता ले गया। इसी समय हवाई जहाज उड़ाने का विचार छूट गया और उसके दिमाग में फुटबॉल धमाचौकड़ी मचाने लगी। मगर परीक्षा अभी खत्म नहीं हुई थी। कुछ समय बाद क्लब बंद हो गया और पेले का स्कूल जाना भी। पुराने दोस्तों ने मदद की और पेले एक जूनियर क्लब से जुड़ा। उसकी जिंदगी में निर्णायक मोड़ तब आया जब पता चला कि इस नए क्लब में उसे ब्राजील के स्टार फुटबॉलर व्लादेमर डी ब्रिटो कोचिंग देंगे।

एक साल तक ब्रिटो ने पेले को फुटबॉल खेलना सिखाया और फिर किन्हीं कारणों से क्लब से अलग हो गए। पेले के करियर पर फिर से प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। तब सीनियर टिम नाम के खिलाड़ी ने पेले और उसके दोस्तों को कोचिंग देना शुरू किया। टिम ने ही पेले को एक बड़े क्लब से जुड़ने में मदद की। पेले के परिवार के लिए यह खुशी का बड़ा मौका बना, क्योंकि उसके पिता जीवनभर जिस बात के लिए तरसते रहे वह उनके बेटे को मिल रही थी।

पेले जब अपने शहर से बड़ी जगह खेलने जा रहा था तो उसकी माँ को चिंता भीहुई कि उसके बेटे की उम्र अभी 14 साल ही है और वह घर से दूर कैसे रहेगा। पेले भी घर से ज्यादा जुड़ाव रखता था। यहाँ ब्रिटो एक बार फिर पहले के लिए ईश्वर का अवतार बनकर आए।

उन्होंने पेले की सेंटोज क्लब से जुड़ने में मदद की। यह उन दिनों बहुत ही जाना माना फुटबॉल क्लब था। पेले शुरुआत में शरीर से कमजोर था, क्योंकि उसका बचपन रूखा-सूखा खाकर गुजरा था।

शारीरिक रूप से मजबूत नहीं होने के कारण उसका चयन सीनियर टीम में नहीं हो सका। पर यहाँ पेले को रोजाना अच्छा खानपान मिलने लगा ताकि वह मजबूत खिलाड़ी बन सके। पेले को यहाँ अपने घर की बहुत याद आती थी और एक बार तो वह अपना सामान लेकर भी आ गया था। पर लक्ष्य को याद करके वह अभ्यास पर लौट आया।

पेले को 15 साल की उम्र में पहला बड़ा अवसर मिला जब एक शीर्ष खिलाड़ी चोटिल हो गया। अपने दूसरे मैच में पेले ने अपने करियर का पहला गोल मारा। पेले को मालूम नहीं हुआ पर यहाँ से उसकी उड़ान शुरू हो गई। क्लब फुटबॉल खेलते हुए पेले ने सभी को अपने खेल से चकित कर दिया और फिर एक दिन रेडियो पर 1958 में स्वीडन में होने वाले वर्ल्ड कप के लिए ब्राजील टीम में चुने जाने की सूचना पाकर पेले की आँख से आँसू आ गए।

1958 से पहले ब्राजील ने कोई वर्ल्ड कप नहीं जीता था। पेले टीम में चुना गया पर स्वीडन के वर्ल्ड कप में क्वार्टर फाइनल तक वह एक भी गोल नहीं कर पाया। वेल्स के विरुद्ध क्वार्टर फाइनल में उसने यादगार गोल किया। इसी गोल से ब्राजील जीता। पूरा स्वीडन पेले के खेल कौशल का दीवाना हो गया। सेमीफाइनल में ब्राजील ने फ्रांस को 5-2 से हराया। पेले ने ह‍ैट्रिक लगाई।

पेले ने अद्‍भुत खेल से ब्राजील को पहला विश्वकप जितवा दिया। घर लौटी ब्राजील टीम का लोगों ने बहुत स्वागत किया। लोगों की जुबान पर एक ही नाम था पेले... पेले...। पेले के मन में अपने पिता और दोस्तों की स्मृति ताजा थी।

कहानी

'अतिथि भगवान होता है'

रेगिस्तान को पार करते हुए दो यात्रियों ने एक खानाबदोश बेदुइन की झोपड़ी को देखा और ठहरने की इजाजत माँगी। जैसे सभी बंजारा जातियाँ करती हैं, बेदुइन ने बहुत हर्षोल्लास से उनका स्वागत किया और उनकी दावत के लिए एक ऊँट को जिबह करके बेहतरीन भोजन परोसा।

अगले दिन दोनों यात्री तड़के ही उठ गए और उन्होंने यात्रा जारी रखने का निश्चय किया। बेदुइन उस वक्त घर पर नहीं था इसलिए उन्होंने उसकी पत्नी को सौ दीनार दिए और अलसुबह चलने के लिए इजाजत माँगी। उन्होंने कहा कि ज्यादा देर करने पर सूरज चढ़ जाएगा और उन्हें यात्रा करने में असुविधा होगी।

वे लगभग चार घंटे तक रेगिस्तान में चलते रहे। उन्होंने पीछे से किसी को पुकार लगाते सुना। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, बेदुइन आ रहा था। पास आने पर बेदुइन ने दीनारों की पोटली रेत पर फेंक दी। बेदुइन ने कहा- 'क्या तुम लोगों को यह सोचकर शर्म नहीं आती कि मैंने कितनी खुशी से तुम दोनों का अपनी झोपड़ी में स्वागत किया था!'

यात्री आश्चर्यचकित थे। उनमें से एक ने कहा- 'हमें जितना ठीक लगा उतना हमने दे दिया। इतने दीनारों में तो तुम तीन ऊँट खरीद सकते हो।'

'मैं ऊँट और दीनारों की बात नहीं कर रहा हूँ!' बेदुइन ने कहा, 'यह रेगिस्तान हमारा सब कुछ है। यह हमें हर कहीं जाने देता है और हमसे बदले में कुछ नहीं माँगता। हमने अपने प्यारे रेगिस्तान से यही सीखा है कि अतिथि भगवान का रूप होता है। अतिथि की सेवा-सत्कार करना ही हमारा धर्म है। अतिथि से हम कुछ ले नहीं सकते और आप मुझे ये दीनार देकर जा रहे हैं। आपने मेरे आतिथ्य का अपमान किया है।' तभी दोनों यात्रियों ने बेदुइन को दिव्य रूप के दर्शन कराए और कहा- 'हम आपकी परीक्षा ले रहे थे।'


पूजा किसे कहें!

नीना अग्रवाल

उन्होंने स्कार्पियो से उतर मंदिर में प्रवेश किया, शिव जी को जल चढ़ाया, फिर बारी-बारी से सभी देवी-देवताओं के सामने नतमस्तक होती रही। हम भी वहीं विधिवत पूजा अर्चना कर रहे थे। हमने सभी मूर्तियों के सामने दस-दस के नोट चढ़ाए, दान-पात्र में पचास रुपए का करारा नोट डाला। इन सौ-सवा सौ रुपए के बदले प्रभु से अ‍नगिनत बार मिन्नतें कीं। पति की कमाई में दोगुनी बढ़ोतरी करें, बेटे की नौकरी लग जाए, बेटी की शादी किसी धनाढ्‍य खानदान में हो जाए। उधर हमारा ध्यान उन प्रौढ़ भक्त पर भी था जिन्होंने अभी तक प्रभु के चरणों में एक रुपया भी नहीं चढ़ाया था।

हमने सगर्व एक पचास रुपए का नोट पंडितजी को चरण स्पर्श करके दिया और प्रदर्शित किया, पूजा इसे कहते हैं। हम दोनों पूजा के बाद साथ ही मंदिर के बाहर निकले, हमें मंदिर के द्वार पर एक परिचित मिल गईं। हम उनसे बातें करने लगे मगर हमारा ध्यान उन्हीं कंजूस भक्तों पर रहा।

उधर उन्होंने अपनी गाड़ी से एक बड़ी सी डलिया निकाली, जिसमें से ताजा बने भोजन की भीनी-भीनी महक आ रही थी। वो मंदिर के बगल में बने आदिवासी आश्रम में गईं। तब तक हमारी परिचित जा चुकी थीं। अब वो प्रौढ़ा हमारे लिए जिज्ञासा का विषय बन गईं। हम आगे बढ़कर उनकी जासूसी करने लगे।

उन्होंने स्वयं अपने हाथों से पत्तलें बिछानी शुरू कीं, बच्चे हाथ धोकर टाट-पट्टी पर बैठने लगे। वो बड़े चाव से आलू-गोभी की सब्जी व गरमागरम पराठे उन मनुष्यमात्र में विद्यमान ईश्वर को परोस रही थीं। वाह रे मेरा अहंकार! हम इस भोली पवित्र मानसिकता में भक्ति को पनपी देख सोचने लगे, पूजा किसे कहते हैं।

कबीर जयंती

कबीर के लोकप्रिय दोहे
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डा‍रि दे, मन का मनका फेर॥

तिनका कबहुँ ना निंदए, जो पाँव तले होए।
कबहुँ उड़ अँखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥

गुरु गोविंद दोऊँ खड़े, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥

साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥

रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय।
हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥

दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥