संगति का फल
ओमप्रकाश बंछोर
पुराने समय की बात है। एक राज्य में एक राजा था। किसी कारण से वह अन्य गाँव में जाना चाहता था। एक दिन वह धनुष-बाण सहित पैदल ही चल पड़ा। चलते-चलते राजा थक गया। अत: वह बीच रास्ते में ही एक विशाल पेड़ के नीचे बैठ गया। राजा अपने धनुष-बाण बगल में रखकर, चद्दर ओढ़कर सो गया। थोड़ी ही देर में उसे गहरी नींद लग गई।
उसी पेड़ की खाली डाली पर एक कौआ बैठा था। उसने नीचे सोए हुए राजा पर बीट कर दी। बीट से राजा की चादर गंदी हो गई थी। राजा खर्राटे ले रहा था। उसे पता नहीं चला कि उसकी चादर खराब हो गई है।
कुछ समय के पश्चात कौआ वहाँ से उड़कर चला गया और थोड़ी ही देर में एक हंस उड़ता हुआ आया। हंस उसी डाली पर और उसी जगह पर बैठा, जहाँ पहले वह कौआ बैठा हुआ था अब अचानक राजा की नींद खुली। उठते ही जब उसने अपनी चादर देखी तो वह बीट से गंदी हो चुकी थी।
राजा स्वभाव से बड़ा क्रोधी था। उसकी नजर ऊपर वाली डाली पर गई, जहाँ हंस बैठा हुआ था। राजा ने समझा कि यह सब इसी हंस की ओछी हरकत है। इसी ने मेरी चादर गंदी की है।
क्रोधी राजा ने आव देखा न ताव, ऊपर बैठे हंस को अपना तीखा बाण चलाकर, उसे घायल कर दिया। हंस बेचारा घायल होकर नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा। वह तड़पते हुए राजा से कहने लगा-
'अहं काको हतो राजन्!
हंसाऽहंनिर्मला जल:।
दुष्ट स्थान प्रभावेन,
जातो जन्म निरर्थक।।'
अर्थात हे राजन्! मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया, तुमने मुझे अपने तीखे बाणों का निशाना बनाया है? मैं तो निर्मल जल में रहने वाला प्राणी हूँ? ईश्वर की कैसी लीला है। सिर्फ एक बार कौए जैसे दुष्ट प्राणी की जगह पर बैठने मात्र से ही व्यर्थ में मेरे प्राण चले जा रहे हैं, फिर दुष्टों के साथ सदा रहने वालों का क्या हाल होता होगा?
हंस ने प्राण छोड़ने से पूर्व कहा - 'हे राजन्! दुष्टों की संगति नहीं करना। क्योंकि उनकी संगति का फल भी ऐसा ही होता है।' राजा को अपने किए अपराध का बोध हो गया। वह अब पश्चाताप करने लगा।
सौजन्य से - देवपुत्र
बुधवार, 17 नवंबर 2010
कहानी
बच्चे की बात में ख़ुशी का राज
Bhaskar
एक बच्चे के स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे। उसे नाटक में हिस्सा लेने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन भूमिकाएं कम थीं और उन्हें निभाने के इच्छुक विद्यार्थी बहुत Êयादा थे। सो, शिक्षक ने बच्चों की अभिनय क्षमता परखने का निर्णय लिया। इस बच्चे की मां उसकी गहरी इच्छा के बारे में जानती थी, साथ ही डरती भी थी कि उसका चयन न हो पाएगा, तो कहीं उस नन्हे बच्चे का दिल ही न टूट जाए।
बहरहाल, वह दिन भी आ गया। सभी बच्चे अपने अभिभावकों के साथ पहुंचे थे। एक बंद हॉल में शिक्षक बच्चों से बारी-बारी संवाद बुलवा रहे थे। अभिभावक हॉल के बाहर बैठे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
घंटे भर बाद दरवाजा खुला। कुछ बच्चे चहकते हुए और बाक़ी चेहरा लटकाए हुए, उदास-से बाहर आए। वह बच्च दौड़ता हुआ अपनी मां के पास आया। उसके चेहरे पर ख़ुशी और उत्साह के भाव थे। मां ने राहत की सांस ली। उसने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ, अभिनय करने की बच्चे की इच्छा पूरी हो रही है।
वह परिणाम के बारे में पूछती, इतने में बच्च ख़ुद ही बोल पड़ा, ‘जानती हो मां, क्या हुआ?’ मां ने चेहरे पर अनजानेपन के भाव बनाए और उसी मासूमियत से बोली, ‘मैं क्या जानूं! तुम बताओगे, तब तो मुझे पता चलेगा।’
बच्च उसी उत्साह से बोला, ‘टीचर ने हम सभी से अभिनय कराया। मैं जो रोल चाहता था, वह तो किसी और बच्चे को मिल गया। लेकिन मां, जानती हो, मेरी भूमिका तो नाटक के किरदारों से भी बड़ी मजेदार है।’ मां को बड़ा आश्चर्य हुआ। बच्च बोला, ‘अब मैं ताली बजाने और साथियों का उत्साह बढ़ाने का काम करूंगा!’
Bhaskar
एक बच्चे के स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे। उसे नाटक में हिस्सा लेने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन भूमिकाएं कम थीं और उन्हें निभाने के इच्छुक विद्यार्थी बहुत Êयादा थे। सो, शिक्षक ने बच्चों की अभिनय क्षमता परखने का निर्णय लिया। इस बच्चे की मां उसकी गहरी इच्छा के बारे में जानती थी, साथ ही डरती भी थी कि उसका चयन न हो पाएगा, तो कहीं उस नन्हे बच्चे का दिल ही न टूट जाए।
बहरहाल, वह दिन भी आ गया। सभी बच्चे अपने अभिभावकों के साथ पहुंचे थे। एक बंद हॉल में शिक्षक बच्चों से बारी-बारी संवाद बुलवा रहे थे। अभिभावक हॉल के बाहर बैठे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
घंटे भर बाद दरवाजा खुला। कुछ बच्चे चहकते हुए और बाक़ी चेहरा लटकाए हुए, उदास-से बाहर आए। वह बच्च दौड़ता हुआ अपनी मां के पास आया। उसके चेहरे पर ख़ुशी और उत्साह के भाव थे। मां ने राहत की सांस ली। उसने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ, अभिनय करने की बच्चे की इच्छा पूरी हो रही है।
वह परिणाम के बारे में पूछती, इतने में बच्च ख़ुद ही बोल पड़ा, ‘जानती हो मां, क्या हुआ?’ मां ने चेहरे पर अनजानेपन के भाव बनाए और उसी मासूमियत से बोली, ‘मैं क्या जानूं! तुम बताओगे, तब तो मुझे पता चलेगा।’
बच्च उसी उत्साह से बोला, ‘टीचर ने हम सभी से अभिनय कराया। मैं जो रोल चाहता था, वह तो किसी और बच्चे को मिल गया। लेकिन मां, जानती हो, मेरी भूमिका तो नाटक के किरदारों से भी बड़ी मजेदार है।’ मां को बड़ा आश्चर्य हुआ। बच्च बोला, ‘अब मैं ताली बजाने और साथियों का उत्साह बढ़ाने का काम करूंगा!’
बकरीद
क्यों मनाते हैं बकरीद?
बकरीद को इस्लाम में बहुत ही पवित्र त्योहार माना जाता है। इस्लाम में एक वर्ष में दो ईद मनाई जाती है। एक ईद जिसे मीठी ईद कहा जाता है और दूसरी है बकरीद।
बकरीद पर अल्लाह को बकरे की कुर्बानी दी जाती है। पहली ईद यानी मीठी ईद समाज और राष्ट्र में प्रेम की मिठास घोलने का संदेश देती है।
दूसरी ईद अपने कर्तव्य के लिए जागरूक रहने का सबक सिखाती है। राष्ट्र और समाज के हित के लिए खुद या खुद की सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का संदेश देती है। बकरे की कुर्बानी तो प्रतीक मात्र है, यह बताता है कि जब भी राष्ट्र, समाज और गरीबों के हित की बात आए तो खुद को भी कुर्बान करने से नहीं हिचकना चाहिए।
कुर्बानी का मतलब है दूसरों की रक्षा करना
कोई व्यक्ति जिस परिवार में रहता है, वह जिस समाज का हिस्सा है, जिस शहर में रहता है और जिस देश का वह निवासी है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह अपने देश, समाज और परिवार की रक्षा करें। इसके लिए यदि उसे अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देना पड़े तब भी वह पीछे ना हटे।
तीन हिस्से किए जाते हैं कुर्बानी के...
इस्लाम में गरीबों और मजलूमों का खास ध्यान रखने की परंपरा है। इसी वजह से ईद-उल-जुहा पर भी गरीबों का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस दिन कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। इन तीनों हिस्सों में से एक हिस्सा खुद के लिए और शेष दो हिस्से समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों का बांटा दिया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि पैगम्बर हजरत को अल्लाह ने हुक्म दिया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बान मेरे लिए कुर्बान कर दो। पैगंबर साहब को अपना इकलौता बेटा इस्माइल सबसे अधिक प्रिय था। खुदा के हुक्म के अनुसार उन्होंने अपने प्रिय इस्माइल को कुर्बान करने का मन बना लिया। इस बात से इस्माइल भी खुश था वह अल्लाह की राह में कुर्बान होगा।
बकरीद के दिन ही जब कुर्बानी का समय आया तब इस्माइल की जगह एक दुम्बा कुर्बान हो गया। अल्लाह ने इस्माइल को बचा लिया और पैगंबर साहब की कुर्बानी कबुल कर ली। तभी से हर साल पैगंबर साहब द्वारा दी गई कुर्बानी की याद में बकरीद मनाई जाने लगी।
बकरीद को इस्लाम में बहुत ही पवित्र त्योहार माना जाता है। इस्लाम में एक वर्ष में दो ईद मनाई जाती है। एक ईद जिसे मीठी ईद कहा जाता है और दूसरी है बकरीद।
बकरीद पर अल्लाह को बकरे की कुर्बानी दी जाती है। पहली ईद यानी मीठी ईद समाज और राष्ट्र में प्रेम की मिठास घोलने का संदेश देती है।
दूसरी ईद अपने कर्तव्य के लिए जागरूक रहने का सबक सिखाती है। राष्ट्र और समाज के हित के लिए खुद या खुद की सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का संदेश देती है। बकरे की कुर्बानी तो प्रतीक मात्र है, यह बताता है कि जब भी राष्ट्र, समाज और गरीबों के हित की बात आए तो खुद को भी कुर्बान करने से नहीं हिचकना चाहिए।
कुर्बानी का मतलब है दूसरों की रक्षा करना
कोई व्यक्ति जिस परिवार में रहता है, वह जिस समाज का हिस्सा है, जिस शहर में रहता है और जिस देश का वह निवासी है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह अपने देश, समाज और परिवार की रक्षा करें। इसके लिए यदि उसे अपनी सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देना पड़े तब भी वह पीछे ना हटे।
तीन हिस्से किए जाते हैं कुर्बानी के...
इस्लाम में गरीबों और मजलूमों का खास ध्यान रखने की परंपरा है। इसी वजह से ईद-उल-जुहा पर भी गरीबों का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस दिन कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। इन तीनों हिस्सों में से एक हिस्सा खुद के लिए और शेष दो हिस्से समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों का बांटा दिया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि पैगम्बर हजरत को अल्लाह ने हुक्म दिया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बान मेरे लिए कुर्बान कर दो। पैगंबर साहब को अपना इकलौता बेटा इस्माइल सबसे अधिक प्रिय था। खुदा के हुक्म के अनुसार उन्होंने अपने प्रिय इस्माइल को कुर्बान करने का मन बना लिया। इस बात से इस्माइल भी खुश था वह अल्लाह की राह में कुर्बान होगा।
बकरीद के दिन ही जब कुर्बानी का समय आया तब इस्माइल की जगह एक दुम्बा कुर्बान हो गया। अल्लाह ने इस्माइल को बचा लिया और पैगंबर साहब की कुर्बानी कबुल कर ली। तभी से हर साल पैगंबर साहब द्वारा दी गई कुर्बानी की याद में बकरीद मनाई जाने लगी।
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