बुधवार, 25 सितंबर 2013
पीड़ितों की सेवा में जीवन लगाने वाली माँ
पीडि़त मानवता की सेवा को अपना सर्वोपरि धर्म मानने वाली मदर टेरेसा दुनिया के गरीब मुल्कों से भी ज्यादा पश्चिमी देशों को गरीब मानती थी और उनके अनुसार इन संपन्न देशों की गरीबी हटाना ज्यादा मुश्किल है। मदर टेरेसा के अनुसार भूखे को भरपेट भोजन, वस्त्र और आवास देकर संतुष्ट किया जा सकता है लेकिन उपेक्षा, अकेलापन, असहाय जैसी भावनाओं से रूबरू होने वाले पश्चिम के संपन्न समाज की गरीबी दूर करना बेहद कठिन काम है।
अकेलेपन और उपेक्षित होने की भावना को अत्यंत भयानक गरीबी मानने वाली मदर टेरेसा धर्म से कैथोलिक थीं और एक सच्ची ईसाई की तरह उन्होंने मनुष्य सेवा को ही प्रभु सेवा बना लिया था। उनका जन्म 26 अगस्त 1910 को मकदूनिया में हुआ और उनका परिवार अल्बानिया मूल का था। बचपन से ही एगनेस गोनक्शा बोजाशियो (मदर टेरेसा का मूल नाम) ईसाई मिशनरियों के जीवनगाथाओं से प्रभावित थीं। सपने बुनने वाली किशोरावस्था के दौर में मदर टेरेसा के मन में कुछ अलग ही सपना पल रहा था और 12 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपना जीवन धर्म के नाम करने का संकल्प कर लिया। धर्म की राह पर चलने का उनका यह संकल्प आने वाले सालों में और सुदृढ़ होता गया तथा आखिरकार 18 साल की उम्र में वह सिस्टर्स आफ लारेटो में मिशनरी के रूप में शामिल हो गईं।
सिस्टर्स आफ लारेटो में आने के बाद मदर टेरेसा को अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए आयरलैंड जाना पड़ा। मदर टेरेसा ने अपनी कर्म भूमि भारत में 1929 में कदम रखा और शुरू में वह दार्जीलिंग में बच्चों को पढ़ाने का काम करती रहीं। उन्होंने 24 मई 1931 को नन के रूप में धार्मिक शपथ ली। मदर टेरेसा ने 1931 से 1948 के बीच कोलकाता के सेंट मैरी स्कूल में शिक्षण का काम किया। लेकिन उनका भावुक मन इस दौरान विद्यालय परिसर के बाहर हो रही घटनाओं को लेकर बुरी तरह पीडि़त होता रहा जिनमें 1943 का अकाल और 1946 के सांप्रदायिक दंगे शामिल हैं। पीडि़त मानवता की पुकार को मदर टेरेसा अधिक देर तक अनसुनी नहीं कर पाईं और आखिरकार 1948 से उन्होंने समाज सेवा और मलिन बस्तियों के बच्चों और बेसहारा लोगों की सेवा का काम शुरू कर दिया। इस संबंध में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा− आपको केवल दुनिया से कहना भर है सब चीजें फिर से आपकी हो जायेंगी। प्रलोभन लगातार आवाज दे रहे थे, मुक्त निर्णय से मेरे प्रभु और आपके (मनुष्य प्रेम) प्यार के कारण मैं सिर्फ वही आकांक्षा करूंगी और वही काम करूंगी जो इस संबंध में परम पवित्र की इच्छा हो। मैं एक भी आंसू गिरने नहीं दूंगी। मदर टेरेसा को सात अक्तूबर 1950 को वेटिकन से मिशनरीज आफ चैरिटी नामक अपनी संगत शुरू करने की इजाजत मिल गई। कलकत्ता में मात्र 13 सदस्यों के साथ शुरू की गई इस संस्था के आज दुनिया भर में करीब दस लाख से अधिक कार्यकर्ता हैं।
मदर टेरेसा ने 1952 में मृत्यु के कगार पर खड़े रोगियों की देखभाल और मृत्यु के बाद उनका सम्मानजनक ढंग से अंतिम संस्कार करने के लिए निर्मल हृदय नामक केन्द्र खोला। इसी प्रकार 1955 में उन्होंने बेसहारा और अनाथ बच्चों के लिए निर्मल शिशु सदन खोला। उन्हें पीडि़त मानवता की सेवा के लिए 1979 में नोबेल पुरस्कार तथा 1980 में भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न प्रदान किया गया। मदर टेरेसा की स्वास्थ्य की खराबी का दौर 1983 से ही शुरू हो गया था जब रोम में पहली बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। लेकिन उन्होंने पीडि़त मानवता की सेवा में कभी भी अपने स्वास्थ्य को बाधा नहीं बनने दिया। उन्होंने 13 मार्च 1997 को मिशनरीज आफ चैरिटी के प्रमुख पद को त्यागा और इसके कुछ ही महीनों बाद पांच सितंबर 1997 को संक्षिप्त बीमारी के बाद उनकी देह शांत हो गई।
निधन के बाद 19 अक्तूबर 2003 में रोम के कैथोलिक चर्च ने उन्हें धन्य घोषित करके मदर ब्लेस्ड की उपाधि दी। वर्ष 2002 में पश्चिम बंगाल की महिला मोनिका बेसरा ने दावा किया था कि मदर टेरेसा के चित्र वाला लाकेट पहनने के कारण उसका ट्यूमर दूर हो गया। चमत्कार की इसी घटना के कारण उन्हें धन्य घोषित किया गया। कैथोलिक चर्च के नियमों के अनुसार मदर टेरेसा को संत घोषित करने के लिए इसी प्रकार के एक और चमत्कार की घटना की जरूरत है। चर्च अपने रीति रिवाजों के कारण भले ही मदर टेरेसा को चाहे जब संत घोषित करे ले
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