समर्पित सचिव
महादेव भाई देसाई महात्मा गांधी के पास आए। उस समय वह युवा थे और कुछ नया करने के जोश से भरे हुए थे। उन्होंने गांधी जी से कहा, 'मैंने आपके गुजराती भाषण का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। कृपया जांच लंे, यह ठीक है या नहीं? मैं आपकी सेवा में रहना चाहूंगा। अगर आप ठीक समझें तो मुझे अपने साथ कार्य करने का अवसर दें।' गांधी जी ने लेख पढ़ने से पहले ही महादेव को स्वीकृति दे दी। गांधी जी बोले, 'ठीक है, तुम जैसा चाहते हो वैसा ही होगा।'
गांधीजी ने उन्हें अपने सचिव के पद पर रख लिया। गांधी जी के सचिव के रूप में नियुक्ति बहुत बड़ी बात थी। महादेव भाई काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने उत्साहित होकर पूछा, 'कब से काम शुरू करूं?' गांधी जी बोले, 'बस अभी से शुरू कर दो।' इस पर महादेव भाई बोले, 'लेकिन मेरे पास तो कुछ काम है। मुझे जाना होगा। मैं चाहता हूं कि घर पर सूचना दे आऊं।'
गांधी जी ने कहा, 'अब तुम घर नहीं जाओगे। अपने आप को देश की सेवा में समर्पित करने वालों को सब कुछ छोड़ना होता है। अपने अतीत से चिपके रहोगे तो समर्पण कैसे कर पाओगे।' महादेव भाई गांधी जी का आशय समझ गए। उन्होंने उसी समय से अपना काम संभाल लिया। उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने खुद को एक योग्य सचिव साबित किया। गांधी जी अपने निर्णयों में उनकी सलाह लेते रहते थे। इस तरह महादेव भाई ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने तरीके से योगदान किया। उनकी डायरी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
सहनशीलता का पाठ
राजा अपने दरबार में बैठे थे। तभी दरबारियों ने एक संत की चर्चा छेड़ दी। उन्होंने बताया कि वह संत केवल काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं और उनकी सहनशीलता की कोई सीमा नहीं है। वह बड़े - छोटे , अमीर - गरीब सभी के साथ समान व्यवहार करते हैं। राजा ने जब यह सुना तो वह उस ज्ञानी संत से मिलने को उत्सुक हो उठे। वह उनसे मिलने उनके आश्रम में जा पहुंचे। संत ने राजा के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जैसा वह आश्रम में आने वाले अन्य लोगों के साथ कर रहे थे।
राजा ने संत से पूछा , ' आप हमेशा काले वस्त्र ही क्यों धारण करते हैं ?' राजा का प्रश्न सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले , ' पुत्र , मैंने अपने अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , ईर्ष्या , लोभ , मोह आदि को मार डाला है। इसलिए मैं उन्हीं के शोक में काले वस्त्र धारण करता हूं। ' यह रोचक जवाब सुनकर सब हंस पड़े और संत से अभिभूत भी हुए। राजा की जिज्ञासा थोड़ी और बढ़ी। उन्होंने सोचा कि क्यों न इस संत की परीक्षा ली जाए। उन्होंने संत को अपने महल में बुलवाया। संत के पहुंचने पर राजा के सेवकों ने उन्हें धक्के मार कर बाहर निकाल दिया।
उसके कुछ देर बाद उन्होंने संत को एक बार फिर वापस बुलवाया लेकिन उन्हें फिर उसी तरह बाहर कर दिया गया। यह क्रम कई बार चला। हर बार संत सहज भाव से फिर आ खड़े होते। उनके चेहरे पर क्रोध की मामूली झलक भी नहीं दिखाई पड़ी। संत की सहनशीलता देखकर राजा उनके पैरों पर गिर पडे़ और उनसे क्षमा मांगते हुए बोले , ' आप सचमुच क्षमावान व सहनशील हैं और आपने वास्तव में मानव के अंतर्मन के मित्रों काम , क्रोध , लोभ , ईर्ष्या , मोह आदि पर विजय प्राप्त कर ली है। कृपया मुझे भी अपनी शरण में लेकर इन सब पर विजय पाने का कोई रास्ता बताइए ताकि मैं अपनी प्रजा का समुचित पालन कर सकूं । ' इसके बाद राजा संत से शिक्षा प्राप्त करने लगे।
बहुमूल्य रत्न
एक बार राजा कृष्णदेव के निमंत्रण पर भक्त पुरंदर दास राजमहल में पधारे। जाते समय राजा ने दो मुट्ठी चावल उनकी झोली में डालते हुए कहा, 'महाराज, इस छोटी सी भेंट को स्वीकार करें।' राजा ने बड़ी चतुराई से इन चावलों में कुछ हीरे मिला दिए थे। पुरंदर दास की पत्नी ने घर पर चावल साफ करते समय देखा कि उनमें कुछ बहुमूल्य रत्न भी हैं, तो उन्होंने उन्हें अलग करके कूड़ेदान में फेंक दिया।
उसके बाद पुरंदर दास को प्राय: रोज ही किसी न किसी कारण से दरबार में आना पड़ा। राजा रोज ही उन्हें दो मुट्ठी चावल के साथ हीरे मिलाकर देते और मन में यही सोचते कि यह ब्राह्मण भी धन के लालच से मुक्त नहीं है। एक दिन राजा ने कहा, 'लालच मनुष्य को आध्यात्मिक उपलब्धियों से दूर कर देता है। आप स्वयं ही अपने विषय में विचार करें।' राजा की यह बात सुनकर पुरंदर दास को बेहद दुख हुआ।
वह अगले दिन राजा को अपना घर दिखाने ले गए। उस समय पुरंदर दास की पत्नी चावल साफ कर रही थीं। राजा ने पूछा, 'देवी, आप क्या कर रही हैं?' वह बोलीं, 'महाराज, कोई व्यक्ति भिक्षा के चावल के साथ कुछ पत्थर मिलाकर हमें देता है। वैसे वे बहुमूल्य रत्न हैं, लेकिन हमारे लिए इनका कोई मूल्य नहीं है। अन्न तो खाना ही है, इसलिए उन्हें निकाल कर अलग कर रही हूं।' राजा ने अपने उन सभी बहुमूल्य रत्नों को कूड़ेदान में पड़े देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। फिर उस भक्त दंपती के चरणों में गिर कर उन्होंने अपने आरोप के लिए क्षमा मांगी। पुरंदर दास और उनकी पत्नी ने उन्हें अपने सहज स्वभाव के अनुसार क्षमा कर दिया।
सबसे बड़ा उपहार
बगदाद का बादशाह बेहद उदार व दयालु था। वह निर्धनों की सहायता में हर समय लगा रहता था। बगदाद से थोड़ी दूर एक गांव में एक गरीब परिवार रहता था। वह किसी तरह रूखा-सूखा खाकर अपना गुजारा करता था।
एक दिन पत्नी ने पति से कहा, 'तुम देख रहे हो कि हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। तुम्हें ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि कम से कम दोनों समय पेट भर भोजन तो मिल सके।' पति बोला, 'तुम्हारा कहना सही है, पर संसार में किसी की हालत हमेशा एक जैसी नहीं रहती। अमीरी और गरीबी दोनों धूप-छांव की तरह आती-जाती रहती हैं। मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण धन संतोष है। निश्चिंत रहो, समय पर सब कुछ ठीक हो जाएगा।'
पत्नी ने झुंझला कर कहा, 'तुम हमेशा यही बोलते रहते हो। मेरी बात मानो। बगदाद का बादशाह बहुत दानी है। जो उसके पास जाता है, उसे वह खुले हाथों दान देता है। तुम जल्दी ही बगदाद के लिए रवाना हो जाओ।' पति ने कहा, 'बात तो तुम्हारी ठीक है, पर बादशाह के पास खाली हाथ भी नहीं जाया जाता। उसके लिए क्या उपहार ले जाऊं?'
पत्नी ने कहा, 'बादशाह के खजाने में हीरे-मोती हो सकते हैं, पर हमारे यहां का पानी वहां मिलना कठिन है। हमारा पानी मीठा व सुस्वादु है। इसे ही उपहार के रूप में ले जाओ।' पति ने पहले तो मना किया पर पत्नी के जोर देने पर शीतल जल से भरी मशक लेकर बादशाह के पास पहुंचा। बादशाह ने प्रसन्न होकर उसके मशक को उपहार के रूप में स्वीकार किया और उस पानी को बर्तन में खाली करवा कर उसकी मशक अशर्फियों से भरकर उसे वापस दे दी। जब पति घर पहुंचा तो पत्नी बोली, 'महान लोग यह नहीं देखते कि उपहार कितना बड़ा या कीमती है। वे तो सिर्फ भेंट देने वाले का मन पढ़ते हैं। वे देखते हैं उसका मन कितना शुद्ध है। शुद्ध मन ही सबसे बड़ा उपहार है।'
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